निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग - 8

बाबू उदयभानु लाल का मकान बाजार में बना हुआ है। बरामदे में सुनार के हथौड़े और कमरे में दर्जी की सुइयां चल रही है। सामने नीम के नीचे, बढ़ई चारपाई बना रहा है।

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खपरैल में हलवाई के लिए भट्ठी खोदी गई है। मेहमानों के लिए अलग-अलग मकान ठीक किया गया है। यह प्रबन्ध किया जा रहा है कि हर मेहमान के लिए एक-एक चारपाई, कुर्सी और एक-एक मेज हो। हर तीन मेहमानों के लिए एक-एक कहार रखने की तजवीज हो रही है। अभी बारात आने में एक महीने की देर है, लेकिन तैयारियां अभी से हो रही हैं। बारातियों का ऐसा सत्कार किया जाए कि किसी को जबान हिलाने का मौका न मिले। वे लोग भी याद करें कि किसी के यहाँ बारात में गये थे। एक पूरा मकान बरतनों से भरा हुआ है। चाय के सेट हैं, नाश्ते की तश्तरियां, थाल, लोटे, गिलास।

जो लोग नित्य खाट पर पड़े हुक्का पीते रहते थे, बड़ी तत्परता से काम में लगे हुए हैं। अपनी उपयोगिता सिद्ध करने का ऐसा अच्छा अवसर उन्हें फिर बहुत दिनों बाद मिलेगा। जहाँ एक आदमी को जाना होता है, पाँच दौड़ते हैं। काम कम होता है, हुल्लड़ अधिक। जरा-जरा-सी बात घंटों तर्क-वितर्क होता है और अन्त में वकील साहब को आकर निर्णय करना पड़ता है। दण्ड कहता है यह भी खराब है, दूसरा कहता है इससे अच्छा बाजार में मिल जाए तो टांग की राह निकल जाऊं। तीसरा कहता है इसमें तो हीक आती है, चौथा कहता है, तुम्हारी नाक ही सड़ गई है, तुम क्या जानो घी किसे कहते हैं। जब से यहाँ आये हो, घी मिलने लगा है, नहीं तो घी के दर्शन भी न होते थे। इस पर तकरार बढ़ जाती है और वकील साहब को झगड़ा चुकाना होता है।

रात के नौ बजे थे। उदयभानु लाल अन्दर बैठे हुए खर्च का तखमीना लगा रहे थे। वह प्राय: रोज ही तखमीना लगाते थे, पर रोज ही उसमें कुछ-न-कुछ परिवर्तन करना पड़ता था। सामने कल्याणी भौहें सिकोड़ते हुए खड़ी थी। बाबू साहब ने बड़ी देर के बाद सिर उठाया और बोले – दस हजार से कम नहीं होता, बल्कि शायद और बढ़ जाए।

कल्याणी – दस दिन में पांच हजार से दस हजार हुए। एक महीने में तो शायद एक लाख की नौबत आ आए।

उदयभानु – क्या करूं, जगहंसाई भी तो अच्छी नहीं लगती। शिकायत हुई तो लोग कहेंगे, नाम बड़े दर्शन थोड़े। फिर जब वह मुझसे दहेज में एक पाई नहीं लेते, तो मेरा भी यह कर्त्तव्य है कि मेहमानों के आदर-सत्कार में कोई बात न उठा रखूं।

कल्याणी – जब से ब्रह्मा ने सृष्टि रची, तब से आज तक कभी बारातियों को कोई प्रसन्न रख सका? उन्हें दोष निकालने और निन्दा करने का कोई न कोई अवसर मिल ही जाता है। जिसे अपने धर सूखी रोटियाँ भी मयस्सर नहीं, वह भी बारात में जाकर तानाशाह बन बैठता है। तेल खुशबूदार नहीं, साबुन टके सेर का जाने कहां से बटोर लाये, कहार बात नहीं सुनते, लालटेन धुआँ देती है। कुर्सियों में खटमल हैं, चारपाइयां ढीली हैं। जनवासे की जगह हवादार नहीं। ऐसी-ऐसी हजारों शिकायतें होती हैं। उन्हें आप कहां तक रोकिएगा? अगर यह मौका न मिला तो और कोई ऐब निकाल लिए जायेंगे। भई, यह तेल तो रंडियों के लगाने लायक है, हमें तो सादा तेल चाहिए; जनाब यह साबुन नहीं भेजा है, अपनी अमीरी की शान दिखायी है, मानो हमने साबुन देखा ही नहीं। ये कहार नहीं, यमदूत है, जब देखिये सिर पर सवार। लालटेन ऐसी भेजी है कि चमकने लगती है, अगर दस-पांच दिन इस रोशनी में बैठना पड़े, तो आंखें फूट जाएं। जनवासा क्या है, अभागे का भाग्य है, जिस पर चारों तरफ से झोंके आते रहते हैं। मैं तो फिर यही कहूंगी कि बारातियों के नखरे का विचार ही छोड़ दो।

