निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग - 8

उस दिन से निर्मला का रंग-ढंग बदलने लगा। उसने अपने को कर्त्तव्य पर मिटा देने का निश्चय कर लिया। अब तक नैराश्य के संताप में उसने कर्त्तव्य पर भान ही नहीं दिया था। उसके हृदय में विप्लव की ज्वाला-सी दहकती रहती थी, जिसकी असह्य वेदना ने उसे संज्ञाहीन-सा कर रखा था।

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अब उस वेदना का वेग शांत होने लगा। उसे ज्ञात हुआ कि मेरे जीवन में कोई आनंद नहीं। उसका स्वप्न देखकर क्यों इस जीवन को नष्ट करूँ? संसार के सब-के-सब प्राणी सुख-सेज पर ही तो नहीं सोते। मैं भी उन्हीं अभागों में हूं? मुझे भी विधाता ने दुःख की गठरी ढोने के लिए चुना है। वह बोझ सिर से उतर नहीं सकता। उसे फेंकना भी चाहूं तो नहीं फेंक सकती। उस कठिन भार से चाहे आँखों में अँधेरा छा जाये, चाहे गर्दन टूटने लगे, चाहे पैर उठना दुश्वार हो जाये, लेकिन गठरी होनी पड़ेगी। उम्र भर का कैदी कहां तक रोएगा? रोए भी तो कौन देखता है? किसे उस पर दया आती है? रोने से काम में हर्ज होने के कारण उसे और यातनाएँ ही तो सहनी पड़ती हैं।

दूसरे दिन वकील साहब कचहरी से आये तो देखा, निर्मला की सहास्य मूर्ति अपने कमरे के द्वार पर खड़ी है। यह अनिद्य छवि देखकर उनकी आँखें तृप्त हो गईं। आज बहुत दिनों के बाद उन्हें यह कमल खिला दिखाई दिया। कमरे में एक बड़ा-सा आईना दीवार से लटका हुआ था। आज उसका परदा उठा हुआ था। वकील साहब ने कदम रखा, तो शीशे पर निगाह पड़ी। अपनी सूरत साथ-साथ दिखाई दी। उनके हृदय में चोट-सी लग गई। दिन-भर के परिश्रम से मुख की कांति मलिन हो गई थी। भांति-भांति के पौष्टिक पदार्थ खाने पर भी गालों की झुर्रियाँ साफ दिखाई दे रही थीं। तोंद कसी होने पर भी किसी मुंहजोर घोड़े की भांति बाहर निकली हुई थी। दोनों सूरतों में कितना अन्तर था! एक रत्न जटित विशाल भवन था, दूसरा टूटा-फूटा खंडहर। वह उस आईने की ओर और न देख सके। अपनी वह हीनावस्था उनके लिए असह्य थी। वह आईने के सामने से हट गए, उन्हें अपनी ही सूरत से घृणा होने लगी। फिर इस रूपवती कामिनी का उनसे घृणा करना कोई आश्चर्य की बात न थी। निर्मला की ओर ताकने का भी उन्हें साहस न हुआ। उसकी यह अनुपम छवि उनके हृदय का शूल बन गई।

निर्मला ने कहा – आज इतनी देर कहां लगायी? दिन भर राह देखते-देखते आँखें फूट जाती हैं।

तोताराम ने खिड़की की ओर ताकते हुए जवाब दिया – मुकदमें के मारे दम मारने की छुट्टी नहीं मिलती। अभी एक मुकदमा और था लेकिन मैं सिर दर्द का बहाना करके भाग खड़ा हुआ।

निर्मला – तो क्यों इतने मुकदमे लेते हो? काम उतना ही करना चाहिए, जितना आराम से हो सके। प्राण देकर थोड़े ही काम किया जाता है। मत लिया करो मुकदमे मुझे रुपयों की लालच नहीं। तुम आराम से रहोगे, तो रुपये बहुत मिलेंगे।

तोताराम – भई, आती हुई लक्ष्मी तो नहीं ठुकराई जाती।

निर्मला – लक्ष्मी अगर रक्त और मांस की भेंट लेकर आती है तो उसका न आना ही अच्छा है। मैं धन की भूखी नहीं हूँ।

इसी वक्त मंसाराम भी स्कूल से लौटा। धूप में चलने के कारण मुख पर पसीने की बूंदें आयी हुई थीं, गोरे मुखड़े पर खून की लाली दौड़ रही थी। आँखों से ज्योति-सी निकलती मालूम होती थी। द्वार पर खड़ा होकर बोला – अम्माजी, लाइए, कुछ खाने को निकालिए, जरा खेलने जाना है।

निर्मला जाकर गिलास में पानी लायी और एक तश्तरी में कुछ मेवे रखकर मंसाराम को दिये। मंसाराम जब खाकर चलने लगा, तो निर्मला ने पूछा – कब तक आओगे?

