कोई दस मिनट बाद जब पुलिस चली गई तो मैं उस गहरी खाई से बाहर निकल आई। तभी मेरी निगाह अचानक ही सड़क पर चली गई। जिस गाड़ी के ड्राइवर से मैंने हाथ देकर लिफ्ट मांगी थी, वह कार अभी तक कुछ दूरी पर खड़ी थी। मैं लंगड़ाती हुई उधर ही बढ़ गई। मेरे नजदीक पहुंचते ही कार का दरवाजा खुल गया। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ।
‘आखिर इस आदमी ने मेरे लिए इतनी देर से गाड़ी क्यों खड़ी कर रखी है? मुझसे इसका क्या स्वार्थ हो सकता है?’ मैं यह सोच ही रही थी कि गाडी के अंदर से आवाज आई, ‘मोहतरमा, जल्दी कीजिए। यह सोचने का समय नहीं है। मुझे पता है। पुलिस आपके पीछे लगी है।’ मैं यह सुनते ही झट से गाड़ी में बैठ गई। काफी महंगी गाडी थी। अंदर अंधेरा था, जिससे मैं गाड़ी के ड्राइवर को नहीं देख पा रही थी। उसको एक नजर देखने की मेरी हार्दिक इच्छा थी।
इतने में उसने गाड़ी स्टार्ट कर दी। मैं घायल थी और मुझे भूख भी काफी लगी हुई थी। कुछ आगे बढ़ते ही उस आदमी ने कहा, ‘मेरा नाम दीनकर नाथ है। तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा कि मैं एक अपराधिन को क्यों बचा रहा है या मैं पुलिस के जाने तक तुम्हारा इंतजार क्यों करता रहा था? मैंने यह क्यों नहीं बता दिया कि तुम खाई में छिपी हो?’ इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है।
मेरा तो पुलिस से भागे लोगों को ही पालने का शौक है।’ दीन नाथ की बातें सुनते ही मेरा खून पानी हो गया। मैं सोचने लगी, ‘आसमान से गिरी तो खजूर पर आ अटकी।’ यह आदमी तो अव्वल दर्ज का धूर्त, बदमाश और जालिम लगता है। लेकिन अब दूसरा कोई चारा भी तो नहीं था।
मुसीबतों से निकलने का मार्ग मैं सदा से ही निकालती आई हूँ। ईश्वर ने साथ दिया तो यहां भी फतह मेरी ही होगी। मैंने अब तक कोई गुनाह नहीं किया है। किसी निर्दोष को नहीं मारा है। श्रीकृष्ण ने कंस को मारा। राम ने रावण को मारा तो उनको तो किसी ने यह नहीं कहा कि कानून को तुमने हाथ में लिया है? तुम अपराधी हो। फिर मुझे कोई अपराधी कैसे कह सकता है?
मैंने कंस और रावण सरीखे दुष्टों को ही तो मारा है। राह चलते लोगों पर तो मैंने हाथ नहीं उठाया न। यही वजह है कि मुझे अपराधबोध की छाया अभी तक छू भी न पाई है। आजकल खूबसरत या बदसरत, किसी भी तरह की महिला के प्रति लोगों का दृष्टिकोण अच्छा नहीं है। शिखर पर बैठे व्यक्ति तो उन्हें नंगानाच नचा रहे हैं और वे नाच रही हैं। मैंने जहां-कहीं भी औरतों की मदद की, वहीं पर मुझे निराशा हाथ लगी। न जाने क्यों? वे जुर्म और अत्याचार को आत्मसात् कर बैठी हैं।
उनकी सहायता के लिए आगे आने पर पहले उनसे ही लड़ना पड़ता है। मंत्री प्रमोद रंजन के जुर्म-अत्याचार से वे लड़कियां मुक्त हो गई हैं, फिर भी उन्हें मुझसे नफरत है, क्योंकि उन्हें जिल्लत और अपमान की जिंदगी ही पसंद है। मैं जाने कब तक सोचती तभी दीनकर नाथ ने मुझे टोक दिया। ‘ईश्वर ने तुम्हें इतनी अच्छी काया दी है। उम्र भी अभी नाजुक है। फिर तुम अपराधिन क्यों बनी?’
