निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग -3

विधवा का विलाप और अनाथों का रोना सुनाकर हम पाठकों का दिल दुखाएंगे। जिसके ऊपर पड़ती है, वह रोता है, विलाप करता है, पछाड़ खाता है। यह कोई नई बात नहीं है। हां, आप चाहे तो कल्याणी की उस घोर मानसिक यातना का अनुमान कर सकते हैं, जो उसे इस विचार से हो रही थी कि मैं ही अपने प्राणाधार की घातिका हूं। वे वाक्य, जो क्रोध के आवेश में उसके असंयत मुख से निकले थे, अब उसके हृदय को बाणों की भांति छेद रहे थे।

निर्मला नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

अगर पति ने उसकी गोद में कराह-कराह कर प्राण त्याग किए होते, तो उसे संतोष होता कि मैंने उनके प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन किया। शोकाकुल हृदयों के लिए इससे ज्यादा सांत्वना और किसी बात से नहीं होती। उसे इसी विचार से कितना संतोष होता कि स्वामी मुझसे प्रसन्न हो गए, अंतिम समय तो उनके हृदय में पूरा प्रेम बना रहा। कल्याणी को यह संतोष न था। वह सोचती थी – हां! मेरी पच्चीस बरस की तपस्या निष्फल हो गई। मैं अन्त समय अपने प्राण-पति के प्रेम से वंचित हो गई। अगर मैंने उन्हें ऐसे कठोर शब्द न कहे होते, तो वह कदापि रात को घर से न जाते। न जाने उनके मन में क्या-क्या विचार आए हों? उनके मनोभावों की कल्पना करके और अपने अपराधों को बढ़ा चढ़कर वह आठों पहर कुढ़ती रहती थी। जिन बच्चों पर वह प्राण देती थी, अब उनकी सूरत से चिढ़ती। इन्हीं के कारण मुझे अपने स्वामी से रास मोल लेनी पड़ी। ये मेरे शत्रु से चिढ़ती। जहाँ आठों पहर कचहरी-सी लगी रहती थी, वहाँ अब खाक उड़ती है। वह मेला ही उठा गया। जब खिलाने वाला ही न रहा तो खाने वाले कैसे पड़े रहते? धीरे-धीरे एक महीने के अन्दर सभी भांजे-भतीजे विदा हो गए। जिनका दावा था कि हम पानी की जगह खून बहाने वालों में हैं, वे ऐसा सरपट भागे कि पीछे फिरकर भी न देखा। दुनिया ही दूसरी हो गई। जिन बच्चों को देखकर प्यार करने को जी चाहता था, उनके चेहरे पर अब मक्खियां भिनभिनाती थी। न जाने वह कान्ति कहां चली गई।

शोक का आवेग कम हुआ, तो निर्मला के विवाह की समस्या उपस्थित हुई। कुछ लोगों की सलाह हुई कि विवाह इस साल रोक दिया जाये। कल्याणी ने कहा – इतनी तैयारियों के बाद विवाह को रोक देने से सब किया धरा मिट्टी में मिल जायेगा और दूसरे साल फिर यही तैयारियां करनी पड़े, जिसकी कोई आशा नहीं। विवाह कर ही देना अच्छा है। कुछ लेना-देना तो है ही नहीं। बारातियों के सेवा-सत्कार का काफी सामान आ चुका है, विलम्ब करने में हानि-ही-हानि है। अतएव महाशय भालचन्द्र को शोक सूचना के साथ यह संदेश भी भेज दिया गया। कल्याणी ने अपने पत्र में लिखा – इस अनाथिनी पर दया कीजिये और डूबती हुई नाव को पार लगाइए। स्वामीजी के मन में बड़ी-बड़ी कामनाएँ थीं, किन्तु ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। अब मेरी लाज आपके हाथ में है। कन्या आपकी हो चुकी है। मैं आप लोगों की सेवा-सत्कार करने को अपना सौभाग्य समझती हूं लेकिन यदि इसमें कुछ कमी हो, कुछ त्रुटि पड़े, तो मेरी दशा का विचार कर क्षमा कीजिएगा। मुझे विश्वास है कि आप स्वयं इस अनाथिनी की निंदा न होने देंगे, आदि।

