जब कोई बात हमारी आशा के विरुद्ध होती है, तभी दुःख होता है। मंसाराम को निर्मला से कभी इस बात की आशा न थी कि वह उसकी शिकायत करेगी। इसलिए उसे घोर वेदना हो रही थी। वह क्यों मेरी शिकायत करती है? क्या चाहती है? यही कि यह मेरे पति की कमाई खाता है, इसके पढ़ने-लिखने में रुपये खर्च होते है, कपड़े पहनता है।
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उनकी यही इच्छा होगी कि यह घर में न रहे। मेरे न रहने से उनके रुपये बच जायेंगे। वह मुझसे बहुत प्रसन्नचित्त रहती है। कभी मैंने उनके मुँह से कटु वचन नहीं सुने। क्या यह सब कौशल है? हो सकता है। चिड़िया को जाल में फंसाने के पहले शिकारी दाने बिखेरता है। आह मैं नहीं जानता था कि दाने के बीच जाल है, यह मातृस्नेह मेरे निर्वासन की भूमिका है!
अच्छा, मेरा यहाँ रहना क्यों बुरा लगता है? जो उनका पति है, क्या वह मेरा पिता नहीं है? क्या पिता-पुत्र का सम्बन्ध स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध से कुछ कम घनिष्ठ है? मगर मुझे उनके संपूर्ण आधिपत्य से ईर्ष्या नहीं होती – वह जो चाहे करें, मैं मुँह नहीं खोल सकता – तो वह मुझे पितृ-प्रेम से क्यों वंचित करना चाहती हैं? वह अपने साम्राज्य में क्यों मुझे वृक्ष की छाया में बैठी नहीं देख सकतीं।
हां, वह समझती होंगी कि यह बड़ा होकर मेरे पति की संपत्ति का स्वामी हो जायेगा, इसलिए अभी से निकाल देना अच्छा है। उनको कैसे विश्वास दिलाऊं कि मेरी ओर से यह शंका न करें। उन्हें क्योंकर बताऊं कि मंसाराम विष खाकर प्राण दे देगा, इसके पहले कि वह उनका अहित करे! उसे चाहे कितनी ही कठिनाईयां सहनी पड़े, वह उनके हृदय का शूल न बनेगा। यों तो पिताजी ने मुझे जन्म दिया है, और अब भी मुझ पर उनका स्नेह कम नहीं है, लेकिन क्या मैं इतना भी नहीं जानता कि जिस दिन पिताजी ने उनसे विवाह किया, उसी दिन उन्होंने हमें अपने हृदय से बाहर निकाल दिया? अब हम अनाथों की भांति यहाँ पड़े रह सकते हैं, इस घर पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। कदाचित पूर्व संस्कारों के कारण यहाँ अन्य अनाथों से हमारी दशा कुछ अच्छी है, पर हैं अनाथ ही। हम उसी दिन अनाथ हुए, जिस दिन अम्माजी परलोक सिधारीं। जो कुछ कसर रह गई थी, वह इस विवाह ने पूरी कर दी। मैं तो खुद पहले इनसे विशेष सम्बन्ध नहीं रखता था। अगर उन्हीं दिनों पिताजी से मेरी शिकायत की होती, तो शायद मुझे इतना दुःख न होता। मैं तो उस आघात के लिए तैयार बैठा था। संसार में क्या मैं मजदूरी भी नहीं कर सकता? लेकिन बुरे वक्त में इन्होंने चोट की। हिंसक पशु आदमी को गाफिल पाकर ही चोट करते हैं, इसलिए मेरी इतनी आवभगत होती थी; खाने-पीने के लिए उठने में जरा भी देर हो जाती थी, तो बुलावे पर बुलावे आते थे, जलपान के लिए प्रातःकाल ताजा हलुआ बनाया जाता था, बार-बार पूछा जाता था – रुपयों की जरूरत तो नहीं है? इसीलिए 100 रु की घड़ी मंगवायी थी।
मगर क्या इन्हें कोई दूसरी शिकायत न सूझी, जो मुझे आवारा कहा? देखिए उन्होंने मेरी क्या आवारगी देखी! यह कह सकती थी कि इसका मन-पढ़ने लिखने में नहीं लगता, एक-न-एक चीज के लिए नित्य रुपये माँगता रहता है। यही एक बात उन्हें क्यों सूझी? शायद इसलिए कि यही सबसे कठोर आघात था, जो वह मुझ पर कर नहीं सकती थीं। पहली ही बार इन्होंने मुझ पर अग्निबाण चला दिया, जिससे कहीं शरण का तो एक कहना था। उद्देश्य यही था कि इसे दूध की मक्खी की तरह निकाल दिया जाये। दो-चार महीने के बाद खर्च-वर्च देना बन्द कर दिया जाये, फिर चाहे मरे या जिए। अगर मैं जानता कि प्रेरणा इनकी ओर से हुई है, तो कहीं जगह न रहने पर भी जगह निकाल लेता। नौकरों की कोठरियों में तो जगह मिल जाती, बरामदे में पड़े रहने के लिए बहुत जगह मिल जाती। खैर, अब मेरा घर नहीं रहा, तो केवल पेट भरने के लिए पड़े रहना बेहयाई है, यह अब मेरा घर नहीं। पिताजी भी मेरे लिए पिता नहीं है। मैं उनका पुत्र हूं, पर वह मेरे पिता नहीं है। संसार के सारे नाते स्नेह के नाते हैं। जहाँ स्नेह नहीं, वहाँ कुछ नहीं। हाय अम्माजी तुम कहां हो?
