hot story in hindi- prem ki pyasi प्यार की खुशबू - राजेन्द्र पाण्डेय

मैं मुंह-हाथ धोकर अभी पलंग पर आकर बैठी ही थी, कि एक अधेड़ उम्र का पुरुष दरवाजा खोलकर अंदर आ गया और मुझे मुग्ध निगाहों से एकटक देखने लगा।

मैं मन-ही-मन बुदबुदाई, ‘बड़ा ही बदतमीज और जाहिल आदमी है। कमरे में घुसने से पहले इजाजत भी नहीं मांगी।’

मैं कुछ बोलती, इससे पहले ही वह आदमी मेरे पास आकर बोल पड़ा, ‘मेरा नाम विधायक सुधाकर तिवारी है।’

‘तुम सचमुच ही विधायक हो या ऐसे ही नाम के पहले लगा लिया है?’

मेरे यह पूछते ही वह खीं-खीं करके हंसने लगा। उसकी हंसी किसी फटे बांस की तरह भद्दी और उबाऊ थी। मुझे बड़ा ही बुरा लगा। इतने में मेरी निगाह उसके कपड़ों पर चली गई। बड़े ही महंगे कपड़े उसने पहन रखे थे। मैंने सहजता से यह अनुमान लगा लिया कि यह आदमी विधायक-उधायक तो नहीं है, पर विधायकों वाला शौक जरूर रखता है। पैसे वाला भी है और मेरे हुस्न का कद्रदान भी लगता है। मुझे इसकी हंसी से क्या लेना-देना। मुझे तो धन कमाने का गेम खेलना है। अगर मेरी जीत हो गई, फिर तो मेरे दिन ही फिर जाएंगे।

तभी विधायक सुधाकर तिवारी मुझे देखते हुए बोल पड़ा, ‘क्यों, विधायकों से तुम्हारा कुछ ज्यादा ही लगाव है क्या? मुझे पर तुम्हारी नजरें मेहरबान नहीं होगी?

‘क्यों नहीं होगी, लेकिन पहले मुझे ढेरों रुपये चाहिए…’

‘रुपये चाहिए।’ यह कहते-कहते वह फिर एक बार हंस पड़ा।

बस उसकी हंसी से हो मुझे चिढ़ थी। वह आदमी ही ऐसा था, कि कहीं से भी आकर्षक नहीं था। उसका रंग एकदम काला था। आंखें चिड़ियों की तरह छोटी-छोटी थीं। होंठ सूखे, मोटे और फटे हुए थे। उसका कद बिल्कुल ही ठिगना था, लेकिन वह दौलतमंद था।

मैं उसके व्यक्त्वि का विश्लेषण अभी कर ही रही थी, कि वह अपने कमरे में गया और पलक झपकते ही मेरे सामने दस-दस हजार की बीस गड्डियां रख दी। मैं आश्चर्यचकित रह गई, ‘यह क्या, क्या मेरी कीमत दो लाख है?’

मैं यह सोच ही रही थी कि वह बोल पड़ा, ‘इतना काफी है?’

‘हां, फिलहाल तो इतना काफी है, लेकिन तुम मुझ पर इतने पैसे खर्च क्यों कर रहे हो? तुम्हें अपनी पत्नी से भी तो यह सुख मिल सकता है?’ मेरे यह पूछते ही वह अजीब-सा मुंह बनाकर बोला, ‘यौन सुख कभी किसी को पत्नी से मिला है, जो मुझे मिल सकता है। देखो, पत्नी की याद दिलाकर मजा किरकिरा न करो। तुमने अपनी कीमत मांगी, मैंने लाकर रुपये दे दिए। शायद तुम्हें नहीं पता, पुरुषों को यौनानंद पराई स्त्रियों से ही मिलता है। वे सेक्स में बदलाव चाहते हैं।’

विधायक सुधाकर तिवारी की बातों ने मुझे चौंका दिया। मैं बुदबुदाई, श्यानी इसका मुझसे जी भर जाएगा, तो मुझे छोड़ देगा। तो फिर मैं क्यों न अगली सुबह यह जगह ही छोड़ दूं। दो लाख रुपए यहां से निकल भागने के लिए क कुछ और सोचती, इससे पहले ही उसने मुझे अपनी बाहों में भर लिया।

मैंने कोई विरोध भी नहीं किया तो सहयोग भी नहीं दिया। जहां देह-व्यापार बन जाती है तो वहां सहयोग लेने-देने की बात कहां रह जाती है? ऐसे मामलों में तो पुरुष को ही सब कुछ करना होता है। स्त्री तो मूक बनकर अपनी देह से पुरुष को खेलने देती है। मैं एक गूंगी औरत की तरह पलंग पर निढाल पड़ गई थी। सेक्स की कुंजी तो मेरे हाथ में थी।

