निर्मला का विवाह हो गया। ससुराल आ गई। वकील साहब का नाम था मुंशी तोताराम। साँवले रंग के मोटे-ताजे आदमी थे। उम्र तो अभी चालीस से अधिक न थी, पर वकालत के कठिन परिश्रम ने सिर के बाल पका दिये थे। व्यायाम करने का अवकाश न मिलता था। यहाँ तक कि कभी कहीं घूमने न जाते, इसलिए तोंद निकल आयी थी। देह मूल होते हुए भी आए दिन कोई-न-कोई शिकायत रहती थी। मन्दाग्नि और बवासीर से तो उनका चिरस्थायी सम्बन्ध था।
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अतएव बहुत फूंक-फूंक कर कदम रखते थे। उनके तीन लड़के थे। बड़ा मंसाराम सोलह वर्ष का था, मंझला जियाराम ग्यारह और सियाराम सात वर्ष का था। तीनों अंग्रेजी पढ़ते थे। घर में वकील साहब की विधवा बहिन के सिवा और कोई औरत न थी। वही घर की मालकिन थी। उनका नाम रुक्मिणी और अवस्था पचास के ऊपर थी। ससुराल में कोई न था। स्थायी रीति से यहाँ रहती थी।
तोताराम दम्पति-विज्ञान में कुशल थे। निर्मला को प्रसन्न रखने के लिए उनमें जो स्वाभाविक कमी थी, उसे वह उपहारों से पूरी करना चाहते ये। यद्यपि वह बहुत ही मितव्ययी पुरुष थे, तथापि निर्मला के लिए कोई-न-कोई तोहफा रोज लाया करते। मौके पर धन की परवाह न करते। लड़कों के लिए थोड़ा दूध आता, पर निर्मला के लिए मेवे, मुरब्बे, मिठाइयां – किसी चीज की कमी न थी। अपनी जिन्दगी में कभी सैर-तमाशे देखने न गए थे। अब अपने बहुमूल्य समय का थोड़ा सा हिस्सा उसके साथ बैठकर ग्रामोफोन बजाने में व्यतीत किया करते थे।
लेकिन निर्मला को न जाने क्यों तोताराम के पास बैठने और हँसने-बोलने में संकोच होता था। इसका कदाचित यह कारण था कि अब तक ऐसा ही एक आदमी उसका पिता था, जिसके सामने वह सिर झुकाकर, देह चुराकर निकलती थी। अब उसी अवस्था का एक आदमी उसका पति था। वह उसे प्रेम की वस्तु नहीं, सम्मान की वस्तु समझती थी। उनसे भागती फिरती, उनको देखते ही उसकी प्रफुल्लता पलायन कर जाती थी।
वकील साहब को उनके दम्पति-विज्ञान ने सिखाया था कि युवती के सामने खूब प्रेम की बातें करना चाहिए – दिल निकालकर रख देना चाहिए यही वशीकरण का मुख्य मंत्र है। इसलिए वकील साहब अपने प्रेम-प्रदर्शन में कोई कसर न रखते थे, लेकिन निर्मला को इन बातों से घृणा होती थी। वही बात, जिन्हें किसी युवक के मुख से सुनकर उसका हृदय प्रेम से उन्मत्त हो जाता, वकील साहब के मुंह से निकलकर उसके हृदय पर शर समान आघात करती थी। उनमें रस न था, उल्लास न था उन्माद न था, केवल बनावट थी, धोखा था और था शुष्क एवं नीरस शब्दाडम्बर। उसे इत्र और तेल बुरा न लगता, सैर-तमाशे बुरे न लगते, बनाव-श्रृंगार भी बुरा न लगता था; बुरा लगता था तो केवल तोताराम के पास बैठना। वह अपना रूप और यौवन उन्हें न दिखाना चाहती थी; क्योंकि वहाँ देखने वाली आंखें न थीं, वह उन्हें इन रसों का आस्वादन करने के योग्य ही न समझती थी। कली प्रभात समीर के स्पर्श से खिलती है। दोनों में समान प्रेरणा है। निर्मला के लिए वह प्रभात-समीर कहां था?