यह सोचकर मंसाराम रोने लगा। ज्यों-ज्यों मातृस्नेह की पूर्व स्मृतियाँ जागृत होती थी, उसके आंसू उमड़ते लगते थे। वह कई बार अम्मा-अम्मा पुकार उठा, मानों वह खड़ी सुन रही ही। मातृहीनता के दुःख का आज उसे पहली बार अनुभव हुआ। वह आत्माभिमानी था, साहसी था; पर अब तक सुख की गोद में लालन-पालन होने के कारण वह इस समय अपने को निराधार समझ रहा था।
रात के दस बज गए। मुंशीजी आज कहीं दावत खाने गए थे। दो बार महरी मंसाराम को भोजन करने के लिए बुलाने आ चुकी थी। मंसाराम ने पिछली बार उससे झुंझलाकर कह दिया था – मुझे भूख नहीं है, कुछ न खाऊँगा। बार-बार आकर सिर पर सवार हो जाती है। इसलिए जब निर्मला ने उसे फिर उसी काम के लिए भेजना चाहा, वह न गयी। बोली – बहूजी, वह मेरे बुलाने से न आएँगे।
निर्मला – आएंगे क्यों नहीं? जाकर कह दे; खाना ठण्डा हुआ जाता है। दो ही चार कौर खा लें।
महरी – मैं यह सब कहके हार गई; नहीं आते।
निर्मला – तूने यह कहा था कि वह बैठी हुई हैं?
महरी – नहीं बहूजी, यह तो मैंने नहीं कहा; झूठ क्यों बोलूं।
निर्मला – अच्छा, तो जाकर यही कह देना, वह बैठी तुम्हारी राह देख रही है। तुम न खाओगे तो वह रसोई उठा कर सो रहेंगी। मेरी भूंगी! सुन, अबकी और चली जाए (हँसकर) न आवे तो गोद में उठा लेना।
भूंगी नाक-भौं सिकोड़ते गयी, पर क्षण में आकर बोली – अरे बहूजी, वह तो रो रहे हैं। किसी ने कुछ कहा है क्या?
निर्मला इस तरह चौंककर उठी और दो-तीन पग आगे चली, मानो किसी माता ने अपने बेटे के कुएं में गिर पड़ने की खबर पाई हो। फिर वह ठिठक गई और महरी से बोली – रो रहे हैं? तूने पूछा नहीं क्यों रो रहे हैं?
भूंगी – नहीं बहूजी, यह तो मैंने नहीं पूछा; झूठ क्यों बोलूं?
वह रो रहे हैं। इस निस्तब्ध रात्रि में अकेले बैठे वह रो रहे हैं। माता की याद आई होगी। कैसे जाकर उन्हें समझाऊँ? हाय, कैसे समझाऊँ? यहाँ तो छींकते नाक कटती है। ईश्वर! तुम साक्षी हो, अगर मैंने उन्हें भूल से भी कुछ कहा हो, तो वह मेरे आगे आये। मैं क्या करूँ? वह दिल में समझते होंगे कि इसी ने पिताजी से मेरी शिकायत की होगी। कैसे विश्वास दिलाऊँ कि मैंने कभी तुम्हारे विरुद्ध एक शब्द भी मुँह से नहीं निकाला? अगर मैं ऐसे देवकुमार के से चरित्र रखने वाले युवक का बुरा सोचूं तो मुझसे बढ़कर राक्षसी संसार में न होगी।
निर्मला देखती थी कि मंसाराम का स्वास्थ दिन-दिन बिगड़ा जाता है, वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता है, उसके मुख की कान्ति दिन-दिन मलिन होती जाती है, उसका साहसी बदन संकुचित होता जाता है। इसका कारण उससे छिपा न था। पर वह इस विषय में अपने स्वामी से कुछ न कह सकती थी। यह सब देख देखकर उसका हृदय विर्दीण होता रहता था, पर उसकी जबान न खुल सकती थी। वह कभी-कभी मन में झुँझलाती कि मंसाराम क्या जरा-सी बात पर इतना क्षोभ करता है! क्या इनके आवारा कहने से वह आवारा हो गया? मेरी और बात है – एक जरा सा शक मेरा सर्वनाश कर सकता है; पर उन्हें ऐसी बातों की इतनी क्या परवाह है?