मंसाराम – कह नहीं सकता, गोरों के साथ हॉकी का मैच है। पारक यहां से बहुत दूर है।

निर्मला – भई, जल्द आना। खाना ठण्डा हो जायेगा तो कहोगे, मुझे भूख नहीं है।

मंसाराम ने निर्मला की ओर सरल स्नेह-भाव से देखकर कहा – मुझे देर हो जाए तो समझ लीजिएगा, वही खा रहा हूँ। मेरे लिए बैठने की जरूरत नहीं।

वह चला गया, तो निर्मला बोली – पहले तो घर में आते ही न थे, मुझसे बोलते शर्माते थे। किसी चीज की जरूरत होती, तो बाहर ही से मँगवा भेजते। जब से मैंने बुलाकर कहा, तब से आने लगे।

तोताराम ने कुछ चिढ़कर कहा – यह तुम्हारे पास खाने-पीने की चीजें क्यों माँगने आता है? दीदी से क्यों नहीं कहता?

निर्मला ने यह बात प्रशंसा पाने के लोभ से कही थी। वह यह दिखाना चाहती थी कि मैं तुम्हारे लड़कों को कितना चाहती हूँ। यह कोई बनावटी प्रेम न था। उसे लड़कों से सचमुच स्नेह था। उसके चरित्र में अभी तक बाल-भाव ही प्रधान था और बालकों के साथ उसकी ये बाल-वृत्तियां प्रस्फुटित होती थी। पत्नी-सुलभ ईर्ष्या अभी तक उसके मन में उदय नहीं हुई थी; लेकिन पति के प्रसन्न होने के बदले नाक-भौं सिकोड़ने का आशय न समझकर बोली – मैं क्या जानूं, उनसे क्यों नहीं माँगते। मेरे पास आते हैं, तो दुत्कार नहीं देती। अगर ऐसा करूँ, तो यही होगा कि यह तो लड़कों को देखकर जलती है।

मुंशीजी ने इसका कुछ जवाब नहीं दिया, लेकिन आज उन्होंने मुवक्किलों से बातें नहीं की। मंसाराम के पास गये और उसका इम्तहान लेने लगे। यह जीवन में पहला ही अवसर था, जबकि उन्होंने मंसाराम या और किसी लड़के की शिक्षोन्नति के विषय में इतनी दिलचस्पी दिखलायी हो। उन्हें अपने काम से सिर उठाने की फुरसत ही न मिलती थी। उन्हें उन विषयों को पढ़े हुए चालीस वर्ष के लगभग हो गए थे। तब से उनकी ओर आँख तक न उठायी थी। वह कानूनी पुस्तक और पत्रों के सिवा और कुछ पढ़ते ही न थे। इसका समय ही न मिलता। पर आज उन्हीं विषयों में वह मंसाराम की परीक्षा लेने लगे। मंसाराम जहीन था और इसके साथ मेहनती था। खेल में भी टीम का कैप्टन होने पर भी वह क्लास में प्रथम रहता था। जिस पाठ को एक बार देख लेता, पत्थर की लकीर हो जाती थी। मुंशीजी को उतावली में ऐसे मार्मिक प्रश्न तो सूझे नहीं, जिनके उत्तर देने में चतुर लड़के को भी कुछ सोचना पड़ता और ऊपरी प्रश्नों को मंसाराम ने चुटकियों में उड़ा दिया।

कोई सिपाही अपने शत्रु पर वार खाली जाते देख, जैसे झल्ला-झल्लाकर और भी तेजी से वार करता है; उसी भांति मंसाराम के जवाबों को सुन-सुनकर वकील साहब भी झल्लाते थे। वह कोई ऐसा प्रश्न करना चाहते थे, जिसका जवाब मंसाराम से न बन पड़े। देखना चाहते थे कि इसका कमजोर पहलू कहीं है। यह देख अब उन्हें सन्तोष न हो सकता था कि वह क्या करता है। वह यह देखना चाहते थे कि वह क्या नहीं कर सकता। कोई अभ्यस्त परीक्षक मंसाराम की कमजोरियों को आसानी से दिखा देता। पर वकील साहब अपनी आधी शताब्दी की भूली हुई शिक्षा के आधार पर उतने सफल कैसे होते अंत में उन्हें जब गुस्सा उतारने के लिए कोई बहाना न मिला, तो बोले – मैं देखता हूँ तुम सारे दिन मटरगश्ती किया करते हो। मैं तुम्हारे चरित्र को तुम्हारी बुद्धि से बढ़कर समझता हूँ और तुम्हारा यों आवारा घूमना मुझे गवारा नहीं हो सकता।

