gunahon ka Saudagar by rahul | Hindi Novel | Grehlakshmi
gunahon ka Saudagar by rahul

विवेक कॉलेज के सामने वाले बस स्टॉप पर उतरा तो सबसे पहले उसे जूली ही नजर आई जो चौंककर विवेक को देखने लगी‒विवेक सड़क पार करके जूली के पास आकर बोला‒

“क्या अपन के इन्तजार में खड़ी है?”

कच्चे धागे नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

“हां…विवेक, अंजला ने तुमसे मिलने को कहा था…और जो कुछ उसने‒तुम्हें मेरे या देवयानी के बारे में बताया वह शत-प्रतिशत सच है‒तुम चाहो तो मुझे चर्च में ले चलो….मैं होली क्राइस्ट और अंजला की कसम खा लूंगी।”

जाने दे जाने…अपन को पूरा विश्वास हो गया है।

“तो चलो मेरे साथ प्रिंसिपल के पास…अंजला ने अपनी शिकायत वापस ले ली है…अपने डैडी से फोन कराके तुम्हारा रिस्टीकेशन रद्द करा दिया है।”

विवेक जूली के साथ प्रिंसिपल के ऑफिस में आया और प्रिंसिपल ने दाखिला बहाल करने का आदेश दे दिया। दो पीरियड बाद जब वह क्लास रूम में पहुंचा तो वहां अच्छा-खासा खुशी का वातावरण था। सबसे पहले देवयानी ने बढ़कर उसके होंठ चूमने चाहे, परन्तु विवेक ने उसे परे धकेल कर बुरा-सा मुंह बनाकर कहा‒

“नहीं…अपन को यह सब अच्छा नहीं लगता….ऐसी ग्रीटिंग का भारतीय सभ्यता में कोई स्थान नहीं।”

“अरे! तूने मेरे ‘फंक्शन का कमाल नहीं देखा…उधर तूने अंजला को ‘कामशास्त्र’ का पहला प्रेक्टिकल पाठ सिखाया और इधर तेरा कॉलेज में दाखिला बहाल।”

“शटअप! अपन अंजला के बारे में ऐसा एक वर्ड भी नहीं सुनने का।”

“अच्छा…अच्छा…मालूम है…अब तो तुम्हारा टांका जुड़ गया न।” फिर जोर से क्लास में बोली‒”चलो दोस्तो इस खुशी में आज की छुट्टी…उधर जुहू बीच पर पिकनिक…लंच से लेकर डिनर तक मेरी ओर से…होटल ‘सी व्यू’ के कमरों का किराया भी मैं दूंगी।”

विवेक बोला‒”अपन इधर पिकनिक मनाने नहीं…पढ़ने आया है।” फिर वह पलट कर बाहर निकल आया, जहां उसे जूली मिल गई और मुस्करा कर बोली‒”शायद तुम्हें अंजला की तलाश है…वह उधर कुंज में बैठी है।”

विवेक बिना मुड़े हुए सीधा कुंज में चला आया। अंजला एक पेड़ के तने से पीठ टिकाए बैठी कोई पुस्तक पढ़ रही थी।

विवेक खखारा, मगर अंजला ने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। विवेक ने कहा‒”जूली ने बोला था तुम इधर इन्तजार कर रही है।”

“दाखिला हो गया?”

“हो गया।”

“मैंने जूली से नहीं कहा था कि तुम इधर आओ।”

विवेक के चेहरे पर एक रंग आकर चला गया…वह पीछे हटता हुआ बोला‒”सॉरी! तुम्हें डिस्टर्ब किया वैसे ही, सॉरी!”

फिर वह कुंज से निकल आया। कॉलेज में भी नहीं रुका…सीधा बाहर ही निकलता चला आया और एक बस में सवार हो गया।

अंजला ने जैसे ही कार बस्ती के बाहर रोकी…उसे हाथ में बास्केट लिए रीमा नजर आई। अंजला कार से उतरी तो वह ठिठक कर रुक गई और बोली‒”तुम उसको देखने आई होगी?”

