gunahon ka Saudagar by rahul | Hindi Novel | Grehlakshmi
gunahon ka Saudagar by rahul

विवेक के बदन पर दूल्हे का जोड़ा था…सिर पर सेहरा बंधा था…जब वह सुहाग कक्ष में दाखिल हुआ तो फूलों से सजी सेज पर अंजला बनी संवरी दुल्हन बनी बैठी थी‒विवेक की आंखों में आंसू छलक रहे थे‒चेहरे से लगता था जैसे रो पड़ेगा।

कुछ देर तक वह दरवाजे के पास ही खड़ा रहा‒अंजला ने घूंघट उठाया तो उसकी भी आंखें भीग रही थीं।

कच्चे धागे नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

“अंजू!” विवेक रुआंसा होकर आगे बढ़ा।

“विवेक!” अंजला के हाथ फैल गए और विवेक अंजला से लिपट कर रो पड़ा।

“अब क्या होगा अंजला?” वह सिसकता हुआ बोला।

“तुम मर जाओगे…मैं विधवा हो जाऊंगी।”

“उल्लू की पट्ठी!” विवेक झटके से खड़ा होता हुआ बोला‒”इतनी बड़ी दुखदायी बात तूने इतने आराम से कहा दी।”

“जो होना ही है उससे क्या मुंह छुपाना?”

“मैं मर जाऊंगा तो तू क्या करेगी?”

“मेरे हाथ में दूसरी शादी की रेखा भी है।”

“हाय! तू दूसरी शादी कर लेगी।”

“यह तो मेरे हाथ की रेखाओं में भी लिखा है‒और रेखाएं भगवान बनाता है…भला उन्हें कौन मिटा सकता है।”

“कदापि नहीं…बिल्कुल नहीं…मैं ऐसा कभी नहीं होने दूंगा…तुम्हारे हाथ की जिन रेखाओं में दूसरी शादी लिखी है मैं उन्हें मिटा दूंगा।

फिर उसने मेज पर फल काटने वाली छुरी उठा ली और अंजला का हाथ पकड़ लिया…अंजला ने जल्दी से मुट्ठी भींच कर भयभीत होकर कहा‒”नहीं….नहीं….मैं अपना हाथ नहीं कटवाऊंगी।”

“मैं तेरा हाथ नहीं…केवल वह लकीरें काट रहा हूं।”

“नहीं…नहीं…मैं नहीं काटने दूंगी टेटनस हो गया तो मैं मर जाऊंगी।”

“साली! मरने से डरती है…इसी को सच्चा प्यार कहती है।”

“मैं तुम्हारे लिए जान दे सकती हूं….मगर हाथ नहीं कटवा सकती…हाथ कट गया तो मैं लूली अपंग कहलाऊंगी।”

“मैं तुझे लूली और अपंग ही बनाकर रहूंगा।”

“ऐसा नहीं होने दूंगी मैं, चाहे जो भी हो।”

विवेक जबरदस्ती उसका हाथ खींचने लगा और अंजला बचाने लगी…इस छीना-झपटी में दोनों सेज से गिरे और अपने ही हाथ की छुरी विवेक के सीने में घुस गई…विवेक के गले से एक जोरदार चीख निकल गई‒”अरे मर गया।”

दूसरे ही क्षण विवेक उछल पड़ा। उसे दूल्हा बनाने के लिए नहलाया जा रहा था…वह झटके से अपने आपको छुड़ाता हुआ चिल्लाया‒”नहीं…मैं मरना नहीं चाहता।”

रीमा देवी चीख-चिल्लाहट सुनकर अंदर आ गई और झटके से बोली‒”क्यों चिल्ला रहा है…जा जल्दी से तुझे दूल्हा बनना है।”

“मां!” विवेक घुटनों के बल खड़ा होकर रीमा के पांव पकड़ता हुआ बोला‒”मैं मरना नहीं चाहता…हां मैं मरना नहीं चाहता।”

“हाय राम! कैसी अशुभ बातें कर रहा है आज के शुभ दिन…अरे मरे तेरे दुश्मन।”

“अरे मां, आज का दिन शुभ नहीं बहुत अशुभ हो जाएगा, अगर मेरी शादी अंजला से हो गई तो।”

“कैसी बातें कर रहा है‒क्या तुझे अंजला से प्यार नहीं है?”

“है मां…बहुत प्यार है।” विवेक गर्दन झटककर खड़ा होता हुआ रुंधे गले से बोला‒”मगर मैं उससे शादी नहीं कर सकता।”

“क्यों नहीं कर सकता…क्या कोई रुकावट है तेरी शादी में?”