पहला महीना गुजरते ही तोताराम ने निर्मला को अपना खजांची बना लिया। कचहरी से आकर दिन-भर की कमाई उसी को देते। उसका ख्याल था, निर्मला इन रुपयों को देखकर फूली न समाएगी। निर्मला बड़े शौक से इस पद का काम अंजाम देती। एक-एक पैसे का हिसाब लिखती। अगर कभी रुपये कम मिलते तो पूछती, आज कम क्यों हैं? गृहस्थी के सम्बन्ध में उनसे खूब बातें रहती। इन्हीं बातों के लायक वह उनको समझती थी। ज्यों ही कोई विनोद की बात उनके मुंह से निकल जाती, उसका मुख मलिन हो जाता था।
निर्मला जब वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर आइने के सामने खड़ी होती और उसमें अपने सौंदर्य की सुषमापूर्ण आभा देखती, तो उसका हृदय एक सतृष्ण कामना से तड़प उठता था। उस वक्त उसके हृदय में एक ज्वाला-सी उठती। मन में आता, इस घर में आग लगा दे। अपनी माता पर क्रोध आता, पर सबसे अधिक क्रोध बेचारे निरपराध तोताराम पर आता। वह सदैव इस बात से जला करती। बांका सवार बड़े लट्टू-टट्टू पर सवार होना कब पसन्द करेगा, चाहे उसे पैदल ही क्यों न चलना पड़े। निर्मला की दशा उसी बांके सवार की-सी थी। वह उस पर सवार होकर उड़ना चाहती थी; उस उल्लासमयी विद्युत गति का आनन्द उठाना चाहती थी; टट्टू के हिनहिनाने और कनौतियाँ खड़ी करने से क्या आशा होती? संभव था कि बच्चों के साथ हँसने-खेलने से वह अपनी दशा को थोड़ी देर के लिए भूल जाती, कुछ मन हरा हो जाता; लेकिन रुक्मिणी देवी लड़कों को उसके पास फटकने भी न देती; मानो वह कोई पिशाचिनी है, जो उन्हें निगल जायेगी। रुक्मिणी देवी का स्वभाव सारे संसार से निराला था। यह पता लगाना कठिन था कि वह किस बात से खुश होती थी और किस बात से नाराज। एक बार जिस बात से खुश हो जाती थीं, दूसरी बार उसी बात से जल जाती थी। अगर निर्मला अपने कमरे में बैठती, तो कहती कि न जाने कहीं की मनहूसिन है; अगर वह कोठे पर चढ़ जाती या महरियों से बातें करती, तो छाती पीटने लगती न लाज है, न शरम; निगोड़ी ने हया भून खायी, अब क्या, कुछ दिनों में बाजार में नाचेगी।
जब से वकील साहब ने निर्मला के हाथ में रुपये पैसे देने शुरू किए, रुक्मिणी उसकी आलोचना करने पर आरूढ़ हो गई थी। उन्हें मालूम होता था कि अब प्रलय होने में बहुत थोड़ी कसर रह गई है। लड़कों को बार-बार पैसे की जरूरत पड़ती। जब तक खुद स्वामिनी थी, उन्हें बहला दिया करती थीं, अब सीधे निर्मला के पास भेज देती। निर्मला को लड़कों का चटोरपन अच्छा न लगता था। कभी-कभी पैसे से इनकार कर देती। रुक्मिणी को अपने वाग्बाण सर करने का अवसर मिल जाता – अब तो मालकिन हुई हैं, लड़के काहे को जिएंगे। बिना मां के बच्चों को कौन पूछे? रुपयों की मिठाइयाँ खाते थे, अब धेले-धेले को तरसते हैं। निर्मला अगर चिढ़कर किसी दिन बिना कुछ पूछे-ताछे पैसे दे देती, तो देवीजी उसकी दूसरी आलोचना करती – इन्हें क्या, लड़के मरे या जिएँ, इनकी बला से! माँ के बिना कौन समझाए कि बेटा, बहुत मिठाई मत खाओ। आयी-गयी तो मेरे किए जाएगी, उन्हें क्या?