तिवारी मुझको निर्वस्त्र करने में ही इतना उत्तेजित हो गया, कि सफर शरू करने से पहले ही हार गया। उसका शीघ्र हारना मेरे लिए खशियां लेकर आया। मैं उठ बैठी और उसे देखकर हंसने लगी, ‘इसी दम पर उछल रहे थे? बस फू-फां ही करना जानते हो? जाओ, सो जाओ। अब मुझे भी नींद आ रही हैं।’

तिवारी पसीने से तरबतर हो गया था। ऐसे हांफ रहा था जैसे एक नहीं, दो-तीन महिलाओं से यौन-संबंध बनाकर आ रहा हो। वह काफी शर्मिदा था। चुपचाप अपने कमरे में चला गया। मैं स्वयं से बातें करने लगी, ‘मेरी समझ में नहीं आता, पुरुष महिलाओं के साथ बलात्कार कैसे कर लेते हैं। मेरे जीवन में तो आने वाले सारे ही पुरुष मोम की तरह पिघलने वाले अब तक आए हैं।

किसी एक में भी इतना दम नहीं था, कि वे मुझ तक पहुंचे। मैं ही उनके साथ बलात्कार करती आई हूं। आज भी तिवारी के साथ मेंने ही बलात्कार किया। पैसे भी उससे ऐंठ लिए और उसकी मर्दानी की थाह भी लगा ली।’ मैं स्वयं से बातें करते-करते सो गई।

सुबह चार बजे आंख खुली तो बाहर आकर देखा, तिवारी के कमरे में ताला लगा हुआ था। मैं सीढ़ियां उतरकर काउंटर पर आई और विल अदा कर होटल से बाहर आ गई। मुझे इस बात का अंदेशा पहले से ही था, कि जिसने दो लाख रुपए मुझे दिए हैं, वह मेरा पीछा अवश्य ही करेगा। मेरा अनुमान सही निकला। तिवारी की व्हाइट गाड़ी मुझे सड़क पर दिखाई दे गई।

गाड़ी तिवारी ही ड्राईव कर रह था। वह मुझे पकड़ कर पुलिस में भी दे सकता था, क्योंकि मुझे गलत साबित करने के लिए उसके दिए दो लाख रुपए ही काफी थे। दो लाख रुपये मुझ जैसी साधारण और फुटपाथ छाप लड़की के पास कहां से आए? मेरे लिए पुलिस को बताना मुश्किल था।

तभी मैंने देखा, हिजड़ों का एक समूह नाचते-गाते हुए चला जा रहा है। मैं उन हिजड़ों के झुंड में घुस गई और उनके ही रंग में रंग गई। तिवारी गाड़ी से उतरकर काफी देर तक मुझे इधर-उधर ढूंढता रहा, फिर गाड़ी में बैठकर आगे बढ़ गया।

मैंने सोचा, ‘लोग हिजड़ों से घृणा करते हैं। क्या सचमुच ही ये लोग घृणा के पात्र होते हैं? मेरी जान तो इन लोगों ने ही बचाई। मैं क्यों न कछ दिनों तक इनके जीवन में रंगकर इनकी जीवन शैली का नजदीक से अध्ययन ये लोग आम आदमी से भी अच्छे इंसान हों।’

शाम के चार बजे मैं हिजड़ों के साथ उनके घर पहुंची। वे मुझे हिजड़ा ही समझ रहे थे, लेकिन वे यह देखकर आश्चर्यचकित थे, कि मैं अचानक ही कहां से टपक पड़ी। पहले तो उन्होंने मुझे कभी देखा नहीं था। इतने में एक हिजड़ा मेरे पास आकर बैठ गया। उसका नाम रामकली था। मैं उसे अपने पास बैठे देखकर घबरा गई। रामकली कुछ पूछती, इससे पहले ही मैं बोल पड़ी, ‘मैं कोई हिजड़ा नहीं हूं। मैं एक स्त्री हूं।’

तो यहां क्या कर रही हो? किसी मर्द के पास जा। मर्द नहीं हैं, तो अपने मां-बाप के पास जा। हम किस्मत के मारे वालों के पास तेरा क्या काम?’ रामकली के यह कहते ही मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैं सुबकने लगी। रामकली मेरे आंसू पोंछते हुए बोली, ‘तुम तो बुरा मान गई, बहन।

