Hindi Stories: “लता! वह आ रही है… नारंगी कोर की सफेद साड़ी में साक्षात सरस्वती सी …देखो! अंजलि में प्रसाद का दोना थामे मुझे अपने साथ ले जाने आ रही है!” लता सदमें में थी। विगत वर्षों में जिसका जिक्र तक नहीं हुआ,आज पति के अंतिम समय में उस सौत का परिचय पाकर भी वह क्या कर लेती? कलेजे के सौ-सौ टुकड़े हुए जाते थे। मृत्यु शय्या पर लेटे पति की ओर देखते ही आँखें बरसती थीं। खुद को संभालते हुए थरथराती आवाज़ में इतना ही बोल सकी,”अब तक क्यों छुपाया मुझसे?” “पहले ही अपराधी हूँ किसी का अब और इल्ज़ाम न सह सकूँगा।” गिरीश जी ने धीमी आवाज़ में विरोध जताया तब लता ने भी चुप रहकर उनका मान रखा। उन्होंने पत्नी के मान-सम्मान में कभी कोई कमी नहीं की थी। गिरिशचंद्र दीक्षित एक लंबी अवधि तक सरकार में बड़े पद पर कार्यरत रहे। सेवानिवृत्ति के पूर्व होमटाउन आ गए थे। भरे-पूरे परिवार के बीच रिटायरमेंट का शाॅक नहीं लगेगा यही सोच कर धर्मपत्नी ने वापस अपने ही शहर में तबादले का प्रस्ताव रखा था। उनके भलमनसाहत के मुरीद बड़े से बड़े ऑफिसर थे। इन्हीं कारणों से उनके कार्यकाल में,उनपर कभी कोई आँच नहीं आई थी तो आखिरी पोस्टिंग उनके पसंद की मिल गयी।
जब तक नौकरी थी व्यस्तता के कारण जीवन कटता गया मगर रिटायरमेंट के बाद के अकेलेपन व अवसाद में घिर गए। मन उचाट रहने लगा तो आत्म विश्लेषण करने लगे। जितना सोचते उतने ही डूबते जाते। अंतत: लिखने का फैसला किया। वहाँ से लिखना शुरू किया जब वह आइएएस की कोचिंग के लिए दिल्ली गए थे। वहीं तो प्रियंवदा से मिले थे। वह उनके मकान मालिक की बेटी थी। कोचिंग क्लास जाते वक्त वह भी काॅलेज के लिये निकला करती। काॅलोनी पार कर बस स्टैंड तक पहुँचते हुए दोनों में बातें भी होने लगी।
कुछ उम्र का तकाजा था और कुछ पहले प्यार का जादू कि बिना सोचे-समझे इस राह पर चलते चले गये। कोचिंग क्लासेज खत्म हो गईं पर सिविल सर्विसेज की परीक्षाएँ नजदीक ही थीं। पढ़ना जरूरी था पर मन था कि बस प्रियंवदा के इर्द-गिर्द ही चक्कर लगाता। परीक्षा का सेंटर कोलकाता भर रखा था इसलिए पढाई व परीक्षा के उद्देश्य से वापस घर आ गये और मन लगाकर पढ़ने लगे। चाहत यही थी कि रिजल्ट आते ही प्रियंवदा से मिलने जाएंगे। वह जल्दी ही उसे अपनी जीवनसंगिनी बनाना चाहते थे।
इधर प्रियंवदा बेहद परेशान थी। मोबाइल व फोन का युग नहीं था। पत्र लिखने के लिए पता भी ना था। दोनों के बीच कोई संचार माध्यम या मित्र न था जिसके द्वारा वह अपने अनायास तय हुए विवाह की सूचना भिजवा पाती। घरवालों से विवाह न कराने के लिए बहुत हाथ-पैर जोड़े, रोई-गिड़गिड़ाई पर पुरुष प्रधान परिवार में उसकी एक न सुनी गई। बेहद घबड़ाई हुई थी। हिम्मत देने वाले साथी का कहीं अता-पता ना था। फिर एक रोज परिस्थितियों से हारकर उसने कायरतापूर्ण निर्णय ले लिया। भावुक उम्र की सोच कहें या एक कमज़ोर क्षण की दुर्बलता,आव देखा ना ताव सोने के पहले दादाजी की नींद की गोलियों वाली पूरी शीशी मुँह में उड़ेल हमेशा के लिए सो गई। रिजल्ट हाथ में लेकर गिरिश जब उसके घर, उसका हाथ माँगने पहुँचे तब दादी ने सब कुछ सच-सच बताया।
