तीन दिन गुजर गए और मुंशीजी घर न आए। रुक्मिणी दोनों वक्त जाती और मंसाराम को देख आती थी। दोनों लड़के भी जाते थे पर निर्मला कैसे जाती? उसके पैरों में तो बेड़ियां पड़ी हुई थी। वह मंसाराम की बीमारी का हाल-चाल जानने के लिए व्यग्र रहती थी। यदि रुक्मिणी से कुछ पूछती थी तो ताने मिलते थे और लड़की से पूछती तो बेसिर-पैर की बात करने लगते। एक बार खुद जाकर देखने के लिए उसका चित्त व्याकुल हो रहा था।
निर्मला नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1
उसे यह भय होता था कि सन्देह ने कहीं मुंशीजी के पुत्र-प्रेम को शिथिल न कर दिया हो, कहीं उनकी कृपणता ही तो मंसाराम के अच्छे होने में बाधक नहीं हो रही है! डॉक्टर किसी के सगे नहीं होते, उन्हें तो अपने पैसों से काम। मुर्दा दोजख में जाय या बहिश्त में।
उसके मन में प्रबल इच्छा होती थी कि जाकर अस्पताल के डॉक्टर को एक हजार की थैली देकर कहे – इन्हें बचा दीजिए; यह थैली आपको भेंट है; पर उसके पास न तो इतने रुपये ही थे, न इतना साहस ही था। अब भी यदि वह वहाँ पहुंच सकती, तो मंसाराम अच्छा हो जाता। उसकी जैसी सेवा-शुश्रूषा होनी चाहिए, वैसी नहीं हो रही है; नहीं क्या तीन दिन तक ज्वर ही न उतरता? यह दैहिक ज्वर नहीं, मानसिक ज्वर है और चित्त के शांत होने से ही इसका प्रकोप शांत हो सकता है। अगर वह वहाँ रात-भर बैठी रह सकती और मुंशीजी जरा भी मन मैला न कर सकते, तो कदाचित मंसाराम को विश्वास हो जाता कि पिताजी का दिल साफ है, और फिर अच्छे होने में देर न गलती; लेकिन ऐसा होगा? मुंशीजी उसे वहाँ देखकर प्रसन्न चित्त रह सकेंगे? क्या अब भी उनका दिल साफ नहीं हुआ? यहाँ से जाते समय तो ऐसा ज्ञात हुआ था कि वह प्रमाद पर पछता रहे हैं। ऐसा तो न होगा कि वहाँ जाते समय ही मुंशीजी का संदेह फिर भड़क उठे और वह बेटे की जान लेकर ही छोड़ें?
इसी दुविधा में पड़े-पड़े तीन दिन गुजर गए और न घर में चूल्हा जला, न किसी ने कुछ खाया। लड़कों के लिए बाजार से पूड़ियां ली जाती थीं, रुक्मिणी और निर्मला भूखी ही सो जाती थी। उन्हें भोजन की इच्छा ही न होती।
चौथे दिन जियाराम स्कूल से लौटा, तो अस्पताल होता हुआ घर आया। निर्मला ने पूछा – क्यों भैया, अस्पताल भी गये थे? आज क्या हाल हैं! तुम्हारे भैया उठे या नहीं?
जियाराम रुआँसा होकर बोला – अम्माजी, आज तो वह कुछ बोलते-चालते ही न थे। चुपचाप चारपाई पर पड़े जोर-जोर से हाथ पाँव पटक रहे थे।
निर्मला के चेहरे का रंग उड़ गया। घबराकर पूछा – तुम्हारे बाबूजी न थे?
