गृहलक्ष्मी की कहानियां-नर सेवा ही नारायण सेवा है! किसी का दुःख हरना एक बहुत बड़ा धार्मिक अनुष्ठान है, पूजा है। मात्र अपने लिए तो एक जानवर भी जीता है, लेकिन वह इंसान ही क्या जो अपने आसपास के वातावरण के प्रति इतना भी संवेदनशील न हो कि दीन-हीन तथा रुग्ण लोगों के प्रति उसका दिल न पसीजे?’ गोपाल की इन बातों से गिरीश के उद्वेलित एवं कुंठित मन को कितनी शांति मिली होगी इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।
‘लेकिन गुरु जी! ये सब जो आप कह रहे हैं, वह तो कहीं दिखता ही नहीं। समाज में कुष्ठ रोगियों के प्रति जो अस्पृश्यता का भाव लोगों के दिलो-दिमाग में है, उसे कैसे दूर किया जाए? यही असली यक्ष-प्रश्न है, जिसका उत्तर शायद आचार्य देव! आपके पास भी न हो।’
ठीक ही तो कहता है गिरीश। पूरे दस वर्ष बीत चुके हैं गोपाल द्वारा स्थापित किये गये इस ‘नर सेवा नारायण सेवा’ आश्रम को। दो हजार से अधिक कुष्ठ रोगी रह रहे हैं यहाँ।
आश्रम की स्थापना उसे क्यों करनी पड़ी, इसकी भी एक लम्बी कहानी है। गोपाल नहीं चाहता था कि जीवन के अन्तिम क्षणों में जो उपेक्षा और पीड़ा उस के बाबा को सहनी पड़ी, वह किसी और को भी भुगतनी पड़े।
गिरीश आज अपने पिता को इस आश्रम में लेकर आया था, उसकी व्यथा सुनकर गोपाल को अपने बीते दिन याद आ गये।
सियोली गांव की वह नौखम्भा तिबार अब सूनी पड़ चुकी है। उसके खंडहर होगी पत्थरों की नक्काशी बताती है कि अपने जमाने में कभी यह इमारत बुलंद रही थी। मकान के छज्जे के नीचे लगे पत्थरों पर हाथी, घोड़े, मोर तथा अन्य जंगली जानवरों के चित्र खुदे हुए हैं। इन सुन्दर पत्थरों पर बनी कलाकृतियां भवन-स्वामी के वैभव और समृद्धि के साथ ही तत्कालीन समय की बेजोड़ स्थापत्य कला की कहानी खुद-ब-खुद बयां करती हैं। कभी जीवन की चहल-पहल, हर्ष व उल्लास के क्षणों का साक्षी यह विशाल भवन आज जंगली जीवों, चूहों, बिल्ली व कुत्तों की सैरगाह बन चुका है। कितनी चहल-पहल रहती थी उनके घर में।
गांव भर की सभी गतिविधियों का केन्द्र रहती थी उनकी तिबारी। छोटे-बड़े सभी उनके चौक में इकट्ठा हो जाते थे। उत्सव और त्यौहारों के मौके पर गाँव परिवार के लोगों के ठहाकों से तिबारी गूँजती थी। सचमुच! जीवन के उत्साह, उमंग व उम्मीदों के इन्द्रधनुषी रंग मानों भगवान ने गोपाल के खुशहाल घर में उड़ेल कर रख दिये हों। कितनी हंसी-खुशी से जीवन की गाड़ी चल रही थी उसके बाबा की। पूरी धनपुर पट्टी में अपनी अलग पहचान थी उनकी। इलाके भर के सभी विद्वजन उनके सामने नतमस्तक होते थे। ज्योतिष, कर्मकाण्ड, श्रीमद्भागवत गीता तथा वेदों-उपनिषदों के मर्मज्ञ थे वे।
रामचरित मानस की चौपाइयों एवं श्रीमद्भगवत गीता के श्लोक सहित वेदों की ऋचाओं के उपाख्यान उन्हें कंठस्थ याद रहते थे, इसीलिए ‘मानस-मर्मज्ञ’ तथा देवॠषि जैसे अंलकरणों से लोग उन्हें संबोधित करते। लोग कहते, लक्ष्मी और सरस्वती का आपस में बैर है, किन्तु उनके घर में लक्ष्मी और सरस्वती का एक साथ वास था।
बाबा के धारा प्रवाह प्रवचनों पर लक्ष्मी की वर्षा होती थी, दूध, फल, सब्जियों तथा अन्न का अकूत भण्डार। श्रद्धालु यजमान अच्छी-अच्छी चीजें व मूल्यवान वस्तुएं ढो-ढोकर उनके घर तक पहुँचाने में अपना सौभाग्य समझते और बाबा की सेवा को अपने लिए वरदान मानते।