उसके जी में प्रबल इच्छा हुई कि चलकर उन्हें चुप कराऊँ और लाकर खाना खिला दूँ। बेचारे रात-भर भूखे पड़े रहेंगे। हाय! मैं इस उपद्रव की जड़ हूं। मेरे आने के पहले इस घर में शान्ति थी। पिता बालकों पर जान देता था, बालक पिता को प्यार करते थे। मेरे आते ही बाधाएँ आ खड़ी हुई! इसका अंत क्या होगा? भगवान ही जाने। भगवान् मुझे मौत भी नहीं देते। बेचारा अकेले भूखा पड़ा है। उस वक्त भी मुँह जूठा करके उठ गया था, और उसका आहार ही क्या है – जितना वह खाता है, उतना साल-दो-साल के बच्चे खा जाते हैं।
निर्मला चली। पति की इच्छा के विरुद्ध चली। जो नाते में उसका पुत्र होता था, उसी को मनाने जाते उसका हृदय काँप रहा था।
उसने पहले रुक्मिणी के कमरे की ओर देखा। वह भोजन करके बे-खबर सो रही थी। फिर बाहर के कमरे की ओर गयी। वहां भी सन्नाटा था। मुंशीजी अभी न आये थे। यह सब देख-भालकर वह मंसाराम के सामने जा पहुँची। कमरा खुला हुआ था, मंसाराम एक पुस्तक सामने रखे मेज पर सिर झुकाए बैठा हुआ था, मानो शोक और चिन्ता की सजीव मूर्ति हो। निर्मला ने पुकारना चाहा, पर उसके कंठ से आवाज न निकली।
सहसा मंसाराम ने सिर उठाकर दीवार की ओर देखा। निर्मला को देखकर अंधेरे में पहचान न सका। चौंककर बोला – कौन?
निर्मला ने काँपते स्वर में कहा – मैं तो हूँ। भोजन करने क्यों नहीं चल रहे हो? कितनी रात गयी।
मंसाराम ने मुँह फेरकर कहा – मुझे भूख नहीं है।
निर्मला – यह तो मैं तीन बार भूंगी से सुन चुकी हूँ।
मंसाराम ने व्यंग्य की हँसी हँसकर कहा – बहुत भूख लगेगी, तो आएगा कहाँ से? किवाड़ों को हटाकर कमरे में चली आयी और मंसाराम का हाथ पकड़कर सजल नेत्रों से विनय मधुर स्वर में बोली – मेरे कहने से चलकर थोड़ा-सा खा लो। तुम न खाओगे, तो मैं भी जाकर सो रहूंगी, दो ही कौर खा लेना। क्या मुझे रात-भर भूखों मारना चाहते हो?
मंसाराम सोच में पड़ गया। अभी भोजन नहीं किया; मेरे ही इंतजार में बैठी रही। यह स्नेह, वात्सल्य और विनय की देवी है या ईर्ष्या और अमंगल की मायाविनी मूर्ति उसे अपनी माता का स्मरण हो आया। जब रूठ जाता था, तो वे भी इसी तरह मनाने आया करती थी और जब तक वह न जाता था, वहाँ से न उठती थीं। वह इस विनय को अस्वीकार न कर सका। बोला – मेरे लिये आपको इतना कष्ट हुआ, इसका मुझे खेद है। मैं जानता कि आप मेरे इन्तजार में भूखी बैठी हैं, तो कभी खा आया होता।
निर्मला ने तिरस्कार-भाव से कहा – यह तुम कैसे समझ सकते थे कि तुम भूखे रहोगे और मैं खाकर रहूंगी? क्या विमाता का नाता होने से ही ऐसी स्वार्थिनी हो जाऊँगी?
सहसा मर्दाने के कमरे से मुंशीजी के खांसने की आवाज आयी। देखा, मालूम हुआ कि मंसाराम के कमरे की ओर आ रहे हैं। निर्मला के चेहरे का रंग उड़ गया। वह तुरन्त कमरे से निकल गयी और भीतर जाने का मौका न पाकर द्वार पर बैठ गई और बोलने लगी जिसे न खाना हो, पहले ही कह दिया करें।
मुंशीजी ने निर्मला को खड़े देखा। यह अनर्थ! यह यहाँ क्या करने आ गई? बोले – क्या कर रही हो?