जियाराम – डॉक्टर भी खड़े थे और आपस में कुछ सलाह कर रहे थे। सबसे बड़ा सिविल-सर्जन अंग्रेजी में कह रहा था कि मरीज की देह में कुछ ताजा खून डालना चाहिए। इस पर बाबूजी ने कहा, मेरी देह से जितना खून चाहे, ले लीजिए। सिविल-सर्जन ने हँसकर कहा – आपके खून से काम नहीं चलेगा; किसी जवान आदमी का खून चाहिए। आखिर उसने पिचकारी से कोई दवा भैया के बाबू में डाल दी। चार अंगुली से कम की सुई नहीं रही होगी; पर भैया मिनके तक नहीं। मैंने तो मारे डर के आँखें बन्द कर ली।
बड़े-बड़े महान् संकल्प आवेश में ही जन्म लेते हैं। कहीं तो निर्मला भय से सुखी जाती थी, कहाँ उसके मुंह पर दृढ़ संकल्प की आभा झलक पड़ी। उसने अपनी देह का ताजा खून देने का निश्चय कर लिया। अगर उसके रक्त से मंसाराम के प्राण बच जायें, तो वह बड़ी खुशी से उसकी अन्तिम बूंद तक दे डालेगी। अब जिसका जो जी चाहे समझे, वह कुछ परवाह न करेगी। उसने जियाराम से कहा – तुम लपककर एक एक्का बुला लाओ, मैं अस्पताल जाऊँगी।
जियाराम – वहाँ इस वक्त बहुत से आदमी होंगे। जरा रात हो जाने दीजिए।
निर्मला – नहीं, तुम अभी एक्का बुला लो।
जियाराम – कहीं बाबूजी बिगड़े न!
निर्मला – बिगड़ने दो। तुम अभी जाकर सवारी लाओ।
जियाराम – मैं कह दूंगा अम्माजी ही ने मुझसे सवारी मंगायी थी।
निर्मला – कह देना।
जियाराम उधर ताँगा लाने गया, इतनी देर में निर्मला ने सिर में कंघी की, जूड़ा बाँधा, कपड़े बदले, आभूषण पहने, पान खाया और द्वार पर आकर तांगे की राह देखने लगी।
रुक्मिणी अपने कमरे में बैठी हुई थी। उसे इस तैयारी से जाते देखकर बोली – कहाँ जाती हो बहू?
निर्मला – जरा अस्पताल तक जाती हूँ।
रुक्मिणी – वहां जाकर क्या करोगी?
निर्मला – कुछ नहीं, करूँगी क्या? करने वाले तो भगवान हैं। देखने को जी चाहता है।
रुक्मिणी – मैं कहती हूं मत जाओ।
निर्मला ने विनीत भाव से कहा – अभी चली जाऊँगी दीदीजी। जियाराम कह रहे हैं कि इस वक्त उनकी हालत अच्छी नहीं हैं। जी नहीं मानता, आप भी चलिए न?
रुक्मिणी – मैं देख आयी हूं। इतना समझ लो कि अब बाहरी खून पहुंचाने पर ही जीवन की आशा है। कौन अपना ताजा खून देगा, और क्यों देगा? उसमें भी तो प्राणों का भय है।
निर्मला – इसीलिए तो जाती हूं। मेरे खून से क्या काम न चलेगा?
रुक्मिणी – चलेगा क्यों नहीं, जवान ही का तो खून चाहिए, लेकिन तुम्हारे खून से मंसाराम की जान बचे, इससे यह कहीं अच्छा है कि उसे पानी में बहा दिया जाये!
तांगा आ गया। निर्मला और जियाराम दोनों जा बैठे। तांगा चला।
रुक्मिणी द्वार पर खड़ी देर तक रोती रही। आज पहली बार उसे निर्मला पर दया आयी। उसका बस होता, तो वह निर्मला को बाँधे रखती। करुणा और सहानुभूति का आवेश उसे कहां लिए जाता है, यह अप्रकट रूप से देख रही थी। आह! यह दुर्भाग्य की प्रेरणा है। सर्वनाश का मार्ग है।
निर्मला अस्पताल पहुंची, तो दीपक जल चुके थे। डॉक्टर लोग अपनी राय देकर विदा हो चुके थे। मंसाराम का ज्वर कुछ कम हो गया था। वह टकटकी लगाए हुए द्वार की ओर देख रहा था। उसकी दृष्टि उन्मुक्त आकाश की ओर लगी हुई थी, मानो किसी देवता की प्रतीक्षा कर रहा हो! वह कहां है, उसका उसे ज्ञान न था।
सहसा निर्मला को देखते ही वह चौंककर उठ बैठा। उसकी समाधि टूट गई। उसकी विलुप्त चेतना प्रदीप्त हो गई। उसे अपनी स्थिति का, अपनी दशा का ज्ञान हो गया, मानो कोई भूली हुई बात याद आ गई हो। उसने आँखें फाड़कर निर्मला को देखा और मुँह फेर लिया।
एकाएक मुंशीजी तीव्र स्वर में बोले – तुम यहाँ क्या करने आयीं?
