जीवन के इस छोटे सफर में मैंने क्या कुछ नहीं देखा था? पुलिस हिरासत से फरार अपराधी की मानसिक स्थिति कितनी भयावह होती है, यह मुझसे छिपा नहीं था। एक तरह से इस जीवन को मैं बड़ी मुश्किल से ढो रही थी। मेरे सफर में एक भी पड़ाव सुखद नहीं आया था। मुझे अब तक कड़वे अनुभव ही हुए थे। मैं कस्बे से काफी दूर उसी शहर में पुनः आ गई थी, जहाँ की अदालत में मेरे खिलाफ मुकदमा दायर था।
आज सुबह से ही मैं अदालत का चक्कर लगा रही थी। जिस जज की अदालत में मेरे खिलाफ मुकदमा था, मैं उसका नाम और पता जानना चाहती थी। आखिर मैंने शाम होते-होते उस जज का नाम और पता जान ही लिया। उसका नाम दीवानचंद था और वह अदालत के पास के ही कालोनी में रहता था। मैं जज के निजी जीवन के बारे में जानना चाहती थी। वह कैसा है, उसके शौक क्या-क्या हैं, क्या वह इश्क मिजाज है? कभी कोई अपराध किया है या नहीं? वगैरह… वगैरह।
रात के कोई बारह बजे जब जज के बंगले पर पहुँची तो मुख्य दरवाजा बंद था। मैंने दरवाजे पर हल्की-सी थपकी दी। संयोग से दरवाजा जज ने ही आकर खोला। मुझ पर जैसे ही उसकी नजर पडी वह अचानक ही मुस्करा पड़ा। उसके मुँह से शराब और सिगरेट की मिली-जुली दुर्गध आ रही थी। उसकी चुटकी में अभी भी अधजली सिगरेट थी। मैं कुछ बोलती, इससे पहले ही वह चहक पड़ा- ‘जोशी के बच्चे ने पहली बार ढंग का काम किया है! क्या लाजवाब नगीना आज की रात भेजा है!’ मैं समझ गई, जज अव्वल दर्जे का अय्याश पुरुष है और इसके यहाँ रोजाना ही खूबसूरत और जवान लड़कियाँ आती हैं। लेकिन यह जोशी का बच्चा कौन है?’
‘तुम्हें नहीं पता! अरे वही, जिसने तुम्हें यहाँ भेजा है और जो मेरा पेशकार है। आनंद जोशी ही तो मेरे लिए लडकियाँ भेजता है।’ कहते-कहते जज हँस पड़ा- ‘अजीब बात है, जिसने तुम्हें यहाँ भेजा है, उसी को तुम नहीं जानती। और जानोगी भी कैसे? उसने तुमसे संपर्क थोड़े ही किया होगा। वह तो इंस्पेक्टर धर्मदास से बोला होगा और इंस्पेक्टर धर्मदास ने किसी जरूरतमंद को यहाँ भेज दिया होगा। आओ… अंदर आ जाओ।’
जज के पीछे मैं अंदर पहुँच गई। क्या बेशकीमती… शानदार सजावट थी! बैठक तक पहुँचते-पहुँचते मैं फिर से अपने विचारों में खो चुकी थी- ‘अपराधियों की सूची तो बहुत लंबी है। जज, पेशकार, इंस्पेक्टर और भी न जाने कितने ही लोग अपराधी हैं। और मजे की बात ये कि इनके ही हाथों में न्याय और कानून व्यवस्था है?’ मैं यह सोच ही रही थी कि जज ने मझे घरते हए कहा- ‘जीवन का असली आनंद बच्चों के साथ कहाँ है। बीवी-बच्चों को दसरे शहर में छोड़ रखा है। मुँहमाँगी रकम भेज देता हूँ। बस, उन्हें और क्या चाहिए। वैसे तुम्हारा नाम क्या है?’ यह पूछते हुए वह गिलास में शराब उडेलने लगा। बहुत ही महँगी शराब उसके गिलास में गिर रही थी। कितने ही मजबूर और गरीब लोगों की जेबें हल्की करने के बाद उसे इतनी महँगी शराब नसीब हुई थी। मैं बोतल से गिलास में गिरती शराब की पतली धार को देखते ही देखते पुनः खो गई- ‘यह व्यक्ति, जो एक जज है, कुर्सी और पद को पाकर भूल गया है कि यहाँ तक पहुँचने के लिए इसने कितनी कठोर मेहनत की है। इसने शपथ भी खाई होगी कि झूठ का साथ नहीं दूंगा। सच के सिवा कुछ और नहीं सुनूँगा। लेकिन आज इसे कुछ भी याद नहीं है।’
मैं यह सोच ही रही थी कि उसने दोबारा वही प्रश्न कर दिया- ‘मैंने तुमसे तुम्हारा नाम पूछा था?’
