निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग -11

उस दिन अपने प्रगाढ़ प्रणय का सबल प्रमाण देने के बाद मुंशी तोताराम को आशा हुई थी कि निर्मला के मर्मस्थल पर मेरा सिक्का जम जायेगा, लेकिन उनकी यह आशा लेशमात्र भी पूरी न हुई, बल्कि पहले तो वह कभी-कभी उनसे हँसकर बोला भी करती थी, अब बच्चों के ही के लालन-पालन में व्यस्त रहने लगी। जब घर आते तो बच्चों को उसके पास बैठे पाते। कभी देखते कि उन्हें लिखा रही है, कभी कपड़े पहना रही है।

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कभी कोई खेल खेल रही है और कभी कोई कहानी कह रही है। निर्मला का तृषित हृदय प्रणय की ओर से निराश होकर इस अवलम्ब ही को गनीमत समझने लगा। तोताराम के साथ हँसने-बोलने में उसे जो संकोच, अरुचि तथा जो अनिच्छा होती थी, यहाँ तक कि वह उठकर भाग जाना चाहती; उसके बदले बालकों के सच्चे, सरल स्नेह से चित्त प्रसन्न हो जाता था। पहले मंसाराम उसके पास आते हुए झिझकता था, लेकिन अब वह भी कभी-कभी आ बैठता। वह निर्मला का हमसिन था, लेकिन मानसिक विकास में पाँच साल छोटा। हॉकी और फुटबाल ही उसका संसार, उसकी कल्पनाओं का मुक्त क्षेत्र तथा उसकी कामनाओं का हरा-भरा बाग था। इकहरे बदन का छरहरा, सुन्दर, हँसमुख, लज्जाशील बालक था, जिसका घर से केवल भोजन का नाता था, बाकी सारे दिन न जाने कहीं घूमा करता। निर्मला उसके मुँह से खेल की बातें सुनकर थोड़ी देर के लिए अपनी चिन्ताओं को भूल जाती और चाहती कि एक बार फिर वही दिन आ जाते, जब गुड़िया खेलती और उनके ब्याह रचाया करती थी, और जिसे अभी छोड़े, बहुत ही थोड़े दिन गुजरे थे।

मुंशी तोताराम अन्य एकान्तसेवी मनुष्यों की भांति विषयी जीव था। कुछ दिनों तो वह निर्मला को सैर-तमाशे दिखाते रहे। लेकिन जब देखा कि इसका कुछ फल नहीं होता, तो फिर एकान्त-सेवन करने लगे। दिनभर के कठिन मानसिक परिश्रम के बाद उनका वित्त आमोद-प्रमोद के लिए लालायित हो जाता, लेकिन जब अपनी विनोद-वाटिका में प्रवेश करते और फूलों को मुरझाया, पौधों को सूखा और क्यारियों में धूल उड़ती हुई देखते, तो उनका जी चाहता, क्यों न इस वाटिका को उजाड़ दूँ? निर्मला उनसे विरक्त रहती है, इसका रहस्य उनकी समझ में न आता था। दम्पति-शास्त्र के सारे मंत्रों की परीक्षा कर चुके थे; पर मनोरथ पूरा न हुआ। अब क्या करना चाहिए, यह उनकी समझ में न आता था।

एक दिन वह इसी चिन्ता में बैठे हुए थे कि उनके सहपाठी मित्र नयनसुखराम आकर बैठ गए और सलाम-वलाम के बाद मुस्कुराकर बोले – आजकल तो खूब गहरी छनती होगी। नई बीवी का आलिंगन करके जवानी का मजा आ जाता होगा। बड़े भाग्यवान हो! भाई, रूठी हुई जवानी को मनाने का इससे अच्छा कोई उपाय नहीं कि नया विवाह हो जाये। यहाँ तो जिन्दगी बवाल हो रही है। पत्नीजी इस बुरी तरह चिमटी हैं कि किसी तरह पिंड ही नहीं छोड़ती। मैं तो दूसरी शादी की फिक्र में हूँ। कहीं डौल हो तो ठीक-ठाक करा दो। दस्तूरी में एक दिन तुम्हें उसके हाथ के बने हुए पान खिला देंगे।

