hot story in hindi- prem ki pyasi प्यार की खुशबू - राजेन्द्र पाण्डेय
प्यार की खुशबू - राजेन्द्र पाण्डेय

प्रोफेसर जनार्दन के घर से निकलकर मैं, यूँ ही अनाप-शनाप विचारों में खोई सड़क पर बढ़ती चली जा रही थी। अभी न जाने स्वयं से क्या-क्या बातें करती, कि तभी एक सैलून दिखाई दे गया। जिसे देखते ही मन में एक अनोखी योजना पनपी और मैं उस सैलून में प्रविष्ट हो गई। हजाम से बोली, ‘मेरा हेयर स्टाइल चेंज कर दो।’ हजाम ने मुझे गौर से देखा, फिर इशारा किया कि मैं उस कुर्सी पर बैठ जाऊँ। मैं बैठ गई।

फिर दस मिनट में ही मेरे बालों को उसने एक नया लुक दे दिया। जब मैं उस हजाम को पैसा देने लगी तो वह मुझे घूरते हुए बोला, ‘न जाने क्यों ऐसा लग रहा है, कि मैंने आपको कहीं देखा है। पर कहाँ देखा है, बस यही याद नहीं आ रहा…अच्छा हाँ! आज सुबह ही तो मैंने आपकी तस्वीर एक दीवार पर देखी थी। आप तो इतनी भोली और मासूम हैं! भला पुलिस को आपकी जरूरत क्यों हो सकती है? ये पुलिस वाले भी कितने कमीने होते हैं? अच्छे-भले आदमी को भी अपराधी करार दे देते हैं।’ हजाम यह कहकर हँसने लगा।

‘यह मर्दाना हेयर स्टाइल तो आप पर और भी खिल रही है। मैडम! क्या एक मासूम और हसीन चेहरा भी अपराधी हो सकता है?’

‘मुझे क्या पता, लेकिन इतना तो जरूर है, अपराधी कोई भी चेहरा हो सकता है।’ यह कहते हुए मैंने उसे पैसे दिए और वहाँ से हवा की तरह निकल गई।

अब मैं सड़क पर तेज गति से भाग रही थी। तभी मैं किसी से टकराई और धड़ाम से एक तरफ जा गिरी। संभलकर जब उठी तो देखा, एक भारी-भरकम मोटी महिला से मैं टकरा गई थी। उसने आगे बढ़कर मुझे उठाते हुए कहा, ‘बड़ी खूबसूरत हो। लगता है कोई तुम्हारा पीछा कर रहा है।

अकेली जवान युवती के लिए यह दुनिया अब कहाँ रह गई है। मैं औरत हूँ, इसलिए तुम्हारा दर्द समझ सकती हूँ। तुम्हें छुपने के लिए आसरा चाहिए तो मेरे साथ चल सकती हो। मैं मजबूर और दुखी महिलाओं के लिए एक मसीहा हूं।’

पुलिस का खौफ मुझे खाऐ जा रहा था। मैं उदास स्वर में बोली, ‘आण्टी! मेरा पीछा स्वयं मेरी जिंदगी ही कर रही हैं मैं भागते-भागते थक गई हूँ।’

ऐसी बात है तो मेरे साथ चलो।’ यह कहकर वह महिला एक ऑटो रिक्शा में जाकर बैठ गई। मैं भी उसकी बगल में जाकर बैठ गई। वह महिला बहुत ही खुश हुई, ‘मुझे तुम्हारी मदद करके बहुत खुशी हो रही है। यही तो जीवन है।’

‘कोई आधे घंटे बाद जब ऑटो रिक्शा से उतरकर मैं एक बड़ी-सी बिल्डिंग में पहुँची तो मुझे बड़ा ही अजीब-सा लगा। वह पाँच मंजिली बिल्डिंग नीचे से ऊपर तक सिर्फ महिलाओं से ही भरी पडी थी। मैंने चारों तरफ नजर उठाकर देखा जो भी महिला मुझे दिखी, उसके चेहरे पर बनावटीपन के भाव थे। उस मोटी-महिला को घूरते हुए मैंने पूछा, ‘आंटी! आप ऐसी भीड़-भाड़ वाली जगह में रहती हैं। यहाँ रहने वाले घर-गृहस्थी वाले लोग तो लगते ही नहीं। न बच्चे, न पुरुष..सिर्फ महिलाएं! ये सब क्या है?’

