आज खंडाला में आए आनंद को एक महीना होने को आया था। अस्पताल से उसके बाबा सीधे दोनों को खंडाला ले आए थे। पट्टियाँ खुलने पर टांग का टूटा हुआ जोड़ तो ठीक हो गया, पर टांग बहुत कमजोर हो जाने से इस योग्य न हो सकी कि वह चल-फिर सके।
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आनंद के अच्छे रिकॉर्ड के कारण उसे नौकरी से निकाला न गया। रायसाहब ने भी मिल-जुलकर उसके केस को दबा दिया। फिर भी दोबारा उसे बंबई में नियुक्ति न मिली। उसकी बदली बंबई से कोई 200 मील दूर, बीनापुर में हो गई।
इतनी बड़ी पोजीशन छोड़कर अब वह बीनापुर वर्कशॉप का मैनेजर बनना पसंद न करता, परंतु परिस्थितियों और अपनी नव वधू के कारण, जिसे वह कभी दुःखी देखना न चाहता था, उसे नियुक्ति स्वीकार करनी पड़ी।
आखिर वह दिन भी आ गया। मदमाते यौवन में फिर से मादकता अंगड़ाइयाँ लेने लगी। बेला की आशाएं पूर्ण हो गईं। आज पूरे तीन महीनों बाद वह सांसारिक झमेलों से दूर आनंद की बाहों में अकेली थी। यह अवसर उसे बीनापुर की बियाबान पहाड़ियों में मिला, जहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य उसे बहुत भाया।
वर्कशॉप से थोड़ी ही दूर एक झील के किनारे एकान्त में एक छोटा-सा बंगला मिला था। वह एक नया संसार बनाना चाहती थी, एक निराला संसार, उस नीलकंठ से भी दूर, जो कभी-कभी आनंद के मस्तिष्क में आकर उसे भूली-बिसरी बातें याद करा देता था।
इसी निश्चय को लिए वह दिन-रात छोटे से बंगले को सजाने लगी। गोल कमरा, सोने का कमरा और खाने का-इन तीनों को उसने ऐसा सजाया जैसे किसी ने उस उजाड़ में स्वर्ग उतार दिया हो। वह अब इस छोटे से संसार में माधुर्य भरने का प्रयत्न कर रही थी, जो आनंद को ऐसे जकड़कर रखे कि वह उसकी इच्छा के विपरीत एक कदम भी न उठा सके।
दो महीने बीत गए और बेला का स्वप्न सत्य बन गया। आनंद सचमुच उसकी बनाई हुई इस दुनिया का मतवाला हो गया। घर के हर कोने में उसे बस एक ही तस्वीर दिखाई देती-बेला की, जिसके हर भाव, प्यार और स्वर में एक आकर्षण अनुभव होता, जो आनंद को अपनी ओर खींचे जाता।
एक दिन वर्कशॉप से लौटकर उसने बेला को सूचना दी कि रात की गाड़ी से मोहन उनके पास आ रहा है।
मोहन उसका छोटा देवर था, जो इगतपुरी में मिशन स्कूल में शिक्षा पाता था। बचपन में ही खेलकूद में उसकी टांग टूट गई थी और वह लंगड़ाकर चलता था। इसलिए उन्होंने उसे बोर्डिंग हाउस में रख छोड़ा था कि लड़कों में प्रसन्न रहे।
घर पर भी उसकी बहुत आवभगत होती। छोटा-बड़ा हर कोई उसकी इच्छा को पूरा करने का प्रयत्न करता। माँ-बाप उसे देखकर हमेशा उदास हो जाते। वे जानते थे कि इसका भविष्य अंधकारपूर्ण है, इसलिए इसके भोले मन को कोई ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए।
