निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग -9

कल्याणी के सामने अब एक समस्या आ खड़ी हुई। पति के देहान्त के बाद उसे अपनी दुरावस्था का यह पहला और बहुत ही कड़वा अनुभव हुआ। दरिद्र विधवा के लिए इससे बड़ी और क्या विपत्ति हो सकती हैं, चौका-बर्तन भी अपने हाथ से किया जा सकता है, रूखा-सूखा खाकर निर्वाह किया जा सकता है, झोपड़े में दिन काटे जा सकते हैं;

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लेकिन युवती कन्या धर में नहीं बैठाई जा सकती। कल्याणी को भालचन्द्र पर ऐसा क्रोध आता था कि स्वयं जाकर उसके मुँह में कालिख लगाऊँ, सिर के बाल नोच लूं कहूँ कि तू अपनी बात से फिर गया, तू अपने बाप का बेटा नहीं। पंडित मोटेराम ने उनकी कपट-लीला का नग्न वृत्तान्त सुना दिया था।

वह इस क्रोध में बैठी थी कि कृष्णा खेलती हुई आयी और बोली – कै दिन में बारात आएगी अम्मा? पंडितजी तो आ गए।

कल्याणी – बारात का सपना देख रही है क्या?

कृष्णा – वही चन्दर तो कह रहा है कि दो-तीन दिन में बारात आएगी। क्या न आएगी अम्मा?

कल्याणी – एक बार तो कह दिया, सिर क्यों खाती है?

कृष्णा – सबके घर तो बारात आ रही है, हमारे घर क्यों नहीं आती?

कल्याणी – तेरे घर जो बारात लाने वाला था, उसके घर में आग लग गई।

कृष्णा – सच अम्मा, तब तो सारा घर जल गया होगा। कहां रहते होंगे? बहिन कहां जाकर रहेगी?

कल्याणी – अरे पगली, तू तो बात ही नहीं समझती। आग लगी, वह अब हमारे यहाँ ब्याह न करेगा।

कृष्णा – यह क्यों अम्मा? पहले तो ठीक हो गया था?

कल्याणी – बहुत से रुपये मांगता है। मेरे पास उसे देने को रुपये नहीं है।

कृष्णा – क्या बड़े लालची हैं, अम्मा?

कल्याणी – लालची नहीं तो और क्या! पूरा कसाई, निर्दयी, दगाबाज!

कृष्णा – तब तो अम्मा बहुत अच्छा हुआ कि उसके घर बहिन का ब्याह नहीं हुआ। बहिन उसके साथ कैसे रहती? यह तो खुश होने की बात है अम्मा, तुम रंज क्यों करती हो?

कल्याणी ने पुत्री को स्नेहमयी दृष्टि से देखा। उसका कथन कितना सत्य है! भोले शब्दों में समस्या का कितना मार्मिक निरूपण है! सचमुच यह तो प्रसन्न होने की बात है कि ऐसे कुपात्रों से संबंध नहीं हुआ, रंज की कोई बात नहीं। ऐसे कुमानुसों के बीच में बेचारी निर्मला की न जाने क्या गति होती। जरा सा घी दाल में अधिक पड़ जाता, तो सारे घर में शोर मच जाता। जरा खाना ज्यादा पक जाता तो सास दुनिया सिर पर उठा लेती। लड़का भी ऐसा लोभी है। बड़ी अच्छी बात हुई, नहीं तो बेचारी को उम्र-भर रोना पड़ा। कल्याणी यहाँ से उठी, तो उसका हृदय हल्का हो गया।

लेकिन विवाह तो करना ही था और हो सके तो इसी साल, नहीं तो दूसरे साल फिर नए सिरे से तैयारियां करनी पड़ेगी। अब अच्छे घर की जरूरत नहीं थी। अच्छे वर की जरूरत न थी। अभागिनी को अच्छा घर-वर कहां मिलता? अब किसी भांति सिर का बोझा उतारना था, किसी भांति लड़की को पार लगाना था! उसे कुएं में झोंकना था। वह रूपवती है, गुणशील है, चतुर है, कुलीन है, तो हुआ करे, दहेज हो तो सारे दोष गुण हैं। प्राणों का कोई मूल्य नहीं, केवल दहेज का मूल्य है। कितनी विषम भाग्यलीला है।