‘पुरुष भी तुम्हें नजर आएंगे। जरा शाम तो होने दो। वैसे भी तुम्हें दूसरों की परवाह करने की जरूरत ही क्या है? अभी तो तुम थकी हो, आसरे की तलाश में भटक रही थी। और तुम्हें एशोआराम की जिंदगी मुहैया करा दी तो नाक-भौंह सिकोड़ कर सवाल करने लगी?’ वह मोटी महिला मुझ पर खीझ गई। फिर भी मैं दबे पाँव सीढ़ियाँ चढ़कर पहली मंजिल पर आ गई। इतने में एक दूसरी महिला मेरे सामने आकर अचानक बोलने लगी, ‘मेरा नाम संतो है। जानकी माँ ने तुम्हें यहाँ भेजा है न? जाओ, जाकर उस कमरे में आराम करो।’

संतो के मुँह में पान था। वह जर्दा वाला पान खा रही थी। मैंने साहस कर पूछा, ‘तुम कौन हो?’

‘तुम मुझे नहीं जानती, मैं इस मंजिल की सारी महिलाओं की मालकिन हूँ। तुम नई-नई आई हो, इसीलिए मुझसे इस तरह की सवाल कर रही हो।’ संतो यह कहकर चली गई। मैं चुपचाप कमरे में आ गई, मगर कमरे में आते ही मेरी आँखें आश्चर्य से फटी की फटी रह गई। ‘अरे! यहाँ तो मनोरंजन और जरूरत के सारे सुख-साधन मौजूद हैं! लेकिन इन लोगों को मुझसे क्या लाभ हो सकता है? जो मुफ्त में मुझे ऐशोआराम की जिंदगी दे रहे हैं? इनका कोई तो मुझसे स्वार्थ होगा।

आजकल दीन-दुखियों की मदद बिना लाभ कोई करता ही कहाँ हैं। संतो तो मुझे बड़ी ही चालाक महिला लगी।’ यही सोचते हुए मैं पलंग से उठकर सोफे पर आ गई और पास में ही रखे एक चौड़े और लंबे शीशे में अपना चेहरा देखने लगी। इन कुछ दिनों में मेरे चेहरे की रंगत काफी कुछ हद तक बदल गई थी। मेरा खिला-खिला सा रहने वाला गुलाबी चेहरा मुझे गया था।

रात-दिन की भागदौड़ और सनकी पुरुषों की गंदी हरकतों ने शायद मुझे बदरंग बना दिया था। आज मैं पहली बार यह सोचने पर मजबूर हो गई थी, कि मैंने अपनी सारी ऊर्जा यूँ ही व्यय कर दी। समाज को सुधारने वाला अक्सर घाटे में ही रहता है। लेकिन मैं क्या करूँ? मुझसे अन्याय देखा भी तो नहीं जाता। लाचार, निर्दोष और गरीब लोगों पर हो रहे जुल्म मुझसे बर्दाश्त ही नहीं होते। यह सोचते-सोचते मैं कब सो गई, इसका होश ही न रहा।

काफी देर बाद एक करुण-चीख ने मेरी गहरी नींद को तोड़ दिया। बगल वाले कमरे से चीखने की आवाज आ रही थी। ‘मैं बीमार हूँ…… मुझ पर रहम करो, संतो। इन भेड़ियों को मेरे सामने से ले जाओ।’

‘ये अमीरजादे तेरे को भेडिए नजर आते हैं। यही लोग तो हमारे भगवान हैं। ये एशोआराम की जिंदगी इन्हीं लोगों की बदौलत मिली है। मैंने इन लोगों से तेरा फोटो दिखाकर पूरे पच्चीस हजार रुपए एक रात के लिए हैं। तू मरे या जिंदा रहे, तुझे अपना तन तो आज की रात इनके हवाले करना ही होगा।’

तभी एक दूसरे कमरे से एक ऐसी करुण चीख सुनने को मिली, ‘मैं बाबूजी के पास जाऊँगी। ये गंदे काम मुझसे नहीं होंगे।’

‘बाबूजी के पास जाएगी? हूँऽऽ बाबूजी ने ही तो तुझे पूरे पचास हजार में जानकी माँ के हाथों बेचा है और तू उसी के पास जाएगी?’ मेरा अंग-अंग गुस्से और घृणा से काँप रहा था। मेरी आँखें लाल पड़ गई थीं। तभी एक तीसरे कमरे से आती चीख मेरे कानों में पड़ी, ‘तुम मेरे साथ सहवास करोगे। तुम्हारे मुँह में दाँत भी नहीं हैं। तुम्हारे सिर के सारे बाल सफेद हो गए हैं। मुझे तो देखो, क्या मैं तुम्हारी बेटी की उम्र की नहीं हूँ? क्या तुम अपनी बेटी के साथ सहवास करोगे? मुझे छोड़ दो।’