निर्मला अवाक रह गई। वह बतलाए कि क्या करने आयी? इतने सीधे से प्रश्न का भी वह क्या कोई जवाब दे सकी? वह क्या करने आयी थी? इतना जटिल प्रश्न किसके सामने आया होगा? घर का आदमी बीमार है, उसे देखने आयी है, यह बात क्या बिना पूछे मालूम न हो सकती थी? फिर यह प्रश्न क्यों?
वह हतबुद्धि-सी खड़ी रही, मानों संज्ञाहीन हो गई हो। उसने दोनों लड़कों से शोक और संताप की बातें सुनकर यह अनुभव किया था कि अब उनका दिल साफ हो गया है। आँसुओं की दृष्टि ने ही सन्देह की अग्नि शांत नहीं की, तो वह कदापि न आती। वह कुढ़कुढ़कर मर जाती, पर घर से पाँव न निकालती।
मुंशीजी ने फिर वही प्रश्न किया – तुम यहाँ क्यों आयी?
निर्मला ने निःशंक भाव से उत्तर दिया – आप यहाँ क्या करने आये हैं?
मुंशीजी के नथुने फड़कने लगे। वह झल्लाकर चारपाई से उठे और निर्मला का हाथ पकड़कर बोले – तुम्हारे यहाँ आने की कोई जरूरत नहीं। जब मैं बुलाऊँ तब आना, समझ गई। अरे! यह क्या अनर्थ हुआ! मंसाराम जो चारपाई से हिल न सकता था, उठकर खड़ा हो गया और निर्मला के पैरों पर गिरकर रोते हुए बोला – अम्माजी, इस अभागे के लिए आपको व्यर्थ इतना कष्ट हुआ। मैं आपका स्नेह कभी न भूलंगा। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि मेरा पुनर्जन्म आपके गर्भ से हो, जिससे मैं आपके ऋण से उऋण हो सकूं। ईश्वर जानता है, मैंने आपको विमाता नहीं समझा। मैं आपको अपनी माता समझता रहा। आपकी उम्र मुझसे बहुत ज्यादा न हो, लेकिन आप मेरी माता के स्थान पर थीं और मैंने आपको सदैव उसी दृष्टि से देखा… अब नहीं बोला जाता अम्माजी क्षमा कीजिए! यह अंतिम भेंट है।
निर्मला ने अश्रुप्रवाह को रोकते हुए कहा – तुम ऐसी बातें क्यों करते हो? दो-चार दिन में अच्छे हो जाओगे।
मंसाराम ने क्षीण स्वर से कहा – अब जीने की इच्छा नहीं और न बोलने की शक्ति ही है।
यह कहते-कहते मंसाराम अशक्त होकर जमीन पर लेट गया। निर्मला ने पति की ओर निर्भय नेत्रों से देखते हुए कहा – डॉक्टरों ने क्या सलाह दी?
मुंशीजी – सबके सब भंग खा गए हैं, कहते हैं ताजा खून चाहिए।
निर्मला – ताजा खून मिल जाये, तो प्राणरक्षा हो सकती है?
मुंशीजी ने निर्मला की ओर तीव्र नेत्रों से देखकर कहा – मैं ईश्वर नहीं हूं और न डॉक्टर ही को ईश्वर समझता हूं।
निर्मला – ताजा खून मिल जाये, तो प्राणरक्षा हो सकती है?
मुंशीजी – आकाश के तारे भी तो अलभ्य नहीं। मुंह के सामने खन्दक क्या चीज है?
निर्मला – मैं अपना खून देने को तैयार हूं। डॉक्टर को बुलाएं।
मुंशीजी ने विस्मित होकर कहा – तुम?
निर्मला – हां! क्या मेरे खून से काम न चलेगा?
मुंशीजी – तुम अपना खून दोगी? नहीं, तुम्हारे खून की जरूरत नहीं, इसमें प्राणों का भय है।
निर्मला – मेरे प्राण और किस दिन काम आएंगे?
मुंशीजी ने सजल नेत्र होकर कहा – नहीं निर्मला, उसका मूल्य अब मेरी निगाहों में बहुत बढ़ गया है। आज तक वह मेरे भोग की वस्तु थी; आज से वह भक्ति की वस्तु है। मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया है, क्षमा करो।
