hot story in hindi- prem ki pyasi प्यार की खुशबू - राजेन्द्र पाण्डेय
प्यार की खुशबू -

जब मैं सड़क पर आई तो ठंडी और ताजी हवा के स्पर्श मात्र से ही मुस्करा पड़ी तभी मेरी नजर एक ज्योतिष-केन्द्र पर पड़ी तो वहाँ जाने से मैं खुद को रोक न सकी।

अपने आप ही मेरे कदम उधर बढ़ गए। मैंने देखा, वहाँ भीड़ नहीं थी। वैसे तो ज्योतिष पर मुझे विश्वास नहीं था, पर अब थोड़ा-थोड़ा यकीन होने लगा था। मेरे खयाल से व्यक्ति ज्योतिष, ईश्वर, मंदिर आदि पर तभी विश्वास करता है, जब उसके सामने अपनी रक्षा का कोई अन्य उपाय नहीं होता है। वह चारों तरफ से निराश हो जाता है। मेरी स्थिति कुछ ऐसी ही थी। ईश्वर के प्रति अगाध प्रेम मन में उमड़ आया था।

जैसे ही मैं उस ज्योतिष केन्द्र में दाखिल हुई, ज्योतिषी मुस्करा कर बोला-‘आइए…आइए! मैं देख रहा हूँ आपका जीवन काफी मुसीबतों से गुजर रहा है।’

ज्योतिष के प्रति मेरी श्रद्धा और भी बढ़ गई। कोई जान न पहचान और मुझे देखते ही उसने सच्चाई बता दी थी। मैंने कहा- ‘पंडित जी, क्या हाथ की रेखा भी देखते हैं आप?’

‘मैं सिर्फ हाथ ही नहीं, बल्कि मस्तक की रेखाएं भी देखता हूँ। आपके मस्तक की रेखाएं बता रही हैं कि आपका दैहिक-संबंध अनेक पुरुषों से रहा है। पहले आपको इसमें रुचि थी, पर अब नहीं है। आप चरित्र की ठीक नहीं हैं, पर मन की बहुत अच्छी हैं। ज्योतिषी के यह कहते ही मैंने हाथ उसके आगे बढ़ा दिया- ‘पंडित जी, आप तो मेरे बारे में बहुत कुछ जानते हैं।’

हस्तरेखाओं पर नजर डालते हुए ज्योतिष बोला- ‘आपके हाथ से कई लोगों का खून हुआ है, लेकिन इसमें आपका कोई दोष नहीं रहा है। आपने जान-बूझकर वे खून नहीं किए, बल्कि दूसरों की भलाई के लिए आपने कत्ल किए हैं। आप पर मुकदमा चल रहा है। पुलिस आपके पीछ पड़ी है। पुलिस आपको पकड़ने में जल्दी ही सफल होगी। आप किसी एक जगह टिक कर रहने वाली प्राणी नहीं हैं।’

ज्योतिष इतना कहकर मुझे एकटक घूरने लगा। फिर कहने लगा- ‘आपका पूरा जीवन संघर्षों की भेंट चढ़ जाएगा। आपका अंत कैसे होगा, यह मैं नहीं बता सकता। क्योंकि यह मेरे पेशे के खिलाफ है।’ ज्योतिषी चुप हो गया। मैं भी इससे अधिक कुछ जानना नहीं चाहती थी। जो भविष्य के गर्भ में था, उसको जान लेने के बाद तो जीवन सार्थकता ही समाप्त हो जाती है।

कुछ तो रहस्य व्यक्ति के सामने होने ही चाहिए। रहस्य, रोमांच, रोमांच ही तो जीवन है। मैंने पंडित जी को दो सौ रुपए दिए और ज्योतिष-केन्द्र से जाने के लिए उठ खड़ी हुई तभी पंडित जी ने टोक दिया। ‘मुझे पूछना तो नहीं चाहिए, लेकिन क्या करूँ आदत से मजबूर हूँ। क्या आप इसी शहर की रहने वाली है? और कौन-कौन है आपके परिवार में?’

‘हाँ मैं पिछले दो माह से इसी शहर में हैं। मेरे परिवार में कोई नहीं है। मैं ज्योतिष से नफरत करती थी. पर यह विद्या कितनी अमूल्य है। अच्छा, मैं फिर को मिलूंगी।’ इतना कहकर मैं जैसे ही दरवाजे की ओर बढ़ी, वह ज्योतिषी भी मेरे पीछे हो लिया। मैंने मुड़कर कहा- आप क्यों कष्ट कर रहे हैं?’