“हां…रुकावट है…हम दोनों के हाथों की रेखाएं नहीं मिलतीं…इस समय शादी होने पर कोई अनजाना भारी प्रकोप हो सकता।”

“क्या मतलब! साफ-साफ बता।”

“मां, हम दोनों की रेखाओं में है कि शादी के बाद मेरी पहली पत्नी मर जाएगी‒अंजला का पहला पति मर जाएगा…अगर हम दोनों पहले एक-दूसरे के पति-पत्नी हो गए तो अपन दोनों ही मर जाएंगे।”

“क्या बकवास है? कौन-से ज्योतिषी ने बताया है तुझे”

“वह समुन्दर के किनारे बैठ कर लोगों को भाग्य की हाल बताया ला है।”

“ऐसी की तैसी उस ज्योतिषी की-ले चल उसके पास मुझे‒मैं उसके भाग्य का हाल उसे दिखा दूंगी झाड़ू मार-मारकर।”

“मां…”

“चल सीधी तरह दूल्हा बन‒मुहूर्त का टाइम हो रहा है।”

“मां, अपन मर जाएंगा।”

“यह बात तूने तब नहीं सोची थी जब उस शरीफ लड़की के कमरे में आधी रात के बाद जा घुसा था और उसे बदनाम कर दिया था…अब तो चाहे तू मर भी जाए, लेकिन तेरी शादी होगी इसी लड़की से।”

रीमा देवी ने डंडा उठाकर जोर से फर्श पर पटका…विवेक उछल कर पीछे हट गया।

“चल….बैठ….नहा।”

विवेक जल्दी से पटरी पर बैठकर रोता हुआ नहाने लगा और बोला‒”भगवान दुश्मन को भी ऐसी मां न दे।”

“क्या बोला?”

“अरे बोलने दे मां…और चंद घंटे के बाद तो अपन सदा के लिए चुप हो जाएंगा‒तब तू चिल्लाया करेगी…. ‘मेरे लाल मेरे लाल’….और अपन लाल, नीला, पीला होकर राख बन जाएंगा।”

फिर वह रोता हुआ नहाने लगा।

दूल्हा दुल्हन के फेरे हो गए…विवेक ने रोते-रोते गुरनाम और अपनी मां के चरण स्पर्श किए। गुरनाम ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा‒

“जंवाई जी! दामाद बेटे के समान होता है…आज से तुम मेरी सारी धन सम्पत्ति के मालिक हो।”

“ऐ हट!” विवेक ने उसका हाथ झटक कर रुंधे गले से कहा‒”अपन को नहीं चाहिए‒यह धन-दौलत।”

रीमा देवी जल्दी से आगे बढ़कर बोली‒”भाई साहब, मेरा बेटा स्वार्थी नहीं है….उसने यह शादी धन के लिए नहीं की है….वह तो आपकी बेटी से मन से प्यार करता था।”

“महान है मेरा दामाद…मैंने इन दोनों के लिए होटल फाइव स्टार में ‘सूईट’ बुक करा दिया है।”

“अपन नहीं जाएंगा साला होटल में…अपन उधर बस्ती में ही जाएंगा।”

“हां भाई साहब।” रीमा देवी जल्दी से बोली‒”जिस बस्ती में मेरे बेटे ने होश संभाला है, जवान हुआ है…भला वह कैसे उस बस्ती को भूल सकता है।”

“मेरी प्रार्थना है बहनजी…कुछ दिन बाद आप भी यहीं आ जाइएगा…इतना बड़ा बंगला है…सब मिलकर रहेंगे।”

“नहीं जाएगी मेरी मां, साले! तेरी नीयत में मुझे पहले ही खोट लगेली थी।”

रीमा ने सोंटी जमीन पर मारी तो वह विवेक के पांव में लग गई और वह चिल्लाया‒”अरे! मर गएला…मर गएला।”

“चुप…वर्ना यहीं मरम्मत कर दूंगी।”

विवेक चुप हो गया और लंगड़ाता हुआ कार तक आया…कार में पहले दुल्हन बैठी और फिर विवेक ने बैठते-बैठते रुआंसी आवाज में कहा‒”साले बुड्ढे! तूने अपन को फंसाए ला है…अपन मर गएला तो भूत बनकर आएगा तेरा गला दबाने को।”

