निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग -11

आज का हिन्दी उपन्यास विश्व की किसी भी भाषा के उपन्यास-साहित्य के समक्ष रखा जा सकता है। कलात्मक प्रौढ़ता और विषय-विविधता की दृष्टि से हिन्दी उपन्यास को गौरवमयी परम्परा प्रदान करने में प्रेमचन्द का योगदान सर्वप्रमुख है। उन्होंने अपने भौतिक अनुभवों और प्रखर चिंतन से हिन्दी उपन्यास को कीर्ति के उच्चतम शिखर तक पहुंचाया है।

प्रेमचंद हिन्दी उपन्यास का गौरव है।

प्रेमचंद ने अपने प्रथम उपन्यास ‘रूठी रानी’ से लेकर मंगलसूत्र तक एक लम्बी यात्रा तय की। इस यात्रा में उनका उपन्यास ‘गोदान’ ऐसा पड़ाव है – जिसने हिन्दी उपन्यास विधा में सृजनशीलता के नए आयाम उपस्थित किए। उनकी कृतियों में ‘कृष्ण’, ‘वरदान’, ‘प्रेमा’ और ‘श्यामा’ आदि उल्लेखनीय है। इनमें कुछ कृतियां उपलब्ध नहीं है। इन प्रारम्भिक कृतियों के अतिरिक्त प्रेमचंद की एक अन्य महत्त्वपूर्ण कृति ‘सेवासदन’ है जिसका प्रकाशन 1918 में हुआ था। यह उपन्यास हिन्दी-कथा-साहित्य में युग-प्रवर्तक है। इसमें लेखक ने मध्यवर्गीय जीवन की कुछ ज्वलन्त समस्याओं को उठाया है। प्रसिद्ध समीक्षक डॉक्टर प्रताप नारायण टंडन का कहना है : समाज के विभिन्न वर्गों के नैतिक पतन के फलस्वरूप जो दुष्परिणाम सामने आते हैं, उनकी ओर संकेत करते हुए लेखक ने उनके मूल कारणों पर भी प्रकाश डाला है। जहां तक कथानक का संबंध है, लेखक ने बहुत ही सुगठित रूप में उसका संयोजन किया है। दहेज प्रथा, बेमेल विवाह तथा वेश्या समस्या आदि पर लेखक ने जो विचार इस कृति में प्रस्तुत किये हैं, वे उसके प्रगतिशील दृष्टिकोण के परिचायक हैं। वस्तुतः प्रेमचंद का प्रत्येक उपन्यास विकासोन्मुख तत्वों का प्रतीक है। ‘वरदान’, ‘प्रेमाश्रम’, रंगभूमि’, ‘कायाकल्प’, ‘निर्मला’, ‘गबन’, ‘प्रतिज्ञा’, ‘कर्मभूमि’, ‘गोदान’ और ‘मंगलसूत्र’ इसके प्रमाण हैं।

वस्तु स्थिति तो यह है कि उनके उपन्यास जहां एक ओर सामाजिक कुरीतियों, विडम्बनाओं और आर्थिक विषमताओं पर करारी चोट करते हैं, वहां दूसरी ओर वे भारतीय जन-जीवन की अस्मिता की खोज भी करते हैं।

प्रेमचंद की प्रत्येक कृति जन-जीवन का दर्पण है। उन्होंने अपनी विभिन्न औपन्यासिक कृतियों के लिए जो कथानक चुने हैं, उनका आधार भारतीय शहरी और ग्रामीण समाज के विविध वर्ग हैं। वस्तुतः प्रेमचंद ने भारतीय किसान जीवन के समग्र यथार्थ का चित्रण किया है। उन्होंने सिर्फ किसानों के आर्थिक शोषण का ही वर्णन नहीं किया है। अपने साहित्य में उन्होंने भारतीय किसान की एक बोधगम्य पहचान कायम करने का प्रयास किया है। किसान की इस बोधगम्य पहचान को उपस्थित करने के लिए उसे उन्होंने उसके सामाजिक सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है, प्रेमचंद का किसान सिर्फ स्वाधीनता आन्दोलन में हिस्सा ही नहीं लेता, सिर्फ जमींदार, महाजन या नौकरशाही से संघर्ष करता और उसके जुल्म सहता हुआ ही दिखाई नहीं देता, बल्कि परिवार में, बिरादरी में, सहयोगियों के साथ व्यवहार करता हुआ भी हमारे सामने आता है। जीवन किस मंथर गति से चलता है, इसे लेखक ने अनदेखा नहीं किया है। हालांकि प्रेमचंद मानते हैं कि ऐसे दुर्लभ क्षण किसान-जीवन में बहुत ही कम आते हैं। तो भी ऐसे क्षणों का महल उसके जीवन में बहुत होता है।