कल्याणी का दोष कुछ कम था। अबला विधवा होना उसे दोषों से मुक्त नहीं कर सकता। उसे अपने लड़के लड़कियों से कहीं ज्यादा प्यारे थे। लड़के हल के बैल हैं; भूसे-खली पर पहला हक उनका है। उनके खाने से जो बचे, वह गायों का। मकान था, कुछ नकद था, कई हजार के गहने थे, उन्हें पढ़ाना-लिखाना था। एक कन्या और भी चार-पांच साल में विवाह करने योग्य हो जाएगी। इसलिए वह कोई बड़ी रकम दहेज में न दे सकती थी। आखिर लड़कों को भी तो कुछ चाहिए? वे क्या समझेंगे कि हमारा भी को, बाप था।

पंडित मोटेराम को लखनऊ से लौटे पन्द्रह दिन बीत चुके थे। लौटने के बाद दूसरे दिन वर की खोज में निकले थे। उन्होंने प्रण किया था कि मैं लखनऊ वालों को दिखा दूंगा कि संसार में तुम्हीं अकेले नहीं हो, तुम्हारे ऐसे और भी कितने पड़े हुए हैं। कल्याणी रोज दिन गिना करती थी। आज उसने उन्हें पत्र लिखने का निश्चय किया और कलम दवात लेकर बैठी ही थी कि पंडित मोटेराम ने पदार्पण किया।

कल्याणी – आइए पंडितजी, मैं तो आपको खत लिखने जा रही थी। कब लौटे? निमंत्रण आ गया। कई दिन से तर माल न मिले थे। मैंने कहा, लगे हाथ यह भी काम निपटाता चलूं। अभी उधर से लौटा आ रहा हूं कोई पांच सौ ब्राह्मणों की पंगत थी।

कल्याणी – कुछ कार्य सिद्ध हुआ या रास्ता ही नापना पड़ा!

मोटे. – कार्य क्यों न सिद्ध होता? भला यह भी कोई बात है! पांच जगह बातचीत कर आया हूं। पांचों की नकल लाया हूं। उनमें से आप चाहे जिसे पसन्द करें। यह देखिए, लड़के का बाप डाके सीगे में 100 रु. महीने का नौकर है। लड़का अभी कालेज में पड़ रहा है। मगर नौकरी का भरोसा है, घर में कोई जायदाद नहीं है। लड़का होनहार मालूम होता है। खानदान भी अच्छा है। 2000 रु. में तय हो जाएगी। मांगते तो वह तीन हजार हैं।

कल्याणी – लड़के के कोई भाई हैं?

मोटे. – नहीं; मगर तीन बहनें हैं और तीनों क्वांरी। माता जीवित हैं। अच्छा, अब दूसरी नकल देखिये। यह लड़का रेल के सीगे में 50 रु़ महीना पाता है। मां-बाप नहीं हैं। बहुत ही रूपवान, सुशील और शरीर से हृष्ट-पुष्ट कसरती जवान है। मगर खानदान अच्छा नहीं। कोई कहता था, मां नाइन थी; कोई कहता था, ठकुराइन थी। बाप किसी रियासत में मुख्तार थे। घर पर थोड़ी-सी जमींदारी है, मगर उस पर कई हजार का कर्ज है। वहाँ कुछ लेना-देना न पड़ेगा। उम्र कोई 20 साल होगी।

कल्याणी – खानदान में दाग न होता, तो मंजूर कर लेती। देखकर तो मक्खी नहीं निगली जाती।

मोटे. – तीसरी नकल देखिए। एक जमींदार का लड़का है, कोई एक हजार सालाना नफा है। कुछ खेती-बारी भी होती है, लड़का पढ़ा-लिखा तो थोड़ा है, पर कचहरी अदालत के काम में चतुर है। दुहाजू है, पहली स्त्री को मरे दो साल हुए कोई सन्तान नहीं। लेकिन रहन-सहन मोटा है, पीसना कूटना घर में ही होता है।

कल्याणी – कुछ दहेज मांगते हैं?