“दाखिला तो हो गया था दोबारा…लेकिन वह कॉलेज क्यों नहीं आ रहा?”

“मैं क्या जानूं….खाट पर पड़ा है, न कपड़े बदले हैं, न नहाया-धोया है…बड़ी मुश्किल से खाना खिलाया है।”

अंजला के होठों पर मद्धिम-सी मुस्कराहट आकर रह गई‒रीमा देवी ने कहा‒”चौबीस साल का हो गया है, मगर अब भी बच्चा ही है…अब तुम ही देखो जाकर…मैं तो जा रही हूं सौदा लेने।”

रीमा चली गई तो अंजला अंदर आई। लोगों ने उसे देखा, लेकिन अब वह बिल्कुल अजनबी नहीं रही थी, इसलिए किसी ने खास नोटिस नहीं किया। अंजला खोली के सामने रुक गई। उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा था।

“अन्दर ही हैं भैया।” पड़ोस की एक छोटी लड़की ने कहा।

अंजला चौंक पड़ी‒लड़की एक टांग पर उछलकर खेलने लगी। अंजला अंदर घुसी तो विवेक औंधा लेटा हुआ था‒फिर ऐसा लगा जैसे वह गहरी नींद सो रहा हो। खर्राटे बनावटी महसूस हो रहे थे। अंजला मुस्कराकर आगे बढ़ी। उसने कहा- “क्यों मां को सता रहे हो। मुझे मालूम है तुम जाग रहे हो।”

विवेक फिर भी चुप रहा तो अंजला उसके बराबर बैठ गई और बोली‒”अकारण ही पढ़ाई छोड़कर अपना एक साल खो रहे हो‒यह कोर्स का आखिरी साल है।”

विवेक फिर भी कुछ नहीं बोला। इस बार अंजला ने उसकी बगल में धीरे से गुदगुदी कर दी…वह एकाएक उछलकर झटके से बोला‒”यह क्या बदतमीजी है!”

“कॉलेज क्यों नहीं गए?”

“तुमसे मतलब?”

“अब मुझे ही मतलब है….मैंने ही तुम्हारा दोबारा दाखिला कराया है‒और इस बात की जिम्मेदारी मुझ पर है कि तुम्हारी पढ़ाई का हर्जा न हो।

“कल से कॉलेज जाऊंगा।”

“सच कह रहे हो?”

“अरे…कह तो दिया…काहे को भेजा चाट रही हो?”

“सचमुच जाऊं?”

“हां…हां जाओ…मुझे थोड़ा आराम करने दो।”

“अच्छा….मैं चली।” और खड़ी होकर मुस्कराने लगी। विवेक मिची आंखों से उसे देखता रहा‒अंजला ने धीरे से दबे पांव फिर उसके पास आकर दोनों हाथ उसकी गर्दन के पीछे सरका कर अपने होंठ विवेक के होंठों पर जमा दिए और…विवेक ने भी झपके से उसको अपनी ओर खींचकर अपने सीने से लिपटा लिया…उसे लग रहा था कि यह है होंठों का वह मिलन जो दिलों के मिलाप के मंथन से शुद्ध ‘सुरा’ बनकर फूट निकलता है।

न जाने कितनी देर तक वह यही रसपान करते रहे…और अलग तब हुए जब दरवाजे पर दस्तक से उन्हें ज्ञात हुआ कि मां लौट आई है।

“वह साली कौन-सी फिल्म थी जिसमें हीरो हीरोइन घर से भागे थे?”

“ऐसी तो कई फिल्में है…’बॉबी’‒’लव स्टोरी’।”

“अरे….अपन उस फिल्म की बात करेला है।”

“विवेक! तुम अच्छे-खासे पढ़े-लिखे हो, इन्जीनियर बनने वाले हो…फिर यह घटिया आदमियों की भाषा क्यों बोलते हो?”

“ऐ साली! तू अपन को घटिया बोलती है?”