ज्योतिष में तो उनकी इतनी पकड़ थी कि लोग उन्हें त्रिकालदर्शी कह कर पुकारते। भूत, भविष्य व वर्तमान के लिये लोगों के बारे में उनकी टिप्पणियाँ बड़ा महत्व रखती थी। उन्होंने जीवन में कभी भी पंचांग नहीं खरीदा। वे हमेशा अपना बनाया पंचांग ही प्रयोग में लाते। अंग गणित से वे खगोलिक गतिविधियों की जानकारी रखते और ग्रहों की दिशा एवं दशा ज्ञात करके व्यक्ति के जीवन में उसके पड़ने वाले प्रभावों का गहन अध्ययन करने के बाद जब ठोस टिप्पणी करते तो लोग उनके ज्योतिष ज्ञान के कायल हो जाते।
एक बार जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन महाराजा ने उन्हें अपने यहाँ श्रीमद्भागवत का प्रवचन करने के लिए आमन्त्रित किया। उनकी विद्वता तथा वाक्पटुता से महाराजा इतने अविभूत हो गए कि उन्होंने वहाँ की चौदह बीघा जमीन के साथ ही उस पर लगे सेब के बागान भी उन्हें भेंट कर दिये। कुछ वर्षों तक वहाँ के बगीचों से बेचे गये फलों के पैसे मनीऑर्डर के जरिए बाबा को आते रहे।
बगीचे की रखवाली के लिए जिस व्यक्ति को उन्होंने वहाँ चौकीदार रखा था, वही आज वहाँ का मालिक बन गया। अब उसके बीबी-बच्चे कहते हैं कि ये उनकी पुश्तैनी जमीन है। भारत-पाक विभाजन के बाद तो वहाँ के हालात और खराब हो गये।
बाद में बाबा ने सोचा कि गढ़वाल की जमीन ही नहीं देखी जा रही है, तो जम्मू-कश्मीर कौन जायेगा आतंकियों से जूझने? जहाँ बंदूक के खौफ से अब पूरी घाटी कांप रही है। अब कहाँ वह जमीन गई होगी और कहाँ वे सेब के बागान? भगवान जाने!
दरअसल उसके बाबा ने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से नव्य व्याकरण एवं ज्योतिष में आचार्य किया था। उन्हीं दिनों उन्होंने वेदों की ऋचाओं, उपनिषदों, श्रीमद्भागवत गीता, रामायण, रामचरित मानस आदि का गहन अध्ययन करते-करते उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया।
उन्होंने पच्चीस साल की युवावस्था में ही शास्त्री और आचार्य कर तमाम धार्मिक ग्रन्थों का गहन अध्ययन कर लिया था। छब्बीसवें साल में उनका तन-मन पूरी तरह वैरागी बन गया। अब वे लगातार घूम-घूमकर धार्मिक जन-जागरण करने लगे। गांव से दादी ने बाबा को ढूंढने के लिए लोगों को बनारस, वृंदावन तथा मथुरा भेजा। बाद में ताऊजी ने उन्हें भगवा भेष में पकड़ लिया और जबरन घर ले आये।
घर आकर कुछ दिनों तक वे असामान्य रहे, किन्तु जैसे ही उनकी जबरन शादी कराई गई तो वे सामान्य होते चले गये और शीघ्र ही गांव और समाज के लोगों के लिए वे आदर्श बन गये। फिर उनका संदेश था कि लिबास से बैरागी नहीं वरन मन से वैरागी बन जाओ और अपने इन्हीं सात्विक व सद्आचरण युक्त विचारों से उन्होंने लोगों का दिल जीत लिया। यही कारण था कि उनके कहे का लोगों पर त्वरित प्रभाव पड़ता था।
शायद किस्मत के लिखे को कोई भी नहीं टाल सकता। उनके सद्आचरण की मर्मज्ञता नियति के लिखे को नहीं टाल पाई। एक दिन अचानक उन पर कुष्ठ रोग के लक्षण दिखे, तो लोगों को अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ। श्रद्धालु यजमान सोचते कि वे कोई बड़ा दुःस्वप्न देख रहे हैं। ज्यों-ज्यों उनके शरीर पर कुष्ठ रोग का असर बढ़ता गया, त्यों-त्यों श्रद्धालु यजमानों की श्रद्धा उनके प्रति कम होती चली गई।