रीमा देवी ने उसे कार में ठूंस दिया‒जब कार चली गई तो मेहमानों ने आश्चर्य से गुरनाम की ओर देखा…गुरनाम दांत निकालकर बोले‒”बड़ा मजाकिया है अपना दामाद‒उसका कोई साला नहीं है न इसलिए ससुर से ही मजाक कर लेता है।”

फिर वह जल्दी से अंदर चला गया।

विवेक के बदन पर दूल्हे के ही कपड़े थे…वह बस्ती के बाहर लकड़ी के खोखे पर चढ़ा बैठा था‒अंदर बस्ती में से लड़कियों के गाने-बजाने की आवाजें आ रही थीं।

“पत्नी जीत लाया री….बन्ना जीत लाया री।”

विवेक ने आंसू पोंछे और बड़बड़ाया‒”साली ऐसे गाए जा रही हैं जैसे इनमें से किसी को मरने का ही नहीं है…अरे सालों मर जाने दो एक बार…पूरी बस्ती को भूत बनकर डरा-डरा कर मार डालेंगा।”

इतने में सोंटी की खटखट सुनाई दी‒विवेक उछल पड़ा‒रीमा देवी सोंटी खटखट करती इधर-उधर देखती चली आ रही थी और पुकार रही थीं‒

“विवेक…विवेक…! अरे कहां चला गया इतनी रात में?”

“आ गई डिक्टेटर…अरे, तेरे को अपन की मां बनने की बजाए प्राइम मिनिस्टर बनने का था…यह साले दंगा-फसांद…झगड़े-शोषण, महंगाई सबका ‘एंड’ हो जाता।”

“हांय! तू यहां चढ़ा बैठा है!”

“अब क्या इधर चढ़ने को क्या पासपोर्ट, वीजा लेने को मांगता है।”

“अरे! आज तेरी सुहागरात है।”

“शर्म कर मां, बेटे से सुहागरात की बात करेली है…तेरे को अब भी एहसास नहीं कि तेरा इकलौता बेटा मरने वाला है।”

“मरें तेरे दुश्मन।”

“नहीं मरेंगा…साला एक भी दुश्मन नहीं मरेगा…भगवान का दिमाग भी उलट-पुलट हो गएला…इधर साला लोग उलटा ऐश करेंगा…अपन उधर परलोक में बैठा रोया करेगा।”

“तू नीचे उतरता है या नहीं?”

“वह तो उतरना ही पड़ेंगा।” विवेक ने रुंधे गले से कहा‒”ऊपर वाला दुश्मन को भी ऐसी कड़क मां न दे।”

फिर वह कूदते-कूदते एकदम संभल कर बड़बड़ाया‒”साला अपन जोर से नहीं कूदेंगा…सिर के बल गिर गएला तो इधर ही मर जाएगा।”

फिर वह संभल-संभल कर नीचे आया और बोला‒”देख मां‒अब जरा देखभाल के सोंटी उठाने का है…अगर कोई वार सिर पर पड़ गएला तो अपन का दिमाग बिल्कुल पलट जाएंगा।”

रीमा देवी उसे अपने साथ साथ लाईं…एक खोली के बाहर लड़कियों की भीड़ जमी थी जो सब अच्छे लिबासों और गहनों से सजी-धजी थीं…विवेक उन्हें देखकर मां का हाथ पकड़ कर बोला‒”ऐ मां! अपन को दुल्हन के साथ सुहागरात मनाने का है या बस्ती की लड़कियों के साथ? ये साली क्यों लाइन लगाए खड़ी हैं?”

“अरे तेरी तो…!” रीमा ने उसकी पीठ पर एक सोंटी टिकाई।

“अरे…मर गया मां…अपन तेरे को बोला था, अब देखभाल के मारने का है…साला किधर भी लग गएला…तो अपन भाग निकलेगा बिना टिकट।”

लड़कियों ने उसे पकड़कर जबरदस्ती दरवाजे में धकेल दिया और दरवाजा बाहर से बंद कर दिया।

“कर दो बंद सालियों…अपने को मालूम है मृत्युदण्ड से पहले ‘काल कोठरी में रखा जाएला है।”

फिर वह दुल्हन की ओर मुड़ा तो उसकी आंखें छलक पड़ीं…वह बोला‒”यह क्या हो गएला अंजला…अब तू भी विधवा हो जाएंगी और अपन भी रंडवा…तेरा पति मर जाएगा और अपन की पत्नी…हम दोनों सिर जोड़कर रोया करेंगे।”