तोताराम ने गंभीर भाव से कहा – कहीं ऐसी हिमाकत न कर बैठना, नहीं तो पछताओगे। लौंडियाँ कुछ लौंडों से ही खुश रहती हैं। हम तुम अब उस काम के नहीं रहे। सच कहता हूँ मैं शादी करके पछता रहा हूँ। बुरी बला गले पड़ी। सोचा था, दो-चार साल और जिन्दगी का मजा उठा लूं पर उल्टी आंतें गले पड़ी।

नयन. – तुम क्या बातें करते हो। लौंडियों को पंजों में लाना क्या मुश्किल बात है! जरा सैर-तमाशे दिखा दो, उनके रंग-रूप की तारीफ कर दो, बस, रंग जम गया।

अच्छा! कुछ इत्र-तेल, फूल-पत्ते, चाट-वाट का भी मजा चखाया?

तोता. – अजी, यह सब कर चुका। दम्पति-शास्त्र के सारे मंत्रों का इम्तहान ले चुका, सब कोरी गप्पें हैं।

नयन. – अच्छा, तो अब मेरी एक सलाह मानो। जरा अपनी सूरत बनवा लो। आजकल यहाँ एक बिजली के डॉक्टर आये हुए हैं, जो बुढ़ापे के सारे निशान मिटा देते हैं। क्या मजाल कि चेहरे पर एक झुर्री या सिर का कोई बाल पका रह जाये। न जाने ऐसा क्या जादू कर देते हैं कि आदमी का चोला ही बदल जाता है।

तोता. – फीस क्या लेते हैं?

नयन. – फीस तो सुना है, ज्यादा लेते हैं, शायद पाँच सौ रुपये।

तोता. – अजी, कोई पाखंडी होगा, बेवकूफों को लूट रहा होगा। कोई रोगन लगाकर दो-चार दिन के लिए जरा चेहरा चिकना कर देता होगा। इश्तहारी डाक्टरों पर तो अपना विश्वास ही नहीं। दस-पाँच की बात हो तो कहता, जरा दिल्लगी ही सही। 500 रु. बड़ी रकम है।

नयन. – तुम्हारे लिए 500 रु. कौन बड़ी बात है। एक महीने की आमदनी है। मेरे पास तो भाई 500 रु. होते, तो सबसे पहला काम यही करता। जवानी की एक घंटे की कीमत 500 रु. से कहीं ज्यादा है।

तोता. – अजी, कोई सस्ता नुस्खा बताओ, कोई फकीरी जड़ी-बूटी जो कि बिना हर फिटकरी के रंग चोखा हो जाए। बिजली और रेडियम बड़े आदमियों के लिए रहने दो। उन्हीं को मुबारक हो।

नयन. – तो फिर रंगीलेपन का स्वांग रचें। यह ढीलाढाला कोट फेंकी; तंजब की चुस्त अचकन हो, चुन्नटदार पजामा, गले में सोने की जंजीर पड़ी हुई, सिर पर जयपुरी साफा बँधा हुआ, आंखों में सुरमा और बालों में हिना का तेल पड़ा हुआ। तोंद का पिचकना भी जरूरी है। दोहरा कमरबन्द बांधे। जरा तकलीफ होगी, पर अचकन सज उठेगी। खिजाब मैं लगा दूंगा। सौ-पचास गजलें याद कर लो। मौके-मौके से शेर पढ़ो। बातों में रस भरा हो, ऐसा मालूम हो कि तुम्हें दीन और दुनिया की कोई फिक्र नहीं है। बस जो कुछ है प्रियतमा ही है। जवांमर्दी और साहस का काम करने का मौका ढूंढ़ते रहो। रात को झूठ-मूठ शोर करो – चोर-चोर और तलवार लेकर अकेले पिल पड़ो। हां, जरा मौका देख लेना, ऐसा न हो कि सचमुच कोई चोर आ जाये और तुम उसके पीछे दौड़ो, नहीं तो सारी कलई खुल जायेगी और मुफ्त में उल्लू बनोगे। उस वक्त तो जवांमर्दी इसी में है कि दम साधे पड़े रहो, जिससे वह समझे कि तुम्हें खबर ही नहीं हुई। लेकिन ज्यों ही चोर भाग खड़ा हो, तुम भी उछलकर बाहर निकलो और तलवार लेकर ‘कहां? कहां? करके दौड़ो। ज्यादा नहीं, एक महीने मेरी बातों का इम्तहान करके देखो। अगर तुम्हारा दम न भरने लगे तो जो जुर्माना कहो, वह दूं।