एक साल के अन्तराल में ही उनके प्रति लोगों का मान-सम्मान, श्रद्धा, विश्वास तथा भक्ति समाप्त हो गई और जीवन के अंतिम क्षणों में वे गाँव की रूढ़िवादी परम्पराओं और अंधविश्वास के शिकार हो गये। गांववालों ने जब एक दिन भरी पंचायत में सुरेशानंद आचार्य को गांव छोड़ने का फरमान सुनाया, तो उनके परिवार पर जैसे दिनदहाड़े वज्रपात हो गया।
गोपाल को लगा जैसे एक युग सा ठहर गया हो, सांसें रुक गई और जीवन का सुर, बेसुरा राग बन गया। गांव के पार मंगरा के खेतों की छोर पर बांज के पेड़ों की छांव में उनके लिए एक झोंपड़ी तैयार की गई। उस झोंपड़ी में उन्हें तन्हा छोड़ दिया गया। यहाँ तक कि खाना भी उन्हें दूर से दिया जाने लगा।
उनके जीवन के पूरे कालखण्ड पर दृष्टिपात करते हुए गोपाल को लगता कि स्वर्ग और नरक दोनों का अहसास मनुष्य को प्रायः अपने जीते जी ही मिल जाता है। उनके इस जीवन के कर्म इतने पवित्र थे कि उन्हें इस तरह के नरक जैसी यंत्रणा नहीं मिल सकती थी, लेकिन उन्हें किन कारणों से इतनी बड़ी सजा भगवान ने दी, यह लोगों की समझ से परे था।
कुछ लोगों ने कहा कि यह पूर्वजन्म के कर्मों का प्रतिफल है। कुष्ठ जैसे असाध्य रोग से लड़ते-लड़ते उन्होंने गाँव के पार बनी उसी झोंपड़ी में एक रात दम तोड़ दिया। गोपाल को बाबा के पास जाने से किस प्रकार रोका गया था! लोग कहते कि ‘यह छूत की बीमारी है तुम्हें भी लग जायेगी।’
गांववालों ने गोपाल को बाबा का क्रिया कर्म भी करने नहीं दिया। सबने कहा कि कुष्ठ रोगी को आग में जलाओगे, तो पूरे क्षेत्र में आग के धुएं के साथ कुष्ठ रोग फैल जायेगा, इसलिए पास के गधेरे में ही उन्हें दफना दिया गया था। बाबा के मरने के बाद भी गोपाल के परिवार से गांववालों की बेरूखी कम नहीं हुई। समाज में उनको लोगों की हेय दृष्टि का सामना करना पड़ा। गोपाल के मन में कुष्ठ रोगियों के प्रति सेवाभाव, सच मानिए तो, यहीं से जागृत हुआ था। समाज की उपेक्षा और बाबा के अपमान के दंश ने उसके अन्दर नये गोपाल का प्रादुर्भाव किया।
‘क्या सोचने लगे गुरुजी! गिरीश ने गोपाल का हाथ थाम कर पूछा तो यकायक उसकी तन्द्रा टूट गयी। कुछ ही पलों में आदमी सोच-सोचकर बरसों पुरानी अतीत की स्मृतियों में कैसे डूब जाता है? वह सोचने लगा। सचमुच कितने दुःखद तथा मानसिक यंत्रणादायक दिन थे वे! लेकिन अब अन्य कोई गोपाल या उसका परिवार उस तरह की यंत्रणा नहीं झेलेगा, यह निश्चय वह कर चुका था।
उसने गिरीश को बताया कि इस ‘नर सेवा नारायण सेवा आश्रम’ में इस समय दो हजार से अधिक कुष्ठ रोगी हैं, जिनकी सेवा व उपचार चल रहा है। इसके साथ ही उन्हें शारीरिक ही नहीं मानसिक तौर पर भी समाज में सम्मान से जीने योग्य बनाने हेतु निरंतर प्रयास किया जा रहा है।
गिरीश के कुष्ठ रोगी पिता को अपने आश्रम में प्रवेश कराने के पश्चात गोपाल बोला ‘ये तुम्हारे ही नहीं बल्कि मेरे भी पिता हैं और इन जैसे हजारों हजार कुष्ठ रोगियों की सेवा करना ही मेरा धर्म और मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।’
पिता को आश्रम में छोड़ने के बाद वहाँ से निकलकर गिरीश सोचते हुए जा रहा था कि हमारे रूढ़िवादी समाज द्वारा ठुकराये गये इन बेसहारा, निराश्रित मनीषियों की सेवा करते हुये ही गोपाल को शायद अपने इस यक्ष-प्रश्न का उत्तर मिल जाये.