फिर वह सिसकियां मारता हुआ बैठ गया। अंजला गठरी-सी बनी हिलने लगी। विवेक ने उसके कंधे पर हाथ रखकर भारी आवाज में कहा‒”नहीं अंजला, रोने का नहीं है…अपन लोग को मरने का है तो काहे को रोते-रोते मरें…क्यों न हंसते-हंसते मरें।”

अचानक दुल्हन घूंघट में हंसने लगी…और विवेक भी रोते-रोते हंसने लगा…अंजला ने घूंघट उठा दिया और विवेक ने रोते-रोते हंसकर कहा‒”अच्छा हुआ…तूने अपन को घूंघट नहीं खोलने दिया वरना अपन मरने के बाद यह सीन देखकर के रोता।”

“अरे! तुम नहीं मरोगे।” दुल्हन ने उसकी बांहें झिंझोड़ कर कहा।

“अब खाली-पीली तसल्ली देने से क्या होएला है?”

“मैं तसल्ली नहीं दे रही-सच कह रही हूं।”

“अरे! तेरे सामने ही तो वह ज्योतिषी बोलेला था।”

मेरे सामने नहीं‒अंजला के सामने बोला था ज्योतिषी ने।

अचानक ही विवेक उछल पड़ा‒”हाय…देवयानी। यह तुम हो।”

“हां…मैं‒तुम्हारी शादी मेरे साथ हुई है‒मुझे अंजला ने सब कुछ बता दिया था‒इसलिए अंजला के स्थान पर मैं दुल्हन बन गई थी।”

अचानक ही विवेक जोर से उछलता हुआ चिल्लाया‒

“हुर्रे!”

“अरे…अरे….क्या करते हो? बाहर लोग सुन लेंगे।”

“अरे, अपन अब तो चिल्ला-चिल्लाकर बताएंगा कि अपन मरने से बच गएला।” और फिर वह उछल-उछल कर गले से अजीब-सी आवाजें निकालता हुआ नाचने लगा…जोर-जोर से बाहर दरवाजा पीटता हुआ बोला‒

“अरे मां! दरवाजा खोल….मां तेरा बेटा बच गया है।”

बाहर से आवाज आई‒”चिल्ला मत…मैं बाहर सोटी लिए खड़ी हूं।”

विवेक फिर ‘हुर्रा-हुर्रा’ कहता दरवाजा पीटने लगा। देवयानी ने उसका हाथ पकड़ कर कहा‒”यह हमारी सुहागरात है।”

“अरी हट।” विवेक ने उसे धक्का देकर कहा‒”तेरी जैसी आवारा छोकरी से कोई सुहागरात मनाएंगा।”

“मैं तुम्हारी पत्नी हूं…विवेक.हमारे फेरे हुए हैं।”

“साली! फेरे तूने किए हैं…मैंने नहीं…अब तो तेरे ही को मरने का है…क्योंकि अपन की भी पहली पत्नी मरने वाली थी।”

“विवेक!”

“अबे साली! तेरे जैसी को तो मरने का ही था…तू मर जाएंगी तो अपन अंजू से शादी कर लेगा…फिर अपन नहीं मरेंगा।”

वह फिर खुशी से उछल-उछलकर नाचने लगा…देवयानी ने उसे पकड़ने की कोशिश की तो विवेक जोर-जोर से दरवाजा पीटने लगा।

“मां! जल्दी दरवाजा खोलो…अपन को उधर जाने का है। अपना और अपने फ्रैंड का मामला है…तुम्हारे को बीच में नहीं बोलने का…समझे!”

“ठीक है, ठीक है।” देवयानी ने जल्दी से उसका हाथ पकड़ कर कहा‒”चलो…तुम मेरे साथ चलो।”

“अबे हट…, अपन एकदम फिट है। फिर वह लड़खड़ाता हुआ चला…अधिक पी लेने के कारण वह गिरते-गिरते बचा….उसे देवयानी और मोनिका ने संभाल लिया। जगमोहन बुरा-सा मुंह बनाता रहा…जब सारे दोस्त चले गए तो महेश ऊपर सीढ़ियों की ओर बढ़ा।

कमरे का दरवाजा खोलकर वह अन्दर घुसा तो अंजला लेटी हुई थी….वह धीरे-से उठकर बैठ गई…महेश का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा…अंजला इस समय बहुत सुन्दर लग रही थी…बिल्कुल एक अप्सरा की तरह। महेश की आंखें देखकर वह कुछ डर-सी गई, क्योंकि उसकी आंखों में एक अलग-सी चमक थी। महेश आगे बढ़ा तो अंजला पीछे सरक गई। महेश उसके पास बैठ गया। अंजला ने कहा‒