उदयभानु – तो आखिर तुम मुझे क्या करने को कहती हो।

कल्याणी – कह तो रही हूं, पक्का इरादा कर लो कि मैं पांच हजार से अधिक खर्च न करूंगा। घर में तो टका है नहीं, कर्ज का ही भरोसा ठहरा। इतना कर्ज क्यों लें कि जिंदगी में अदा न हो। आखिर मेरे और बच्चे भी तो हैं, उनके लिए भी तो कुछ चाहिए।

उदयभानु – तो तुम बैठी यही मनाया करती हो।

कल्याणी – इसमें बिगड़ने की कोई बात नहीं। मरना एक दिन सभी को है। कोई यहाँ अमर होकर थोड़े ही आया है। आंखें बन्द कर लेने से तो होने वाली बात न टलेगी। रोज आंखों देखती हूं बाप का देहांत हो जाता है, उसके बच्चे गली-गली ठोकरें खाते फिरते हैं। आदमी ऐसा काम क्यों करे?

उदयभानु – ने जलकर कहा – तो अब समझ लूं कि मरने के दिन निकट आ गए यही तुम्हारी भविष्यवाणी है! सुहाग से स्त्रियों का जी नहीं ऊबते सुना था; आज यह नई बात मालूम हुई। रंडापे में कोई सुख होगा ही।

कल्याणी तुमसे दुनिया की भी कोई बात कही जाती है, तो जहर उगलने लगते हो। इसीलिए न कि जानते हो, कि इसे कहीं ठिकाना नहीं है – मेरी ही रोटियों पर पड़ी हुई है; या और कुछ? जहाँ कोई बात कही, बस सिर हो गए, मानों मैं घर की लौंडी हूँ, मेरा केवल रोटी और कपड़े का नाता है। जितना ही मैं दबती हूं, तुम और भी दबाते हो। मुफ्त-खोर माल उड़ाएं, कोई मुंह न खोले शराब-कबाब में रुपये लूटे, कोई जबान न हिलाये। ये सारे कांटे मेरे बच्चों ही के सिर तो बोए जा रहे हैं।

उदयभानु – तो मैं तुम्हारा गुलाम हूँ?

कल्याणी – तो क्या मैं तुम्हारी हूँ?

उदयभानु – ऐसे मर्द और होंगे, जो औरतों के इशारे पर नाचते हैं।

कल्याणी – तो ऐसी स्त्रियां और होंगी, जो मर्दों की जूतियां सहा करती हैं।

उदयभानु – मैं कमा कर लाता हूं, जैसे चाहूं खर्च कर सकता हूं। किसी को बोलने का अधिकार नहीं है।

कल्याणी – तो अपना घर संभालिए, ऐसे वर को मेरा दूर ही से सलाम है, जहाँ मेरी कुछ पूछ नहीं। घर में तुम्हारा जितना अधिकार है, उतना ही मेरा भी। इससे जौ भर कम नहीं! तुम अपने मन के राजा हो, तो मैं भी कम नहीं हूँ। तुम्हारे बच्चे हैं, मारो या जिलाओ। न आंखों से देखूंगी, न पीड़ा होगी। आंखें फूटी, पीर गयी।

उदयभानु – क्या तुम समझती हो कि तुम न संभालोगी, तो मेरा घर ही न संभलेगा? मैं अकेले ऐसे-ऐसे दस धर संभाल सकता हूं।

कल्याणी – कौन! अगर आज मिट्टी में न मिल जाए तो कहना कोई कहती थी!