निर्मला ने कर्कश स्वर में कहा – क्या कर रही हूं अपने भाग्य को रो रही हूं। बस, सारी बुराइयों की जड़ मैं हूं। कोई इधर रूठा है, कोई उधर मुंह छाए पड़ा है। किस-किसको मनाऊं और कहां तक मनाऊं?
मुंशीजी चकित होकर बोले – बात क्या है?
निर्मला – भोजन करने नहीं जाते और क्या बात है! दस दफे महरी को भेजा, आखिर आप दौड़ी आयी। इन्हें तो इतना कह देना आसान है, मुझे भूख नहीं है। या तो वर-मर की लौंडी हूं सारी दुनिया मुंह में कालिख पोतने को तैयार। किसी को भूख न हो, पर यह कहने वालों को कौन रोकेगा कि पिशाचिनी किसी को खाना नहीं देती!
मुंशीजी ने मंसाराम से कहा – खाना क्यों नहीं खा लेते जी? जानते हो क्या वक्त है?
मंसाराम स्तंभित-सा खड़ा था। उसके सामने एक ऐसा रहस्य हो रहा था, जिसका मर्म वह कुछ भी न समझ सकता था। जिन नेत्रों में एक क्षण पहले विनय के आंसू भरे हुए थे, उनमें अकस्मात् ईर्ष्या की ज्वाला कहां से आ गई? जिन अधरों से एक क्षण पहले सुधा-दृष्टि हो रही थी, उनमें विष का प्रवाह क्यों नहीं लगा? उसी अर्थ चेतना की दशा में बोला – मुझे भूख नहीं।
मुंशीजी ने पूछकर कहा – क्यों भूख नहीं है? भूख नहीं थी तो शाम को क्यों न कहला दिया? तुम्हारी भूख के इन्तजार में कौन सारी रात बैठा रहे? तुममें तो पहले यह आदत न थी। रूठना कब से सीख लिया? जाकर खा लो।
मंसाराम – जी नहीं, मुझे जरा भी भूख नहीं है।
तोताराम ने दाँत पीसकर कहा – अच्छी बात है, जब भूख लगे तब खाना। यह कहते हुए वह अन्दर चले गए। निर्मला भी उनके पीछे चली गई! मुंशी तो लेटने चले गए, उसने जाकर रसोई उठा दी और कुल्ला कर पान खा, मुस्कराती जा पहुँची। मुंशीजी ने पूछा – खाना खा लिया न?
निर्मला – क्या करती! किसी के लिए अन्न-जल छोड़ दूँगी?
मुंशीजी – इसे न जाने क्या हो गया है; कुछ समझ में नहीं आता, दिन-दिन घुलता जाता है; उसी कमरे में पड़ा रहता है।
निर्मला कुछ न बोली। वह चिन्ता के अपार सागर में डुबकियां खा रही थी। मंसाराम ने मेरे भाव-परिवर्तन को देखकर दिल में क्या समझा होगा? क्या उसके मन में यह प्रश्न उठा होगा कि पिताजी को देखते ही उसकी त्यौरियां क्यों बदल गईं? इसका कारण भी क्या उसकी समझ में आया होगा? बेचारा खाने आ रहा था, तब तक यह महाशय न जाने कहाँ से फट पड़े। इस रहस्य को उसे कैसे समझाऊँ? समझाना सम्भव भी है? मैं किस विपत्ति में फंस गई!
सवेरे वह उठकर घर के काम-धन्धे में लगी। सहसा नौ बजे भूंगी ने आकर कहा – मंसा बाबू तो अपना कागज-पत्तर सब इक्के पर लाद रहे हैं।
निर्मला ने हकबकाकर कहा – इक्के पर लाद रहे है! कहाँ जाते हैं?