यही तक होता, तो निर्मला शायद जब्त कर जाती, पर देवी तो खुफिया पुलिस के सिपाही की भांति निर्मला का पीछा करती थी। अगर वह कोठे पर खड़ी है, तो अवश्य किसी पर निगाह डाल रही होगी। महरी से बातें करती है, तो अवश्य उनकी निन्दा करती होगी। बाजार से कुछ मँगवाती है, तो अवश्य कोई विलास वस्तु होगी। वह बराबर उसके पत्र पढ़ने की चेष्टा किया करती। छिप-छिपकर उसकी बात सुना करती। निर्मला उसकी दोधारी तलवार से काँपती रहती थी। यहाँ तक कि उसने एक दिन पति से कहा – आप जरा जीजी को समझा दीजिए, क्यों मेरे पीछे पड़ी रहती हैं।
तोताराम ने तेज होकर कहा – तुम्हें कुछ कहा है क्या?
‘रोज ही कहती हैं। बात मुंह से निकालना मुश्किल है। अगर उन्हें इस बात की जलन हो कि यह मालकिन क्यों बनी हुई है, तो आप उन्हीं को रुपये-पैसे दीजिए, मुझे न चाहिए, वही मालकिन बनी रहें। मैं तो केवल इतना ही चाहती हूँ कि मुझे ताने-मेहने न दिया करें।’
यह कहते-कहते निर्मला की आँखों से आंसू बहने लगे। तोताराम को अपना प्रेम दिखाने का यह बहुत अच्छा मौका मिला। बोले मैं आज ही उनकी खबर लूंगा। साफ कह दूंगा, अगर मुंह बन्द करके रहना है तो रहो, नहीं तो अपनी राह लो। इस घर की स्वामिनी वह नहीं हैं, तुम हो। वह केवल तुम्हारी सहायता के लिए हैं। अगर सहायता करने के बदले तुम्हें दिक करती हैं, तो उनको यहाँ रहने की जरूरत नहीं। मैंने सोचा था कि विधवा हैं, अनाथ हैं, पाव भर आटा खाएंगी, पड़ी रहेंगी। जब और नौकर-चाकर खा रहे हैं, तो वह अपनी बहिन ही हैं; लड़की की देखभाल के लिए औरत की जरूरत भी थी, रख लिया; लेकिन इसके यह माने नहीं कि बह तुम्हारे ऊपर शासन करें।
निर्मला ने फिर कहा – लड़कों को सिखा देती हैं कि जाकर माँ से पैसे माँगो, कभी कहीं कुछ। लड़के आकर मेरी जान खाते है। घड़ी-भर लेटना मुश्किल हो जाता है। डांटती हूँ तो वह आँखें लाल-पीली करके दौड़ती हैं। मुझे समझती हैं कि लड़कों को देखकर जलती है। ईश्वर जानते होंगे कि मैं बच्चों को कितना प्यार करती हूँ। आखिर मेरे ही बच्चे तो हैं, मुझे उनसे क्यों जलन होने लगी?
