neelkanth by gulshan nanda
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हुमायूं ने स्नेह से थपकाते हुए उसे सोफे पर बिठा दिया और उसके आँसू पोंछते हुए बोला-‘संसार में मन को लगी कुछ ऐसी ही ठोकरों में जीवन का आनंद छिपा है।’

वह चुप रही और सिसकियाँ भरते हुए इस नई समस्या को सुलझाने का उपाय सोचने लगी। हुमायूं ने उसके विचारों का तांता तोड़ना उचित न समझा और चुपके से उठकर चाय तैयार करने लगा।

नीलकंठ नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

चाय का धुआं मुँह पर अनुभव करते हुए बेला ने दृष्टि घुमाकर हुमायूं को देखा, जो प्याला हाथ में लिए उसे देख मुस्करा रहा था। बेला ने प्याला पकड़ लिया और आँखों से ही धन्यवाद करते हुए चाय पीने लगी।

‘यह आपने अच्छा नहीं किया?’

‘क्या बेला?’ हुमायूं ने अपने विचारों को बांधते हुए उसकी ओर देखा।

‘मेरे मन में आग लगाकर कि वह दीदी के यहाँ हैं, इसका वर्णन मुझसे न किया होता तो अच्छा था।’

‘हिम्मत से काम लो, तुम अभी से घबरा गईं। न जाने आगे चलकर अभी कैसी-कैसी बातें लगनी हैं दिल पर।’

‘किंतु मुझसे यह न देखा जाएगा, मुझे यह सब भूलना ही होगा।’

‘पर भुला न सकोगी, जितना दूर जाना चाहोगी वह बेचैनी काली रात की स्याही की तरह तुमसे लिपटती ही जाएगी।’

‘नहीं, ऐसा न होगा, मैं अपने मन से उसकी याद तक मिटा दूँगी।’

‘वह तो तुम्हें मिटानी ही होगी, जब दो दिल एक हो जाएँ तो तुम्हें कांटे की तरह बीच में रहना भी नहीं चाहिए, मुमकिन है कि आनन्द और तुम्हारी दीदी सदा के लिए एक हो जाएँ।’

‘नहीं-नहीं’-बेला झुंझला उठी, ‘वह ऐसा कभी न करेंगे।’

‘नादान हो ना, इंसान की फितरत से नावाकिफ, तुम्हारी यह नफरत दिन-ब-दिन उसकी मुहब्बत को मजबूत बना रही है एक चट्टान की मानिन्द, जिसे तुम कभी न तोड़ सकोगी।’

‘तो क्या करूँ? वह तो मुझ पर विश्वास ही खो बैठे।’

‘उसे दोबारा पैदा करो।’

‘वह कैसे?’

‘यह मैं सोचकर बताऊँगा।’

दूसरे दिन हुमायूं कुछ समय निकालकर संध्या के यहाँ गया तो उसे यह सुनकर प्रसन्नता हुई। उसे अपनी मंजिल समीप दिखाई देने लगी। संध्या को विश्वास हो गया कि हुमायूं की सहायता से वह आनंद और बेला के बीच खड़ी घृणा की दीवार को तोड़ देगी।

‘आखिर यह सब क्या तमाशा है?’ आनन्द ने असावधानी से अपने-आपको सोफे पर फेंकते हुए पूछा।

‘एक अनोखी शादी का इंतजाम-एक ब्याहता जोड़े में मिलाप की तैयारियाँ यानी बेला और तुम्हारी फिर से सुलह। कहो आनन्द, कैसी रही?’

आनन्द ने उसी असावधानी से हुमायूं की ओर देखा और मुस्कराते हुए होंठों को दबाकर इतना कहा-‘शायद तुम नहीं जानते, स्त्री नदी का बहाव है, एक बार छोड़ दे तो लौटकर नहीं आती।’

‘किंतु हम बांध लगाकर उसका बहाव ही बदल देंगे।’ संध्या ने धीमे स्वर में कहा।

‘बहाव तो बदला जा सकता है परंतु जल लौटकर न आएगा, बल्कि किनारों से हटकर कोई नया मार्ग अपना लेगा।’

‘हम भी यही चाहते हैं कि वह टूटे-फूटे किनारों को छोड़कर कोई नया मार्ग अपना ले, किसी वीराने में हरियाली भर दे।’