उफ़! अनजाने में यह कैसा अपराध हुआ था उनके हाथों। गहरा झटका लगा था। क्या सोचा और क्या हो गया। उसने अकेले कितनी तकलीफें झेली होगी। जिस साथी पर गर्व कर सकती थी उसकी ही लापरवाही ने उसे दुनिया छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
भरे मन व खाली हाथ से उसके दर से लौटे। प्रेयसी ने उनका नाम तक न लिया था। यह बात उनकी आत्मा को खाए जा रही थी। वह अपराधी थे, प्रियंवदा के अपराधी। एक इस बात से उन्हें जीवन से गहरी अरूचि हो गई। देवदास बनकर भटकते रहे। घरवालों ने विवाह का दबाव बनाया तो परिवार से भी विमुख हो गए। अपनी नौकरी में ही मन को पूरी तरह से समर्पित कर दिया।
जब पिता के गिरते स्वास्थ्य की खबर मिली तब उनसे मिलने आए। खानदान के इकलौते बेटे होने के नाते पिता ने मौका पाकर अपने परम मित्र की पुत्री लता के संग फेरे लगवा दिये। उन्हें खानदान के वारिस की चाह थी। गिरीश जी ने यथासंभव सभी संबंधो का मान रखा। एक अपराध का बोझ पहले ही छाती को छलनी किये जाता था अब और किसी को भला क्या तकलीफ देते। बस हर रात्रि आँखें मूँद कर उसके प्रति हुए अपराध की क्षमा माँगते आए थे।
अब हिम्मत जुटाकर अपने गुनाह कबूल करने के इरादे से लेखन शुरू किया था। प्रियंवदा की याद आते ही दर्द भरा सीना जैसे फटने लगा था। एक बेचैनी सी महसूस होने लगी। पसीने से तर-बतर हो गये। सहसा जैसे समझ ने काम करना बंद कर दिया। जब होश आया तो खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा पाया। “कमबख़्त इश्क आज भी सीने में उथल-पुथल मचाकर जानलेवा दर्द जगाती है।” अपनी आवाज़ अपने-आप तक ही सीमित रख बुदबुदाए तो सभी आस-पास ही नजर आए। अगर कोई नहीं था तो वह प्रियंवदा थी। आजीवन अकेलेपन व अपराधबोध से ग्रसित गिरीश जी को जीवन के आखिरी चरण में अस्पताल का यह बिस्तर नसीब हुआ था। मन के अकेलेपन को राह तब मिली जब बाहर से आती भव्य रौशनी पर नजर पड़ी। दिल आनंद से भर उठा!
आह! आज ईश्वर से कुछ भी मांगता मिल जाता..प्रियंवदा उन्हें लेने स्वयं आ रही है.. अपने किए की माफ़ी मांग कर फिर से एक नई शुरुआत करेंगे..इस दिन के लिए उन्होंने दशकों इंतजार किया है।
साँसें उखड़ने लगी..चंद अंतिम घड़ियों में चेहरे की आभा जैसे दूनी हो गई। प्रियंवदा ने हाथ बढ़ाया तो आखिरी बार उन्होंने नजर भर कर लता जी की ओर देखा। अनजाने में ही सही उनके प्रति भी अपराध हुआ था।
लता सब समझ रही थी। जानती थी कि पति दिल पर बोझ लिए अलविदा ले रहे हैं। साथ ही सौभाग्य भी लिये जा रहे हैं। नजरों से आश्वासन दिया। अर्द्धांगिनी है उनकी। क्या उनके दुख,उसके नहीं? तकलीफ तो इस बात की थी कि उन्होंने अपने दर्द साझा ना किए। जीवन-संगिनी बना कर इतना मान दिया पर संगिनी समझ कर तकलीफ़ न बाँट सके। बिछोह व अपमान के मिले-जुले भावों के अतिरेक ने इस कदर शर्मिंदा किया कि वह आँचल में मुँह ढाँप फफककर रो पड़ीं। नजरें हटीं तो अटके प्राण को जैसे मुक्ति मिल गई। साँसों की जो डोर जो निगाहों ने थाम रखी थी वह कमजोर पड़ते ही गिरीश जी के प्राण पखेरू उड़ गए सदा के लिए इहलोक की संगिनी को अकेला कर गए।
