हमारी प्राचीन चिकित्सा पद्धति मूल रूप से प्राकृतिक पदार्थों और जड़ी-बूटियों पर आधारित थी। आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में साध्य-असाध्य रोगों का इलाज हम प्रकृति द्वारा दी गई वनस्पतियों के माध्यम से सफलतापूर्वक करते थे। समय की धुंध के साथ हम कई प्राकृतिक औषधियों को भुला बैठे हैं। ईसबगोल- भी उन्हीं चमत्कारिक प्राकृतिक औषधियों में से एक है। हमारे वैदिक साहित्य और प्राचीन आयुर्वेदिक ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। संस्कृत साहित्य में इसे स्त्रिग्धबीजम् नाम से संबोधित किया गया है। पर्याप्त जानकारी और ज्ञान के अभाव में धीरे-धीरे हमारे देश में चिकित्सा पद्धति के अंतर्गत ईसबगोल का इस्तेमाल कम होता गया। बाद में हमारे मुल्क में मुसलमानों के आगमन के साथ ही ईसबगोल का फिर प्रवेश हुआ।
दुनिया की तकरीबन हर प्रकार की चिकित्सा पद्धति में ईसबगोल का उपयोग बतौर औषधि किया गया है। अरबी और फारसी चिकित्सकों द्वारा इसके इस्तेमाल के सबूत मिलते हैं। दसवीं सदी में पारस के मशहूर हकीम अलहेरवी और अरबी हकीम अविसेन्ना ने ईसबगोल द्वारा चिकित्सा के संबंध में व्यापक प्रयोग व अनुसंधान किए। ईसबगोल मूल रूप से फारसी भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है- पेट ठंडा करने वाला पदार्थ, बांग्ला भाषा में इसे ईसबगोल, गुजराती में उठनुंजीरू कहा जाता है। लेटिन भाषा में इसे प्लेंटेगा ओवेरा कहते हैं। इसका वनस्पति शास्त्रीय नाम प्लेटेगा इंडिका है तथा यह प्लेटो जिनेली समूह का पौधा है।
ईसबगोल पश्चिम एशियाई मूल का पौधा है। दरअसल यह तनारहित एक झाड़ीनुमा पौधा होता है इसकी अधिकतम ऊंचाई ढाई से तीन फुट तक होती है। इसके पत्ते महीन होते हैं तथा इसकी टहनियों पर गेहूं की तरह बालियां लगती हैं तथा फूल आते हैं। फूलों में नाव के आकार के बीज होते हैं। इसके बीजों पर सफेद व पतली झिल्ली होती है। यह झिल्ली ही दरअसल ईसबगोल की भूसी कहलाती है। बीजों से भूसी निकालने का कार्य हाथ से चलाई जाने वाली चक्कियों और मशीनों से किया जाता है। ईसबगोल भूसी के रूप में ही उपयोग में आता है तथा इस भूसी का सर्वाधिक औषधीय महत्त्व है। ईसबगोल की बुआई शीत ऋतु के प्रारंभ में की जाती है। इसकी बुआई के लिए नमी वाली जमीन होना जरूरी है। आमतौर पर यह क्यारियां बनाकर बोया जाता है। बीज के अंकुरित होने में करीब सात से दस दिन लगते हैं। ईसबगोल के पौधों की बढ़त बहुत ही मंद गति से होती है।
ईसबगोल के औषधीय महत्त्व को प्राय: प्रत्येक चिकित्सा पद्धति में स्वीकार किया गया है। यूनानी चिकित्सा पद्धति में इसके बीजों को शीतल, शांतिदायक, मलावरोध को दूर करने वाला तथा अतिसार, पेचिश और आंत के जख्म आदि रोगों में उपयोगी बताया गया है। प्रसिद्ध चिकित्सक मुर्जरवात अकबरी के अनुसार नियमित रूप से ईसबगोल का सेवन करने से सांस के रोगों तथा दमे में बहुत राहत मिलती है। अठारहवीं शताब्दी के प्रतिभाशाली चिकित्सा विज्ञानी फ्लेमिंग और रॉक्सबर्ग ने भी अतिसार रोग व उसके उपचार के लिए ईसबगोल को अचूक औषधि बताया है।
रसायनिक तत्त्वों की मौजूदगी
