क्या नाम कि प्रातःकाल स्नान-पूजा से निपट, तिलक लगा, पीताम्बर पहन, खड़ाऊं पाँव में डाल, बगल में पत्रा दबा, हाथ में मोटा-सा शत्रु-मस्तक भंजन ले एक यजमान के घर चला। विवाह की साइत विचारना थी। कम-से-कम एक कलदार का डौल था। जलपान ऊपर से। और मेरा जलपान मामूली जलपान नहीं है। बाबुओं को तो मुझे निमंत्रित करने की हिम्मत ही नहीं पड़ती। उनका महीने-भर का नाश्ता मेरे एक दिन का जलपान है। इस विषय में तो हम अपने सेठ-साहूकारों के कायल हैं। ऐसा खिलाते हैं, ऐसा खिलाते हैं, और इतने खुले मन से कि चोला आनंदित हो उठता है। यजमान का दिल देखकर ही मैं उनका निमंत्रण स्वीकार करता हूँ। खिलाते समय किसी ने रोजी सूरत बनाई ओर मेरी क्षुधा गायब हुई। रोकर किसी ने खिलाया तो क्या? ऐसा भोजन कम-से-कम मुझे नहीं पचता। यजमान ऐसा चाहिए कि ललकारता जाए- लो शास्त्री जी, एक बालूशाही और। और मैं कहता जाऊं- नहीं यजमान, अब नहीं।
रात खूब वर्षा हुई थी, सड़क पर जगह-जगह पानी जमा था। मैं अपने विचारों में मग्न चला जाता था कि एक मोटर छप-छप करती हुई निकल गई। मुँह पर छींटे पड़े। जो देखता हूँ तो धोती पर मानो किसी ने कीचड़ घोलकर डाल दिया हो। कपड़े भ्रष्ट हुए वह अलग, देह भ्रष्ट हुई यह अलग, आर्थिक क्षति जो हुई वह अलग। मगर मोटर वाले को पकड़ पाता, तो ऐसी मरम्मत करता कि वे भी याद करते। मन मसोस कर रह गया था। इस वेश में यजमान के घर तो जा नहीं सकता था, उसका घर भी मील भर से कम न था। फिर आने-जानेवाले सब मेरी और देख-देखकर तालियाँ बजा रहे थे। ऐसी दुर्गति मेरी कभी नहीं हुई थी। अब क्या करोगे मन? घर जाओगे, तो पण्डिताइन क्या कहेंगी?
मैंने चटपट अपने कर्तव्य का निश्चय कर लिया। इधर-उधर से दस-बारह पत्थर के टुकड़े बटोर लिए और दूसरी मोटर की राह देखने लगा। ब्रह्म-तेज सिर पर चढ़ बैठा। अभी दस मिनट भी न गुजरे होंगे कि एक मोटर आती हुई दिखाई दी। ओ हो! वही मोटर थी। शायद स्वामी को स्टेशन के लेकर लौट रही थी। ज्यों ही समीप आई, मैंने एक पत्थर चलाया, भरपूर जोर लगाकर चलाया। साहब की टोपी उड़कर सड़क से उस बाजू पर गिरी। मोटर की चाल धीमी हुई। मैंने दूसरा फेर किया। खिड़की के शीशे चूर-चूर हो गए और एक टुकड़ा साहब बहादुर के गाल में भी लगा। खून बहने लगा। मोटर रुकी और साहब उतरकर मेरी तरफ आए और घूंसा तानकर बोले- सुअर, हम तुमको पुलिस में देगा। इतना सुनना था कि मैंने पोथी-पत्रा जमीन पर फेंका और साहब की कमर पकड़कर अड़ंगी लगायी, तो कीचड़ में भद से गिरे। मैंने चट सवारी गाँठी और गरदन पर एक पच्चीस रद्दे ताबड़तोड़ जमाए कि साहब चौंधिया गए। इतने में उनकी पत्नी जी उतर आई। ऊंची एड़ी का जूता, रेशमी साड़ी, गालों पर पाउडर होंठों पर रंग, भौहों पर स्याही। मुझे छाते से गोदने लगीं। मैंने साहब को छोड़ दिया और डण्डा सँभालता हुआ बोला- देवीजी, आप मर्दों के बीच में न पड़े, कहीं चोट-चपेट आ जाए, तो मुझे दुःख होगा।