यह कहते-कहते कल्याणी का चेहरा तमतमा उठा। वह झमककर उठी और कमरे के द्वार की ओर चली। वकील साहब मुकदमों में तो खूब मीनमेख निकालते थे, लेकिन स्त्रियों के स्वभाव ख उन्हें कुछ यों ही-सा ज्ञान था। यही एक ऐसी विद्या है जिसमें आदमी बूढ़ा होने पर भी कोरा रह जाता है। अगर जरा वे भी नरम पड़ जाते और कल्याणी का हाथ पकड़कर बिठा लेते, तो शायद बह रुक जाती; लेकिन आपसे यह तो न हो सका, उल्टे चलते एक और चरका दिया।

बोले – मैके का घमंड होगा।

कल्याणी ने द्वार पर रुककर पति की ओर लाल-लाल नेत्रों से देखा और बिफरकर बोली – मैकेवाले मेरी तकदीर के साथी नहीं हैं और न मैं इतनी नीच हूं कि उनकी रोटियों पर जा पड़ूं।

उदयभानु – तब कहां जा रही हो?

कल्याणी तुम यह पूछने वाले कौन होते हो? ईश्वर की सृष्टि में असंख्य प्राणियों के लिए जगह है, क्या मेरे लिए नहीं है?

यह कहकर कत्याणी कमरे के बाहर निकल गई। आंगन में जाकर उसने एक बार आकाश की ओर देखा, मानो तारागण को साक्षी दे रही है कि मैं इस घर से कितनी निर्दयता से निकाली जा रही हूं। रात के ग्यारह बज गए थे। घर में सन्नाटा छा गया था, दोनों बेटों की चारपाई उसी के कमरे में रहती थी। वह अपने कमरे में आयी, देखा चन्द्रभानु सोया है। सबसे छोटा सूर्यभानु चारपाई पर से उठ बैठा है। माता को देखते ही बोला – तुम तहाँ दई तीं अम्मा? कल्याणी दूर ही खड़े-खड़े बोली – कहीं तो नहीं बेटा, तुम्हारे बाबूजी के पास गई थी।

सूर्य. – तुम तली दई, मुधे अतेले दर लदता ता। तुम त्यों तली दई तीं बताओ?

यह कहकर बच्चे ने गोद में चढ़ने के लिए दोनों हाथ फैला दिए। कल्याणी अब अपने को न रोक सकी। मातृस्नेह के सुधाप्रवाह से उसका सन्तप्त हृदय परिप्लावित हो गया। हृदय के कोमल पौधे, जो क्रोध के ताप से मुरझा गए थे, फिर हरे हो गए। आँखें सजल हो गईं। उसने बच्चे को गोद में उठा लिया और छाती से लगाकर बोली – तुमने पुकार क्यों न लिया बेटा?

सूर्य. – पुतालता तो ता, तुम पुनती न थी। बताओ, अब तो तबी न दाओदी?

कल्याणी – नहीं भैया, अब नहीं जाऊंगी।

यह कहकर कल्याणी सूर्यभानु को लेकर चारपाई पर लेटी। मां के हृदय से लिपटते ही बालक निःशंक होकर सो गया। कल्याणी के मन में संकल्प-विकल्प होने लगे। पति की बातें याद आती तो मन होता, घर को तिलांजलि देकर चली जाऊँ। लेकिन बच्चों का मुंह देखती, तो वात्सल्य से चित्त गदगद हो जाता। बच्चों को किस पर छोड़कर चली जाऊं? मेरे इन लालों को कौन पालेगा, ये किसके होकर रहेंगे? कौन प्रातःकाल इन्हें दूध और हलवा खिलाएगा, कौन इनकी नींद सोएगा, इनकी नींद जागेगा? तुम्हारे लिए सब कुछ सह दूंगी। निरादर-अपमान, जली-कटी, खोटी-खरी घुड़की झिड़की सब तुम्हारे लिए सहूंगी।