मंसाराम ने निर्भीकता से कहा – मैं शाम को एक घंटा खेलने के लिए जाने के सिवा दिन-भर कहीं नहीं जाता। आप अम्मा या बुआजी से पूछ ले। मुझे खुद इस तरह घूमना पसंद नहीं। हां, खेलने के लिए हेडमास्टर साहब आग्रह करके बुलाते हैं मजबूरन जाना पड़ता है। अगर आपको मेरा खेलने जाना पसन्द नहीं है, तो कल से न जाऊँगा।

मुंशीजी ने देखा कि बातें दूसरे ही रूख पर जा रही है, तो तीव्र स्वर से बोले – मुझे इस बात का इत्मिनान क्योंकर हो कि खेलने के सिवा कहीं नहीं घूमने जाते? मैं बराबर शिकायत सुनता हूं।

मंसाराम ने उत्तेजित होकर कहा – किन महाशय ने आपसे यह शिकायत की है, जरा मैं भी सुनूँ।

वकील – कोई हो, इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं, तुम्हें इतना विश्वास होना चाहिए कि मैं झूठा आक्षेप नहीं करता।

मंसाराम – अगर मेरे सामने आकर कोई कह दे कि मैंने इन्हें घूमने देखा है, तो मुंह न दिखाऊँ।

वकील – किसी को ऐसी क्या गरज पड़ी है कि तुम्हारे मुँह पर तुम्हारी शिकायत करे और तुमसे बैर मोल ले और तुम अपने दो-चार साथियों को लेकर उनके घर की खपरैल फोड़ते फिरो। मुझसे इस किस्म की शिकायत एक आदमी ने नहीं, कई आदमियों ने की है और कोई वजह नहीं है कि मैं अपने दोस्तों की बात का विश्वास न करूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम स्कूल ही में रहा करो।

मंसाराम ने मुँह गिराकर कहा – मुझे वहाँ रहना अच्छा नहीं लगता? ऐसा मालूम होता है, मानों वहाँ के भय से तुम्हारी नानी मरी जा रही है। आखिर बात क्या है, बही तुम्हें क्या तकलीफ होगी??

मंसाराम छात्रालय में रहने के लिए इच्छुक नहीं था; लेकिन जब मुंशीजी ने यही बात कह दी और इसका कारण पूछा, तो वह अपनी झेंप मिटाने के लिए प्रसन्नचित होकर बोला – मुँह क्यों लटकाऊँ? मेरे लिए जैसे घर वैसे बोर्डिंग-हाउस। तकलीफ भी कोई नहीं, और हो भी तो उसे सह सकता हूं। मैं कल से चला जाऊँगा। हां, अगर जगह खाली न हुई, तो मजबूरी है।

तोताराम वकील थे। समझ गए कि यह लौंडा कोई बहाना ढूँढ़ रहा है, जिसमें वहाँ जाना भी न पड़े और कोई इल्जाम भी सिर पर न आए। बोले – सब लड़कों के लिए जगह है, तुम्हारे लिए जगह न होगी?

मंसाराम – कितने ही लड़कों को जगह नहीं मिली और बहुत से बाहर किराये के मकानों में पड़े हुए है। अभी बोर्डिंग-हाउस से एक लड़के का नाम कट गया था, तो पचास अर्जियों उस जगह के लिए आयी थीं।

वकील साहब ने ज्यादा तर्क-वितर्क करना उचित न समझा। मंसाराम को कल तैयार रहने की आज्ञा देकर अपनी बग्घी तैयार करायी और सैर करने चले गए। इधर कुछ दिनों से वह शाम को प्राय: सैर करने चले जाया करते थे। किसी अनुभवी प्राणी ने बतलाया था कि दीर्घ जीवन के लिए इससे बढ़कर कोई मंत्र नहीं है। उनके जाने के बाद मंसाराम आकर रुक्मिणी से बोला – बुआजी, बाबूजी ने मुझे कल से स्कूल ही में रहने को कहा है।

रुक्मिणी ने विस्मित होकर पूछा – क्यों?

मंसाराम – मैं क्या जानूँ? कहने लगे कि तुम यहाँ आवारों की तरह इधर-उधर फिरा करते हो।

रुक्मिणी – तूने कहा नहीं कि मैं कहीं नहीं जाता?