हुमायूं ताली पीटने लगा और बोला- ‘खूब-खूब, आज की बहस तो काफी शायराना है।’

‘और आप दोनों का स्वभाव भी मुझे तो क्षमा कीजिए, मुझे तैयारी करनी है।’

‘कहाँ की?’ हुमायूं ने आँख ऊपर उठाकर आनन्द की ओर देखते हुए पूछा, जो भीतर वाले कमरे की ओर जा रहा था।

‘बीनापुर’, वह रुकते हुए बोला- ‘कभी-कभी उनकी ओर से यहाँ आया करता था, पर अपने कारखाने की ओर से वहाँ जा रहा हूँ।’

हुमायूं एकाएक चुप हो गया और सोचने लगा। चंद क्षण सोचने के बाद बोला-‘कितना अच्छा मौका है।’

‘कौन-सा?’ संध्या ने झट पूछा।

‘आनन्द बीनापुर जा रहा है, कहो तो बेला को भी भिजवा दूँ।’

आनन्द हुमायूँ की बात सुनकर खिलखिलाकर हँस पड़ा और हुमायूं के पास आकर बोला-‘वास्तव में कितना सुंदर विचार है, हुमायूं भाई! इस मानसिक उपज को फिल्म इंडस्ट्री के लिए रख छोड़ो, इन बेतुकी बातों को जोड़ते रहोगे तो भूखे मरोगे।’

‘आनन्द तुम तो हर बात मजाक में टाल देते हो, आखिर वह तुम्हारी बीवी है, तुम दोनों की भलाई इसी में है कि नफरत का कांटा दिलों से हमेशा के लिए निकाल दो।’

‘फिर क्या होगा?’ आनन्द ने हँसते हुए पूछा।

‘प्यार का चश्मा फूट पड़ेगा।’

‘प्यार, हूँ! वहाँ घृणा और जहर के अतिरिक्त कुछ नहीं। साँप से अमृत की आशा रखना अपनी भूल है।’

‘किंतु जहर देखते हुए उसका नाश न करना उससे भी बड़ी भूल है। आप भी तो अपने मन में बेला के लिए घृणा का जहर रखते हैं।’ संध्या बोली।

‘हाँ रखता हूँ।’

‘तो अवसर से लाभ उठाइए। विष को विष काटता है। इस विष को अमृत बनाइए और बेला को अपने संग ले जाइए इस जगमगाती दुनिया से बहुत दूर बियावान पहाड़ियों की चोटियों पर; जहाँ से झरने फूटते हैं, झर-झर करता हुआ जल चट्टानों से खिलवाड़ करता है; घाटियाँ इसकी हँसी से गूँजती हैं, फिर…’

‘फिर…’आनन्द ने देखा कि संध्या के माथे पर पसीने के कण एकत्र हो गए हैं।

फिर एक दृढ़ पाँव जमाकर उसे खड्डे में धकेल दीजिए, जहाँ वह सदा के लिए समा जाएं और आपके जीवन के सब कांटे निकल जाएं, सब विष समाप्त हो जाएं।’

‘संध्या!’ आनन्द चिल्लाया- ‘आज तुम भी मेरी भावनाओं का उपहास कर रही हो, मुझे तुमसे यह आशा न थी।’

यह कहते हुए आनन्द कमरे से बाहर चला गया। हुमायूं ने बढ़कर उसे रोकना चाहा, पर संध्या के संकेत पर वह चुप हो गया।

कुछ देर दोनों मौन एक-दूसरे को देखते रहे। फिर संध्या बोली-

‘आपको बेला के पास जाना होगा।’

‘तो क्या?’

‘हाँ, उसे बीनापुर जाना ही चाहिए। हो सकता है जब दोनों इस बनावटी दुनिया से दूर अकेले में मिलें तो पिछली बातें भूलकर अपने को समझने का यत्न करें।’

‘अच्छा, तो मैं सबसे पहले यही काम करता हूँ, लेकिन मिस्टर आनन्द!’

‘उन्हें आप मुझ पर छोड़ दें, सब समझा दूँगी। उनका मन तो बच्चों-सा है, थोड़े ही समय में बदल जाएगा।’

‘तो मैं चला। कल जाना चाहिए न उसे?’