‘क्या करूं?, मुझसे किसी का शोषण होते देखा नहीं जाता। मेरे हाथ उसकी सहायता के लिए बरबस ही उठ जाते हैं।’ यह कहते हुए मैं मुस्करा पड़ी।
‘तुम हंस रही हो!’, दीनकर नाथ आश्चर्यचकित रह गया।
“क्यों, हंसना सिर्फ मर्दो के हिस्से में आता है?’ मेरी आवाज थोडी तल्ख हो गई।
‘मैंने ऐसा तो नहीं कहा। मेरे कहने का मतलब यह था कि जिस युवती ने कत्ल किए हैं, पुलिस जिसकी तलाश में है और जो जख्मी है, वह कैसे मुस्करा सकती है।’
दीनकर के यह कहते ही मैं समझ गई, यह मुझे डराना चाहता है, ताकि मैं डरकर इसकी मुट्ठी में कैद हो जाऊं।’
‘मैंने रावण और कंस सरीखे दुष्टों का संहार किया है। मैं जुर्म की दुनिया में ही जवान हुई हूं। मेरे घर का माहौल भी कुछ ऐसा ही था। घर छोड़ने के बाद पुरुषों से ही मेरा पाला पड़ा और वह भी गंदे, बदमाश और अपराधी प्रवृत्ति के पुरुषों से। जो मंत्री थे, नेता थे, महात्मा थे, वहशी और दरिदे थे एवं नामर्द भी थे। कत्ल करना मेरा पेशा नहीं रहा है। यह तो हो गया, जिसकी जिम्मेदार मैं नहीं, बल्कि वे दरिन्दे थे।’ यह कहकर मैं चुप हो गई।
दीनकर नाथ ने जवाब में कछ नहीं कहा। शायद उसने समझ लिया था कि मैं मुड़ने या टूटने वालों में से नहीं हूँ। मैंने खिड़की से बाहर देखा, गाड़ी सड़क पर हवा की तरह भागी जा रही थी। मुझे रह-रहकर ऐसा लगता था जैसे मैं अपने पीछे जीवन की एक दु:खद और विचित्र छाया छोड़ती जा रही हूं।
यह सब विचित्र बात ही तो थी। उस महात्मा का कत्ल करना, फिर जेल जाना और जेल की घोर यातनाएं भोगना। उन्हीं क्षणों में अय्याश जेलर का मेरे ऊपर मुग्ध होना, फिर अपने रूप के सहारे गृहमंत्री प्रमोद रंजन तक पहुंचना। सजा मिलने से पहले ही मुकदमा का रफा-दफा हो जाना। इसके बाद मेरे हाथों गृहमंत्री को जिंदा जलाया जाना। एक अद्भुत संयोग ही तो था। यह साहस नहीं, दुस्साहस भरा काम था। मुझ जैसी सैक्सी बाला के लिए यह एक भी चीज को अच्छा या बुरा नहीं माना।’
इतने में दीनकर नाथ ने कार सड़क किनारे खड़ी कर दी। मैं आश्चर्य चकित गाड़ी से नीचे उतर गई। मेरे दोनों पांव जख्मी थे और हाथ भी घायल थे। उनसे अभी भी खून टपक रहा था। पुरुष मानसिकता का एक नया ही एहसास आज हुआ था। मैं अचानक ही बुदबुदा पड़ी ‘मैं घायल हूं, दर्द से कराह रही हूं, मेरे हाथ-पांव जख्मी हो रहे हैं। पुलिस के आतंक से मैं आतंकित हूं।
और यह पुरुष मुझमें सेक्स ढूंढ रहा है! मुझसे इस निर्जन जगह में यौन-संबंध बनाने के लिए बेताब है! क्या इसे इतना भी ज्ञान नहीं कि एक जख्मी औरत से कैसे पेश आया जाता है?, मैं यह सोच ही रही थी कि दीनकर नाथ ने मेरे होंठों पर अपने गरम होंठ रख दिए। मुझे बड़ा ही बुरा लगा। मैं मुंह फेरते हुई बोली, ‘तुम्हें इतनी भी समझ नहीं कि मैं घायल हूं?’