मंसाराम – कहा क्यों नहीं, मगर जब वह माने भी।

रुक्मिणी – तुम्हारी नई अम्माजी की कृपा होगी, और क्या?

मंसाराम – नहीं बुआजी, मुझे उन पर संदेह नहीं है। वह बेचारी तो भूल से भी कभी कहती। कोई चीज मांगने जाता हूँ तो तुरंत उठकर देती हैं।

रुक्मिणी – तू यह त्रिया-चरित्र क्या जाने! यह उन्हीं की लगायी हुई आग है। देख, मैं जाकर पूछती हूँ।

रुक्मिणी झल्लायी हुई निर्मला के पास जा पहुँची। उसे आड़े हाथों लेने का, कांटों में घसीटने का, रुलाने का सुअवसर वह हाथ से न जाने देती थी। निर्मला उनका आदर करती थी। उनसे दबती थी, उनकी बातों का जवाब तक न देती थी। वह चाहती थी कि वह मुझे सिखावन की बातें कहें; जहाँ मैं भूलूं, वहां सुधारें; वह कामों की देख-रेख करती रहें। पर रुक्मिणी उससे तनी ही रहती थी।

निर्मला चारपाई से उठकर बोली – आइए, दीदी, बैठिए।

रुक्मिणी ने खड़े-खड़े कहा – मैं पूछती हूँ क्या तुम सबको घर से निकाल कर अकेली ही रहना चाहती हो?

निर्मला ने कातर भाव से कहा – क्या हुआ दीदीजी? मैंने तो किसी से कुछ नहीं कहा।

रुक्मिणी – मंसाराम को घर से निकाले देती हो, तिस पर कहती हो, मैंने तो कुछ नहीं कहा! क्या तुमसे इतना भी नहीं देखा जाता?

निर्मला – दीदीजी, तुम्हारे चरणों को छूकर कहती हूं, मुझे कुछ नहीं मालूम। मेरी आँखें फूट जाये, अगर मैंने उसके विषय में मुँह तक खोला हो।

रुक्मिणी – क्यों व्यर्थ कसमें खाती हो? अब तक तोताराम कभी लड़के से नहीं बोलते थे। एक हफ्ते के लिए मंसाराम ननिहाल चला गया था, तो इतना घबराए कि खुद जाकर लिया लाए। अब उसी मंसाराम को घर से निकाल कर स्कूल में रखे देते हैं। अगर लड़के का बाल भी बाँका हुआ, तो तुम जानोगी। वह कभी बाहर नहीं रहा। उसे खाने की सुध रहती है, न पहनने की। जहाँ बैठा, वहीं सो जाता है। कहने को तो जवान हो गया, पर स्वभाव बालकों-सा है। स्कूल में तो उसका मरन हो जायेगा। वहाँ किसे फिक्र है कि उसने खाया या नहीं, कहीं कपड़े उतारे कहीं सो रहा। जब घर में कोई पूछने वाला नहीं, तो बाहर कौन पूछेगा? मैंने तुम्हें चेता दिया, आगे तुम जानो, तुम्हारा काम जाने।

यह कहकर रुक्मिणी वहाँ से चली गई।

वकील साहब सैर करके लौटे तो निर्मला ने तुरन्त यह विषय छेड़ दिया। मंसाराम से वह आजकल थोड़ी देर अंग्रेजी पढ़ती थी। उसके चले जाने पर फिर उसके पढ़ने का हरज न होगा? दूसरा कौन पढ़ाएगा? वकील साहब को अब तक यह बात मासूम न थी। निर्मला ने सोचा था कि जब कुछ अभ्यास हो जायेगा, तो वकील साहब को एक दिन अंग्रेजी में बातें करके चकित कर दूंगी। कुछ थोड़ा सा ज्ञान तो उसे छाती पर साँप लोट गया था। अब वह नियमित रूप से पढ़ा रहा हैं तुम्हें? मुझसे तुमने कभी नहीं कहा।

निर्मला ने उनका यह रूप केवल एक बार देखा था, जब उन्होंने सियाराम को मारते-मारते बेदम कर दिया था। वही रूप और भी विकराल बनकर आज उसे फिर दिखाई दिया। सहमति हुई बोली – उनके पढ़ने में तो इससे कोई हरज नहीं होता। मैं उसी वक्त उनसे पढ़ती हूँ, जब उन्हें फुरसत रहती है। पूछ लेती हूं कि तुम्हारा हरज हो तो जाओ। बहुधा जब वह खेलने जाने लगते हैं, तो दस मिनट के लिए रोक लेती हूं। मैं खुद चाहती हूं कि उनका नुकसान न हो।