‘जी दोपहर की गाड़ी से।’

हुमायूं वहाँ से सीधा बेला के यहाँ गया। वह घर पर न थी, रायसाहब के यहाँ गई थी। जब नौकर ने बताया कि वह आने ही वाली होगी, तो हुमायूं उसकी प्रतीक्षा में वहीं जम गया।

उसे अधिक परीक्षा न करनी पड़ी। थोड़ी ही देर बाद बेला आ पहुँची। हुमायूं को देखते ही उसके उदास होंठों पर फीकी-सी मुस्कान नाचने लगी। वह कंधे से लटके पर्स को अलग फेंकते हुए बोली-‘कहिए भाई साहब, कैसे आना हुआ?’

‘तुम्हें कहा था न सोचकर बताऊँगा।’

‘क्या?’

‘तुम्हारी परेशानियों का हल, सो मैंने सोच लिया।’

‘उनके विषय में।’

‘हूँ।’

‘क्या सोचा है आपने?’

‘कल सुबह ही बीनापुर जाना होगा।’

बीनापुर का नाम सुनते ही वह चौंक गई। उसके मुँह पर हवाइयाँ-सी उड़ने लगीं। उसे लगा जैसे पिछली याद चुभन-सी बनकर उसके हृदय में उतर गई है। वह आश्चर्य से हुमायूं की ओर देखने लगी।

‘हाँ बेला! बीनापुर।’ वह उसे आश्चर्य में डूबी देख कहने लगा-‘कल आनन्द भी वहाँ जा रहा है। बहुत खूबसूरत मौका है, इसे हाथ से न जाने दो।’

‘परंतु क्या होगा?’

‘औरत चाहे तो क्या नहीं कर सकती, तुम्हें फिर से अपनी मुहब्बत जीतनी होगी। संध्या की याद और हमदर्दी उसके दिल से दूर करनी होगी, वरना-वरना…’

‘वरना क्या होगा?’

‘उम्र भर तड़पना होगा।’

‘तो मैं यह तड़प सह लूँगी।’ वह घमंड से गर्दन उठाते हुए बोली।

‘नादान न बनो। जो मैं कहता हूँ मानो, यह वक्त अकड़ने का नहीं, अक्ल से काम लेने का है।’

‘किंतु आप नहीं जानते कि बीनापुर कुछ पुरानी घटनाओं को ताजा कर देगा।’

‘तो अच्छा है, प्यार और मुहब्बत के पैबन्द मजबूत हो जाएंगे।’

‘नहीं, बल्कि घृणा के बीज जो हमने वहाँ बोए थे फैलकर पौधे बन चुके हैं, जिन्हें देखने का साहस हममें अब न होगा।’

‘घबराओ नहीं, नफरत के इम्तहां में ही मुहब्बत की सीढ़ी छिपी है। फिर तुम औरत हो, एक हसीन व दिल में समा जाने वाली औरत, तुम्हें क्या डर, तूफानों से लड़ना तो तुमने खूब सीखा है।’

बेला चुप हो गई और अपने आंचल का किनारा मुँह में चबाते हुए किसी गहरी सोच में डूब गई। हुमायूं उठा और चलने लगा।

‘आप चल दिए!’ बेला ने अपने ध्यान में ही कहा।

‘हाँ बेला, देर काफी हो चुकी है और काम बहुत है।’

‘आप मेरा उत्तर न दीजिएगा?’

‘जरूरत नहीं, मैं जानता हूँ कि तुम मेरा कहना कभी न ठुकराओगी और इसी में तुम्हारी भलाई भी है।’

बेला की आँखों में आँसू आ गए, जिन्हें हुमायूं ने बढ़कर प्यार से पोंछ डाला।

‘कल शूटिंग का क्या होगा?’

‘मैं सेठजी को समझा दूँगा।’ हुमायूं ने सांत्वना देते हुए उत्तर दिया और बाहर चला गया।

बेला वहीं खड़ी-खड़ी देर तक उसे देखती रही।

नीलकंठ-भाग-29 दिनांक 25 Mar.2022 समय 10:00 बजे रात प्रकाशित होगा ।

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