‘यह तो मेरा फर्ज बनता है। चलिए, मैं आपको कुछ दूर तक छोड़ दूं। आप इतनी खूबसूरत हैं, कि कौन नहीं आपके साथ कुछ पल बिताना चाहेगा। ज्योतिषी अचानक ही इतना बदल गया कि मैं आश्चर्यचकित रह गई- ‘ज्योतिष के इतने अच्छे जानकार व्यक्ति की कमजोरी भी खूबसूरत और युवा स्त्री है!’ मैं यही सोचती हुई बोली- ‘पंडित जी पराई स्त्री की प्रशंसा करना ठीक नहीं, यह तो आपको मालूम ही होगा। आप लौट जाइए।’

‘आप तो बुरा मान गई। जो चीज सुंदर होगी, उसी की तो प्रशंसा की जाएगी। देखिए, मैं अपनी पत्नी से अलग रह रहा हूँ। आपका इस संसार में कोई है नहीं, फिर हम दोनों साथ क्यों न रहें।’ ज्योतिषी यह कहते-कहते मेरे काफी नजदीक आ गया था। मैं सोच रही थी- ‘यह ज्योतिषी सच ही कह रहा है। साथ-साथ रहने में बुरा ही क्या है।

ज्योतिषी अकेलेपन से शायद ऊब गया है। मैं भी भागदौड़ की इस जिंदगी से जार-जार हो गई हूँ। यह तो मेरे अज्ञातवास का समय है। वैसे भी मेरा अधिकांश समय अय्याश और विलासी मर्दो के साथ गुजरा है। जब मैं एक ज्ञानी पुरुष के साथ रहेंगी तो शायद जीवन का अर्थ समझ में आ जाए।’ यही सोच कर मैं सहसा ही बोल पड़ी- ‘मैं कल से आपके साथ रहना शुरू कर दूंगी। अब तो आप लौट जाइए।’

ज्योतिष बहुत खुश हुआ और लौट गया।

फिर मैं अगली शाम को उस ज्योतिषी के यहाँ रहने के लिए आ गई। मेरी यह हार्दिक इच्छा थी, कि मैं यह जानूँ कि कर्मकांड के जानकार लोग कैसे होते हैं। दूसरों को उपदेश देने वाले खुद उसका पालन कितना करते हैं? ज्योतिषी ने कहा-‘आप बाथरूम में जाकर नहा-धोकर पवित्र हो जाइए, फिर हम कुछ ध्यान योग की बातें करेंगे।

मैं नहाने चली गई। कोई पंद्रह मिनट जब बाथरूम से निकली तो देखा, ज्योतिषी सिर्फ लंगोट पहने बैठा ध्यान मग्न है। मेरे पैरों की आहट से उसकी आँखें स्वतः ही खुल गई। वह मुस्कराकर बोला- ‘आप भी वस्त्र उतार ध्यान मग्न हो जाइए।’ यह सुनते ही मैं आश्चर्य से बोली-‘क्यों, वस्त्र उतारना क्या बहुत ही जरूरी है? ध्यान में तो ऐसे भी बैठा जा सकता है।’

‘नही देवी, वस्त्र ऊर्जा के प्रवाह को रोकते हैं, जिससे ध्यान से मन भटकता है। आप निर्वस्त्र हो जाइए।’ ज्योतिषी के शब्दों में खीझ और कठोरता थी। मैं थोड़ी तल्ख आवाज में बोली- ‘पंडित जी, मैं देख रही हूँ, आपका ध्यान में मन भटक गया है। आप ध्यान में लीन नहीं हो पा रहे हैं। आप तो इस समय मेरे साथ मानसिक सहवास कर रहे हैं। मैं ज्योतिष नहीं जानती, पर किसी के मनोभाव को पढ़ना अच्छी तरह जानती हूँ।

आप ज्योतिषी के अच्छे जानकार हैं, इसमें कोई शक नहीं, पर आपकी इंद्रियां भी आपके वश में हैं, इस पर मुझे शक है। किसी विद्या को जानना अलग बात है, और ध्यान-योग की मदद से स्वयं को साधन अलग बात है। बड़े-बड़े ज्ञानी मुनि भी स्त्री को सामने बैठाकर अपने शरीर को नहीं साध सके तो फिर आप मुझे अपने आगे निर्वस्त्र बैठाकर ध्यान-योग में लीन कैसे हो सकेंगे।’