‘मैं एक खूबसूरत और युवा युवती हूँ, क्या इतना काफी नहीं है? आपके मन में जो आए उस नाम से मुझे पुकार लीजिए।’ मैंने बड़ी ही अदा और नखरे के साथ कहा। जज एक ही साँस में गिलास की सारी शराब पी गया। फिर मेरी कलाई थामकर बोला- ‘एक-दो पैग अगर तुम भी ले लो तो रात और हसीन हो जाएगी।
मैंने शराब पीनी छोड़ दी थी। लेकिन आज पीना बहुत ही जरूरी था। जज के कंधे पर हाथ रखती हुई चहक पड़ी’वैसे मैं शराब पीती तो नहीं, पर जब आप कह रहे हैं तो आज जरूर पियूँगी। लेकिन पैग आप ही बनाएँगे।’
‘बहुत खूब, तुम कितनी चंचल हो! ऐसी लड़कियाँ जल्दी मिलती कहाँ हैं, जो भी आती हैं ठंडी लाश होती हैं। आज की रात मेरे लिए दीवाली की रात है।’ जज ने पैग बनाकर मेरी ओर बढ़ा दिया। गले से नीचे उतरते ही शराब ने असर दिखाना शुरू कर दिया। लेकिन मैं पूरी तरह से होश में थी, क्योंकि एक-दो पैग से मुझे नशा नहीं, बल्कि हल्की सी गुदगुदी भर ही हो रही थी।
जज तो पूरे नशे में था। लेकिन वह भी होश नहीं खोया था। उसकी उम्र यही कोई चालीस-पैंतालीस की थी। मैं सोफे पर आकर अभी बैठी ही थी कि उसने मेरे आगे तले हुए काजू के टुकड़े रख दिए-‘लो खाओ!’ फिर उसने भी काजू के चार-पाँच टुकड़े प्लेट से निकाल लिए। मैंने अभी प्लेट में हाथ डाला ही था कि जज ने टी.वी. का रिमोट उठाकर उसे चालू कर दिया। मेरी नजर जैसे ही टी.वी. स्क्रीन पर पड़ी, मैं अचंभित रह गई, क्योंकि वहाँ तो काफी अश्लील ब्लू-फिल्म आ रही थी। शायद उसने मुझे दिखाने के लिए पहले से ही इसकी व्यवस्था कर रखी थी। फिर वह मेरे करीब आकर बैठ गया और मुझे बाँहों में भींचते हुए अपने होंठों से मेरे गले के आस-पास गुदगुदी करने लगा। मैं समझ गई, जज दीवानचंद ने अपने अब तक के जीवन में मासूम, लाचार और गरीब लड़कियों के साथ सिर्फ खेलने का ही काम किया है। तभी मैंने मुस्कराते हुए उसके गाल पर होंठ रख दिए और धीरे-धीरे उसके गाल पर होंठ रगड़ते हुए अचानक ही उसके गाल को जबड़े के बीच कसकर दबा लिया। वह पागलों की तरह चीखने-चिल्लाने लगा। फिर एक झटके के साथ दूर जा खड़ा हुआ। उसकी आँखों में भय झलक रहा था। मैं हँसती हुई बोली- क्या हुआ जज साहब, शराब तो आपने ही पिलाई थी?’
‘हाँ मुझे पता है, तुम्हें नशा हो गया है। लेकिन मैं नशा उतारना भी जानता हूँ।’ उसके यह कहते ही मैं आँखें गोल-गोल नचाते हुए बोली- ‘कमऑन डार्लिंग, नशा उतर जाने के बाद मजा ही क्या रह जाएगा? आप भी नशे में हैं और मैं भी नशे में हूँ, फिर ऐसे में प्यार आक्रमक होना ही है। आप चाहते भी तो यही थे न?’
जज काँपते पैरों से मेरे पास आया और मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहने लगा। ‘प्यार में जानवर बन जाना ठीक नहीं होता है। तुम्हारा प्रेम जताने का तरीका तो किसी भूखी शेरनी जैसा है।’ उसके यह कहते ही मेरी नजर फर्श पर पड़े अखबार पर चली गई। मैंने उसे उठाते हुए कहा- ‘देखिए जज साहब, इसमें एक खबर छपी है कि जज ने घूस लेकर एक निर्दोष को उम्र कैद की सजा सनाई। दसरी खबर है कि एक पलिस इंस्पेक्टर ने लोगों की भीड से एक लडकी को खींचकर उसके साथ बलात्कार किया। तीसरी खबर है कि मंत्री ने अपने चुनाव क्षेत्र की उस महिला के साथ बलात्कार किया, जो उसके पास अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए गई थी। चौथी खबर है एक अभिनेत्री के साथ प्रधानमंत्री के बेटे ने जोर-जबर्दस्ती की। पांचवीं इंस्पेक्टर ने उस व्यक्ति की हत्या कर दी, जिसकी पत्नी का वह आशिक था। जज साहब, क्या आपकी अदालत में इन मनचले धनाढ्य अपराधियों के लिए कोई दंड की व्यवस्था है?’