तोताराम क्रोध से काँप उठे। बोले – तुम्हें जो लड़का दिक करे, उसे पीट दिया करो। मैं भी देखता हूँ कि लौंडे शरीर हो गए हैं। मंसाराम को मैं बोर्डिंग हाऊस में भेज दूंगा। बाकी दोनों को तो आज ही ठीक किए देता हूँ।
उस वक्त तोताराम कचहरी जा रहे थे। डाँट-डपट करने का मौका न था, लेकिन कचहरी से लौटते ही उन्होंने रुक्मिणी से कहा – क्यों बहिन, तुम्हें इस घर में रहना है या नहीं? अगर रहना है तो शांत होकर रहो, यह क्या कि दूसरों का रहना मुश्किल कर दो।
रुक्मिणी समझ गई कि बहू ने अपना वार किया। पर वह दबने वाली औरत न थी। एक तो उम्र में बड़ी, तिस पर इसी घर की सेवा में जिन्दगी काट दी थी। किसकी मजाल थी कि उन्हें बेदखल कर दे। उन्हें भाई की क्षुद्रता से आश्चर्य हुआ। बोली – तो क्या लौंडी बनाकर रखोगे? लौंडी बनकर रहना हो, तो इस घर की लौंडी न बनूंगी। अगर तुम्हारी यही इच्छा हो कि घर में कोई आग लगा दे और मैं खड़ी देखा करूँ; किसी को बेराह चलते देखूं तो चुप साध लूं, जो जिसके मन में आये करे, मैं मिट्टी की देवी बनी रहूं तो यह मुझसे न होगा। यह हुआ क्या, जो तुम इतने आपे से बाहर हो रहे हो? निकल गई सारी बुद्धिमान, कल की लौंडिया चोटी पकड़कर नचाने लगी? कुछ पूछना न ताड़ना; बस उसने तीर खींचा और तुम काठ के सिपाही की तरह तलवार निकाल कर खड़े हो गए।
तोता. – सुनता तो हूं कि तुम हमेशा खुचर निकालती रहती हो, बात-बात पर ताने देती हो। कुछ सीख ही देती ले, तो उसे प्यार से, मीठे शब्दों में देनी चाहिए। तानों में सीख देने के बदले उल्टा और जी जलने लगता हैं।
रुक्मिणी – तो तुम्हारी यही मर्जी है कि किसी बात में न बोलूं, यही सही। लेकिन फिर यह न कहना कि तुम तो घर में बैठी थी, क्यों नहीं सलाह दी। जब मेरी बातें जहर लगती हैं, तो मुझे क्या कुत्ते ने काट है जो बोलूं? मसल है – ‘नाटो खेती बहुरियों घर। मैं भी देखूं, वहुरिया कैसे घर चलाती है।
इतने में सियाराम और जियाराम स्कूल से आ गए। आते-ही-आते दोनों बुआजी के पास जाकर खाने को माँगने लगे। रुक्मिणी ने कहा – जाकर अपनी नई अम्मा से क्यों नहीं माँगते? मुझे बोलने का हुक्म नहीं हैं।
तोता. – अगर तुम लोगों ने उस घर में कदम रखे, तो टाँग तोड़ दूंगा। बदमाशी पर कमर बाँधी है!
जियाराम जरा शोख था। बोला – उनको तो आप कुछ नहीं कहते, हमीं को धमकाते हैं। कभी पैसे नहीं देती।
सियाराम ने इस कथन का अनुमोदन किया – कहती हैं, मुझे दिक करोगे तो कान काट लूंगी। कहती हैं कि नहीं जिया?
निर्मला अपने कमरे से बोली – मैंने कब कहा था कि कान काट दूंगी? अभी से झूठ बोलने लगे?
इतना सुनना था कि तोताराम ने सिया के दोनों कान पकड़कर उठा लिया। लड़का जोर से चीख मारकर रोने लगा।
रुक्मिणी ने दौड़कर बच्चे को मुंशीजी के हाथ से छुड़ा लिया और बोली – बस रहने भी दो; क्या बच्चे को मार डालोगे? हाय-हाय! कान लाल हो गया। सच कहा है, नई बीवी पाकर आदमी अन्धा हो जाता है। अभी से यह हाल है, तो इस घर के भगवान ही मालिक हैं।
निर्मला अपनी विजय पर मन-ही-मन प्रसन्न हो रही थी, लेकिन जब मुंशीजी ने बच्चे का कान पड़कर उठा लिया, तो उससे न रहा गया। छुटाने को दौड़ी। जब अपने लड़के होंगे, आँख खुलेंगी। परायी पीर क्या जाने?
