यह बेला का पांचवां पत्र था, जो सवेरे की डाक से आनंद को मिला। आनंद ने ध्यानपूर्वक लिफाफे को उलट-पलटकर देखा और यों ही मेज पर रख दिया। आज का लिफाफा फिल्म-कंपनी का ही लिफाफा था, जिस पर बेला की तस्वीर थी। मुस्कराती हुई, एक सुंदर लहंगा पहने वह बैलगाड़ी का सहारा लिए खड़ी थी। पहली ही फिल्म में शायद उसे गांव की सुंदरी का रोल मिल गया था।
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बेला गई, किंतु आनंद के मन की उलझनें न गईं। वह पागल हुआ जा रहा था। लज्जा से वह वर्कशॉप में गश्त न करता। जहाँ जाता, लोग टुक-टुक उसे देखने लगते, जैसे उसने किसी का खून किया हो। डर से उसके सामने सब चुप रहते, किंतु उसके थोड़ी दूर जाने पर उनकी खुसर-फुसर की भनक उसके कानों में पड़ जाती। सब यही कहते होते-‘इसकी बीवी घर-बार छोड़कर बंबई की एक फिल्म-कंपनी में हीराइन का काम कर रही है। बहुत सुंदर थी।’
ऐसी बातें सुनकर वह तिलमिला जाता और अपने कमरे में आकर चुपचाप बैठ जाता। काम का ढेर लगता जा रहा था, पर उसका दिमाग काम न करता। मजदूर कामचोर हो गए, परंतु आनंद को इतना साहस न होता कि उनको बुलाकर डांट सकता।
इज्जत-पैसा-नाम-उसने लिफाफा उठाकर फिर बेला की तस्वीर को देखा और बिना पढ़े उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। पत्र के टुकड़े खिड़की में से उड़कर दूर तक हवा में बिखर गए। आनंद के मन को ठेस-सी लगी। उसे प्रतीत हुआ, जैसे उसकी इज्जत की धज्जियाँ उड़ी जा रही हों।
आनंद का यह दीवानापन सीमा से बढ़ गया और उसने नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया। घर का सामान खंडाला भिजवाकर वह बीनापुर छोड़कर चल दिया-बहुत दूर-बंबई और उन लोगों से दूर, जो उसे देखकर हंसने लगते थे-वह उस वातावरण से बहुत दूर जाना चाहता था जहाँ की सरसराती हुई हवा में भी विषैली हंसी की गूंज थी-वह बस्तियों में गया, वीरानों में घूमा, पहाड़ों की एकांत चोटियों पर गया-पर उसे कहीं शांति न मिली। वह तीर्थ-स्थानों में भी गया, जहाँ की पवित्र भूमि पर लोग मन का सुख पाते हैं, परंतु उसका सुख, उसका चैन उससे कोसों दूर भाग चुका था। उसे तनिक भी चैन न मिला। उसकी मानसिक उलझनें क्षण-भर के लिए न रुकीं। उसके व्याकुल मन में स्थिरता न आई।
आखिर उसे उसी दुनिया में लौट आना पड़ा। वह बंबई लौट रहा था और तीसरे दर्जे के डिब्बे में बैठा खिड़की से बाहर दौड़ती हुई जमीन को देख रहा था-धरती घूमे जा रही थी-पत्थर, पेड़, ऊँचे-ऊँचे पहाड़, लंबी-लंबी नदियाँ हर चीज उसकी दृष्टि में घूम रही थी। उसे लग रहा था, जैसे उसी की भांति-संसार की हर वस्तु मंजिल की खोज में भागी जा रही है। अंतर केवल इतना था कि इन्हें अपनी मंजिल का ज्ञान था और वह बिना कुछ जाने भटक रहा था, परेशान था।