जज हँसने लगा- ‘लगता है तुम्हें नशा कुछ ज्यादा ही हो गया है। तुम पागलों की तरह ये सब क्या बकी जा रही हो? बे-सिर पैर की खबरों का कोई वजूद नहीं होता। वे बड़े लोग हैं, उनका यह शौक है। बलात्कारी शब्द तो यूँ ही अखबार में लिख दिया गया है, जबकि वास्तव में उन्होंने किसी के साथ बलात्कार नहीं किया होगा। उसमें उन महिलाओं की सहमति अवश्य ही होगी। अदालत तो पैसे वालों की थी, है और आगे भी रहेगी।’
‘बहुत खूब जज साहब! यदि कोई निर्धन और साधारण लड़की एक वेश्यालय चलाने वाले मंत्री की हत्या कर दे तो क्या अदालत उसे रिहा नहीं कर सकती? कि उसने एक भ्रष्ट और दुराचारी व्यक्ति को मारा है?’ मैं नशे का नाटक करते हुए ही बोली।
‘मंत्री तो मंत्री होता है। वह भ्रष्ट हो या दुराचारी, उसके पॉवर और रुतबों में इससे कोई कमी नहीं आ जाती है। मंत्री को दंडित करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। वह तो खुला साँड होता है। कहीं भी मुँह मार सकता है। कुछ भी कर सकता है, क्योंकि इसके एवज में वह जनता की सेवा भी तो करता है। अदालत में मंत्रियों, रईसों, सेठों, हाकिमों के खिलाफ मुकदमें दर्ज तो हो सकते हैं, पर उनकी सुनवाई नहीं हो सकती है। नादान लड़की, कानून अमीरों का सेवक होता है। तुम्हें भला कानून और अपराध से क्या काम!’ यह कहते-कहते दीवानचंद मुस्कराया, फिर आकर मुझे चूमने लगा। मैं खड़ी-खड़ी सोच रही थी- ‘दीवानचंद जिस्म का भूखा है और मैं… मेरे आशिक तो यही सोचते हैं कि वे मुझे लूट रहे हैं। और मैं सोचती हूँ कि उनके साथ मैं बलात्कार कर रही हूँ और सच यही है। मैं एक झटके से पीछे हटी और पलंग पर जा चढ़ी- ‘जज साहब, यह अदालत का कोई मुकदमा नहीं है, जहाँ सिर्फ आपका ही आर्डर चलेगा। मुझे पकड़ सकते हैं तो पकड़ लीजिए… इन खेलों में तो धर-पकड़ का ही मजा है।’ मेरे यह कहते ही दीवानचंद एक कुशल खिलाड़ी की तरह हँसा, फिर पलक झपकते ही पलंग पर चढ़ आया। तब तक मैं भागकर बालकनी में भाग गई थी। दीवानचंद पलंग पर खड़े-खड़े बुरी तरह से हाँफ रहा था। तभी उसकी नजर मुझ पर पड़ी तो वह वहाँ से कूद कर मेरी तरफ दौड़ पड़ा। मैं बिजली की तरह वहाँ से भागी और बरामदे में आकर खड़ी हो गई। दीवानचंद बरामदे के एक कोने में खड़ा-खड़ा हाँफ रहा था। उसके चेहरे पर थकान के भाव थे। मैं सोचने लगी- ‘अब दीवानचंद की मर्दानगी की खबर लेनी चाहिए। इसका मानमर्दन आज मैंने नहीं किया तो यह शैतान न जाने अभी कितनों को ही बर्बाद करेगा।’ उसके पास आ खड़ी हुई और उसके होंठों पर होंठ रखकर बोली-‘आप कैसे हैं जज साहब? आखिर आप मुझे पकड़ नहीं पाए। चलिए, मैं माफ कर देती हैं। देख लीजिए, मैं कितनी उदार हूँ। क्या आप किसी मुजरिम को माफ कर सकते हैं?’
जज के चेहरे पर एक अजीब-सी वितृष्णा के भाव पसर आए थे। वह मेरे साथ बेडरूम में आया और बोला- ‘सच-सच बताना, आखिर तुम कौन हो? तुम्हारी हर बात में कानून, अदालत का आना मुझे अच्छा नहीं लगता है।’
‘जज साहब, यह शराब के नशा का प्रभाव है। मैं देख रही हूँ आप पहले की तरह जोशीले नहीं लग रहे हैं। आप अचानक ठंडे कैसे पड़ गए? आइए न, प्लीज…!’ मैंने यह कहते हुए दीवानचंद को अपनी अपनी ओर खींच लिया। वह आने को तो मेरी बाँहों में आ गया, पर इस तरह जैसे कोई नपुंसक झिझकता, सहमता किसी स्त्री को बाँहों में आता हो। यही तो मैं चाहती थी। उसकी आँखों में दहशत थी।
‘आइए, आगे बढ़िए। आपको तो पर स्त्री देह का स्वाद चखने में आनंद आता है?’