ऐसे कैसे छोड़ दूं। पूरे दस हजार दिए हैं। तू बेटी जैसी ही है न, बेटी तो नहीं है? अरे..भला वेश्या भी किसी को रिश्ते से बाँधती है? तू तो बड़ी ही शातिरबाज लड़की है। क्या देह का गणित तेरे को नहीं मालूम? देह किसी की भी क्यों न हो, जब मौके पर उपलब्ध हो तो सारे रिश्ते एक तरफ सरका दिए जाते हैं। और तू तो शरीर का सौदा करने वाली एक वेश्या है। चल आ इधर।

‘बाबूजी, मुझ पर रहम करो। मैं इसके पहले चार मर्दो से मिल चुकी हूँ। अब मुझमें और हिम्मत नहीं है।’

‘अरे चल, मैंने पैसे दिए हैं। ऐसे मैं रहम करने लगा तो यूँ ही लौटना पड़ जाएगा।’

आवाज आनी अचानक ही बंद हो गई थी। शायद वह बूढ़ा आदमी उस मासूम लड़की के साथ सहवासरत हो गया था। मेरे समूचे बदन में झुरझुरी-सी दौड़ गई। इसी बीच उत्तर वाले कमरे से इस बार है चीख मुझे सुनाई दी तो मैं दरवाजे में आकर खड़ी हो गई। वह औरत घुटती आवाज में कह रही थी, ‘मुझे नहीं चाहिए, ये एशोआराम। गरमी की दोपहरी में मैं मिट्टी फोड़कर सूखी रोटी खाकर रह लूँगी। सड़क किनारे बिना छत के ही सो जाऊँगी, लेकिन यह शरीर, यानी माँस को बेचने का धंधा मुझे मंजूर नहीं है।’

‘तो यह पहले क्यों नहीं सोचा?’

‘मुझे धोखे से यहाँ मेरा मामा छोड़ गया। मुझे क्या पता था, कि यह माँस की खिरीद-फरोख्त करने वाला शोरूम है। मुझे यहाँ से जाने दो। मैं मेहनत-मजदूरी कर अपना पेट पाल लूंगी।’

‘यह ऐसे नहीं मानेगी, इसे नंगी कर दो, फिर इसके पूरी शरीर पर चाकू की नोंक से लिख दो, कि मैं वेश्या हूँ।’ यह संतो की आवाज थी। एक महिला होकर भी वह एक महिला के प्रति इतनी कठोर और बेरहम हो सकती है! इसका अंदाजा मुझे नहीं था। महिलाओं का शारीरिक, मानसिक और आर्थिक शोषण महिलाएं ही यहाँ कर रही हैं। यहाँ ही क्यों, हर जगह का हाल यही था।

मैं गुस्से से फटी पड़ी सोच रही थी, तो यह एक वेश्यालय है! और वह मोटी महिला, यानी जानकी माँ एक दल्ली है! मुझे यहाँ छोड़कर नोट बना गई! एक औरत को एक औरत ही ‘दलदल में धकेल गई! ऐसे में भला महिलाओं का उत्थान कैसे होगा? मैं रहूँ या न रहूँ, लेकिन इसका मुकाबला अवश्य ही करूँगी। वेश्यालय महिलाओं के लिए सबसे बड़ा धोखा है और वेश्यावृत्ति एक बुरी लत।’

यही सोचती मैं कमरे से निकली और उत्तर की तरफ वाले कमरे की ओर दबे पाँव बढ़ गई। मैं जब कमरे में घुसी तो आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा। उस महिला को दो वर्दीधारी सिपाही नंगा कर उसकी देह पर चाकू की नोंक से ‘मैं वेश्या हूँ’ लिखने में मशगूल थे। वह दर्द और पीड़ा से सिर्फ छटपटा रही थी। चीख-चिल्ला तो वह तो सकती ही नहीं थी, क्योंकि मुँह में साड़ी भी का कुछ हिस्सा लूंसा हुआ था। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। दोनों सिपाही ड्रैकुला से भी कहीं अधिक खतरनाक और खूखार मुझे लगे।

मैंने सोचा, ‘मुझे इन पर अचानक ही वार कर देना चाहिए। युद्ध में विजय उसी की होती है, जो पहले वार करता है।’

मैंने आहिस्ता से अपने कमर से पिस्तौल खींच लिया। जिसे मौका पाकर मैं प्रोफेसर जर्नादन की जेब से उड़ा लाई थी। पिस्तौल लोड था। मैंने पिस्तौल को बड़े ही प्यार से चूमा और एक की कनपटी पर टिकाते हुए घोड़ा दबा दिया। फिर बड़ी फुर्ती से दूसरे की कनपटी पर पिस्तौल का अगला सिरा टिकाते हुए बोली, ‘यही है तुम्हारी मर्दागी!