लेकिन मैंने कोई गलत भी तो नहीं कहा। मैं तो हिजड़ा हूं। मेरा कोई घर नहीं हैं। भाई-बहन नहीं हैं। मां-बाप नहीं हैं। हम सारे हिजड़े ही एक-दूसरे के भाई, बहन और मां-बाप हैं।’ रामकली के शब्दों में दर्द था, फिर भी उसकी आंखों में एक आराम की जिंदगी थी।

अब मैं क्या कहती, मेरे पास तो कुछ भी नहीं था। न तो मैं किसी समाज में थी, न परिवार में और न ही किसी रिश्ते से बंधी हुई थी। मैं अपना दु:ख तो किसी से भी बांट नहीं सकती थी। मेरी आंखों से गंगा-यमुना बहने लगी।

‘तुझे नहीं जाना तो मत जा। तू यहाँ मेरे साथ रहेगी। जब तुझे अपने घर की याद आए तो चली जाना।’ रामकली एक हिजड़ा होकर भी दिल वाली थी। मैं यहां सुरक्षित थी। एक स्त्री को भला हिजड़ों से क्या डर हो सकता है। मैं यह सोचकर सामान्य हो गई।

तभी एक हिजड़े ने डेक ऑन कर दिया। संगीत बहुत ही मधुर था। किसी नई फिल्म का था। देखते-ही-देखते उस धुन पर सभी नाचने लगे। मैंने देखा, ‘उनमें आपस में कोई भेदभाव नहीं था। न कोई छोटा था, न कोई बड़ा था। जाति का कोई बंधन नहीं था। मैं बुदबुदा पड़ी, ‘समाज को इन हिजड़ों से शिक्षा लेने की जरूरत है। यहां न तो कोई संप्रदाय है और न ही जाति ही है। सभी एक जैसे हैं।

समाज ऐसा ही हो जाए तो मंदिर-मस्जिद, गुरुद्वारे-गिरजाघर का झगड़ा ही मिट जाए। सांप्रदायिक दंगे-फसाद ही न हों। अमीर-गरीब का कोई भेदभाव ही न हो।’ इतने में मैंने देखा, शरीर से हट्टे-कट्टे दो नौजवान अंदर घुस आए। कपड़े-लत्ते से तो वे मजदूर वर्ग के लग रहे थे। सिर पर गमछा बांध रखा था। उनकी मूंछे होंठों को छू रही थी। दाढ़ी बेतरतीब बढ़ रही थी। उनका पूरा हुलिया बड़ा ही वीभत्स और खूखार था।

तभी उनकी नजर मुझ पर पड़ी। उनमें से एक युवक मुस्कराते हुए रामकली के पास आ खड़ा हुआ। रामकली ने ‘मुझसे कहा, ‘तुम अंदर जाओ।’ वह युवक बोला, ‘वह लड़की कौन है?’

‘आपको वह लड़की दिखाई दे रही है? वह तो हमारी ही बिरादरी की है। हाय-हाय, आपकी आंख को क्या हो गया।’ रामकली के यह कहते ही वह युवक हंसने लगा, ‘चीज तो बड़ी ही उम्दा है। बोल, कितने रुपए लेगी?’

रामकली थपड़ी बजाते हुए बोली, ‘अपने रुपए सहेज कर जेब में रख लीजिए बाबूजी। आप मरेंगे तो कफन के काम आएंगे।’

मैं तो थर-थर कांप रही थी। उस युवक ने जेब से छुरा निकाल लिया। दूसरा युवक भी छुरा निकालकर रामकली के सामने आ खड़ा हुआ। रामकली के चेहरे पर फिर भी भय नहीं था, लेकिन मैं काफी डर गई थी। तभी उन दोनों युवकों ने रामकली की छाती पर छूरों की नोक रख दी। मैं अब सोच रही थी, कि रामकली मेरी रक्षा करते हुए मारी गई तो फिर मेरी क्या रह जाएगी।

मैंने साहस कर उन दोनों के हाथों पर अपने हाथ से जोरदार वार कर दिया। उन दोनों के हाथ से छूरे कहीं दूर जा गिरे। रामकली शरीर से मजबूत थी। उसने जोर से चीखते हुए कहा, ‘हीजड़ों का नाम तो वैसे ही बदनाम है। आज नाम कमाने का मौका मिला है, तो तुम सब कमरों में छिपी हो? बाहर निकलकर इनका सामना करो।’