“तुम्हें नहीं…तुम्हारी बोलचाल की भाषा को… यह जबान तो मवालियों की है।”

विवेक और अंजला दोनों समुन्दर के किनारे एक चट्टान पर बैठे थे। विवेक के हाथ में एक पाव था जिसके टुकड़े कर-करके वह पत्थरों के बीच में भरे पानी में फेंक रहा था…जहां छोटी-छोटी मछलियां उन पर टूट पड़ती थीं।

“अब क्या बोले तेरे को…अंज कहने से चलेगा।”

“चलेगा।” अंजला मुस्करा कर बोली‒”मेरे डैडी भी मुझे बचपन से ही अंजू बोलते थे।”

“अपन को बाप से मिलाएली है….जानती है क्या फर्क पड़ेगा?”

“जानती हूं…बाप पाल-पोस कर बड़ा करता है…किसी योग्य बनाता है…प्रेमी जो बाद में जीवनसाथी बन जाता है…आखिरी सांस तक पेट भरता है, तन ढंकता है और प्यार भरा सम्मान देता है।”

“यह तो संयोग है कि दोनों अंत तक साथ जियें साथ मरें। नारी तो जीवन भर सुहागिन बनी रहना चाहती है…अपन अगर रास्ते ही में मर गया तो?”

“ऐसी अशुभ बातें करोगे तो मैं तुमसे नहीं बोलूंगी।”

“अच्छा….छोड़ो…जीवन-मरण भगवान के हाथ में है…अगर हमारी शादी किसी कारण न हो सकी तो?”

“विवेक! मेरे जीवन में आने वाले तुम पहले और आखिरी मर्द हो‒क्या तुम्हें अपने ऊपर भरोसा नहीं?”

“स्वयं अपने ऊपर भरोसा तो सभी को होता है। मगर स्टेटस या कोई और निजी कारण भी हो सकता है, पता नहीं तुम्हारे डैडी मुझे अपना दामाद बनाना स्वीकार करें या न करें।”

“क्या तुम कभी मेरे डैडी से मिले हो?”

“नहीं…अभी तक तो सौभाग्य नहीं हुआ।”

“तो फिर उनके बारे ऐसा फैसला क्यों कर लिया?”

“वह साली क्या है…अपन का नसीब ही ऐसा है…अपन को कभी कुछ आसानी से नहीं मिला…अगर मिला भी तो छीन लिया गया‒अच्छा, मान लो तुम्हारे डैडी ने इनकार कर दिया…तो क्या अपन के साथ भाग चलेगी?”

“मेरे डैडी मुझे बहुत प्यार करते हैं‒उन्होंने मेरी खुशी कभी नहीं ठुकराई….मैं जानती हूं, वो हमारी शादी में कोई रुकावट नहीं डालेंगे…अब की इतवार को मैं तुम्हें उनके पास ले चलूंगी….उनसे मिलकर तुम खुद ही विश्वास कर लोगे।”

“नहीं‒अपन ऐसे ‘रिक्वेस्ट’ लेकर नहीं जाएगा।”

“क्यों?”

“तो फिर अभी फैसला हो जाएगा।” और विवेक उसका हाथ पकड़कर उठ खड़ा हुआ।

अंजला ने बौखलाकर कहा‒”कहां?”

“तू आ तो सही।”

विवेक अंजला को साथ लेकर बीच पर आ गया, जहां एक ज्योतिषी हाथ देखकर लोगों की किस्मत का हाल बता रहा था। विवेक ने दूर से कहा‒”वह ज्योतिषी देख रही हो?”

“क्या तुम इन सड़कछाप ज्योतिषियों की बातों पर यकीन करते हो?”

“यह बड़े पते की बात बताते हैं। अपन को एक ज्योतिष ने बताया था कि अपन को कुछ भी आसानी से नहीं मिलेंगा।”

“यह सब बकवास है जो आदमी एक टाट पर बैठ कर दूसरों के भाग्य का हाल बताता है उसे अपना नसीब नहीं मालूम…विवेक! यह नसीब, किस्मत कुछ नहीं होता, आदमी अपने दिल, दिमाग और हाथों में ही से अपना भविष्य बनाते हैं…इन नजूमियों, ज्योतिषियों पर कम बुद्धि वाले ही विश्वास रखते हैं।”

“अंजू, आओ देखें तो सही यह पंडित जी लम्बा-चौड़ा तिलक लगाए हमारे बारे में क्या कहते हैं?”