वेश्यालय में आकर बेबस और बेसहारा महिलाओं से खूनी-खेल खेल रहे हो।’ मेरे यह कहते ही वह मेरी तरफ बाज की तरह झपटा, लेकिन तब तक गोली चल चुकी थी। अब मैंने भागकर संतो का पीछा किया और सीढ़ियों तक पहँचते-पहँचते उसे गोली मार दी। वह भी वहीं लुढ़क गई। यह बुराई पर अच्छाई की जीत थी।

अब जिसको जो समझना है, समझे। वैसे कानून की नजर में तो यह गुनाह था। एक बात मेरी समझ में आज तक नहीं आई, कि कानून है क्या चीज? उसकी अपनी कोई ठोस सोच, अपना अस्तित्व या अपना तरीका है भी या नहीं? गवाह जो झूठ-सच कह देंगे, वह मान लेगा। कानून के पास अपराध की गहराइयों तक जाने का अपना कोई स्रोत या तंत्र तो है ही नहीं।

मुझे ऐसे कानन पर दया आती है। निर्दोष लोगों को सजा देते-देते वह स्वयं ही अपराधी बन गया है।’ मैं जीने के पास खड़ी यही सोच रही थी, कि वेश्यालय आप की सारी महिलाएं मेरे पास आकर खड़ी हो गई। उन सबकी ही आँखों में खुशी की चमक थी। वे समवेत स्वर में बोलीं, ‘आपने तो वह कर दिखाया, जो अन्य महिलाएं करने की सोच भी नहीं आ सकतीं।’

‘यहीं, तो महिलाओं की सबसे बड़ी कमजोरी है। महिलाएं चाहें तो मर्दो को नंगा करके उँगलियों पर नचा सकती हैं। महिला का अर्थ अबला नहीं, सबला है। और सबला का अर्थ महाशक्ति है। महाशक्ति सिर्फ औरतों को ही कहा जाता है, पुरुषों को नहीं। शक्ति के रूप में सिर्फ औरतों की ही पूजा होती है, पुरुष की नहीं। और शक्ति कभी भी कमजोर नहीं होती है।

तुम सब महाशक्ति हो। इस तरह से स्वयं को जलील कराना और अपनी देह के साथ बलात्कार करवाना अच्छी बात नहीं है। तुम सब अब आजाद हो। अपना जीवन मेहनत-मजदूरी कर पूरी आजादी के साथ जी सकती हो।’

‘लेकिन हम कहाँ जाएंगी? हमारे सारे रिश्ते तो टूट गए हैं।’

‘बाहर जाकर नए रिश्ते बनाओ। चरित्रबल को बढ़ाओ। जो भी करो, अपनी इच्छा से करो। मैंने एक चिंगारी जला दी है, उसे आग की शक्ल में ढालना तुम सब का काम है।’ इतना कहकर मैं उस वेश्यालय की सीढ़ियाँ उतरने लगी। लगभग दो सौ महिलाएं भी मेरे साथ सीढ़ियाँ उतर रही थीं। मेरे हाथ में पिस्तौल था। मेरा चेहरा सामान्य नहीं था।

मैं अभी भी गुस्से में भरी हुई थी। अगले ही पल मैं सड़क पर आ गई। आजादी की हवा किसे नहीं अच्छी लगती? उसमें बड़ा ही दम होता है। बाहर की हवा ने उन्हें इतना साहसी बना दिया, कि वे एक-एक कर मुझे धन्यवाद देती हुई जहाँ मन किया वहाँ चली गई।

लेकिन मैं वहीं खड़ी-खड़ी सोच रही थी, ‘जो काम मैंने किया है, क्या कानून या पुलिस वाले वह काम वर्षों में भी कर पाते? पुलिस सबूत माँगती, कानून गवाह माँगता, फिर भी इन दो सौ महिलाओं के साथ कोई न्याय नहीं होता। देश में जरूरत की।