‘तो मैं क्या करूं? देखो, एक बार मन रख दो। मैं हजार बार तुम्हारी मदद करूंगा।’ यह कहते-कहते उसने मुझे गोद में उठा लिया। मैंने कुछ नहीं कहा। जवां मर्दानी बाहों का स्पर्श पाए काफी समय हो गया था।
दीनकर ने गाड़ी की बत्ती बुझा दी और मुझे पिछली सीट पर सुला दिया। फिर वह झुककर मेरे तलवे चाटने लगा। वह चाट रहा था और मुझे घिन्न-सी आ रही थी। मेरे पांव खून से लथपथ थे। उनमें धूल-मिट्टी लगी हुई थी।
देखते ही देखते उसने मेरे दोनों तलवे चाटकर साफ कर दिए। अब वह मेरी नाभी के गड्ढे में अपनी जीभ का अग्रभाग डालकर गोल-गोल घुमाने लगा। इस स्पर्श-क्रीडा ने मेरे ठंडे पड़े खून को गरम कर दिया। मेरे हाथ-पांव का दर्द गायब हो गया। मगर यह एक दैहिक आकर्षण था।
कोई दस मिनट बाद दीनकर ड्राइविंग सीट पर जाकर बैठ गया। मुझे अब दर्द से काफी राहत मिल गई थी। मन हल्का हो गया था। गाड़ी हवा से बातें कर रही थी। तभी उसने कहा, ‘मैं मूलतः एक मनो-चिकित्सक हूं। तुम्हारे दर्द का मैंने प्राथमिक इलाज कर दिया है।
तुम्हें अब दर्द नहीं हो रहा होगा।’ मैं कुछ नहीं बोली। वह गाड़ी की गति धीमी करते हुए पुनः बोलने लगा, ‘सेक्स का संबंध मन से होता है और यही वजह है कि इससे मन के सारे विकार दूर हो जाते हैं। दर्द का भी संबंध दिमाग और दिल से होता है। शरीर का संबंध अगर दिल और दिमाग से कट जाए तो व्यक्ति को किसी भी तरह के दर्द की अनुभूति नहीं होती है।
मैंने तुम्हारे साथ सफल सहवास किया है, जिससे तुम चिंता और दर्द से मुक्त हो गई हो। अर्थात् मैंने तुम्हारा मानसिक इलाज कर दिया है। अब शारीरिक इलाज करना रह गया है, जो मेरे क्लीनिक में ही संभव है।’
दीनकर नाथ की इन बातों ने मुझे काफी प्रभावित किया। मैं अचानक ही बोल पड़ी, ‘डॉक्टर, अभी और कितनी दूर है तुम्हारा क्लीनिक?’
‘अब हम क्लीनिक के नजदीक आ गए हैं।’ यह कहना था कि गाडी एक बिल्डिंग के दरवाजे के सामने आ खडी हुई। वह गाड़ी से उतरते हुए बोला, ‘उतरो, मेरा क्लीनिक आ गया।’
मैं गाड़ी से उतरकर दीनकर नाथ के साथ अंदर की ओर बढ़ गई। दरवाजे से होते हुए जैसे ही हॉलनुमा कमरे में आई तो अचानक ही ठिठक गई, ‘डॉक्टर, तुम मुझे अपने क्लीनिक में ले आए हो या किसी हॉस्पिटल में?’