कल्याणी तो बच्चे को लेकर लेटी; पर बाबू साहब को नींद न आई। चोट करने वाली बातें बड़ी मुश्किल से भूलती थीं। उफ! यह मिज़ाज? मानो मैं ही इनकी स्त्री हूँ। बात मुंह से निकलनी मुश्किल है। अब मैं इनका गुलाम होकर रहूँ? घर में अकेली वह रहे और बाकी जितने अपने-बेगाने हैं, सब निकाल दिये जाएं। जला करती है। मानती हैं कि यह किसी तरह मरे तो मैं अकेली आराम करूं। दिल की बात मुंह से निकल ही जाती है, चाहे कोई कितना ही छिपाये। कई दिन से देख रहा हूं ऐसी ही जलीकटी सुलग करती है। मैके का घमण्ड होगा; लेकिन वहाँ कोई बात भी न पूछेगा। अभी सब आवभगत करते हैं। जब जाकर सिर पर पड़ जाएंगी, तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायेगा। रोती हुई आएंगी। वाह रे घमंड, सोचती हैं – मैं ही यह गृहस्थी चलाती हूं। अभी चार दिन को कहीं चला जाऊं तो मालूम हो जायेगा, सारी शेखी किरकिरी हो जायेगी। एक बार इनका घमंड तोड़ ही दूं, जरा वैधव्य का मजा चखा दूं न जाने इनकी हिम्मत कैसे पड़ती है कि मुझे यों कोसने लगती हैं। मालूम होता है, प्रेम इन्हें छू नहीं गया, या समझती हैं, यह घर से इतना चिपटा हुआ है कि इसे चाहे जितना कोसूं टलने का नाम न लेगा। यही बात है, पर यह संसार से चिपटने वाला जीव नहीं है। जहन्नुम में जाए यह घर, जहाँ ऐसे प्राणियों से पाला पड़े! घर है या नरक! आदमी बाहर से थका-मांदा आता है, तो उसे घर से आराम मिलता है। यहाँ आराम के बदले कोसने सुनने पड़ते हैं। मेरी मृत्यु के लिए व्रत रखे जाते हैं। यह है पच्चीस वर्ष के दाम्पत्य जीवन का अन्त। बस, चल ही दूं। जब देख लूंगा, इनका सारा घमंड धूल में मिल गया और मिज़ाज ठंडा हो गया, तो लौट आऊंगा। चार-पांच दिन काफी होंगे। लो, तुम भी याद करोगी कि किसी से पाला पड़ा था।

यही सोचते हुए बाबू साहब उठे, रेशमी चादर गले में डाली, कुछ रुपये लिये, अपना कार्ड निकालकर एक दूसरे कुर्ते की जेब में रखा, छड़ी उठायी और चुपके से बाहर निकले। सब नौकर नींद में मस्त थे। कुत्ता आहट पाकर चौक पड़ा और उनके साथ हो लिया।

पर यह कौन जानता था कि यह सारी लीला विधि के हाथों रची जा रही है। जीवन रंगशाला का वह निर्दय सूत्रधार किसी अगम्य गुप्त स्थान पर बैठा हुआ अपनी जटिल क्रूर क्रीड़ा दिखा रहा है। यह कौन जानता था कि नकल असल होने जा रही है, अभिनय सत्य का रूप ग्रहण करने वाला है।

निशा ने इंदु को परास्त करके अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था। उसकी पैशाचिक सेना ने प्रकृति पर आतंक जमा रखा था, सद्वृत्तियां मुंह छिपाए पड़ी थीं और कुवृत्तियां विजय-गर्व से इठलाती फिरती थी। वन में वन्य-जन्तु शिकार की खोज में विचर रहे थे और नगरों में नरपिशाच गलियों में मंडराते फिरते थे।

बाबू उदयभानु लाल लपके हुए गंगा की ओर चले जा रहे थे। उन्होंने अपना कुर्ता घाट के किनारे रखकर पांच दिन के लिए मिर्जापुर चले जाने का निश्चय किया था। उनके कपड़े देखकर लोगों को डूब जाने का विश्वास हो जायेगा। कार्ड कुर्ते की जेब में था। पता लगाने में कोई दिक्कत न हो सकती थी। दम-के-दम सारे शहर में खबर मशहूर हो जायेगी। आठ बजते-बजते तो मेरे द्वार पर सारा शहर जमा हो जायेगा, तब देखूं, देवीजी क्या करती है।