मेरे यह कहते ही पंडित जी आसन से उठ खड़े हए और मेरे पैरों पर गिर पड़े-‘मैं अपनी पत्नी से अलग होकर ध्यान योग में लीन होने का अभ्यास कई सालों से कर रहा हूँ पर जाने क्यों मन नारी देह में ही जाकर घुल-मिल जाता है। तुम यदि चाही तो मेरी सामना का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।’

‘वह कैसे पंडित जी।’ यह कहकर मैं उसे घूरने लगी।

‘मुझे तृप्त कर… मेरी इंद्रियों को यौन-मुख का स्वाद चखाकर! तुम मेरे भटकाव को रोक सकती हो।’

‘लेकिन मैं ही इसका माध्यम क्यों बनूं? आप शादीशुदा हैं’ अपनी पत्नी को इसका माध्यम क्यों नहीं बनाते?’

‘वह कुरूप है और कुरूपता से मुझे नफरत है। मुझे तो तुम जैसी सैक्सी और खूबसूरत युवा स्त्री की तलाश है।’ पंडित जी यह कहकर मेरा मुँह देखने लगे। ‘आप तो ज्ञानी हैं। सैक्स का देह से संबंध होता है, मन से लगाव होता है। सौंदर्य से उसका क्या लेना-देना।’ ‘है लेना-देना! आँखों से ही सुंदरता और कुरूपता का बोध होता है, फिर सैक्स का जन्म होता है। जब सुंदर चीजें पसंद करती हैं, तो पर अपनी पसंद मन को बताती हैं और मन उनका इशारा पाते ही शरीर में उत्तेजना भरना शुरू कर देता है।

तुम्हारा खूबसूरत बदन मेरी आँखों को भा गया है। मेरा मन पिघल रहा है और शरीर में उत्तेजना, एक अजीब-सी गुदगुदी भर रही है। क्या मुझमें कोई कमी है, जो तुम मुझसे यौन-संबंध बनाने में सहम रही हो?’ पंडित जी के इतना कहते ही मेरी नजर अनायास ही सामने वाले कमरे की ओर चली गई। पंडित जी तिलमिलाते हुए उठे और उस कमरे का दरवाजा बंद कर दिया। मेरी खोजी निगाहें न जाने क्यों बार-बार उधर ही जाना पसंद कर रही थीं। पुरुषों के साथ रहते हुए कई साल हो गए थे।

उनके अनेकों रंग मुझे देखने को मिले थे। पंडित जी भी तो पुरुष ही थे। उन पर मेरा शक करना स्वाभाविक था। मैंने अपनी कमर पर हाथ फेरा। पिस्तौल सही-सलामत था। मैं बुदबुदाई- ‘आखिर उस कमरे में ऐसा क्या है, जो पंडित जी ने उठकर दवाजा बंद कर दिया? यह पंडित जानकार तो है, पर इसके साथ ही खतरनाक भी लगता है।

मुझे उस कमरे में जाकर देखना चाहिए, कि वहाँ ऐसा क्या है जिसे यह पंडित मुझसे छिपाना चाहता है।’ और यही सोचती हुई मैं उस कमरे की ओर बढ़ गई। पंडित जी ने उठकर मेरी बाँह पकड़ ली- ‘उस कमरे में जाने की कोशिश न करो। वहाँ बैठकर मैं तंत्र-विद्या की साधना करता हूँ।’

‘मैं उस कमरे में अवश्य जाऊँगी। आप मेरा हाथ छोड़ दीजिए।’ मैंने विरोध करते हुए कहा तो पंडित जी पसीना पोंछने लगे और गुस्सा करते हुए बोले- ‘मैं ज्योतिषी के साथ-साथ एक तांत्रिक भी हूँ। तुम्हें चाहूँ तो यदि तबाह कर सकता हूँ।’