‘जो भी समझ लो, मेरी पूरी दुनिया इसी बिल्डिंग के भीतर है।’
‘यहां तो काफी मरीज हैं। क्या दुनिया में इतने लोग मनोरोगी हैं?’ मैं आश्चर्यचकित होकर बोली।
‘इनमें से एक भी व्यक्ति स्वाभाविक रूप से मनोरोगी नहीं है। इनको समाज की कुप्रथाओं ने, लोगों की यातनाओं ने मनोरोगी बना दिया है। इनका मेरे सिवा कोई नहीं है। जब तक ये ठीक नहीं होंगे मैं इन्हें यहां से जाने नहीं दूंगा।’ डॉक्टर यह कहकर आगे बढ़ गया और मुझे एक शानदार कमरे में छोड़कर स्वयं बाहर चला गया।
मैं सोचने लगी, ‘यह डॉक्टर तो एक समाज सेवक है। लाचार और मजबूर लोगों का हमदर्द है।’ तभी वह बॉक्स लेकर अंदर आ गया और मेरे जख्मों की मरहम-पट्टी करने के बाद बोला, ‘रात काफी हो गई है, अब तुम आराम करो।’
‘लेकिन डॉक्टर, मैं एक अपराधी हूं, यह जानते हुए भी तुम मेरी मदद क्यों कर रहे हो? शायद तुम्हें पता नहीं मैंने गृहमंत्री का कत्ल किया है। पुलिस को अगर पता चल गया तो मेरे साथ तुम्हें भी सजा हो सकती है।’ सुनकर दीनकर नाथ हंसने लगा, ‘मुझे सब पता है। तुमने गृहमंत्री की हत्या की है। तुमने क्या किया है? इससे मुझे कोई मतलब नहीं।
तुम एक इंसान हो, वह भी घायल हो। मेरा काम घायलों का इलाज करना है। मैं अपना काम कर रहा हूं। पुलिस तुम्हें यहां से पकड़ कर ले जाएगी तो वह अपना काम करेगी। इस संसार में सभी अपना-अपना काम करते हैं। तमने भी तो अपना काम ही किया है।’ दीनकर नाथ यह कहकर चला गया।’
मैं बिस्तर पर लेटी-लेटी सोच रही थी, ‘इस डॉक्टर का करेक्टर भी विचित्र है। यह मनोचिकित्सक तो है, पर करेक्टर का सही नहीं लगता।
फिर मेरी आंख लग गई और मैं बेसुध बिस्तर पर सो गई। अभी आंखों में नींद आई ही थी कि किसी चीज के गिरने की आवाज से मेरी आंख खल गई। मैं हडबडा कर बिस्तर पर उठकर बैठ गई। मेरा मन बडा ही अशांत हो गया। फिर न जाने दिमाग में क्या आया, मैं दरवाजे से निकलकर बरामदे में आ गई। बरामदे से सटे हए दो कमरे थे। इतने में मेरी निगाह सामने वाले कमरे में चली गई। मैंने देखा, डॉक्टर दीनकर नाथ एक अट्रारह वर्षीया लडकी से हाथापाई कर रहा था और उसके एक हाथ में इंजेक्शन थी।
वह लड़की गिड़गिड़ा रही थी, ‘डॉक्टर, यह अच्छी बात नहीं है। डॉक्टर तो भगवान की तरह होता है। मैं आज यह इंजेक्शन नहीं लूंगी। दवाई के नाम पर तुम रोजाना ही बेहोशी का इंजेक्शन मुझे दे जाते हो और फिर अपनी मनमानी करते हो।’
‘तुम ऐसा नहीं कह सकती। तुम्हारा इलाज ही यही है।’
‘डॉक्टर, इलाज के नाम पर क्यों व्याभिचार करते हो। मरोगे तो तुम्हें कोई फेंकने वाला भी नहीं होगा।’ वह लड़की यह कहते-कहते डॉक्टर पर पूरी ताकत के साथ टूट पड़ी। तभी डॉक्टर ने उसके नितंब में इंजेक्शन दे दिया। कुछ देर तक वह छटपटाई फिर बिस्तर पर धड़ाम से गिर पड़ी।