वे लोग ज्योतिषी जी के पास आकर बैठ गए। ज्योतिषी ने ध्यान से दोनों के चेहरे देखे तो उसके चेहरे पर मुस्कराहट फैल गई। वह बोला‒

“तुम दोनों में नया-नया प्रेम शुरू हुआ है।”

“हां पंडितजी…हम लोगों का प्रेम सफल होगा या नहीं?” पहले उसी ने अपना हाथ बढ़ाया।

ज्योतिषी ने ऐनक निकालकर साफ की फिर विवेक का हाथ देखा और बोला‒”तुम्हारा बचपन बड़ी परेशानियों में बीता है…बाप का साया छोटी उम्र में सिर से उठ गया था।”

विवेक ने विजयी ढंग से अंजला की ओर देखा। ज्योतिषी ने आगे कहा‒”तुम्हें कभी कुछ आसानी से प्राप्त नहीं हुआ‒जिस चीज को पाने की इच्छा तुम्हारे मन में उभरी उसे तुमने जबरदस्ती प्राप्त कर लिया।”

विवेक ने फिर अंजला की ओर देखा, ज्योतिषी ने सामने रखे एक कुण्डली पत्र पर कई जगह उंगली रखी और कहा ‘राहु’ और ‘केतु’ में कुछ अनबन प्रतीत होती है‒तुम्हारे जीवन में दो स्त्रियों की रेखाएं हैं-एक बहुत आसानी से आएगी, मगर वह मर जाएगी…दूसरी को पाने के लिए तुम्हें बहुत रुकावटों का सामना करना पड़ेगा।”

विवेक ने जल्दी से कहा‒”मगर मेरे जीवन में तो एक ही स्त्री है बाबा।”

“बेटा! हाथ की रेखाएं भगवान की बनाई हुई हैं….और भगवान के लिखे को कोई बदल नहीं सकता‒हां, हम उपाय बता सकते हैं‒मगर पहले हमारी दक्षिणा मिल जानी चाहिए…जितना गुड़ डालोगे उतना ही मीठा होगा।”

अंजला ने व्यंग्यात्मक ढंग से विवेक का हाथ खींचकर अपना हाथ बढ़ा दिया‒”पहले मेरा हाथ देखिए बाबा।”

ज्योतिषी ने उसका हाथ देखा और चेहरे पर लकीरें उभर आईं, उसने कहा‒”बेटी! आज का दिन तुम्हारे ऊपर बहुत भारी है…शनि, मंगल में बैठा है….आज के दिन तुम्हें घर की चहारदीवारी से बाहर नहीं निकलना चाहिए था।”

विवेक का चेहरा उतर गया…वह जल्दी से बोला‒”क्यों, कोई घटना घटनी है?”

“हां‒बेटा….रेखाएं तो यही बताती हैं।”

“चलो अंजला।” विवेक ने पांच रुपये का नोट फेंका और अंजला का हाथ पकड़ कर बोला‒”अपन तुम्हें तुम्हारे बंगले पर छोड़ने चलेगा।”

“ठहरो।” अंजला ने उसी व्यंग्य से कहा‒”मुझे अपने भाग्य का बाकी हल तो पूछने दो बाबा से।”

“नहीं…।” ज्योतिषी ने कहा‒”तुम भाग्य पर विश्वास नहीं रखतीं…ऐसा तुम्हारी हस्तरेखा में भी है…हां, अगर आज की घटना से तुम बच गई तो फिर तुम्हारी आयु रेखा बहुत लम्बी है।”

“मेरे जीवन साथी के बारे में कुछ बताओ बाबा।”

“अगर आज का दिन सुख से बीत गया तो तुम्हारे हाथ में शादियों की भी दो रेखाएं हैं…तुम्हारा पहला पति मर जाएगा।”