बुराई जब आँखों के सामने है, किसी पर खुलेआम अत्याचार हो रहा है! तब ऐसे में गवाहों और सबूतों की आवश्यकता ही क्या है? जज के सामने अदालत में अपराधी किसी को गोली मार देता है, फिर भी गवाहों की जरूरत होती है। क्या यही न्याय दिलाने की सही व्यवस्था है?’ मैं यह सोच ही रही थी, कि तभी मुझे याद आया, ‘अरे! मैं तो पुलिस हिरासत से फरार एक मुजरिम हूँ! मुझे इस तरह खुले आकाश के नीचे खड़ा नहीं होना चाहिए। और फिर मैं आगे बढ़ती जा रही थी।

तभी मेरी निगाह एक मसाज सेंटर पर जा ठहरी। मैंने सोचा, क्यों न यहाँ बदन की मालिश करा लँ।’ लेकिन जब अंदर पहुँची तो एक पुरुष ने मेरा स्वागत करते हुए कहा, ‘हाँ मैडम, तो आपको मसाज करना है?’

‘ठीक है, उस कक्ष में जाकर लेट जाइए।’ उसने इशारा किया तो मैं उस कक्ष में जाकर लेट गई, लेकिन वहाँ मुझे यह देखकर बड़ी हैरानी हुई, कि औरत की मालिश पुरुष कर रहे थे और पुरुषों की मालिश स्त्रियाँ कर रही थीं। तभी एक पैंतीस वर्षीय तगड़ा-सा मर्द मेरे नजदीक आकर खड़ा हुआ-‘कपड़े उतार दीजिए, मैडम।’

मैने झिझकते हए पैंट उतारी और कहा, ‘मुझे सिर्फ अपनी टाँगो की मालिश करवानी है। आओ मेरी टाँगों की मालिश करो।’ मेरे यह कहते ही वह मर्द खीझ गया, ‘मैडम! आप मालिश करवाने आई हैं या पैर पूजवाने? मैं महिलाओं की टांगों की मालिश नहीं करता।’

तो क्या उनके वक्षों की मालिश करते हो?’ यह कहती हुई मैं पैंट पहनने लगी, फिर उस कमरे से बाहर आकर बगल वाले कमरे में चली गई। वहाँ एक महिला, एक पुरुष की देह की मालिश करते-करते सहवासरत हो गई थी। मालिश संभोग में बदल गई थी। मैं वहाँ से दूसरे कमरे में पहुँची तो देखा, एक पुरुष महिला के स्तनों को चूस भी रहा है, और उसकी मालिश भी कर रहा है। मसाज सेंटर के नाम पर वेश्यावृत्ति! मैं यह देखकर ही कांप गई।

‘आखिर सबको हो क्या गया है?’ मैं बुदबुदाती हुई उस मसाज सेंटर के मालिक के केबिन में जैसे ही घुसी, वह घबरा कर उठ खड़ा हुआ- ‘आपने मालिश करवा ली?’

‘मालिश नहीं सहवास कहो। यहाँ कौन किसकी मालिश कर रहा है? महिलाएं पुरुषों की मलिश करें या पुरुष महिलाओं की मालिश करें! आखिर शोषण तो महिलाओं का ही होना है। पुरुषों के दिमाग को मानना पड़ेगा। नित नई महिलाओं का उपभोग करने के लिए वे कोई न कोई नायाब तरीका ढूंढ ही लेते हैं। मसाज के बहाने वेश्यावृत्ति का धंधा तो खूब फल फूल रहा है। आपकी कमाई भी अच्छी खासी हो रही है। मैं ठीक कह रही हूँ न?’

‘क्या आपको पसंद नहीं आया? मैडम, यहाँ जो महिला आ जाती है, वह बड़ी मुश्किल से जा पाती हैं। और आप तो हमारा सारा राज जान चुकी हैं। आपको तो अब हम किसी भी कीमत पर खो नहीं सकते।’ यह कहकर वह मेज की दराज की ओर हाथ बढ़ाने लगा।

मैंने उससे पहले ही पिस्तौल उसकी ओर तान दी, ‘मिस्टर! अलविदा! तुम एक ऐसे वेश्यालय का संचालन कर रहे हो, जो धीरे-धीरे पूरे समाज को ही वेश्या बना देगा। तुम्हें मैं चाहकर भी जिंदा नहीं छोड़ सकती। यह मेरी सबसे बड़ी मजबूरी है।’ मेरे शब्द खत्म होते ही गोली चल गई। गोली उसके सिर में लगी थी। मैं वहाँ से बाहर आई और एक ऑटो-रिक्शा पर बैठते हुए बोली, ‘मुझे जल्दी रेलवे स्टेशन छोड़ दो।’

‘अच्छा मैडम!’ कहते हुए ऑटो चालक ने ऑटो स्टार्ट कर दी।

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