यह बात आनंद ने बेला से भी कह दी कि मोहन आज पहली बार उनके पास आ रहा है-उसे यह कभी अनुभव नहीं होने देना चाहिए कि जीवन उसके लिए बोझ बन गया है, जो वह उठा न सकेगा। आनंद ने उससे यह भी कहा कि घर में अब उसे दूसरा साथी मिल जाएगा। इस पर उसके सामने तो वह मुस्करा दी, पर उसके मन से यों धुआं निकलने लगा जैसे किसी जलती हुई चीज को उसने राख तले छिपा दिया हो। वह अपने जीवन में किसी का हस्तक्षेप पसंद न करती थी। मोहन दो महीने यहाँ रहेगा और उसके सुहावने जीवन में कांटे के समान खटकेगा-यह सोचकर वह मन-ही-मन खीझ उठती, पर मुँह से कुछ न कह सकती थी।
उसी रात मोहन आ गया। भाभी और भैया दोनों उसे स्टेशन पर लेने गए। बेला ने कंधे का सहारा देकर उसे गाड़ी में बिठाते हुए कहा-
‘मोहन, कितना अच्छा हुआ तुम यहाँ आ गए।’
‘सच भाभी, मैं तो सोच रहा था कि कहीं मुझ अपाहिज को देखकर भाभी नाक ही न सिकोड़ लें।’
‘तुम्हारी भाभी ऐसी नहीं, और तुम मन क्यों छोटा करते हो, ठीक हो जाओगे।’
‘तुम भी दूसरों के समान झूठी तसल्लियाँ देने लगीं। जब मैं जान गया हूँ कि यह टांग कभी ठीक न होगी।’
मोहन को बीनापुर बहुत अच्छा लगा-झील के किनारे उनका छोटा-सा सुंदर मकान, पक्षियों के मधुर गीत और दूर घाटी में गूंजती हुई झरनों की झर-झर, बरामदे में बैठकर जब वह यह दृश्य देखता तो उसके मन में गुदगुदी उठती, वह इस घाटी की गोद में एक शांति का अनुभव करता, यहाँ लोगों का हो-हल्ला, साथियों के ठहाके और उनकी छेड़छाड़ न थी-उसकी हर मुस्कान का साथ देने के लिए आनंद, बेला और प्रकृति का यह दृश्य था।
एक दिन इसी ध्यान में खोया वह भाभी से कह उठा-
‘जी चाहता है-जीवन भर तुम्हारी इसी बगिया में पड़ा रहूँ।’
‘क्यों नहीं, अब हम तुम्हें जाने थोड़े ही देंगे।’ भाभी ने धीरे से कहा।
‘हाँ मोहन, तुम पढ़ाई पूरी कर लो, फिर तो यहीं रहना है, तुम्हें हमारे पास।’ पास की कुर्सी पर बैठे आनंद ने कहा।
आनंद की यह सांत्वना हो सकता है समय की आवश्यकता ही हो। बेला जानती थी कि इस अपाहिज का बोझ उन्हें ही जीवन भर उठाना होगा।
उसने देखा जब से मोहन उसके पास आया है, आनंद का व्यवहार बदल गया है। काम से लौटते ही बस एक बहलावे की मुस्कान उसके लिए थी ‘हैलो बेला!’
और फिर वही मोहन की पुकार। कहीं दो घड़ी के लिए भी बाहर जाते तो विवश मोहन को साथ ले जाना पड़ता और फिर थोड़ा ही चलकर घर लौट आते, क्योंकि अधिक चलना मोहन की टांगें सहन न कर सकतीं थी। यदि कभी उसे अकेला छोड़कर दो घड़ी के लिए कहीं निकल भी जाते तो उसका ध्यान उन्हें बढ़ने न देता।
इसी उलझन में बेला का जीवन दूभर होने लगा।
एक दोपहर को अचानक बेला के कानों में आवाज आई-
‘भाभी!’
‘क्या है मोहन?’ उसने बिस्तर पर लेटे ही पूछा।
‘कोई मिलने आए हैं।’
अपने बालों को संवारती हुई वह अर्धनिद्रा में ही ड्रॉइंग रूम में चली आई, जहाँ मोहन बैठा पढ़ रहा था।
‘आप कब आए?’ झट उसकी जबान से निकला और वह बैठने का संकेत करते हुए आगे बढ़ी।
यह मिस्टर हुमायूं थे, जो इन घाटियों में किसी नई फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में आए थे और काम से अवकाश पाते ही आनंद से मिलने चले आए थे। बोले-‘आनंद कहाँ है?’