‘आप मुझे तबाह करेंगे?’ यह करते हए मैंने पिस्तौल कमर से खींच लिया और उनकी तरफ तानते हुए कहा- ‘सारा तंत्र-मंत्र यहां आकर खत्म हो जाता है। मेरा रास्ता रोकने की कोशिश की तो तुम्हारा भी वही अंजाम होगा, जो मेरे जीवन में आने वाले अन्य पुरुषों का हुआ है। यह कहकर मैं कमरे में आ गई। अंदर घुसते ही मेरी नाक दुर्गध से भर गई जैसे मैं किसी मुर्दाघर में घुस आयी हूँ।

मैंने कमरे में चारों तरफ नजरें दौड़ाई तो एक प्लेट में मांस के टुकड़े दिखाई दे गए। मुझे आश्चर्य हुआ- ‘एक ज्योतिष और शास्त्रों का ज्ञाता पंडित माँस भी खाता है! जरूर यहाँ किसी की लाश छुपाकर रखी गई है।

तभी मैं कमरे के एक कोने में एक स्त्री की लाश देखकर चीख पड़ी। उसकी कमर के नीचे का हिस्सा कटा हुआ था। शायद प्लेट में रखा मांस उसी लाश का था। मैं बाहर आकर बोली- ‘ढोंगी पंडित, सच-सच बता, वह लाश किसकी है? तेरा उससे क्या रिश्ता था? तुमने झूठ बोलने की कोशिश की तो सारी गोलियाँ तेरी खोपड़ी में उतार दूंगी। यह कहते हुए मैंने उसकी खोपड़ी पर पिस्तौल का अलगा सिरा टिका दिया। पंडित थर-थर काँप रहा था। काँप भी तो गुस्से से मैं भी रही थी। पंडित सूखे होंठों पर जीभ फेरते हुए बोला- ‘वह लाश मेरी पत्नी की है। मैंने उसे जान से मार दिया है, ताकि उसे माँस तंत्र विद्या की साधना में इस्तेमाल कर सकूँ।’ मैं उसका माँस खाने के बाद तंत्र विद्या की साधना करता हूँ।’

‘ढोंगी तांत्रिक कोई भी विद्या पवित्र होती है। उसका अपवित्रता से कोई रिश्ता नहीं होता है। तुमने अपनी पत्नी को इसलिए मार दिया, कि तू दुनिया का महान तांत्रिक बन जाएगा। तू तांत्रिक बनकर किसका कल्याण करना चाहता है? अपना, समाज का या फिर अपने पुरुष अहं का?’ मैं बोल भी रही थी और क्रोध के मारे थर-थर काँप रही थी।

इतना करुण और वीभत्स दृश्य मैंने अपने जीवन में नहीं देखा था। आज भी पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी लोग तंत्र साधना के नाम पर अपनी पत्नी तक का भी कत्ल करने में संकोच नहीं करते है! यह मेरी सोच के बाहर की बात थी। तभी वह पंडित मुझे घुरते हुए कहने लगा- ‘वह इसका विरोध करती थी। मुझे अंधाविश्वासी और ढोंगी कहकर कर अपमान करती थी। तब मैंने सोचा, मुझे एक ताजा शव की जरूरत है। पत्नी से ज्यादा सुलभ दूसरा कौन हो सकता है।

मैंने एक रात उसकी हत्या कर दी। उसकी मृत्यु मेरे ही हाथों लिखी थी। उसकी कुंडली में यही लिखा था, कि उसे उसका पति ही मारेगा। बस, मैंने वही किया जो विद्याता ने लिखा था। तू कौन होती है, मेरी साधना और विधाता के कार्यों में दखल देने वाली?’ यह कहकर उसने मुझे एक जोर का धक्कर दे दिया। मैं गिरते-गिरते बची। लेकिन पिस्तौल हाथ से छूट गई।

पंडित बड़ी फुर्ती से पिस्तौल की ओर झुका, पर मैंने आगे बढ़कर पिस्तौल पाँव से दबा दिया और मैंने भी उसे एक जोर का धक्का दे मारा। पंडित धड़ाम से फर्श पर चारों खाने गिरा। इतने में मैंने पिस्तौल उठा लिया और उसे प्यार से चूमा फिर सारी गोलियाँ उसके सीने में उतार दी। आज मैंने एक ऐसे व्यक्ति का कत्ल किया था, जो समाज को ज्योतिष और तंत्र के नाम पर दीमक की तरह चाट रहा था।

पिस्तौल से निकली गोलियों की आवाज मेरी परेशानी का कारण बनती, इससे पहले ही मैं वहाँ से भाग निकली।

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