कल्याणी ने यह पत्र डाक से न भेजा, बल्कि पुरोहित से कहा – आपको कष्ट तो होगा, पर आप स्वयं जाकर यह पत्र दीजिए और मेरी ओर से बहुत विनय के साथ कहिएगा कि जितने कम आदमी आएं, उतना ही अच्छा। यहाँ कोई प्रबन्ध नहीं है। पुरोहित मोटेराम यह संदेश लेकर तीसरे दिन लखनऊ जा पहुंचे।

संध्या का समय था। बाबू भालचन्द्र दीवानखाने के सामने आराम कुर्सी पर नंगधड़ंग लेटे हुए हुक्का पी रहे थे। बहुत ही स्थूल ऊँचे कद के आदमी थे। ऐसा मालूम होता था कि काला देव है, या कोई हब्शी अफ्रीका से पकड़कर आया है। सिर से पैर तक एक ही रंग था – काला। चेहरा इतना स्याह था कि मालूम न होता था कि माथे का अंत कहां है और सिर का आरम्भ कहां। बस, कोयले की एक सजीव मूर्ति थी। आपको गर्मी बहुत सताती थी। दो आदमी खड़े पंखा झल रहे थे, उस पर भी पसीने का तार बंधा हुआ था। आप आबकारी में एक ऊँचे ओहदे पर थे। 600 रु. वेतन मिलता था। ठेकेदारों से खूब रिश्वत लेते। ठेकेदार शराब के नाम पानी बेचें, चौबीस घंटे दुकान खुली रखें, आपको खुश रखना काफी था। सारा कानून आपकी खुशी थी।

इतनी भयंकर मूर्ति थी कि चांदनी रात में उन्हें देखकर लोग सहसा चौक पड़ते थे – बालक और स्त्रियां नहीं, पुरुष तक सहम जाते थे। चांदनी रात इसलिए कहा गया कि अंधेरी रात में तो उन्हें कोई देख ही न सकता था – श्यामता अंधकार में विलीन हो जाती थी। केवल आंखों का रंग लाल था। जैसे पक्का मुसलमान पांच बार नमाज पढ़ता है, वैसे ही आप भी पांच बार शराब पीते थे। मुफ्त की शराब तो काजी को हलाल है, फिर आप तो शराब के अफसर ही थे, जितनी चाहें पिएं, कोई हाथ पकड़ने वाला न था। जब प्यास लगती, शराब पी लेते। जैसे रंगों में परस्पर सहानुभूति है, उसी तरह कुछ रंगों में परस्पर विरोध है। लालिमा के संयोग से कालिमा और भी भयंकर हो जाती है।

बाबू साहब ने पंडितजी को देखते ही कुर्सी से उठकर कहा – अख्खाह! आप है? आइए, आइए। धन्य भाग! अरे कोई है? कहीं चले गये सबके सब, झगड़ू, गुरदीन, छकौड़ी, मवानी, रामगुलाम कोई है? क्या सबके सब मर गए? चलो रामगुलाम, भवानी, छकौड़ी, गुरदीन झगड़ू। कोई नहीं बोलता, सब मर गए? दर्जन भर आदमी हैं, पर मौके पर एक भी सूरत नहीं नजर आती, न जाने सब कहां गायब हो जाते हैं। आपके वास्ते कुर्सी लाओ।

बाबू साहब ने इन पांचों का नाम कई बार दुहराया; लेकिन यह न हुआ कि पंखा झलने वाले दोनों में से किसी को कुर्सी लाने को भेज देते। तीन-चार मिनट के बाद एक काना आदमी खांसता हुआ आकर बोला – सरकार ई-तना की नौकरी हमारे कीन न होई। कहां तक उधार बाढ़ी लै-लै खायी! माँगत-माँगत थेथर होय गयेन।

भाल. – बको मत, जाकर कुर्सी लाओ। जब कोई काम करने को कहा गया, तो रोने लगता है। कहिए पंडितजी, वहाँ सब कुशल है?