मोटेराम – इसकी कुछ न पूछिये। चार हजार सुनाते हैं। अच्छा, यह चौथी नकल देखिए। लड़का वकील है, उम्र कोई पैंतीस साल होगी। तीन-चार सौ की आमदनी है, पहली स्त्री मर चुकी है। उसके तीन लड़के भी हैं। अपना घर बनवाया है। कुछ जायदाद भी खरीदी है। यहाँ भी लेन-देन का झगड़ा नहीं है।

कल्याणी – खानदान कैसा है?

मोटेराम – बहुत ही उत्तम, पुराने रईस हैं। अच्छा, यह पांचवी नकल देखिए। बाप का छापाखाना है, लड़का पढ़ा तो बी.ए. तक है, पर उसी छापेखाने में काम करता है, उम्र अठारह साल की होगी। घर में प्रेस के सिवाय कोई जायदाद नहीं है, मगर किसी का कर्ज सिर पर नहीं। खानदान न बहुत अच्छा है, न बहुत बुरा। लड़का बहुत सुन्दर और सच्चरित्र है। मगर एक हजार से कम में मामला तय न होगा। मांगते तो वह तीन हजार है। अब बताइए, आप कौन-सा वर पसन्द करती हैं?

कल्याणी – आपको सबों में कौन पसन्द है?

मोटे. – मुझे तो दो वर पसन्द हैं। एक वह जो रेलवई में है, और दूसरा वह जो छापेखाना में काम करता है।

कल्याणी – मगर पहले के तो खानदान में दोष बताते हैं?

मोटे. – हां, यह दोष है। तो छापेखाने को ही रहने दीजिए।

कल्याणी – वहाँ एक हजार देने को कहां से आएगा? एक हजार तो आपका अनुमान है, शायद वह मुंह फैलाये। आप तो घर की दशा देख ही रहे हैं। भोजन मिलता जाए, यही गनीमत है। रुपये कहां से आएंगे? जमींदार साहब चार हजार सुनाते हैं, डाकबाबू भी दो हजार का सवाल करते है। इनको जाने दीजिए। बस, वकील साहब ही बच रहे, पैंतीस साल की उम्र भी कोई ऐसी ज्यादा नहीं। इन्हीं को क्यों न रखिए?

मोटेराम – आप खूब सोच-विचार लें। मैं यों आपकी मर्जी का ताबेदार हूं। जहाँ कहिएगा, वहाँ टीका कर आऊँगा। मगर एक हजार का मुंह न देखिए, छापेखाने वाला लड़का रत्न है। उसके साथ कन्या का जीवन सफल हो जायेगा। जैसी वह रूप और गुण की पूरी है, वैसा ही लड़का भी सुन्दर और सुशील है।

कल्याणी – पसन्द तो मुझे भी यही है महाराज। पर रुपये किसके घर से आएं? कौन देखने वाला है? खाने वाले तो खा-पीकर चंपत हुए। अब किसी की भी सूरत दिखाई नहीं देती, बल्कि और मुझसे बुरा मानते हैं कि हमें निकाल दिया। जो बात अपने बस के बाहर है, उसके लिए हाथ ही क्यों फैला? संतान किसको प्यारी नहीं होती? कौन उसे सुखी नहीं देखना चाहता? पर जब अपना काबू भी हो! ईश्वर का नाम लेकर वकील साहब से टीका कर आइए। आयु कुछ अधिक है; लेकिन मरना जीना विधि के हाथ है। पैंतीस साल का आदमी बुड्ढा नहीं कहलाता। अगर लड़की के भाग्य में सुख भोगना बदा है, तो जहाँ जाएगी; सुखी रहेगी; दुख भोगना है, तो जहाँ जाएगी; दुःख झेलेगी। हमारी निर्मला को बच्चों से प्रेम है। उनके बच्चों को अपना समझेगी। आप शुभ मुहूर्त देखकर टीका कर आएं।