“तुम्हें नींद आ रही होगी, मैं सोफे पर सरक जाती हूं।” इतना कहकर वह उठने लगी तो महेश ने उसका हाथ पकड़ लिया।

“महेश! तुम…।”

“मुझे सब याद है।” महेश ने कहा‒”तुम बैठ तो जाओ।”

अंजला कुछ सहमी-सहमी सी थोड़ी दूर हट कर बैठ गई।

“तुम विवेक से प्यार करती हो न?” महेश ने पूछा।

“तुम अच्छी तरह जानते हो।”

“और तुमने मेरे साथ इसलिए फेरे लिए हैं कि तुम्हारी हस्तरेखाएं बताती हैं कि तुम्हारा पहला पति मर जाएगा।”

महेश! तुम भी मेरे दोस्त हो…तुम्हारे मरने की मुझे कोई खुशी नहीं होगी।

“क्या तुम्हें इन बातों पर विश्वास है?”

“हाथ की रेखाएं तो भगवान का लेख होती हैं…पहले मुझे इन बातों पर कोई विश्वास नहीं था‒मगर उस दिन जब मैं एक बदमाश के हाथों से मरते-मरते बची तो मुझे विश्वास हो गया।”

“और तुमने इसीलिए मुझसे शादी कर ली कि मैं छः महीने के अंदर-अंदर मर जाऊंगा।”

“यह तो डॉक्टरों की कल्पना है…तुम्हारा क्या विचार है….क्या तुम्हारी रिपोर्टों में यह नहीं लिखा?”

“मेरी मेडिकल रिपोर्टों से तो यही लगता है कि मैं अधिक से अधिक छः महीने और जी सकूंगा।”

अंजला के मस्तिष्क में छनाका-सा हुआ…महेश ने कुछ देर ठहरने के बाद भरपूर नजरों से अंजला की ओर देखकर कहा‒

“हो सकता है डॉक्टरों की राय गलत न हो…डैडी ने इसीलिए यह बात मुझसे छुपाकर मेरी शादी करा दी कि अगर मुझे कुछ हो भी जाए तो मेरी कोई निशानी उनके पास जरूर रहे।”

“महेश!” अंजला की आवाज कांप गई।

“मैं भी यही मान कर चल रहा हूं कि मेरे पास छः महीने से अधिक जिन्दगी नहीं है इसीलिए मैंने तुमसे शादी की है, क्योंकि तुम्हारी जगह कोई और लड़की इतनी कम उमर में विधवा हो जाती तो शायद उसे प्रबल आघात लगता…मगर तुम तो लक्ष्य लेकर आई हो कि मेरे मरने के बाद तुम विवेक से शादी कर लोगी।”

“तुम कहना क्या चाहते हो?”

“मैं तुम्हें एक सच्चाई बताना चाहता हूं…और यह सच्चाई यह है कि मैं तुम्हें अथाह प्यार करता हूं।”

“नहीं…!” अंजला झटके से खड़ी हो गई।

महेश ने कहा‒”बैठ जाओ प्लीज!”

अंजला बैठ गई तो महेश ने कहा‒”निःसंदेह विवेक मेरा गहरा और पुराना दोस्त है….वह तुमसे प्यार करता था इसीलिए मैंने पहले कभी अपना प्यार तुम पर व्यक्त नहीं किया…वह बहुत सीधा है…दुनियादारी नहीं जानता…उसे फिर मालूम भी नहीं था कि प्यार कैसे व्यक्त किया जाता है….इसीलिए मैं उसका प्रेम-गुरु बन गया था…मैं जो कुछ उसके द्वारा कहलवाता था वास्तव में वह मेरे निजी भाव थे तुम्हारे प्रति…। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन मेरी और तुम्हारी शादी इस तरह नाटकीय ढंग से हो जायेगी।”

अंजला चुप बैठी सुनती रही।

“मगर।” महेश ने गहरी सांस लेकर कहा‒”मेरा सपना साकार होने से लाभ भी क्या? मुझे मालूम है कि मैं छः महीने बाद मर जाऊंगा…या शायद इससे पहले ही…किसी नौजवान के लिए जीवन की इससे बड़ी निराशा क्या हो सकती है।