जज दीवनचंद स्वयं को शायद इसके लिए तैयार न कर पा रहा था। वह मुझे अपलक घूरते हुए बोला- ‘तुम खूबसूरत हो, हसीन हो, पर स्त्री सुलभ गुणों से संपन्न नहीं हो।’
‘क्या करूँ जज साहब, मुझमें पुरुष सुलभ गुण आ गए हैं। पुरुषों में स्त्रियों से खेलने का शौक ही इस कदर बढ़ गया है कि मजबूरन स्त्रियों को भी मर्द बनना पड़ रहा है। आप ठंडे पड़ गए हैं, मुँह लटकाए खड़े हैं तो मुझे भी मजा आ रहा है।’
जज दीवानचंद के कानों में मेरे शब्द जैसे ही पड़े वह शक भरी नजरों से मुझे घूरने लगा, फिर वह मोबाइल उठाकर नंबर डायल करने लगा। मैं समझ गई यह किसका नंबर डायल कर रहा है। मैं इसके लिए पहले से ही तैयार थी। झट से मैंने उसके हाथ से मोबाइल लपक लिया- ‘जज साहब, इंस्पेक्टर से बात करने जा रहे थे न? उससे मेरे बारे में पूछने की जरूरत नहीं है। अपने बारे में मैं खुद ही बता सकती हूँ। जज साहब, मैं वही लड़की हूँ, जिसने गृहमंत्री की हत्या की थी। मैं वही लड़की हूँ, जिसके खिलाफ मुकदमा आपकी अदालत में है। मैं वही लड़की हूँ, जो पुलिस हिरासत से फरार है।’
‘तुम वही लड़की हो!’ जज दीवानचंद की घिग्घी-सी बंध गई।
‘हाँ, मैं वही लड़की हूँ। क्या तुम अपराधी नहीं हो? तुम्हें लड़कियों से खेलने का गंदा शौक है, शराब तुम पीते हो, घूस तुम लेते हो, बी.एफ. तुम देखते हो, निर्दोष मुजरिम को घूस लेकर तुम दोषी करार देते हो और अपने परिवार को भी छल रहे हो। सारे अपराध तो तुमसे ही शुरू होते हैं। और तुम पर ही आकर खत्म हो जाते हैं। फिर तुम्हें सजा कौन देगा? तुम जज हो, तुम्हें कोई सजा नहीं देगा। तुम ऐसा गलत सोचते हो। मैं तुम्हें सजा दूंगी। मैं यह कभी नहीं चाहूँगी कि मुझे एक ऐसा जज सजा दे या एक ऐसे जज के सामने अदालत के कटघरे में खड़ा होना पड़े, जो खद एक अपराधी हो। इसमें मेरी बेइज्जती है।’ यह कहते हुए मैंने अपनी पिस्तौल उसकी ओर तान दिया।
‘नहीं, तुम कानून को हाथ में नहीं ले सकती हो।’
‘क्यों नहीं ले सकती हूं? तुम कानून के रखवाले हो, इसलिए कानून को हाथ में लोगे, और मैं एक आम नागरिक हूँ, इसलिए कानून को हाथ में नहीं ले सकती। जज दीवानचंद, लोग कानून को अंधा कहकर मजाक उड़ाते हैं, लेकिन मैं कहती हूँ, कानून अंधा नहीं, बल्कि कानून के रखवाले अंधे, भ्रष्ट, बेइमान, चोर, मक्कार और दोगले हैं। तुम जैसे लोगों ने ही कानून को अंधा बना रखा है।’ यह कहते-कहते मैंने उसके सीने पर गोली चला दी। वह फर्श पर गिर कर छटपटाने लगा। उसके सीने से खून के बुलबुले से फव्वारे की शक्ल में फूट पड़े। फिर मैंने पीछे मुड़कर देखा, पुलिस मुझ पर बंदूक ताने खड़ी थी। मुझे जितना जीना था, उतना जी चुकी थी। जीवन-मृत्यु के बीच का फासला मिट गया था।
पिस्तौल एक तरफ फेंककर मैंने अपने हाथ ऊपर उठा दिए। मेरे मन में कोई भय नहीं था, क्योंकि मैंने जिन्हें मारा था, वे लोग अपराधी ही नहीं थे, बल्कि अपराधों के गढ़ थे। मैं चुपचाप पुलिस जीप में जाकर बैठ गई।