भूंगी – मैंने पूछा तो बोले, अब स्कूल ही में रहूंगा।
मंसाराम प्रातःकाल उठकर अपने स्कूल के हेडमास्टर साहब के पास गया था और अपने रहने का प्रबन्ध कर आया था। हेडमास्टर साहब ने पहले तो कहा, यहाँ जगह नहीं है, तुमसे पहले के कितने लड़कों के प्रार्थना-पत्र पड़े हुए है; लेकिन जब मंसाराम ने कहा, मुझे जगह न मिलेगी, तो कदाचित् मेरा पढ़ना न हो सके और मैं इम्तहान में शरीक न हो सकूं तो हेडमास्टर को हार माननी पड़ी। मंसाराम के प्रथम श्रेणी में पास होने की आशा थी! अध्यापकों को विश्वास था कि वह उस शाला की कीर्ति को उज्ज्वल करेगा। हेडमास्टर साहब ऐसे लड़के को कैसे छोड़ सकते थे? उन्होंने अपने दफ्तर का कमरा उसके लिए खाली कर दिया, इसलिए मंसाराम वहाँ से आते ही अपना सामान इक्के पर लादने लगा।
मुंशीजी ने कहा – अभी ऐसी क्या जली है? दो-चार दिन में चले जाना। मैं चाहता हूं तुम्हारे लिए कोई अच्छा-सा रसोइया ठीक कर दूं।
मंसाराम – वहां रसोइया बहुत अच्छा भोजन पकाता है।
मुंशीजी ने कहा – अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना। ऐसा न हो कि पढ़ने के पीछे स्वास्थ्य खो बैठो।
मंसाराम – वहां नौ बजे के बाद कोई पढ़ नहीं पाता और सबको नियम के साथ खेलना पड़ता है।
मुंशीजी – बिस्तर क्यों छोड़ देते हो? सोओगे किस पर?
मंसा. – कम्बल लिए जाता हूं। बिस्तर की जरूरत नहीं।
मुंशीजी – कहार जब तक तुम्हारा सामान रख रहा है, जाकर कुछ खा लो। रात भी तो कुछ नहीं खाया था।
मंसा – वहीं खा लूंगा। रसोइए से भोजन बनाने को कह आया हूं। यहाँ खाने लगूंगा तो देर होगी।
घर में जियाराम और सियाराम भी भाई के साथ जाने की जिद कर रहे थे। निर्मला उन लोगों को बहला रही थी – बेटा! वहां छोटे लड़के नहीं रहते, सब काम अपने हाथ से करना पड़ता है…
एकाएक रुक्मिणी ने आकर कहा – तुम्हारा वज्र का हृदय है महारानी! लड़के ने रात भी कुछ न खाया, इस वक्त भी बिना खाए-पिए चला जा रहा है; और तुम लड़कों को लिये बातें कर रही हो। उसको तुम जानती हो। यह समझ लो कि वह स्कूल नहीं जा रहा है, बनवास ले रहा है; लौटकर न आएगा। वह उन लड़कों में नहीं है, जो खेल में मार भूल जाते हैं। बात उसके दिल पर पत्थर की लकीर हो जाती है!
निर्मला ने कातर स्वर में कहा – क्या करूँ दीदीजी? वह किसी की सुनते ही नहीं। आप जरा जाकर बुला लें। आपके बुलाने में आ जायेंगे।
रुक्मिणी – आखिर हुआ क्या, जिस पर भागा जाता है? घर से तो उसका जी कभी उचाट न होता था। उसको तो अपने घर के सिवा और कहीं अच्छा ही न लगता था। तुम्हीं ने उसे कुछ कहा होगा या उसकी कुछ शिकायत की होगी। क्यों अपने काँटे बो रही हो? रानी, घर को मिट्टी में मिलाकर चैन से बैठने पाओगी?
निर्मला ने रोकर कहा – मैंने उन्हें कुछ कहा हो, तो मेरी जबान कट जाये। हां, सौतेली माँ होने के कारण बदनाम तो हूँ। आपके हाथ जोड़ती हूं जरा जाकर उन्हें बुला लाइए।
रुक्मिणी ने तीव्र स्वर में कहा – तुम क्यों नहीं बुला लाती? क्या छोटी हो जाओगी? अपना होता तो क्या इसी तरह बैठी रहती?
निर्मला की दशा उस पंखहीन की तरह हो रही थी, जो सप्र को अपनी ओर आते देखकर उड़ना चाहता है, पर उड़ नहीं सकता, उछलता है और गिर पड़ता है, पंख फड़फड़ाकर रह जाता है। उसका हृदय अन्दर-ही-अन्दर तड़प रहा था, पर बाहर न जा सकती थी।
इतने में दोनों लड़के अन्दर आकर बोले – भैयाजी चले गए। निर्मला मूर्ति बन खड़ी रही, मानो संज्ञाहीन हो गई। चले गए। धर में आये तक नहीं, मुझसे मिले तक नहीं! चले गए? मुझसे इतनी घृणा! मैं उनकी कोई न सही; उनकी बुआ तो थी। उनसे तो मिलने आना चाहिए न? मैं यहाँ थी न! अन्दर कैसे कदम रखते। मैं देख लेती न! इसीलिए चले गए।
