कलिका खुद भी बहुत अच्छी नौकरी कर रही थी, इसलिए उसे किसी तरह की आपत्ति नहीं थी। विवाह के चार माह के भीतर ही कलिका ने अपनी कमाई से पूना में एक छोटा सा घर भी खरीद लिया था। कलिका के मन में संग्रह करने का संस्कार था। उसे धन-दौलत सम्पत्ति जमा करना पसंद था। गिरीश तो उसे हर हाल में पसन्द करते थे इसलिए गिरीश कभी कोई सवाल नहीं उठाते थे और न ही ऐसा जरूरी समझते थे कि कलिका को उससे किसी बात की अनुमति ले।
कलिका यों तो मन की बहुत अच्छी थी लेकिन रिश्ते सहेजना उसे नादानी वाली बात लगती थी। वह परिवार गृहस्थी- बंधन- परिचितों पर समय और धन खर्चने को वह मूर्खता समझती थी। उसके मन में किसी अनुभव से यह बात घर कर गयी थी कि औरत के पास अपना रुपया- पैसा खूब होना चाहिए। उसके बाद कुटुम्ब रिश्तेदार मित्र सगे सम्बन्धी सभी खिंचे चले आते हैं।
यही सोचकर वह अपनी नौकरी और सहकर्मियों की मित्र मण्डली में मगन रहती थी। गिरीश को एक बार दो वर्ष के प्रोजेक्ट के लिए आसाम जाना पड़ा। उनकी इच्छा थी कि एक वर्ष का नन्हा पुत्र गोकुल भी आसाम रह लेगा क्योंकि पढ़ाई का इतना झंझट नहीं है, कलिका को भी बहुत आसानी से नौकरी मिल जायेगी। कलिका के लिए उन्होंने वहां बात भी कर रखी थी। मगर कलिका का यहां पूना में अच्छा रुतबा बन गया था। वह इतना बलिदान देने की इच्छुक कभी नहीं थी, कलिका का यहां पूना में अच्छा रुतबा बन गया था। वह इतना बलिदान देने की इच्छुक कभी नहीं थी, कलिका नहीं गयी।
गिरीश को अनमने मन से जाना पड़ा यों गिरीश भी नहीं जाना चाहते थे, लेकिन इससे पहले वो एक बार प्रोजेक्ट के लिए अस्वीकृति दे चुके थे और उससे पहले भी वो एक प्रोजेक्ट के लिए अस्वीकृति दे चुके थे। अब फिर से ना कहना उनकी मानसिक दुर्बलता का परिचायक हो जाता। कलिका भी यह बात भली प्रकार जानती थी कि उनके विवाह के समय ही इस प्रोजेक्ट के लिए गिरीश ने साफ ना कह दिया था। रिसर्च का प्रोजेक्ट था जो एक तरह से देश सेवा से जुड़ा था।
आसाम में गिरीश ने एक पूर्णकालिक सहायिका को नियुक्त करके अपना तन मन जैसे काम में ही खपा दिया। कई बार वो कलिका को फोन नहीं कर पाते थे। उसके संदेश पढ़ नहीं पाते थे। मगर जब गिरीश अपनी विवाह वर्षगांठ भी भूल गये तब कलिका का मन कुछ घबरा सा गया। उसने दफ्तर से तीन सप्ताह का अवकाश लिया और पूना से आसाम पहुंच गयी। जब वो गिरीश के क्वार्टर पर पहुंची तो वहां उसने एक उनकी खूबसूरत सहायिका जाबली को देखा। जाबली बहुत मेहनती थी और वहीं की रहने वाली थी।
कलिका को गिरीश के साथ रहते हुए दो दिन में ही पक्का अहसास हो गया था कि यह जाबली काफी जुझारू और सहनशील है। वह गिरीश का ऐसा ख्याल रखती है मानो गिरीश की माता हो। खुद गिरीश भी आठ महीने में उस पर पूरी तरह से आश्रित हो गये थे। जाबली दौड़-भागकर सब कार्य करती थी। अब तो गोकुल का दूध नाश्ता, कपड़े और बिस्तर लगाना कितने काम बढ़ गये थे। लेकिन जाबली हंस हंस कर सभी काम करती थी। एकाध बार कनिका ने उसे तंग करने के लिए एक काम कई-कई बार करवाये लेकिन जाबली का ऐसा पवित्र मन था कि वो शान्ति से सब काम करती रही बिना किसी शिकायत के।
कलिका को मन में कुछ बैचेनी सी होने लगी। उसे हीन भावना की काली छाया बार बार आकर घेर लेती। आखिर वह पत्नी थी और गिरीश हर काम के लिए जाबली को ही आवाज देते थे। यह उससे कभी भी बर्दाश्त नहीं हो पाता था। अभी तो दो सप्ताह बाकी थे। कलिका ने वहीं पर कुछ ऐसे संस्थानों का पता लगाया जहां पर उसे नौकरी मिल सकती थी। कलिका को एक वर्ष के अनुबन्ध पर एक संस्थान में नौकरी करना तय कर लिया और पूना के दफ्तर से एक वर्ष का अवकाश मांग लिया। उसे सहजता से यह अवकाश मिल भी गया। अब कलिका ने धीरे-धीरे यह कोशिश शुरू कर दी कि जाबली का विवाह हो जाये। कलिका को थोड़े से प्रयास करने पड़े। जाबली का विवाह हो गया और अब सारी व्यवस्था कलिका के हाथ में ही आ गयी। कलिका इतनी खुश थी कि उसका मन सातवें आसमान में था और दिल बल्लियों उछल रहा था। अब कलिका ने मेहनत करके अपने संस्थान को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वो घर पर रहकर ही दफ्तर का काम कर सकती थी। घर पर रहकर कलिका ने दो वर्ष के पुत्र के लिए एक नर्स रखी। यह नर्स उसे पढ़ाती थी गाना सुनाती थी खाना खिलाती थी घुमाने ले जाती थी और सुबह से शाम वहीं घर पर रहती थी।
गिरीश का सारा काम कलिका झट-झट कर दिया करती थी। गिरीश यों भी हर समय काम की धुन में ही रहते थे। मनोरंजन के नाम पर वो नन्हे गोकुल को लेकर हर दूसरी शाम किड्स पार्क में जाकर घूम-घाम आते थे। एक छोटा सा क्लब भी था मगर उसमें वो दोनों कभी कभार ही जाया करते थे। एक वर्ष बहुत मेहनत के साथ गुजरा लेकिन पूना लौटते समय तीन वर्ष का गोकुल बहुत प्रसन्न व स्वस्थ था। गिरीश को दर्जनों अवार्ड मिले और पूना लौटकर शानदार प्रमोशन । कलिका अब बदल गयी थी। गिरीश इस बदलाव से बहुत खुश थे।
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