निर्मला – खड़े तो हैं, पूछ तो न, मैंने क्या आग लगा दी? मैंने इतना ही कहा था कि लड़के मुझे पैसों के लिए बार-बार दिक करते हैं। इसके सिवाय जो मेरे मुँह से कुछ और निकला हो, मेरी आँखें फूट जाएँ।
तोता. – मैं खुद इन लौडों की शरारत देखा करता हूं, अंधा थोड़े ही हूँ। तीनों जिद्दी और शरीर हो गए हैं, बड़े मियां को तो आज ही हॉस्टल में भेजता हूँ।
रुक्मिणी – अब तक तुम्हें इनकी कोई शरारत न सूझी थी, अब आँखें क्यों इतनी तेज हो गईं?
तोताराम – तुम्हीं ने इतना शोख कर रखा है।
रुक्मिणी – तो मैं ही विष की गाँठ हूँ। मेरे ही कारण तुम्हारा घर चौपट हो रहा है। लो मैं जाती हूँ मारो चाहे काटो, मैं न बोलूंगी।
यह कहकर वह वहाँ से चली गई। निर्मला बच्चे को रोता देखकर विकल हो उठी। उसने उसे छाती से लगा लिया और गोद में लिए हुए अपने कमरे में लाकर उसे चुमकारने लगी। लेकिन बालक और भी सिसक-सिसक रोने लगा। उसका अबोध हृदय इस प्यार में वह मातृस्नेह न पाता था, जिससे दैव ने उसे वंचित कर दिया था। यह वात्सल्य न था, केवल दया थी। यह वस्तु थी, जिस पर उसका कोई अधिकार न था; जो केवल भिक्षा के रूप में उसे दी जा रही थी। पिता ने पहले भी दो-एक बार मारा था, जब उसकी माँ जीवित थी; लेकिन तब उसकी माँ उसे छाती से लगाकर रोती न थी। वह अप्रसन्न होकर उससे बोलना छोड़ जाता था। शरारत के लिए सजा पाना तो उसकी समझ में आता था। लेकिन मार खाने पर चुमकारा जाना उसकी समझ में न आता था।
मातृप्रेम में कठोरता होती थी, लेकिन मृदुलता से मिली हुई। इस प्रेम में करुणा थी, पर वह कठोरता न थी, जो आत्मीयता का गुप्त सन्देश है। स्वस्थ अंग की परवाह कौन करता है? लेकिन वह अंग जब किसी वेदना से टपकने लगता है, तो उसे ठेस और धक्के से बचाने का यत्न किया जाता है। बालक का करुण रोदन निर्मला को उसके अनाथ होने की सूचना दे रहा था। वह बड़ी देर तक निर्मला की गोद में बैठा रोता रहा और रोते-रोते सो गया। निर्मला ने उसे चारपाई पर सुलाना चाहा, तो बालक ने सुषुप्तावस्था में अपनी दोनों कोमल बांहें उसकी गर्दन में डाल दी और ऐसा चिपट गया मानो नीचे कोई गढ़ा हो। शंका और भय से उसका मुख विकृत हो गया। निर्मला ने फिर बालक को गोद में उठा लिया, चारपाई पर न सुला सकी। इस समय बालक को गोद में लिये हुए उसे वह तुष्टि हो रही थी, जो अब तक कभी न हुई थी। आज पहली बार उसे आत्मवेदना हुई, जिसके बिना आँख नहीं खुलती, अपना कर्त्तव्य-मार्ग नहीं सूझता। वह मार्ग अब दिखाई देने लगा।