रासायनिक संरचना के अनुसार ईसबगोल के बीजों और भूसी में तीस प्रतिशत तक क्यूसिलेज नामक तत्त्व पाया जाता है क्यूसिलेज की इस अधिक मात्रा के कारण इसके बीजों में बीस गुना पानी मिलाने पर भी यह स्वाद रहित जैली के रूप में बदल जाता है। इसके अलावा ईसबगोल में 14.7 प्रतिशत एक प्रकार का अम्लीय तेल होता है, जिसमें खून के कोलेस्ट्रॉल को कम करने की अद्भुत क्षमता होती है। आधुनिक चिकित्सा प्रणाली में भी इन दिनों ईसबगोल का महत्त्व लगातार बढ़ता जा रहा है। पाचन तंत्र से संबंधित रोगों की औषधियों में इसका इस्तेमाल हो रहा है। अतिसार, पेचिश जैसे पेट के रोगों में ईसबगोल की भूसी का इस्तेमाल न केवल लाभप्रद है बल्कि यह दुष्प्रभावों से भी सर्वथा मुक्त है। भोजन में रेशेदार पदार्थों के अभाव के कारण कब्ज जैसी बीमारी हो जाना आजकल आम बात है और ज्यादातर लोग इससे पीड़ित हैं। आहार में रेशेदार पदार्थों की कमी को नियमित रूप से ईसबगोल की भूसी का सेवन कर दूर किया जा सकता है।
स्वास्थ्य संबंधित गुण
यह पेट में पानी सोखकर फूलती है और आंतों में मौजूद पदार्थों का आकार बढ़ाती है। इससे आंतें अधिक सक्रिय होकर काम करने लगती हैं और यह पचे हुए पदार्थों को आगे बढ़ाती है। यह भूसी शरीर के टॉक्सिंस और बैक्टीरिया को भी सोखकर शरीर से बाहर निकाल देती है। इसके लसीलेपन का गुण मरोड़ और पेचिश जैसे रोगों को दूर करने में सहायक होता है। ईसबगोल की भूसी तथा इसके बीज दोनों ही विभिन्न रोगों में एक प्रभावी औषधि है। इसके बीजों को शीतल जल में भिगोकर उसके अवलेह को छानकर पीने से खूनी बवासीर में फायदा होता है। नाक से खून बहने की स्थिति में ईसबगोल के बीजों को सिरके के साथ पीसकर कनपटी पर लेप करना चाहिए।

कब्ज के अलावा दस्त, आंव, पेट-दर्द आदि में भी ईसबगोल की भूसी लेना फायदेमंद रहता है। अत्यधिक कफ होने की स्थिति में ईसबगोल के बीजों का काढ़ा बनाकर मरीज को दिया जाता है। आंव और मरोड़ होने पर एक चम्मच ईसबगोल की भूसी दो घंटे पानी में भिगोकर रोजाना दिन में चार बार लें। ऊपर से दही या छाछ पिएं। ईसबगोल के बीजों का इस्तेमाल करने से पहले उन्हें अच्छी तरह से साफ कर लिया जाना चाहिए। फिर उन्हें धोकर छाया में सुखा लें। भूसी को सीधे भी दूध या पानी के साथ लिया जा सकता है या फिर एक कप पानी में एक या दो छोटी चम्मच भूसी और कुछ शक्कर डालकर जेली तैयार कर लें तथा इसका नियमित सेवन करें।
ईसबगोल रक्तातिसार, अतिसार और आम रक्तविकार में भी फायदेमंद है। खूनी बवासीर में भी इसका इस्तेमाल लाभ देता है। यदि पेशाब में जलन की शिकायत हो, तो तीन चम्मच ईसबगोल की भूसी एक गिलास ठंडे पानी में भिगोकर उसमें आवश्यकतानुसार बूरा डालकर पीने से यह शिकायत दूर हो जाएगी। इसी प्रकार कंकर या कांच खाने में आ जाए, तो दो चम्मच ईसबगोल की भूसी गर्म दूध के साथ तीन-चार बार लें। ईसबगोल की भूसी पानी के साथ लेनी चाहिए। एक या दो चम्मच ईसबगोल की भूसी पर्याप्त रहती है। आजकल तो औषधीय गुणों से युक्त ईसबगोल की भूसी से गर्भनिरोधक गोलियां भी बनने लगी हैं। सचमुच ईसबगोल एक चमत्कारिक औषधि के साथ-साथ बड़े ही काम की चीज है।
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