साहब ने अवसर पाया, तो सँभल कर उठे और अपने बूटदार पैरों से मुझे एक ठोकर जमायी। मेरे घुटने में बड़ी चोट लगी। मैंने बौखला कर डण्डा उठा लिया और साहब के पाँव में जमा दिया। वह कटे पेड़ की तरह गिरे। मेम साहब छतरी तानकर दौड़ी। मैंने धीरे से उनकी छतरी छीनकर फेंक दी। ड्राइवर अभी तक बैठा था। अब वह भी उतरा और छड़ी लेकर मुझ पर पिल पड़ा। मैंने एक डण्डा उसके भी जमाया, लौट गया। पचासों आदमी तमाशा देखने जमा हो गए। साहब भूमि पर पड़े-पड़े बोले- रास्कल, हम तुमको पुलिस में देगा।
मैंने फिर डण्डा सँभला और चाहता था कि खोपड़ी पर जमाऊँ कि साहब ने हाथ जोड़कर कहा- नहीं-नहीं बाबा, हम पुलिस में नहीं जाएगा। माफी दो। मैंने कहा- हाँ पुलिस का नाम न लेना, नहीं तो यहीं खोपड़ी रँग दूँगा। बहुत होगा। छह महीने की सजा हो जाएगी, मगर तुम्हारी आदत छुड़ा दूँगा। मोटर चलाते हो तो छींटे उड़ाते हो, मारे घमण्ड के अंधे हो जाते हो। सामने या बगल में कौन जा रहा है, इसका कुछ ध्यान ही नहीं रखते।
एक दर्शक ने आलोचना की- अरे महाराज, मोटर वाले जान-बूझकर छींटे उड़ाते हैं और जब आदमी लथपथ हो जाता है, तो सब उसका तमाशा देखते हैं और खूब हँसते हैं। आपने बड़ा अच्छा किया कि एक को ठीक कर दिया।
मैंने साहब को ललकार कर कहा- सुनता है कुछ, जनता क्या कहती है? साहब ने उस आदमी की ओर लाल-लाल आँखों से देखकर कहा- तुम कुछ बोलता है, बिलकुल बोलता है।
मैंने डाँटा- अभी तुम्हारी हेकड़ी कम नहीं हुई, आऊँ फिर, और दूँ एक सोंटा कसके?
साहब ने घिघियाकर कहा- अरे नहीं बाबा, सच बोलता है, सच बोलता है। अब तो खुश हुआ।
दूसरा दर्शक बोला- अभी जो चाहे कह दें लेकिन ज्यों ही गाड़ी पर बैठे, फिर वही हरकत शुरू कर देंगे। गाड़ी पर बैठते ही सब अपने को नवाब का नाती समझने लगते हैं।
दूसरे महाशय बोले- इससे कहिए, थूक कर चाटे।
तीसरे सज्जन ने कहा- नहीं, कान पकड़कर उठाइए-बैठाइए।
चौथा बोला- और ड्राइवर को भी। ये सब बदमाश होते हैं। मालदार आदमी घमण्ड करे तो एक बात है, तुम किस बात पर अकड़ते हो? चक्कर हाथ में लिया और आँखों पर परदा पड़ा।