मोटेराम – क्या कुशल कहूं बाबूजी; अब कुशल कहां? सारा घर मिट्टी में मिल गया।

इतने में कहार ने एक टूटा चीड़ का सन्दूक लाकर रख दिया और बोला – कुर्सी-मेज हमारे उठाए नाहीं उठत है।

पंडितजी शर्माते हुए डरते-डरते उस पर बैठे कि कहीं टूट न जाए, और कल्याणी का पत्र बाबू साहब के हाथ में रख दिया।

भास. – अब और कैसे मिट्टी में मिलेगा? इससे बड़ी और कौन विपत्ति पड़ेगी? बाबू उदयभानु लाल से मेरी पुरानी दोस्ती थी। आदमी नहीं, हीरा था। क्या दिल था, क्या हिम्मत थी, (आंखें पोंछकर) मेरा तो जैसे दाहिना हाथ ही कट गया। विश्वास मानिए, जब से यह खबर सुनी है, आंखों में अँधेरा-सा छा गया है, खाने बैठता हूं तो कौर मुंह में नहीं जाता। उनकी सूरत आँखों के सामने खड़ी रहती है। मुँह पूरा करके उठा जाता हूं। किसी काम में दिल नहीं लगता। भाई के मरने का रंज भी इससे क्या ही होता। आदमी नहीं, हीरा था।

मोटे. – सरकार, नगर में अब ऐसा कोई रईस नहीं रहा।

भाल. – मैं खूब जानता हूं पंडितजी, आप मुझसे क्या कहते हैं! ऐसा आदमी लाख-दो-लाख में एक होता है। जितना मैं उनको जानता था, उतना दूसरा नहीं जान सकता। दो-ही-तीन बार की मुलाकात में उनका भक्त हो गया और मरते दम तक रहूंगा। आप समधन साहेब से कह दीजिएगा, मुझे दिली रंज है।

मोटे. – आपसे ऐसी ही आशा थी। आप जैसे सज्जनों के दर्शन दुर्लभ है, नहीं तो आज कौन बिना दहेज का विवाह करता है!

भाल. – महाराज, दहेज की बातचीत ऐसे सत्यवादी पुरुषों से नहीं की जाती। उनसे तो सम्बन्ध हो जाना ही लाख रुपये के बराबर है। मैं इसको अपना अहोभाग्य समझता हूं। हां! कितनी उदार आत्मा थी। रुपये को तो उन्होंने कुछ समझा ही नहीं, तिनके के बराबर परवाह नहीं की। बुरा रिवाज है, बेहद बुरा! बस चले तो दहेज लेने वालों और दहेज देने वालों दोनों ही को गोली मार दूं चाहें फांसी क्यों न हो जाए! पूछो, आप लड़के का विवाह करते हैं या उसे बेचते हैं? अगर आपको लड़के की शादी में दिल खोलकर खर्च करने का अरमान है, तो शौक से खर्च कीजिए; लेकिन जो कुछ कीजिए, अपने बल पर। यह क्या कि कन्या के पिता का गला रेतिए। नीचता है, घोर नीचता है। मेरा बस चले, तो इन पाजियों को गोली मार दूँ।

मोटे. – धन्य हो सरकार। भगवान् ने आपको बड़ी बुद्धि दी है। यह धर्म का प्रताप है! मालकिन की इच्छा है कि विवाह का मुहूर्त वही रहे, और तो उन्होंने सारी बातें पत्र में लिख दी है। बस, अब आप ही उबारे, तो हम उबर सकते हैं। इस तरह तो बारात में जितने सज्जन आएंगे, उनके सेवा-सत्कार हम करेंगे ही; लेकिन परिस्थिति अब बहुत बदल गई है सरकार, कोई करने-धरने वाला नहीं। बस, ऐसी बात कीजिए कि वकील साहब के नाम पर बट्टा न लगे।

भालचंद्र एक मिनट तक आंखें बन्द किए बैठे रहे, फिर एक लम्बी सांस खींचकर बोले – ईश्वर को मंजूर ही न था कि यह लक्ष्मी मेरे घर आती, नहीं तो क्या यह वज्र गिरता? सारे मनसूबे खाक में मिल गए। फूला न समाता था कि वह शुभ अवसर निकट आ रहा है, पर क्या जानता था कि ईश्वर के दरबार में कुछ षड्यंत्र रचा जा रहा है। मरने वाले की याद ही रुलाने के लिए काफी है। उसे देखकर जख्म भी हरा हो जायेगा। उस दशा में न जाने क्या कर बैठूं। इसे गुण समझिए या दोष, कि जिससे एक बार मेरी घनिष्ठता हो गई, फिर उसकी याद चित्त से नहीं उतरती। अभी तो खैर इतना ही है कि उनकी सूरत आंखों के सामने नाचती रहती है; लेकिन वह कन्या घर में आ गई, तब मेरा जिन्दा रहना कठिन हो जाएगा। सच मानिये, रोते-रोते मेरी आंखें फूट जाएंगी। जानता हूं रोना-धोना व्यर्थ है। जो मर गया, वह लौटकर नहीं आ सकता! सब्र करने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है। लेकिन दिल से मजबूर हूं। उस अनाथ बालिका को देखकर मेरा कलेजा फट जायेगा।