खिड़की पर आधे उतरे हुए शीशे पर उसकी दृष्टि पड़ी तो अपनी ही सूरत देखकर वह चौंक गया। बड़े दिनों बाद उसने आज अपनी सूरत देखी थी। आँखें अंदर धंस गई थीं। लंबे बढ़े हुए बाल, जिन पर न जाने कब से कंघी नहीं हुई थी। दाढ़ी बढ़कर उसे भयानक बना रही थी। मुँह की रंगत यों हो गई थी मानो सफेदी को धुएं से झुलसा दिया गया हो। वह भी बिलकुल बदल चुका था। उसे शायद इस दशा में कोई निकट संबंधी भी न पहचान सकता। वह सचमुच पागल दिखाई देता था। लोग उसे भयभीत दृष्टि से देखते, जैसे वे इस सूरत के पीछे छिपी कहानी को पढ़ना चाहते हों।
एक झटके के साथ गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकी। यात्रियों के शोर ने उसे भी जगा दिया-जैसे किसी सिनेमा-हॉल में फिल्म कट जाने से उसमें शोर हो उठता है।
उसने बाहर झांककर देखा। यह बीनापुर ही था। वही छोटा-सा स्टेशन, दो-चार गिने-चुने रेलवे बाबू और कुली-वर्षों से उसमें कोई बदलाव न आया था और एक वह था, जो चंद महीनों में ही इतना बदल गया था कि कोई उसे पहचान न सकता था। उसे ऐसा अनुभव हुआ जैसे बीनापुर की हर चीज उसे पहचानने का यत्न कर रही है और उसका उपहास कर रही है।
‘बाबा जरा सामने से एक पान तो ले आना।’ किसी आवाज ने उसके विचारों का तांता तोड़ दिया। एक बुढ़िया ने पैसे बढ़ाते हुए उससे कहा। आनंद ने पान लेकर उसे दिया और बुढ़िया ने पान खाते हुए कागज को बाहर फेंकना चाहा, पर खिड़की से टकराकर आनंद की गोद में आ पड़ा। आनंद ने कांपती हुई उंगलियों से कागज को खोला और झट से मसलकर बाहर फेंक दिया। कागज पर बेला की तस्वीर छपी थी।
गाड़ी प्लेटफॉर्म छोड़कर सिगनल तक पहुँच चुकी थी। आनंद अपनी व्यग्रता को भूलने के लिए फिर बाहर झांककर देखने लगा-वही घूमती हुई धरती, ऊँचे-ऊँचे स्थल, आकाश पर मंडराते हुए बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े-पर वह सब क्यों देखता है-उसकी भटकती आँखों को किसी की खोज थी, वह कहीं दिखाई न देता था।
‘कुली-कुली’ की आवाजों से बंबई सेंट्रल का स्टेशन गूंज उठा। लोगों की भीड़ एक साथ बाहर निकलने लगी। आनंद ने अर्द्ध-निद्रा से आँखें खोलीं और फिर सो गया।
न जाने वह कितनी देर तक ऐसे ही सोया रहा कि किसी ने उसे चौंका दिया। टिकट चैकर उसे झिंझोड़कर टिकट पूछ रहा था। वह आँखें मलकर सीधा उठकर बैठ गया और जेब में हाथ डालकर उसने अपनी पूरी पूंजी बाहर निकाल ली-एक टिकट और पांच रुपये-यही उसकी अंतिम पूंजी थी। टिकट उसने चैकर के हाथों में दे दिया और नोट देखने लगा-उस नोट को जो कभी वह चपरासी को इनाम में दिया करता था-आज उसके टिमटिमाते जीवन का अंतिम सहारा था।
‘बंबई तो आ गई-तुम यहाँ बैठे क्या कर रहे हो?’ टिकट लौटाते हुए बाबू ने पूछा।
