“सुनो अंजला! मैं तुमसे प्यार करता हूँ। तुम्हारे बगैर जिन्दा नहीं रह सकता। तुम्हें मेरा प्यार स्वीकार करना ही पड़ेगा। जवाब दो।”
“चटाख!” एक जोरदार थप्पड़ की आवाज गूंजी।
“मिल गया जवाब?” अंजला ने गुस्से से कहा….”या पैर की इज्जत हाथ में लेकर दूं?”
“नहीं, नहीं…।” विवेक जल्दी से न के संकेत में हाथ हिलाता पीछे हटते हुए बोला‒”बस इतना ही काफी है।”
अचानक कुंज के बाहर से कई लड़के-लड़कियों के ठहाके सुनाई दिए। विवेक घबरा गया‒भाग कर उसने छलांग लगाई और ऊँची बाड़ फलांग कर कम्पाउण्ड के दूसरे भाग में चला गया। वह बार-बार गाल सहलाता हुआ इधर-उधर देखता जा रहा था और अनजाने में ही एक लड़की से टकरा गया।
“उई मां!” एक सुरीली-सी चीख गूंजी।
लड़की गिरने लगी तो विवेक ने जल्दी से कमर में हाथ डालकर संभाल लिया। बिल्कुल रोमांटिक-सा सीन हो गया। लड़की विवेक को देखकर चौंकी और विवेक की गर्दन में बांहें डालकर उसकी आंखों में देखते हुए कहा…”हाय, हैंडसम! चलें क्या?”
“हट!” विवेक ने बुरा-सा मुंह बनाया।
फिर वह तेज-तेज आगे बढ़ता हुआ कुछ सोचकर ठिठक गया…जल्दी से लौट कर लड़की के पास आकर बोला‒”आई एम सॉरी!”
“ओ माई गॉड!” लड़की खुश होकर बोली‒”डियर फ्रेंड! मेरी गाड़ी उधर पार्किंग में खड़ी है।”
“सॉरी! आई वाज इन हरी-मैं तो टकराने की माफी मांग रहा था।”
“मिस्टर! एक बार टकरा कर तो देखो….जीवन-भर टकराने के ही मौके ढूंढ़ते रहोगे।”
“बेहूदी कहीं की…।” और विवेक बुरा-सा मुंह बनाकर आगे बढ़ गया। लड़की बड़े प्यार से उसे देखती रही।
अचानक ही एक दूसरी लड़की ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा‒”कुछ बात बनी, देवयानी?”
“अभी तो कुछ नहीं बनी…न जाने कमबख्त को कब अक्ल आएगी।”
“यह तो अंजला को लाइन पर लाकर ही अकलमंद बनेगा‒अभी तो चांटा खाकर ही आया है।”
“साला कावर्ड मुंह के पास आई कैडबरी पर होंठ नहीं रखता-ताड़ के पेड़ पर लटके फल के लिए ललचा रहा है, अभी किधर गया होगा।”
“महेश की तलाश में…। वहीं उसका प्रेम गुरु है।”
“साला ‘प्रेम शास्त्र’ भी सीखना चाहता है और वह भी संन्यासी से…। अरे अपन से सीधा कामशास्त्र ही सीख लेता।”
विवेक बौखलाया-सा किसी और लड़के से टकराया जो बोला‒”अबे क्या अंधा हो गया है?”
“अरे क्षमा करना भाई-महेश को तूने देखा है कहीं?”
“वह तो गाड़ी में बैठकर चला गया।”
“व्हाट…ऐसा नहीं हो सकता‒वह रोज मुझे बस्ती तक के लिए लिफ्ट देता है।”
“वह तो खुद तुझे ढूंढ रहा था‒कह रहा था कि आज उसे मेडिकल चेकअप की रिपोर्टें लेने के लिए जाना है।”
“ओ गॉड! आज तो मुझे भी खासतौर पर उसके साथ जाना था…मैं तो उसके बताए डायलॉग ही रटता रह गया जो मुझे अंजला से बोलने थे।”
“अरे! क्या हुआ अंजला का….कुछ पिघली या नहीं?”