मैंने यह प्रस्ताव स्वीकार किया। ड्राइवर और मालिक दोनों ही को कान पकड़कर उठाना-बैठाना चाहिए और मेम साहब गिने। सुनो मेम साहब, तुमको गिनना होगा। पूरी सौ बैठकें । एक भी कम नहीं, ज्यादा जितनी चाहे हो जाएँ। दो आदमियों ने साहब का हाथ पकड़कर उठाया, दो ने ड्राइवर महोदय को। ड्राइवर बेचारे की टाँग में चोट थी, फिर भी वह बैठकें लगाने लगा। साहब की अकड़ भी काफी थी। आप लेट गए और ऊल-जलूल बकने लगे। मैं उस समय रुद्र बजा हुआ था। दिल में ठान लिया था कि इससे बिना सौ बैठक लगवाए न छोडूँगा। चार आदमियों को हुक्म दिया कि गाड़ी को ढकेल कर सड़क के नीचे गिरा दो।
हुक्म की देर थी। चार की जगह पचास आदमी लिपट गए और गाड़ी को ढकेलने लगे, यह सड़क बहुत ऊंची थी। दोनों तरफ की जमीन नीची। गाड़ी नीचे गिरती और टूट-टाटकर ढेर हो जाती। गाड़ी सड़क के किनारे तक पहुँच चुकी थी कि साहब कसकर उठ खड़े हुए और बोले- बाबा, गाड़ी मत तोड़ो, हम उठे बैठेगा। मैंने आदमियों को अलग हट जाने का हुक्म दिया, मगर सभी को एक दिल्लगी मिल गई थी। किसी ने मेरी ओर ध्यान न दिया। लेकिन जब मैं डण्डा लेकर उनकी ओर दौड़ा, तब सब गाड़ी छोड़कर भागे और साहब ने आँखें बंद करके बैठक लगानी शुरू कीं।
मैंने दस बैठकों के बाद मेम साहब से पूछा- कितनी बैठकें हुईं?
मेम साहब ने रौब से जवाब दिया- हम नहीं गिनता।
तो इस तरह साहब दिन-भर कांखते रहेंगे और मैं न छोडूँगा। अगर उनको सकुशल से घर ले जाना चाहती हो, तो बैठकें गिन दो। मैं उनको रिहा कर दूँगा। साहब ने देखा कि बिना दण्ड भोगे जान न बचेगी, तो बैठक लगाने लगे। एक, दो, तीन, चार, पाँच…
सहसा एक दूसरी मोटर आती दिखाई दी । साहब ने देखा और नाक रगड़कर बोले- पंडितजी, आप मेरा बाप है। मुझ पर दया करो, अब हम कभी मोटर पर न बैठेंगे। मुझे भी दया आ गई। बोला- नहीं, मोटर पर बैठने से मैं नहीं रोकता, इतना ही कहता हूँ कि मोटर पर बैठकर भी आदमियों को आदमी समझो।
दूसरी गाड़ी तेज चली आती थी। मैंने इशारा किया। सब आदमियों ने दो- दो पत्थर उठा लिए। उस गाड़ी का मालिक स्वयं ड्राइव कर रहा था। गाड़ी धीमी करके धीरे से सरक जाना चाहता था कि मैंने बढ़कर उसके दो कान पकड़े और खूब जोर से हिलाकर और दोनों गालों पर एक-एक पड़ाका देकर कहा- गाड़ी से छींटे न उड़ाया करो, समझे। चुपके से चले जाओ।
यह महोदय बक-बक तो करते रहे, मगर एक सौ आदमियों को पत्थर लिये खड़ा देखा, तो बिना कान-पूंछ हिलाए चलते बने।
उनके जाने के एक ही मिनट बाद दूसरी गाड़ी आई। मैंने 50 आदमियों को राह रोक लेने का हुक्म दिया। गाड़ी रुक गई। मैंने उन्हें भी चार पड़ाके देकर विदा किया, मगर यह बेचारे भले आदमी थे। मजे से चांटे खाकर चलते बने।
सहसा एक आदमी ने कहा- पुलिस आ रही है।
और सब के सब दूर हो गए। मैं भी सड़क के नीचे उतर गया और एक गली में घुसकर गायब हो गया।