‘जी-ओह!’ उसने एक दृष्टि उस खाली डिब्बे में दौड़ाई, जो थोड़े समय पहले यात्रियों से खचाखच भरा हुआ था और हड़बड़ाकर उठ बैठा।
प्लेटफॉर्म पर उतरते ही उसने सामने लगी घड़ी को देखा। रात के दस बज चुके थे, किंतु स्टेशन पर अभी गहमागहमी थी। बिजली के उजाले में रात में दिन हो रहा था। हर आदमी किसी धुन में व्यस्त था। आनंद सामने लोहे के जंगले से लगे बड़े-बड़े बोर्ड को देखकर रुक गया-अबकी बार वह चौंका नहीं-किसी नश्तर ने उसके मन में चुभन नहीं की-इन बातों का अब वह अभ्यासी हो गया था। बेला की इतनी लंबी-चौड़ी तस्वीर देखकर उसे लगा मानो वह स्वयं आकर खड़ी हो गई। क्षण-भर के लिए तो उसके सामने एक झनझनी-सी हुई, किंतु फिर वह गंभीर हो गया और ध्यानपूर्वक उसे देखने लगा। वह एक समय पश्चात् उसे जी भरकर देख रहा था।
इतने में तेरह-चौदह वर्ष का एक काला-कलूटा लौंडा बगल में बूट पॉलिश का संदूक लगाए आगे बढ़ा और तस्वीर के पास आ खड़ा हुआ। जाने उसे क्या सूझा कि झट से काली पॉलिश का डिब्बा निकाला। उसने कुछ पॉलिश उंगली पर लगाई और बेला की मूंछें बना डालीं।
आनंद से यह न देखा गया कि कोई उसकी उपस्थिति में उसका यों उपहास उड़ाए। उसने लपककर लड़के का हाथ पकड़ लिया और जोर से झटका देते हुए बोला-
‘यह क्या करता है?’
‘कालिख लगाता हूँ। कहीं हमारे मन की रानी को नजर न लगे।’
‘रानी-मन की रानी।’ आनंद ने मुँह मोड़ लिया। उसके कानों में उस छोकरे की हंसी जहर बनकर लगी। वह चुपचाप देखने लगा और छोकरा उछलता-कूदता दूर चला गया। उसने फिर तस्वीर को देखा, जो उन मूंछों में बड़ी विचित्र लग रही थी। अभी तक उसका ध्यान फिल्म के नाम पर न गया था और अब एकाएक उसके नीचे ‘सँपेरा’ पढ़कर उसे अनुभव हुआ कि वहाँ कोई नागिन थी। तस्वीर काटने को दौड़ी और आनंद लंबे-लंबे डग भरता हुआ मुँह फेरकर बाहर जाने लगा। उसकी दृष्टि स्टेशन पर लंबे-लंबे स्तंभों से टकराती और वह कांप जाता। हर स्थान पर सपेरन का इश्तहार लगा हुआ था। कई तस्वीरें नागिन बनी डसने को बढ़ रही थीं-वह और तेज चलने लगा।
स्टेशन को छोड़कर अब वह खुली सड़क नापने लगा। हर नुक्कड़, हर चौक पर उसे वही तस्वीर दिखाई दी- सपेरन-सपेरन, वह रुकता, मुट्ठियाँ भींच आँखें बंद कर लेता। वह उजाला उसे खाए जाता था और वह अंधेरे में जाना चाहता था। उसके पांव एक पुल के नीचे अंधेरे में रुके। उसने ऊपर आकाश की गहराईयों को देखा, अंधेरी रात में सितारे अपने पूरे यौवन पर थे। वह दीवार का सहारा लेकर वहीं फुटपाथ पर बैठ गया।