अंजला ने अपना हाथ खींचकर उठते हुए ठहाका लगाकर कहा‒”बाबा! मेरे जीवन में आने वाला पहला और आखिरी पुरुष यही है जो तुम्हारे सामने खड़ा है।”

“बेटी….बाबा अपने मन से कुछ नहीं कहता…मनुष्यों के हाथ और माथे की रेखाएं स्वयं ही बोलती हैं‒ये रेखाएं भगवान का लेख हैं…भगवान का मजाक उड़ाना पाप है।”

विवेक ने दस रुपये का एक और नोट उसकी हथेली पर रखा और अंजला की बांह कसकर पकड़ता हुआ बोला‒”अपनी गाड़ी की ओर चलो‒अपन तुम्हें तुम्हारे बंगले छोड़कर आएगा।”

“विवेक! आज हम लोगों ने शाम तक साथ रहने का प्रोग्राम बनाया है।”

वह फिर उसे खींचने लगा, तो अंजला बराबर कहती जा रही थी‒”अरे छोड़ो…मेरी कलाई टूट जाएगी।”

विवेक ने कोई उत्तर नहीं दिया। अंजला ने उसी मूड में हंसते हुए कहा‒”मेरे डैडी आज घर पर हैं, तुम वहां शाम तक नहीं ठहर सकते।”

“अपन आज उनसे भी मिल लेगा…तुमने बोला था न अपन को उनसे मिलाने को।”

“वह तो मैंने इतवार को कहा था…आज तो डैडी ने कुछ मेहमानों को बुलाया है।”

“अपन कुछ नहीं जानता।”

वे लोग उस गली के पास पहुंचे जहां अंजला की कार पार्क थी…अचानक गली में दौड़ते हुए कदमों की आहटों के साथ फायरिंग की आवाज आई। विवेक उछल पड़ा….अंजला भी घबरा गई थी…इससे पहले कि वह कुछ समझ पाती एक दाढ़ी-मूंछों वाला आदमी जिसने जीन्स, जैकेट पहन रखी थी पीछे से फायर करता हुआ आकर अंजला से टकराया…अंजला चीख मार कर गिर पड़ी।

भागने वाले ने झपट कर अंजला को दबोच कर उठाया…तब तक पुलिस की ओर से एक फायर हो चुकी थी। गोली अंजला की बांह में घुसकर उसकी खाल चीरकर निकल गई। अंजला की पीड़ा भरी चीख उभरी।

“अबे साला।” विवेक गला फाड़कर दहाड़ा।

अचानक अपराधी ने एक फायर विवेक के पैरों के पास किया, फिर फुर्ती से रिवाल्वर अंजला की कनपटी पर लगा कर गुर्राया‒आगे मत बढ़ना वरना इस लड़की का भेजा उड़ा दूंगा।”

तभी एक सब-इंस्पेक्टर और कुछ पुलिस वाले भी वहां पहुंच गए थे‒वे लोग भी ठिठक कर रुक गए।

‘कोई आगे मत बढ़ना। दाढ़ी मूंछों वाला अपराधी फिर गुरार्या‒खबरदार! वरना इस लड़की को जान से भी हाथ धोने पड़ेंगे।

अंजला थरथर कांप रही थी…चेहरा पीला पड़ गया था…आंखें फटी हुई थीं, लेकिन गोली की पीड़ा का एहसास नहीं था।

अपराधी ने फुर्ती से एक फायर विवेक की ओर कर दिया। इस बार विवेक चीख मार कर सीना पकड़ कर लड़खड़ाया….और कुछ कदम आगे बढ़कर औंधे मुंह गिर गया। अंजला चिल्लाई।

“विवेक….। विवेक….।”

“चुप रह साली।” बदमाश चीखा।

पुलिस के एस. आई. ने चिल्लाकर कहा‒”लड़की को छोड़ दो…तुम अब बचकर नहीं जा सकते।”

“इंस्पेक्टर! लड़की तो मेरी ढाल है…मुझे सुरक्षित मेरी गेटरबोट तक पहुंचाएगी, अगर कोई मेरे पीछे आया तो मैं उसकी खोपड़ी उड़ा दूंगा।”