मोटे. – ऐसा न कहिए सरकार! वकील साहब नहीं हैं तो क्या, आप तो हैं! अब आप ही उसके पिता तुल्य हैं। वह अब वकील साहब की कन्या नहीं, आपकी कन्या है। आपके हृदय के भाव तो कोई जानता नहीं। लोग समझेंगे, वकील साहब का देहान्त हो जाने के कारण आप वचन से फिर गए। इसमें आपकी बदनामी होगी, चित्त को समझाएं और हंसी-खुशी कन्या का पाणिग्रहण करा लीजिए। हाथी मरे तो नौ लाख का। लाख विपत्ति पड़ी है, लेकिन मालकिन आप लोगों का सेवा सत्कार करने में कोई बात न उठा रखेंगी।

बाबू साहब समझ गए कि पंडित मोटेराम कोरे पोथी के ही पंडित नहीं, वरन् व्यवहार नीति में भी चतुर हैं। बोले – पंडित जी, हलाफ से कहता हूँ, मुझे उस लड़की से जितना प्रेम है, उतना अपनी लड़की से भी नहीं है, लेकिन जब ईश्वर को मंजूर नहीं है, तो मेरा क्या बस है? यह मृत्यु एक प्रकार की अमंगल सूचना है, जो विधाता की ओर से मिली है। यह किसी आने वाली मुसीबत की आकाशवाणी है। विधाता स्पष्ट रीति से कह रहा है। नहीं, जान-बूझकर मक्खी नहीं निगली जाती। समधन साहब को समझाकर कह दीजियेगा, मैं उनकी आज्ञा का पालन करने को तैयार हूँ लेकिन साहब को समझाकर अच्छा न होगा। स्वार्थ के वश में होकर मैं अपने परम मित्र की संतान के साथ यह अन्याय नहीं कर सकता।

इस तर्क ने पंडितजी को निरुत्तर कर दिया। वादी ने वह तीर छोड़ा था, जिसका उनके पास कोई काट नहीं था। शत्रु ने उन्हीं के हथियार से उन पर वार किया और वह उसका प्रतिकार न कर सकते थे। वह अभी कोई जवाब सोच ही रहे थे कि बाबू साहब ने फिर नौकरों को पुकारना शुरू किया – अरे! तुम सब गायब हो झगडू, छकौड़ी, भवानी, रामगुलाम! एक भी नहीं बोलता। सबकै सब मर गये। पंडितजी के वास्ते पानी-वानी की फिक्र है? न-जाने इन सबों को कोई कहां तक समझाए। अक्ल छू तक नहीं गई। देख रहे हैं कि एक महाशय दूर से थके मांदे चले रहे हैं, पर किसी की जरा भी परवाह नहीं। लाओ, पानी-वानी रखो। पंडितजी, आपके लिए शर्बत बनवाऊं या फलहारी मिठाई मंगवा दूं?

मोटेराम मिठाइयों के विषय में किसी तरह का बंधन न स्वीकार करते थे। उनका सिद्धांत था कि घृत से सभी वस्तुएं पवित्र हो जाती है। रसगुल्ले और बेसन के लड्डू उन्हें बहुत प्रिय थे, पर शर्बत में उन्हें रुचि न थी। पानी से पेट भरना उनके नियम के विरुद्ध था, सकुचाते हुए बोले – शर्बत पीने की मुझे आदत नहीं, मिठाई खा लूंगा।

भाल. – फलाहारी न?