“पिघल कर गाल पर चिपक गई….यह देख उंगलियों के निशान।”
लड़का हंस पड़ा।
“अबे! तू कॉलेज का नम्बर वन हीरो है… और अंजला को अभी तक नहीं पटा सका।”
“कोई बात नहीं, निराश होना मैंने नहीं सीखा। उठाकर ले जाऊंगा साली को मंदिर में… एक बार मांग में सिंदूर लगा दूंगा तो आप ही प्रेम करने लगेगी।”
“तुझे स्वयं प्रेम करना आता है? इसके भी कुछ खास गुर हैं… अगर सीखना चाहे तो देवयानी को गुरु बना ले।”
“छोड़ यार… किसका नाम ले रहा है… अमन को ऐसी गुरु नहीं चाहिए….जो प्रेमी की सारी ईमेज ही बिगाड़ दे।” फिर वह चौंक पड़ा‒”अबे यार! मैं भूल गया…जरा अपनी मोटर साइकिल दे।”
“नहीं‒पेट्रोल बहुत महंगा हो गया है… अपन का बाप शीशियों में नाप कर पेट्रोल डलवाने को बोलेला है।”
विवेक ने जबरदस्ती उसकी जेब में हाथ डाल दिया।
“अरे रे विवेक यार….देख, यह ठीक नहीं।”
“सीधी उंगली से घी न निकले तो उंगली टेढ़ी करनी ही पड़ती है।”
“यही फार्मूला अंजला के साथ क्यों नहीं आजमाता?”
“जरा प्रेम-गुरु की सलाह ले लूं।”
लड़का बुरे-बुरे मुंह बनाता रह गया और विवेक उसकी चाबी लेकर पार्किंग में आया। मोटर साइकिल स्टार्ट की और बाहर निकल आया और लड़का चिल्लाता ही रह गया‒”अबे, अबे मेरी मोटरसाइकिल अभी शोरूम से नई-नई विदा होकर आई है‒अभी तो हनीमून भी नहीं मना सका।”
उधर मोटर साइकिल हवा से बातें करती उड़ती चली गई… जो गाड़ी सामने आयी विवेक उसे ओवरटेक करता चला गया। एक जगह ट्रैफिक कॉन्स्टेबल ने चालान के लिए रोकना चाहा… विवेक ने जल्दी से कहा‒”हवालदार साहब! मेरी नानी आई. सी. यूनिट में हस्पताल में है… उनकी अंतिम सांसें निकलने से पहले वहां पहुंचना है।”
“हस्पताल पहुंचना है तो लौट कर मत आना… कहीं तुम्हें भी वहीं भरती करना पड़े।”
विवेक ने सुनी-अनसुनी कर दी… मोटरसाइकिल तेजी से दौड़ती रही। एक जगह लोकल ट्रेन की लाइनों के इधर-उधर भीड़ नजर आई… क्रासिंग बंद था… उसे मोटरसाइकिल रोकनी पड़ी।
“यह भीड़ कैसी है?” उसने एक हवलदार से पूछा।
कोई एक्सीडेंट हो गया… या होने वाला है।
“व्हाट?”
“एक आदमी आत्महत्या करने के लिए पटरियों के बीच लेटा है।”
“हाय! तुम उसे रोक नहीं रहे?”
“अपन ड्यूटी पर नहीं है… बच्चे के लिए फीडिंग बॉटल और बीवी के लिए ब्रेसरी खरीदने आएला है… इस लफड़े में पड़ने का टाइम कहां है।”
हवलदार चला गया। विवेक मोटरसाइकिल से उतरा। एक लड़के के कंधे पर हाथ रखा तो वह बोला‒”आओ…आओ देखने का बात है…अपन ‘फर्स्ट टैम’ किसी को मरते देखेला है।”
विवेक भीड़ को चीरकर अंदर घुसा तो उसने दूसरी ओर महेश की गाड़ी खड़ी देखी…महेश को पटरियों पर यूं लेटे देखकर वह हड़बड़ाकर बोला‒
“अबे महेश…यह तू क्या कर रहा है?”
महेश कुछ नहीं बोला। लोग चिल्लाने लगे‒
“यह कौन आ गएला?”
“साला… मजा किरकिरा करेंगा।”
“अरे! ऐसा ‘सीन’ देखने को कब मिलेंगा?”
एक ओर किसी फिल्म प्रोड्यूसर की गाड़ी खड़ी थी जिसके साथ एक कैमरामैन 16 एम. एम. का कैमरा लिए उस दृश्य की फिल्में ले रहा था। विवेक को दौड़ते देखकर प्रोड्यूसर बोला‒
“यह कौन गधा है?”