वह पीछे हटने लगा…जैसे ही वह विवेक के पास से गुजरने लगा, विवेक ने फुर्ती से उसकी दोनों टांगें खींची कि वह न अंजला पर फायर कर सका, न अपने आपको संभाल सका। वह औंधे मुंह गिरा और रिवाल्वर भी उसके हाथ से निकल गया।

दूसरे ही क्षण इंस्पेक्टर की गोली लफंगे की खोपड़ी में लगी और वह रेत पर गिर पड़ा। विवेक झपट कर अंजला के पास आया जो बेहोश हो चुकी थी। उसने जल्दी से अंजला को टटोला…फिर अपने सीने से लगा लिया…इंस्पेक्टर उसके पास आकर बोला‒

शाबाश नौजवान! तुमने एक ऐसे अपराधी को समाप्त करने में हमारी मदद की है जिसकी चोरी, कत्ल और लड़कियों को अगुवा करने में हाथ था…उसे जिन्दा या मुर्दा पकड़वाने पर पांच लाख का इनाम था‒वह इनाम अब तुम्हें मिलेगा।”

“मुझे नहीं चाहिए इनाम इंस्पेक्टर साहब‒अगर मेरी अंजला को कुछ हो गया तो…।”

इंस्पेक्टर ने बैठकर अंजला की बांह देखी और फिर उठता हुआ बोला‒”इन्हें कुछ नहीं होगा‒गोली केवल खाल को थोड़ा चीर गई है…यह लड़की खुशनसीब है…अगर गोली एक इंच भी अंदर घुस जाती तो दिल में लग सकती थी।”

“नहीं!” विवेक ने अंजला को लिपटा लिया।

“घबराने की कोई बात नहीं…इसे अभी हमारी गाड़ी हस्तपाल पहुंचा देगी।”

थोड़ी देर बाद विवेक बेहोश अंजला के ऊपर झुका हुआ था। उसने पुकारा‒अंजू…ऐ अंजू तुम होश में हो न।”

अंजला ने बहुत कमजोर स्वर में कहा‒”तुम…तो जिन्दा हो।”

“ऐ साली…अपन कैसे मरेगा। अपन को तेरे साथ शादी बनाने का है…अब तो तेरी उमर बहुत लम्बी है।” कहते-कहते उसकी आवाज रुंध गई। उसने अंजला के होंठ चूम लिए।

“मेरी बांह….?”

“गोली थोड़ी खाल को घायल करके पार हो गई है…बैंडेज करके टीका लगा दिया गया है…दो चार दिन तक घाव ठीक हो एला है।”

“मैं घर जा सकती हूं?”

“अभी….अगर उठ सकती हो तो।”

अंजला ने उठने के लिए जोर लगाया और विवेक ने उसे सहारा देकर उठा लिया। फिर उसी की गाड़ी में बिठाकर विवेक ने ड्राइविंग सीट संभाल ली। अंजला ने उसके कंधों से सिर लगा लिया।

“अब तुम्हें नसीब पर विश्वास हुआ?” विवेक ने कहा‒”ज्योतिषी ने बताया तो था कि आज का दिन तुम पर भारी है।”

“हां विवेेक, अब तक तो मैं समझती थी भाग्य-वाग्य कुछ नहीं…मगर आज मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है कि यह सब पूर्व निश्चित है और हाथ और माथे की रेखाओं में लिखा होता है‒मगर विवेक, ज्योतिषी ने एक बात और भी तो बोली थी‒”

“क्या?”

“भूल गए? उसने कहा था कि मेरे हाथों में दो पुरुषों की लकीरें हैं…मेरा पहला पति मर जाएगा।”

“हां, बोला तो था, मगर यह नहीं बोला था कि कब मर जाएगा।”

“नहीं विवेक! ज्योतिषी की भविष्यवाणी को ऐसा कहकर नहीं टाला जा सकता।”

विवेक के माथे पर भी चिन्ता की लकीरें उभर आईं।

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