डॉक्टर दीनकर नाथ गुस्से में बड़बड़ाया, ‘एक तो इन लोगों को पुलिस से बचाओ, ऊपर से इनके नखरे सहो। मैं इसकी कीमत तो वसूलूंगा ही। मुझे देह सुख के अलावा ये लोग देती ही क्या हैं?’ डॉक्टर दीनकर यह कहकर उस लड़की की ओर मुड़ा और उसके कपड़े खोलने लगा।
मैं आंखें बंद कर कमरे में वापस आ गई। मेरा खून गुस्से से खौल रहा था। मैं अब समझ गई थी कि डॉक्टर दीनकर नाथ इतना गिरा हुआ आदमी है जो शव पद के साथ भी सहवास कर सकता है। इंजेक्शन देकर लड़की को बेहोश करना, फिर उसे नंगा कर उसकी देह से घंटों खेलना यही तो मुझे पसंद नहीं है।
एक से अधिक लोगों से यौन व्यवहार बनाने की मैं विरोधी नहीं हूं। मैं तो यौन हिंसा की कट्टर विरोधी हूं। किसी की इच्छा के बिना किसी को बेहोश कर यौन संबंध बनाना मेरी दृष्टि में बहुत बड़ा अपराध है।
मैं समझ नहीं पा रही थी लोग इतने क्रूर और अमानवीय क्यों होते जा रहे हैं। समाज में व्यवस्था स्त्रियों से ही बनी हुई है। अगर पुरुष उन्हें भी अपनी तरह भ्रष्ट और चरित्रहीन बना देंगे तो फिर पूरी दुनिया में कोहराम-सा मच जाएगा।’ मैं गुस्से के मारे थर-थर कांपने लगी, लेकिन गुस्सा हर समस्या का समाधान नहीं होता है। यही सोचकर धीरे-धीरे नॉर्मल हो गई।
इसी उधेडबन में सुबह हुई। डॉ. दीनकर नाथ दो दिन के लिए सुबह की फ्लाइट से कहीं चला गया था। मैं बहुत ही खुश थी। मेरा जख्म भी अब काफी भर गया था। मैंने धीरे-धीरे चलकर बिल्डिंग के सभी कमरों का निरीक्षण किया। उस बिल्डिंग में कुल दो सौ लड़कियां थी, जिनमें से एक भी ऐसी नहीं थी जिसे मनोरोगी कहा जा सकता था।
वे सभी की सभी लड़कियां आधुनिक सोच रखने वाली थीं, अव्यवस्था के खिलाफ लड़ने वाली थीं। तभी तो लोगों ने उन्हें मनोरोगी घोषित कर दिया था। वे सभी की सभी पुलिस और समाज की नजरों में अपराधी और मुजरिम थीं। लेकिन वास्तव में वे अपराधिन नहीं थीं।
मुझे एक ऐसे ही जुझारू महिला युवा दल की जरूरत थी। उन दौ सौ लड़कियों में से कौन उनकी नेता है? इसका पता लगाना मेरे लिए बहुत ही जरूरी था। मैंने अगले पल ही इसका पता लगाने का काम शुरू कर दिया। सबसे बात करके देखा तो नीना उनकी नेता लगी।
सभी लड़कियां उसकी बात मानती थीं। उस पर विश्वास भी करती थीं। मैं नीना के कमरे में पहुंची तो वह हड़बड़ा कर खड़ी हो गई। मैंने उससे बिठाते हुए कहा, ‘बैठ जाओ बहन, मुझे पता है, तुम एक मनोरोगी नहीं हो यह डॉक्टर मनोरोगी है। अपने पेशे की आड़ में लड़कियों की मजबूरी का फायदा उठा रहा है। वैसे क्या तुम बता सकती हो कि इन लड़कियों ने क्या अपराध किए हैं?’
नीना दो कदम पीछे हटते हुए बोली, ‘तुम कौन हो?’