यह सोचते हुए बाबू साहब गलियों में चले जा रहे थे। सहसा उन्हें पीछे से दूसरे आदमी के आने की आहट मिली; समझे कोई होगा। आगे बढ़े, लेकिन जिस गली में वह मुड़ते, उसी तरफ वह आदमी भी मुड़ता था। तब बाबू साहब को आशंका हुई कि यह आदमी मेरा पीछा कर रहा है। ऐसा आभास हुआ कि इसकी नियत साफ नहीं है। उन्होंने तुरन्त जेबी लालटेन निकाली और उसके प्रकाश में उस आदमी को देखा। एक बलिष्ठ मनुष्य कंधे पर लाठी रखे चला आता था। बाबू साहब उसे देखते ही चौंक पड़े। यह शहर का छटा हुआ बदमाश था। तीन साल पहले उस पर डाके का अभियोग चला था। उदयभानु ने उस मुकदमें में सरकार की ओर से पैरवी की थी और इस बदमाश को तीन साल की सजा दिलाई थी। तभी से वह इनके खून का प्यासा हो रहा था। कल ही छूटकर आया था। आज बाबू साहब अकेले रात को दिखाई दिए तो सोचा यह इनसे दांव चुकाने का अच्छा मौका है। ऐसा मौका शायद ही फिर मिले। तुरंत पीछे हो लिया और वार करने की घात में था कि बाबू साहब ने जेबी लालटेन जलायी। बदमाश जरा ठिठककर बोला – क्यों बाबूजी, पहचानिते हो न? मैं हूं मतई।

बाबू साहब ने डपटकर कहा – तुम मेरे पीछे-पीछे क्यों आ रहे हो?

मतई – क्यों, किसी को रास्ते चलने की मनाही है? यह गली तुम्हारे बाप की है?

बाबू साहब जवानी में कुश्ती लड़ते थे, अब भी इष्ट-पुष्ट आदमी थे। दिल के भी कच्चे न थे। छड़ी संभालकर बोले – अभी शायद मन नहीं भरा। अब भी सात साल को जाओगे।

मतई – मैं सात साल को जाऊंगा या चौदह साल को, पर तुम्हें जीता न छोडूंगा। हां, अगर तुम मेरे पैरों पर गिरकर कसम खाओ कि अब किसी को सजा न कराऊंगा, तो छोड़ दूं। बोलो, मंजूर है?

उदयभानु – तेरी शामत तो नहीं आयी?

मतई – शामत मेरी नहीं आयी, तुम्हारी आयी है। बोलो, खाते हो कसम – एक!

उदयभानु – तुम हटते हो कि मैं पुलिसमैन को बुलाऊं?

मतई – दो!

उदयभानु – (गरजकर) हट जा बदमाश, सामने से।

मतई – तीन!

मुंह से ‘तीन’ शब्द निकालते ही बाबू साहब के सिर पर लाठी का ऐसा तुला हुआ हाथ पड़ा कि वह अचेत होकर जमीन पर गिर पड़े। मुंह से केवल इतना ही निकला – हाय! मार डाला! मतई ने समीप आकर देखा, तो सिर फट गया था और खून की धार निकल रही थी। नाड़ी का कहीं पता न था। समझ गया कि काम तमाम हो गया। उसने कलाई से सोने की घड़ी खोल ली, कुरते से सोने के बटन निकाल लिये, उंगली से अंगूठी उतारी और अपनी राह चला गया, मानो कुछ हुआ ही नहीं। हां, इतनी दया की कि लाश रास्ते से घसीटकर किनारे डाल दी।

हाय! बेचारे क्या सोचकर चले थे, क्या हो गया। जीवन, तुमसे ज्यादा असार भी दुनिया में कोई वस्तु है? क्या यह उस दीपक की भांति की क्षण-भंगुर नहीं है, जो हवा के एक झोंके से बुझ जाता है? पानी के एक बुलबुले को देखते हो, लेकिन उसे टूटते भी कुछ देर लगती है; जीवन में उतना सार भी नहीं! सांस का भरोसा ही क्या और इसी नश्वरता पर हम अभिलाषाओं के कितने विशाल भवन बनाते हैं? नहीं जानते, नीचे जाने वाली सांस ऊपर आएगी या नहीं, पर सोचते इतनी दूर की हैं, मानों हम अमर है!