देखते-ही-देखते सारे हिजड़े एक साथ बाहर आ गए और उन दोनों युवकों पर शिकारी कुत्तों की तरह टूट पड़े। वे युवक पलक झपकते ही फर्श पर अधमरे से लेट गए। मैं दूर खड़ी यह सब देखकर दंग रह गई, ‘इनमें तो गजब की एकता है। बेजोड़ साहस और शक्ति है। लोगों ने इन्हें हिजड़ा नाम देकर इन्हें कमजोर कर दिया है। जबकि ये कमजोर नहीं होते हैं।’ तभी मैंने देखा, रामकली ने उन दोनों को ही घसीट कर बाहर सड़क की तरफ कर दिया था। वे मुश्किल से उठ कर भाग सके।

अब हिजड़ों का एक नया ही रूप मेरे सामने था। रामकली मेरे पास आकर बोली, ‘हम हिजड़े अपनी मां-बहनों की बहुत ही इज्जत करते हैं। स्त्री हमारे लिए देवी तुल्य होती हैं। आखिर हम आसमान से थोड़े ही टपक कर आए हैं। हमें भी तो किसी स्त्री ने ही पैदा किया है। क्या हमारा उसके प्रति कोई कर्त्तव्य नहीं होता हैं?’

यह भाव स्त्री के प्रति पुरुषों में कहां होता है? उनके लिए तो स्त्री एक वस्तु मात्र होती है। उनसे अच्छे हिजड़े हैं, जो स्त्री को कामी निगाहों से तो नहीं देखते।’ मैं खडी खडी पल भर में ही यह सब सोच गई।

लेकिन मेरे लिए अब यह जगह सुरक्षित नहीं रह गई थी। वे गुंडे फिर कभी हमला बोल सकते थे। मैं बैठे-बैठे ही बुदबुदाई, ‘अब मैं कहां जाऊं? क्या करूं? अपने जीवन को सार्थक कैसे बनाऊं?’ मैं रामकली के पास चलकर आई तो वह ऊंघ रही थी।

मैंने देखा, उसके चेहरे पर भय की तनिक-सी भी छाया नहीं थी, लेकिन मैं अपने कारण समाज से वहिष्कृत उन हिजड़ों को किसी मुसीबत में डालना नहीं चाहती थी। मैं चुपके से वहां से निकलकर सड़क पर आ गई। एक अकेली! वह भी जवान और खूबसूरत स्त्री के लिए दुनिया कितनी अजनबी होती है।

मैं दबे पांव आगे की ओर बढ़ गई। मेरे पास रुपयों की तो कोई कमी थी नहीं। एक बार फिर मैं के सामने आ खड़ी हुई। काउंटर पर पहुंचकर अपने लिए एक कमरा बुक करवाया और वहां से बाजार चली गई। मैं उस शहर से अनजान थी। सड़कें, गलियां, चौबारे सभी कुछ तो मेरे लिए नए थे। तभी एक छोटी-सी लड़की मेरे पास आ खड़ी हुई। वह टॉफी के लिए रो रही थी।

मैंने टॉफी का पूरा एक पैकेट उसे दुकान से खरीद कर दे दिया। इतने में लड़की का पिता बगल वाली दुकान से आ गया। उसकी उम्र यही कोई तीस-पैंतीस की थी। वह मेरी ओर देखते हुए बोला, ‘आपने इसे इतनी सारी टॉफियां क्यों दी?’ इसके दांत खराब हो जाएंगे। क्या अपने बच्चों को, भी आप इतनी सारी टॉफियां खाने के लिए देती हैं?’

मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैं तो एक ऐसी स्त्री थी, जिसका कभी घर, पति और बच्चे हो ही नहीं सकते थे। मैं तो उस बच्ची में अपना बचपन ढूंढ रही थी। मैंने उस आदमी से कहा, ‘मैं इतनी भाग्यशाली कहां हूं। राह चलते बच्चे ही मेरे बच्चे हैं। बच्ची को टॉफी खाने दीजिए। बच्चों का दिल नहीं दुखाना चाहिए।’

वह आदमी आश्चर्य से मुझे देख रहा था। फिर वह अचानक ही बोला, ‘आप यह कैसी उड़ी-उड़ी बातें कर रही है?’ यह कहकर उसने बच्ची के हाथ से टॉफी का पैकट लेकर मुझे दे दिया और मुंह चिढ़त टॉफी का पैकेट दुकानदार को लौटा दिया। मेरी टॉफी खाने की उम्र थोड़े ही थी। जब उम्र थी तो किसी ने दी ही नहीं। मेरा बचपन तो यूं ही सूखा-सूखा ही बीत गया था। मैं अपने लिए कुछ फल, कपड़े, लिपस्टिक, चप्पल और कोल्डक्रीम खरीदकर होटल आ गई।

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