‘मैं… मैं भी तुम सब की तरह ही परिस्थितियों की मारी हुई हूं। अव्यवस्था के खिलाफ, यौन-शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद करने का अपराध मैंने किया है। तुम्हीं बोलो, कोई पुरुष किसी स्त्री के साथ जबर्दस्ती करता है तो क्या उसको सजा देना गुनाह है?’ मैं एक सांस में ही बोल गई।
‘नहीं, यह भला गुनाह कैसे हो सकता है।’
‘मैंने बस यही गुनाह किया है।’ मेरी आवाज सुनते ही नीना बोल पड़ी। ‘इन लड़कियों ने भी और मैंने भी ऐसा ही गुनाह किया है। हम सब पुलिस हिरासत से भागी हुई मुजरिम हैं। डॉक्टर ने हमें पनाह दी है, जिसकी कीमत हमारी देह से वसूल रहा है।’
‘तुम सब एकजुट होकर बगावत क्यों नहीं करती हो। पुलिस से कब तक छुपती रहोगी। इस तरह से तो पूरी उम्र वेश्यावृत्ति करते ही गुजर जाएगी, फिर भी मुजरिम होने का ठप्पा लगा ही रहेगा।’ नीना मेरी बात समझ गई। उसने सभी लड़कियों को बारी-बारी से यथार्थ का ज्ञान करा दिया।
मैंने उनमें क्रांति की चिंगारी फेंक दी थी। पुलिस से भयभीत, मजबूर और नि:सहाय लड़कियां हॉल में आकर जमा हो गई। जिस कारण वहां की नर्स, डॉक्टर्स आदि घबरा गए। दीनकर नाथ वहां था नहीं। मैंने कहा, ‘शहर के मुख्य बाजार की ओर बढ़ चलो। अब हमारा पुलिस भी कुछ नहीं बिगाड़ सकती।’
दो सौ युवा लड़कियों की भीड़ मामूली भीड़ नहीं होती है। हम जिधर से भी निकलतीं, लोगों की हवा गुम हो जाती। चौक पर पहुंचकर हम सब खड़ी हो गई। मैं उनकी नेता थी। वहीं पर भाषण देने के लिए बने पत्थर के मंच पर मैं कूदकर चढ़ गई। भीड़ से भीड़ इकट्ठा होती है। दो सौ लड़कियों की भीड़ ने कई सौ लोगों की भीड़ जमा कर दी।
मैंने लोगों को संबोधित करते हुए कहा,
‘मुझे आप लोग ध्यान से देख लीजिए। मेरा ही नाम काजोल है। गृहमंत्री की हत्या मैंने ही की है। पुलिस को मेरी तलाश है। मेरा नाम फोटो सहित देश के छोटे-बड़े सभी पत्र-पत्रिकाओं में छपा हुआ है। मेरे सिर पर इनाम है। जो मुझे पकड़ेगा उसे एक लाख नकद इनाम सरकार देगी।
ऐसी सनकी, पागल और अव्यवस्था फैलाने वाली सरकार और कर भी क्या सकती है? सरकार सनकी, भ्रष्ट, पागल इसलिए है, क्योंकि जो लोग सरकार में हैं, वे ही भ्रष्ट, अय्याश और देशद्रोही हैं।’
मुझे पर मदिरा सेवन करने, पुरुषों से यौन-संबंध बनाने या गलत तरीके से पैसा इकट्ठा करने का आरोप है। मैंने भ्रष्ट नेताओं के गुरु, अर्थात् महात्मा को इसलिए जान से मारा था, क्योंकि उसका आश्रम वेश्यालय बन गया था। वहां लड़कियों के साथ मंत्री, उद्योगपति और स्वयं महात्मा व्याभिचार करते थे। वे लड़कियां इसके लिए तैयार नहीं थी। क्या आश्रम को वेश्यालय बनाना जुर्म नहीं है? अगर वह जुर्म नहीं है तो मैं मुजरिम कैसे हो गई?
गृहमंत्री प्रमोद रंजन का फार्म हाउस भी एक कोठे से कम नहीं था। वहां तो महिला जेलों से महिलाएं सप्लाई होती थीं। वहां की व्यवस्था को तो मैंने जाकर सुधारा। तंदूर की भट्टी में प्रमोद रंजन रोजाना ही दो-तीन लड़कियां जलाता था मैंने उसको उसी भट्ठी में झोंक दिया तो कौन-सा गुनाह कर दिया?