मोटे. – इसका मुझे विचार नहीं।

भाल. – है तो यही बात। छूत-छात सब ढकोसला है। मैं स्वयं नहीं मानता।। अरे, अभी तक कोई नहीं आया? छकौड़ी, मवानी, गुरदीन, रामगुलाम कोई तो बोली।’

अबकी भी वही बूढ़ा कहार खांसता हुआ आकर खड़ा हो गया और बोला – सरकार, मोर तलब दे दीन जाए। ऐसी नौकरी मोसे न होई। कहाँ लौ दौरी? दौरत-दौरत गोड़ पिराय लागत है।

भाल. – काम कुछ करो या न करो, पर तलब पहले चाहिए। दिनभर पड़े-पड़े खाँसा करो, तलब तो तुम्हारी चढ़ रही है। जाकर बाजार से एक आने की ताजी मिठाई ला। दौड़ता हुआ जा।

कहार को यह हुक्म देकर बाबू साहब घर में गये और स्त्री से बोलें – वहाँ से एक पंडितजी आये हैं। यह खत लाये हैं, जरा पढ़ो तो।

पत्नी का नाम रंगीलीबाई था। गोरे रंग की प्रसन्न मुख महिला थीं। रूप और यौवन उनसे विदा हो रहे थे, पर किसी प्रेम मित्र की भांति मचल-मचलकर तीस साल तक जिसके गले से रहे, उसे छोड़ते न बनता था।

रंगीलीबाई बैठी पान लगा रही थीं। बोली – कह दिया न कि हमें वहाँ करना मंजूर नहीं।

भाल. – हां, कह तो दिया, पर मारे संकोच के मुँह से शब्द न निकलता था। झूठ-मूठ का हीला करना पड़ा।

रंगीली – साफ बात कहने में संकोच क्या? हमारी इच्छा है, नहीं करते। किसी का कुछ लिया तो नहीं है? जब दूसरी जगह दस हजार नगद मिल रहे हैं, तो वहाँ क्यों करूं? उनकी लड़की कोई सोने की थोड़े ही है। वकील साहब जीते होते, तो शरमाते-शरमाते पन्द्रह-बीस हजार दे मरते। अब वहाँ क्या रखा है?

भाल. – एक दफा जबान देकर मुकर जाना अच्छी बात नहीं। कोई मुख से कुछ न कहे, पर बदनामी हुए बिना नहीं रहती। मगर तुम्हारी जिद से मजबूर हूं।

रंगीलीबाई ने पान खाकर खत खोला और पढ़ने लगी। हिन्दी का अभ्यास बाबू साहब को तो बिल्कुल न था और यद्यपि रंगीलीबाई भी शायद ही कभी किताब पढ़ती हो, पर खत-वत पढ़ लेती थी। पहली ही पंक्ति पढ़कर उनकी आंखें सजल हो गई, और पत्र समाप्त किया तो उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे। एक-एक शब्द करुणा के रस में डूबा था। एक-एक अक्षर से दीनता टपक रही थी। रंगीलीबाई की कठोरता पत्थर की नहीं, लाख की थी, जो एक आंच से पिघल जाती है। कल्याणी के करुणोत्पादक शब्दों ने उनके स्वार्थ मण्डित हृदय को पिघला दिया। रुंधे हुए कण्ठ से बोली – अभी ब्राह्मण बैठा है न?

भालचंद्र – पली के आँसुओं को देख-देख सूखे जाते थे। अपने ऊपर झल्ला रहे थे कि नाहक मैंने यह खत इसे दिखाया। इसकी जरूरत ही क्या थी? इतनी बड़ी भूल उनसे कभी नहीं हुई थी। संदिग्ध भाव से बोले – शायद बैठा हो, मैंने तो जाने को कह दिया था।

रंगीली ने खिड़की से झांक कर देखा। पंडित मोटेरामजी बगुले की तरह ध्यान लगाए बाजार के रास्ते की ओर ताक रहे थे। लालसा से व्यग्र होकर यह पहलू बदलते कभी वह पहलू। ‘एक आने की मिठाई’ ने तो आशा की कमर पहले ही तोड़ दी थी, उसमें भी यह विलम्ब? दारुण दशा थी। उन्हें बैठे देखकर रंगीली बोली – है अभी है। जाकर कह दो, हम विवाह करेंगे। बेचारी बड़ी मुसीबत में है।