मैं जीवन-भर लड़कियों से दूर रहा…तुम पहली और आखिरी लड़की हो जो मुझे बहुत-बहुत ही अच्छी लगीं और मैं मन ही मन में तुमसे खामोश प्यार करता रहा‒मगर…मेरा नसीब…कि मेरी मुहब्बत…मेरी उमर-भर की संजोई अभिलाषाएं विवेक की झोली में चली गईं‒मेरे डैडी के पास इतनी दौलत है जिसका ठीक अनुमान न वह लगा सकते हैं, न मैं…मगर उस दौलत का क्या फायदा….जो मुझे बचा भी नहीं सकती।”

चंद क्षण ठहर कर वह फिर बोला‒

“मुझे दुनिया से भी कुछ नहीं मिला…मां छोटी उमर ही में मुझे छोड़ गई…मुझे आयाओं ने पाला…बाप को बिजनेस और पैसे कमाने से अवकाश नहीं मिला…और मुहब्बत दोस्त ने छीन ली…अब मेरे पास ले दे के यही जीवन के छः महीने रह गए हैं…क्या तुम मुझे बस छः महीने के लिए झूठी मुहब्बत का सहारा भी नहीं दे सकतीं?”

“महेश!”

“मैं जानता हूं तुम विवेक की अमानत हो…मैं उस अमानत में रुकावट नहीं बनना चाहता। मगर मेरे डैडी अब मुझे बहुत प्यार करने लगे हैं‒क्या तुम मुझे उनकी एक खुशी पूरी करने का अवसर नहीं दे सकतीं?”

“महेश‒मैं क्या करूं….बताओ क्या करूं?”

“मैं जानता हूं इस समय भाग्य ने तुम्हें एक दोराहे पर खड़ा कर दिया है…मैं यह भी जानता हूं कि विवेक से तुम बहुत प्यार करती हो…मगर मैं यह भी जानता हूं कि कॉलेज भर की बड़े घराने की लड़कियों में अकेली तुम हो जिसने कभी भारतीय सभ्यता को विदेशी सभ्यता पर कुर्बान नहीं होने दिया।”

“तुम यह भी जानती हो कि पवित्र अग्निकुंड के गिर्द सात फेरे लेने का मतलब जीवन-भर एक-दूसरे को साथ देने का वचन देना और उसे निभाना है…इसके बाद हर लड़की मन से अपने पति की हो जाती है…मगर मैं तो ‘मन से नहीं केवल तन से तुम्हें अपनाना चाहता हूं…वह भी केवल छः महीने के लिए…तुम अगर मुझे इस खुशी का वरदान नहीं दोगी तो मेरी आत्मा सदा अशांत रहेगी।”

“महेश!”

“मैं तुम्हें मजबूर भी नहीं करूंगा…मैं खुद भी सोचता हूं कि मैं जो कुछ करूंगा वह एक दोस्त को दिए वचन का उल्लंघन होगा…मगर मेरे एक डैडी भी हैं…उनके प्रति भी मेरा कुछ कर्तव्य बनता है…मैं उन्हें बहुत प्यार करता हूं…तुम भी अपने डैडी से जरूर प्यार करती होगी…करती हो न दिल पर हाथ रखकर बताओ।”

“हां….!”

“बस…तो अपनी जगह मुझे रख लो…और सोचो कि अगर मेरी जगह तुम होतीं तो क्या उनकी इच्छा को तुम पूरा न करतीं।”

अंजला कुछ नहीं बोली…उसके दिल में हलचल-सी मची थी…बार-बार उसकी कल्पना में विवेक का चेहरा घूम जाता…लेकिन महेश की सूरत देखकर भी उसे यह सोचकर दुख होने लगता कि सचमुच महेश चंद महीनों ही का मेहमान है…वैसे भी धर्म और कानून अनुसार मैं उसकी ब्याहता पत्नी हूं‒अगर मैं महेश की यह इच्छा पूरी कर दूं तो इसमें हानि ही क्या है…यह न अपराध है न पाप…बल्कि पुण्य है…विवेक के प्यार पर कोई आंच नहीं आएगी‒हम दोनों को तो हर हाल में एक होना ही है!”

“क्या सोच रही हो अंजला? तुम चाहो तो इन्कार भी कर सकती हो। मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं होगी‒क्योंकि तुम विवेक से प्यार करती हो।”

अंजला कुछ नहीं बोली…वह धीरे-धीरे अपने कपड़े उतारने लगी‒महेश की आंखों में एक चमक उभर आई।

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