मेरे संबंध अनगिनत शिखर पर पहुंचे पुरुषों से रहे हैं। संबंध का होना अलग बात है और जबर्दस्ती संबंध बनाना अलग बात है। जोर-जबर्दस्ती जहां भी मैंने देखी, वहीं पर इसका विरोध किया। मेरी जिन्दगी तो एक खुली किताब की तरह है। मैंने अस्सी-अस्सी साल के पुरुषों को अपने पीछे भागते देखा है। पुरुष के अंदर दूसरी स्त्री की ओर आकृष्ट होने की प्रवृत्ति है।
पुरुषों की इस प्रवत्ति ने ही समय-समय पर मेरे संयम को तोड़ा है। मैंने जब जब कोशिश की कि अब भटकना नहीं है, सादा जीवन जीना है, तब-तब पुरुषों ने मेरी इस कोशिश पर पानी फेर दिया। मैं बहुपुरुष गामिनी होते हुए भी बलात्कार के प्रति बहुत ही संवेदनशील रही हूं। इसे सबसे बड़ा व अपराध मानती हूं। मांग कर खाना और छीनकर खाना दोनों में बहत ही फर्क होता है। मैंने जिन लोगों की हत्याएं की हैं, उनमें छीनकर खाने की प्रवत्ति रही थी। वे एक आक्रांता थे, बर्बर के थे। समाज को अपने ढंग से चलाना चाहते थे।
मुझे फांसी भी हो सकती है, या उम्र कैद की सजा हो सकती है। या फिर मुझे बाइज्जत बरी भी किया जा सकता है। मेरे साथ कैसा भी सलूक हो, मुझे इसकी चिंता नहीं है। लेकिन मैं पूछती हूं, महात्मा जी के आश्रम से, प्रमोद रंजन के फार्म हाउस और अब दीनकर नाथ के हॉस्पिटल से जो लड़कियां बदहाल जिंदगी लिए बाहर आई हैं और उन लोगों के अत्याचारों की चश्मदीद गवाह हैं, इसके बारे में पुलिस का क्या ख्याल है? उन लोगों पर वह क्या कार्रवाई कर रही है? डॉक्टर दीनकर नाथ भ्रष्ट डॉक्टरों का नमूना है। वह मजबूर लड़कियों को बेहोशी की दवाइयां देकर उनके मृत समान शरीर से खेलता है। होशोहवास में यौन संबंध बनाना तो मेरी समझ में आता है, पर बेहोश कर स्त्री की देह को रौंदना! यह कहां का तरीका है? दीनकर नाथ के बारे में पुलिस चुप है, क्योंकि उसकी पहुंच दूर तक है। मैं थूकती हूं ऐसे डरपोक प्रशासन पर। मैं जानती हूं, गरीब मजबूर और कमजोर वर्ग की आवाज न तो सरकार सुनती है, न ही पुलिस प्रशासन।’
मैं अभी और बोलती, लेकिन बोल न सकी, क्योंकि पुलिस फोर्स ने मुझे चारों तरफ से घेर लिया था। मैं देख रही थी, मेरे भाषण को जनता ने एक भ्रष्ट और मक्कार नेता के भाषण की तरह ही समझा था। किसी ने भी मेरी बातों पर विश्वास नहीं किया था। लोग एक बदनाम व्यक्ति की सही बात भी कहां मानते हैं!
पुलिस बेकार में ही मुझ पर राइफलें और मशीनगन तान रखी थी। मेरा तो भागने का कोई इरादा ही नहीं था। हां, न मुझे इस बात का दुःख था कि मैंने ने दीनकर नाथ को यूं ही छोड़ दिया।
मेरे मंच से कूदते ही पुलिस ने मुझे गिरफ्तार कर लिया। मेरे साथ-साथ वे दो सौ लड़कियां भी थीं।