“आदमी है।” फोटोग्राफर ने कहा‒”पैरों पर दौड़ रहा है…हमें नजर आ रहा है पूरा दृश्य।”
“अरे-उसे बचाने जा रहा है।”
“तो इसको हीरो बनाने का है अपनी फिल्म में।”
“हीरो के बच्चे! अगर वह आत्महत्या नहीं कर सका तो हमारी फिल्म में हीरो की आत्महत्या का नेचुरल सीन कैसे पड़ेगा।”
“पड़ेगा सर! अगर वह नहीं लेटा तो आप लेट जाइएगा… अपन ऐसी शानदार फोटोग्राफी करेंगा कि देखने वालों की आंखों में आंसू आ जाएंगे।”

“उल्लू के पट्ठे! मेरी बीवी को विधवा करेगा?”
“विधवा की शादी की आप चिन्ता न करें। अपन उससे शादी कर लेंगा।”
दूसरी ओर से विवेक हांफता हुआ महेश तक पहुंच गया‒”अबे क्या कर रहा है तू?”
“यह नहीं हो सकता…जब तक अंजला को मैं लाइन पर नहीं ले आता तब तक तुझे जिन्दा रहना पड़ेगा।”
“क्या हुआ…?”
“थप्पड़ मार दिया मुझे।”
“तूने ठीक डायलॉग बोला था।”
“जो तूने बताया था… सब बोल दिया मैंने… मगर अंजला ने फिर भी मुझे थप्पड़ मार दिया… यह देख! मेरे गाल पर निशान!”
“चल आ…अंजला से सच्चा प्यार करता है तो मेरे साथ लेट जा…सच्चे प्यार की यही परख है।”
“अबे! मैं अकेला क्यों मरूं… उसे भी मेरे साथ मरना चाहिए।”
“वह क्यों मरेगी? वह तो तुझसे प्यार नहीं करती।”
“अरे! तू कैसा प्रेम-गुरु है?”
“वास्तव में मेरी अपनी शिक्षा अधूरी है। मैंने स्वयं किसी से प्यार नहीं किया।”
“तो क्या तू मुझे केवल थ्योरी पढ़कर ही बता रहा था।”
तभी अचानक लोकल ट्रेन धड़धड़ाती आवाज के साथ आई और विवेक चीख मारकर महेश से लिपट गया…महेश ने भी चीख मारी-दोनों एक-दूसरे से लिपटे रहे-मगर लोकल ट्रेन बराबर की पटरियों से गुजरती चली गई थी।
जब ट्रेन गुजर गई तो इधर के लोगों ने दोनों को जिन्दा एक-दूसरे से लिपटे देखा। दर्शक बातें करने लगे।
“ये दोनों तो ‘साबुत’ पड़े हैं।”
“ट्रेन जिस पटरी से गुजरी है…ये उस पर नहीं थे।”
“कहीं दहशत से तो नहीं मर गए? चलकर देखने का है।”
इतने में पुलिस की एक जीप आकर रुकी। जिसमें से दरोगा के साथ कुछ कॉन्स्टेबल उतर कर भीड़ की ओर बढ़े। दरोगा चिल्लाया‒”क्या हो रहा है?”
“काहे को भीड़ लगा रखी है?” हवलदार ने लाठी फटकार कर कहा।

दूसरे ही क्षण भीड़ तितर-बितर हो गई। एक कॉन्स्टेबल विवेक और महेश को पटरियों के बीच पड़े देखकर चिल्लाया‒”अरे साहब! ये लोग तो मर गएला।”
सब-इंस्पेक्टर लपक कर उनके पास पहुंचा। उसने दोनों की नाड़ियां देखीं… फिर उठता हुआ बोला‒”दोनों बेहोश हैं।”
“जेब की तलाशी लूं साहब… यह लौंडा बड़े घर का मालूम पड़ेला है।”
“बको मत।” एस. आई. इधर-उधर देखकर बोला‒”हो सकता है वह सामने खड़ी कार इन्हीं की है।” फिर उन लोगों ने दोनों को उठवा कर जीप में डाल दिया…एक कॉन्स्टेबल जो ड्राइविंग जानता था उसको कार ले आने को कहा।
कुछ देर बाद जीप आगे-आगे और उनकी गाड़ी पीछे-पीछे थाने में पहुंची। सबसे बढ़कर निराशा तो उस फिल्म प्रोड्यूसर को हुई होगी, जिसे ‘आत्महत्या’ का नेचुरल सीन शॉट करने को नहीं मिला था।