आनंद का शरीर थकावट से टूट रहा था। किंतु फिर भी नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। मस्तिष्क पर जोर देने से वह आसपास के मकानों को पहचानने लगा। उसे याद आ गया-यह सैंडहर्स्ट ब्रिज था। थोड़ी दूर उसका दफ्तर था, जहाँ किसी समय वह सेल्स मैनेजर था और जब कभी वह गाड़ी में इस पुल से गुजरता तो फुटपाथ पर पड़े हुए लोग मुर्दों की पंक्ति प्रतीत होते थे और आज उन मुर्दों में एक लाश उसकी भी थी। उनमें और इस लाश में अंतर केवल इतना था कि वे शांति में पड़ी थीं और यह जीवन की चोटों से तड़प रही थी।
दफ्तर से थोड़ी दूर हुमायूं का स्टूडियो था, जहाँ प्रायः वह शाम को चला जाया करता। आज उसी स्टूडियो में उसकी इज्जत की नीलामी हो रही थी और उसका मित्र आवाजें देकर बोली को बढ़ा रहा था। वह क्रोध से तिलमिला उठा। स्टूडियो की दीवारें, हुमायूं, सेठ, बेला, बारी-बारी सब उसके मस्तिष्क पर हथौड़े चलाने लगे। वह आँखें फाड़-फाड़कर उस रास्ते को देखने लगा, जो स्टूडियो की ओर चला जाता था-न जाने क्या सोचकर वह उसी रास्ते पर बढ़ गया।
रात आधी से अधिक बीत चुकी थी। स्टूडियो का फाटक आधा बंद हो रहा था। पहरेदार पठान नींद में ऊंघ रहा था। आनंद धीरे-धीरे सांस रोककर उस फाटक के भीतर चला गया और उधर हो लिया, जहाँ से उजाला आ रहा था।
किसी ने बताया सपेरन की शूटिंग हो रही है। सपेरन का नाम सुनते ही उसके मन को धक्का-सा लगा। वह बढ़ते-बढ़ते हॉल के दरवाजे तक जा पहुँचा, जो भीतर से बंद था। वह हॉल के पीछे वाले दालान में जा बैठा। सेठ साहब की गाड़ी भी वहीं खड़ी थी। वह जानता था कि फिल्म के बड़े-बड़े अभिनेता और अभिनेत्रियाँ पीछे से ही गाड़ी में बैठकर बाहर निकल जाते हैं और बाहर वाले दरवाजे पर लोग प्रतीक्षा करते-करते लौट जाते हैं।
मौन वातावरण में गुनगुनाहट हुई और फिर किसी के हंसने की आवाज सुनाई दी।
‘बेला वंडरफुल, एक्सीलेंट-मुझे आशा न थी कि तुम गुणों का सागर छुपाए हुए हो।’
‘इस प्रशंसा का धन्यवाद।’ इस वाक्य ने आनंद के मन पर बिजली का-सा काम किया, आज एक समय पश्चात् उसे अपनी बीवी की आवाज सुनाई दी थी-कितनी कोमलता थी उसके स्वर में-आनंद को यों अनुभव हुआ कि कोई नर्तकी किसी सेठ का धन हड़पने के बाद उसका धन्यवाद कर रही है।
आनंद चौकन्ना हो गया। सामने से बेला, सेठ और उसके साथ हुमायूं कार की ओर जा रहे थे। हुमायूं को देखकर आनंद क्रोध से आग-बबूला हो गया। उसे अपने मित्र से ऐसी आशा न थी कि वह बेला को ऐसे काम में डालेगा।

जैसे ही वह कार की ओर आए, आनंद भी छिपते-छिपते उनके साथ बढ़ने लगा। न जाने उसके मन में क्या आया कि वह झट से आगे बढ़ा और उसने बेला का हाथ पकड़ने का एक व्यर्थ प्रयत्न किया।
‘ऐ! क्या करता है?’ सेठ साहब रुकते हुए चिल्लाए।
वह पागलों के समान उसकी ओर देखने लगा। हुमायूं ने एक कदम आगे बढ़ाकर उसे धकेलते हुए कहा-‘क्या है बाबा?’
‘न जाने यह भिखारी लोग रात में भी पीछा क्यों नहीं छोड़ते?’
नीलकंठ-भाग-25 दिनांक 21 Mar.2022 समय 10:00 बजे रात प्रकाशित होगा ।