‘आते ही होंगे। पांच बजे वर्कशॉप बंद हो जाती है।’
बातों-ही-बातों में बेला ने बताया कि मोहन आनंद का छोटा भाई और उसका इकलौता देवर है।
इधर-उधर की बातें होती रहीं, कुछ फिल्मों की, कुछ बंबई की और कुछ सुंदर पर्वतों की।
हुमायूं ने जब घूम-फिरकर बंगले को देखा तो बोला-
‘सच पूछो भाभी-तुमने दुनिया की नजरों से दूर एक नन्हीं जन्नत बना रखी है।’
‘परंतु केवल अपने लिए, इतनी छोटी कि हम दोनों के अतिरिक्त तीसरा न समा सके।’
‘मैं भी तो यहाँ हूँ।’ मोहन बीच में बोल उठा।
‘ओह! मैं तो भूल ही गई-हम तीनों के लिए।’
मकान में घूमते हुए दोनों बरामदे में आ खड़े हुए। सामने झील का दृश्य और किनारे हरी-भरी पर्वतीय माला अति सुंदर दिखाई दे रही थी। हुमायूं इस दृश्य का आँखों में रसपान करते हुए बोला-
‘कितनी खूबसूरत है।’
‘क्या?’ चौंकते हुए बेला ने पूछा।
‘यह नजारा-गहरी नीली झील और यह खामोशी-जी चाहता है, एक कहानी लिख डालूँ फिल्म के लिए।’
‘विचार तो अच्छा है-कहानी बड़ी रोमांस-भरी होगी।’
‘हाँ, यदि आपने इजाजत दी तो इसकी शूटिंग भी यहीं की जाएगी।’
‘परंतु एक शर्त पर।’
‘वह क्या?’
‘कहानी की हीरोइन का पार्ट मुझे मिले।’
उसकी बात सुनकर हुमायूं हँसने लगा और बेला उसके चेहरे को आश्चर्य से देखने लगी।
वह जानती थी कि किसी का भी मूल्य उनके निकटतम संबंधी नहीं, बल्कि पराये ही लगा सकते हैं। आज तक उसे हुमायूं की कंपनी के मालिक के वे शब्द याद थे-
‘आप हीरोइन बनें तो आसमान पर चमक सकती हैं।’
वर्कशॉप बंद होते ही आनंद सीधा घर आया। वहाँ हुमायूं को बैठे देखकर फूला न समाया। उसे ड्राईंग रूम में बिठाकर वह सीधा आंगन की ओर आया, जहाँ मोहन बैठा भैया के आने की प्रतीक्षा कर रहा था। आते ही आनंद ने एक पैकेट मोहन के हाथों में देते हुए कहा-
‘लो, माँ ने भिजवाया है।’
‘क्या?’
‘लड्डू, तुम्हारे लिए’, प्यार से उसके कंधे को थपथपाते हुए वह रसोईघर की ओर बढ़ा। सामने बेला दीवार का सहारा लिए उसी को देख रही थी। आनंद मुस्कुराते हुए उसके बिलकुल पास आकर बोला-
‘बेला! शीघ्र चाय लाओ, फिर तुम्हें…’
‘फिर क्या?’
‘फिर तुम्हें एक शुभ सूचना सुनाऊँगा।’
‘क्या?’
‘चाय के बाद।’
‘नहीं, इतनी प्रतीक्षा न हो सकेगी।’
‘तो सुनो, कल मैं तुम्हारे मायके यानी अपने ससुराल जा रहा हूँ।’
‘किसलिए?’
‘कंपनी के काम से-मोटरों के पुर्जों इत्यादि का प्रबंध करना है-और हाँ, इस बार मेरा अधिक व्यापार तुम्हारी दीदी से होगा।’
दीदी का शब्द सुनते ही वह सिर से पांव तक कांप गई। वह आश्चर्य से विस्फारित दृष्टि अभी आनंद पर जमा भी न पाई थी कि आनंद बात को जारी रखते हुए बोला-
‘हाँ तुम्हारी दीदी के कारखाने में बने पुर्जों को हमारी कंपनी ने बहुत पसंद किया है और उसके साथ एक एग्रीमेंट लिखने को कहा है।’

‘क्या एग्रीमेंट?’
‘व्यापार का-चन्द पुर्जों की मोनोपली हम ले रहे हैं, इसमें हमारा भी लाभ है और तुम्हारी दीदी का भी।’
‘ओह! तो अच्छा ही है-दीदी भी क्या याद रखेंगी कि आप उसके कितने काम आए।’
‘और मजे की बात यह है, वह मुस्कुराते हुए बोला-‘संध्या अभी तक नहीं जानती कि हमारी कंपनी और उसके कारखाने के मध्य बातचीत के पीछे मेरा हाथ है।’
नीलकंठ-भाग-22 दिनांक 18 Mar.2022 समय 10:00 बजे रात प्रकाशित होगा ।