प्रेमचंद समाज में सुधार चाहते हैं। लेकिन सुधार की उनकी परिकल्पना आदर्शमूलक है, क्रांतिधर्मी नहीं। उनके पात्र स्वाधीनता के लिए संघर्ष करते हैं, पर यहां भी वह गांधीजी के अहिंसा सिद्धांत का मन-वचन से पालन करते हैं। उनके प्रारम्भिक उपन्यासों की परम्परा विगत शताब्दी के उपन्यासों से प्रभावित और सम्बद्ध प्रतीत होती है।

प्रेमचन्द एक सजग और सचेत लेखक थे। वे एक ऐसे समाज की संरचना करना चाहते थे जिसमें सबके लिए सम्मानपूर्वक जीवन जीने की राहें खुल सकें। उन्होंने एक लेखक के नाते अपने इस दायित्व को पहचाना। ‘साहित्य का उद्देश्य’ नामक अपने निबंध में उनका कहना है: ‘साहित्यकार का उद्देश्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है – उसका दर्जा इतना न गिराइए। वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने बाली सच्चाई भी नहीं है, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली-सच्चाई है।’ शायद इसीलिए राजनीति के एक खोखले पक्ष पर चोट करते हुए उन्होंने ‘गोदान’ में कहा – ‘वोट नए युग का मायाजाल है, मरीचिका है, कलंक है, धोखा है।’

सुप्रसिद्ध कथाकार अमृतराय ने प्रेमचन्द के बारे में एक अत्यन्त सारगर्भित बात कही है – ‘प्रेमचन्द के उपन्यास समकलीन संदर्भों की कसौटी पर भी खरे उतरते हैं। इसका कारण बहुत सीधा-सा है। प्रेमचन्द ने जिस भारत का अपनी रचनाओं में चित्रण किया है बह कमोबेश अब भी वही है। प्रेमचन्द का हमारे लिए आज भी उतना ही प्रासंगिक होने के पीछे सबसे बड़ी खूबी यही है कि लोगों का उनसे घनिष्ठ संबंध था। चूंकि बह संबंध उन्हीं लोगों का एक अंग होने के नाते था, इसलिए यह गतिशील भी था। प्रेमचन्द इसी गतिशीलता के कारण हमारे समय में भी जीवित है।’

वस्तुतः सृजन के क्षेत्र में सतत् गतिशीलता ही किसी रचनाकार को महानता के धरातल पर स्थापित करती है। साहित्य में जीवन की यही प्रवृत्ति उसे कालखंड की सीमाओं से निकाल कर अमरता प्रदान करती है। प्रेमचन्द ही ऐसे गतिशील रचनाकार हैं जो आगत युगों में भी प्रासंगिक रहेंगे। वे रूस के मैक्सिम गोर्की और चीन के तुशून की तरह अमर साहित्यकार हैं।

प्रस्तुत उपन्यास उनकी व्यापक संवेदना से प्लावित एक अमरकृति है जो हम अपने पाठकों को समर्पित कर रहे हैं।

भाग 1 –निर्मला

प्रकाशित:

भाग 2 – निर्मला

प्रकाशित:

भाग 3निर्मला

प्रकाशित:

भाग 4 – निर्मला

प्रकाशित:

भाग 5 –निर्मला

प्रकाशित:

भाग 6 – निर्मला

प्रकाशित:

भाग 7 – निर्मला

प्रकाशित:

भाग 8 – निर्मला

प्रकाशित:

भाग 9 – निर्मला

प्रकाशित:

भाग 10 – निर्मला

प्रकाशित:

भाग 11 – निर्मला

प्रकाशित:

भाग 12 निर्मला

प्रकाशित:

भाग 13 – निर्मला

प्रकाशित:

भाग 14 निर्मला

प्रकाशित:

भाग 15 –निर्मला

प्रकाशित:

भाग 16 निर्मला

प्रकाशित:

भाग 17 – निर्मला

प्रकाशित:

भाग 18 निर्मला

प्रकाशित:

भाग 19- निर्मला

प्रकाशित:

भाग 20 निर्मला

प्रकाशित:

भाग 21-निर्मला

प्रकाशित:

भाग 22 निर्मला

प्रकाशित:

भाग 23-निर्मला

प्रकाशित:

भाग 24 – निर्मला

प्रकाशित:

भाग 25निर्मला

प्रकाशित:

भाग 26 – निर्मला

प्रकाशित:

भाग 27-निर्मला

प्रकाशित:

भाग 28 –निर्मला

प्रकाशित:

भाग 29- निर्मला

प्रकाशित:

भाग 30 – निर्मला

प्रकाशित:

भाग 31-निर्मला

प्रकाशित: