निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग -11

मंसाराम के जाने से घर सूना हो गया। दोनों छोटे लड़के उसी स्कूल में पढ़ते थे। निर्मला रोज उनसे मंसाराम का हाल पूछती। आशा थी कि छुट्टी के दिन आएगा; लेकिन जब छुट्टी का दिन गुजर गया और वह न आया, तो निर्मला की तबीयत घबराने लगी। उसने उसके लिए मूंग के लड्डू बना रखे थे। सोमवार को प्रात: भूंगी को लड्डू देकर मदरसे भेजा। नौ बजे भूंगी आयी। मंसाराम ने लड्डू ज्यों-के-त्यों लौटा दिए।

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निर्मला ने पूछा – पहले से कुछ हरे हुए है रे?

भूँगी – हरे-भरे तो नहीं हुए और सूख गए हैं।

निर्मला – क्या जी अच्छा नहीं?

भूँगी – यह तो नहीं पूछा बहूजी, झूठ क्यों बोलूं? हां, वहाँ का कहार देवर लगता है। वह कहता था कि तुम्हारे बाबूजी की खुराक कुछ नहीं है। दो फुलकियाँ खाकर उठ जाते हैं। फिर दिन भर कुछ नहीं खाते। हरदम पढ़ते रहते हैं।

निर्मला – तूने पूछा नहीं कि लड्डू क्यों लौटाए देते हो?

भूंगी – यह तो नहीं पूछा बहूजी, झूठ क्यों बोलूं! उन्होंने कहा, इसे लेती जा यहाँ रखने का कुछ काम नहीं। मैं लेती आयी।

निर्मला – और कुछ नहीं कहते थे? पूछा नहीं कल क्यों नहीं आये? छुट्टी तो थी।

भूंगी – बहूजी, झूठ क्यों बोलूं। यह पूछने की तो मुझे सुध ही न रही। हां, यह कहते थे कि अब तू यहाँ कभी न मेरे लिए कोई चीज लाना; और अपनी बहूजी से कह देना कि मेरे पास चिट्ठी-पत्तर न भेजे; लड़कों से भी मेरे पास कोई सन्देश न भेजे और एक बात ऐसी कही कि मुंह से निकल नहीं सकती। फिर रोने लगे।

निर्मला – कौन बात थी, कह तो?

भूंगी – क्या कहूं बहूजी, कहते थे मेरे जीने को धिक्कार है। यही कहकर रोने लगे।

निर्मला के मुंह से एक ठंडी सांस निकल गई। ऐसा मासूम हुआ, मानो कलेजा बैठा जाता है। उसका रोम-रोम आर्तनाद से रुदन करने लगा। वह वहाँ बैठी न रह सकी। आकर बिस्तर पर मुँह ढांककर लेट रही और फूट-फूटकर रोने लगी। वह भी जान गए! उसके अंतःकरण में बार-बार यही आवाज गूंजने लगी – ‘बह भी जान गए’! भगवान् अब क्या होगा? जिस संदेह की आग में वह भस्म हो रही थी, अब शतगुण वेग से धधकने लगी। उसे अपनी कोई चिन्ता न थी। जीवन में अब सुख की आशा क्या थी, जिसकी उसे लालसा होती? उसने अपने मन को इस विचार से समझाया कि यह मेरे पूर्व कर्मों का प्रायश्चित है। कौन प्राणी ऐसा निर्लज्ज होगा, जो इस दशा में बहुत दिन जी सके? कर्त्तव्य की वेदी पर अपना जीवन और उसकी सारी कामनाएं होम कर दी थी। हृदय रोता था, पर मुख पर हंसी का रंग भरना पड़ता था। जिसका मुंह देखने को जी न चाहता था, उसके सामने हंस-हंस का रंग भरना पड़ता था। जिसका देह का स्पर्श उसे सर्प से शीतल के समान लगता था, उससे आलिंगित होकर उसे जितनी घृणा जितनी मर्म-वेदना होती थी, उसे कौन जान सकता है? उस समय उसकी यही इच्छा होती थी कि धरती फट जाये और उसमें समा जाये। लेकिन सारी विडम्बना अब तक अपने ही तक थी और अपनी ही चिन्ता करनी उसने छोड़ दी; लेकिन वह समस्या अब अत्यन्त भयंकर हो गई थी कि वह अपनी आंखों से मंसाराम की आत्मपीड़ा नहीं देख सकती थी। मंसाराम जैसे मनस्वी, साहसी युवक पर इस आक्षेप का जो असर पड़ सकता था, उसकी कल्पना ही से उसके प्राण कांप उठते थे। अब चाहे उस पर कितने ही सन्देह क्यों न हों, चाहे उसे आत्महत्या ही क्यों न करनी पड़े, पर वह चुप नहीं बैठ सकती। मंसाराम की रक्षा करने के लिए वह विकल हो गई! उसने संकोच और लज्जा की चादर उतारकर फेंक देने का निश्चय कर लिया।

वकील साहब भोजन करके कचहरी जाने के पहले एक बार उससे अवश्य मिल लिया करते थे। उनके आने का समय हो गया था। आ ही रहे होंगे, यह सोचकर निर्मला द्वार पर खड़ी हो गई और इन्तजार करने लगी; लेकिन यह क्या? वह तो बाहर चले जा रहे है। गाड़ी जुतकर आ गई। यह हुक्म वह यही से दिया करते थे। तो क्या आज वह न आएंगे, बाहर- ही-बाहर चले जाएंगे! नहीं, ऐसा नहीं होने पाएगा। उसने भूंगी से कहा- जाकर बाबूजी को बुलाकर ला। कहना, एक जरूरी काम है, सुन लीजिए।

मुंशीजी जाने को तैयार ही थे। यह संदेश पाकर अन्दर आये, पर कमरे में न आकर दूर ही से पूछा – क्या बात है; भाई जल्दी कह दो, मुझे एक जरूरी काम से जाना है। अभी थोड़ी देर हुई, हेडमास्टर साहब का एक पत्र आया है कि मंसाराम को ज्वर आ गया है, बेहतर हो कि आप घर ही पर उसका इलाज करें। इसलिए उधर ही से होता हुआ कचहरी जाऊंगा। तुम्हें कोई खास बात कहनी हैं?

निर्मला पर मानों वज्र गिर पड़ा। आंसुओं के आवेग और कंठस्वर में घोर संग्राम होने लगा। दोनों पहले निकलने पर तुले हुए थे। दो में से एक कदम पीछे हटना नहीं चाहता था। कंठस्वर की दुर्बलता और आंसुओं की सबलता देखकर यह निश्चय करना कठिन था कि एक क्षण यही संग्राम होता रहा, तो मैदान किसके हाथ रहेगा। आखिर दोनों साथ-साथ निकले, लेकिन बाहर आते ही बलवान ने निर्बल को दबा दिया करना कठिन था कि केवल इतना मुंह से निकला – कोई खास बात नहीं थी! आज आप तो उधर जा रहे हैं।

मुंशीजी – मैंने लड़कों से पूछा था तो वह कहते थे, कल बैठे पढ़ रहे थे। आज न जाने क्या हो गया।

निर्मला ने आवेश से कांपते हुए कहा – यह सब आप कर रहे हैं।

मुंशीजी ने त्यौरियां बदलकर कहा – मैं कर रहा हूं! मैं क्या कर रहा हूं?

निर्मला अपने दिल से पूछिए।

मुंशीजी – मैंने तो यही सोचा था कि यहाँ उसका पढ़ने में जी नहीं लगता, वहाँ और लड़कों के साथ खामख्वाह ही पढ़ेगा। यह तो कोई बुरी बात न थी; और मैंने क्या किया?

निर्मला – खूब सोचिए, इसीलिए आपने उन्हें वहाँ भेजा था! आपके मन में और कोई बात न थी?

मुंशीजी हिचकिचाए और अपनी दुर्बलता को छिपाने के लिए मुस्कराने की चेष्टा करके बोले – और क्या बात हो सकती थी? भला तुम्हीं सोचो!

निर्मला – खैर, यही सही। अब आप कृपा करके उन्हें आज ही लेते आइएगा। वहाँ रहने से उनकी बीमारी बढ़ जाने का भय है। यहाँ दीदी जी तीमारदारी कर सकती है। दूसरा नहीं कर सकता।

एक क्षण के बाद-उसने सिर नीचा करके कहा – मेरे कारण न लाना चाहते हो तो मुझे घर भेज दीजिए। मैं वहाँ आराम से रहूंगी।

मुंशीजी ने इसका जवाब न दिया। बाहर चले गए और एक क्षण में गाड़ी स्कूल की ओर चली।

मन! तेरी गति, कितनी विचित्र है, कितनी रहस्य से भरी हुई, कितनी दुर्भेद्य। तू कितनी जल्द रंग बदलता है। इस कला में तू निपुण है। आतिशबाज की चर्खी को भी रंग बदलते कुछ देर लगती है, पर तुझे रंग बदलने में उसका लक्षांश समय भी नहीं लगता! जहाँ अभी वात्सल्य था, वहाँ फिर सन्देह ने आसन जमा लिया।

वह सोचते थे – कहीं उसने बहाना तो नहीं किया है।