तोताराम ने उस वक्त तो यह बात हंसी में उड़ा दी, जैसा कि एक व्यवहार-कुशल मनुष्य को करना चाहिए था, लेकिन इनमें की कुछ बातें उनके मन में बैठ गई। उनका असर पड़ने में कोई सन्देह न था। धीरे-धीरे रंग बदलने लगे, जिससे लोग खटक न जाये। पहले बालों से शुरू किया, फिर सुरमे की बारी आई, यहाँ तक कि एक-दो महीने में उनका कलेवर ही बदल गया। गजलें याद करने का प्रस्ताव तो हास्यास्पद था, लेकिन वीरता की डींग मारने में कोई हानि न थी।

उस दिन से वह रोज अपनी जवांमर्दी का कोई-न-कोई प्रसंग अवश्य छेड़ देते। निर्मला को सन्देह होने लगा कि कहीं इन्हें उन्माद का रोग तो नहीं हो रहा है। जो आदमी मूंग की दाल और मोटे आटे के फुलके खाकर भी नमक सुलेमानी का मोहताज हो, उसके छैलपन पर उन्माद का सन्देह हो, तो आश्चर्य ही क्या? निर्मला पर इस पागलपन का और तो क्या रंग जमता, हां, उसे उन पर दया आने लगी। क्रोध और घृणा का भाव जाता रहा। क्रोध और घृणा उस पर होती है, जो अपने होश में हो। पागल आदमी तो दया ही का पात्र है। वह बात-बात में उनकी चुटकियां लेती, उनका मजाक उड़ाती, जैसे लोग पागलों के साथ किया करते हैं। हां, इसका ध्यान रखती थी कि वह समझ न जायें। वह सोचती, बेचारा अपने पाप का प्रायश्चित कर रहा है। यह सारा स्वांग केवल इसीलिए तो है कि मैं अपना दुख भूल जाऊं। आखिर अब भाग्य तो बदल सकता नहीं, इस बेचारे को क्यों जलाऊँ?

एक दिन रात को नौ बजे तोताराम बांके बने हुए सैर करके लौटे और निर्मला से बोले – आज तीन चोरों से सामना हो गया। मैं जरा शिवपुर की तरफ चला गया था। अंधेरा था ही। ज्यों ही रेल की सड़क के पास पहुंचा, तो तीन आदमी तलवार लिये हुए न जाने किधर से निकल पड़े। यकीन मानों, तीनों काले देव थे! मैं बिल्कुल अकेला हाथ में सिर्फ यह छड़ी थी। उधर तीनों तलवार बाँधे हुए, होश उड़ गए। उलझ गया कि जिन्दगी का यही तक साथ था; मगर मैंने सोचा, मरता ही हूं तो वीरों की मौत क्यों न मरूँ। इतने में एक आदमी ने ललकारकर कहा – रख दे, पास जो कुछ हो और चुपके से चला जा।

मैं छड़ी संभालकर खड़ा हो गया और बोला – मेरे पास सिर्फ यही छड़ी है, और इसका मूल्य एक आदमी का सिर है।

मेरे मुँह से इतना निकलना था कि तीनों तलवार खींचकर मुझ पर झपट पड़े और मैं उनके वारों को छड़ी पर रोकने लगा। तीनों झल्ला-झल्लाकर वार करते थे, खटाके की आवाज होती थी और मैं बिजली की तरह झपटकर उनके वारों को काट देता था। कोई दस मिनट तक तीनों ने खूब तलवार का जौहर दिखाया, पर मुझ पर रेफ तक न आयी। मजबूरी यही थी कि मेरे हाथ में तलवार न थी। यदि कहीं तलवार होती तो एक को जीता न छोड़ता। खैर, कहाँ तक बयान करूँ, उस वक्त मेरे हाथों की सफाई देखने काबिल थी। मुझे खुद आश्चर्य हो रहा था कि यह चपलता मुझमें कहाँ से आ गई। जब तीनों ने देखा कि यहाँ दाल नहीं गलने की, तो तलवार म्यान में रख ली और पीठ ठोंककर बोले – जवान, तुम-सा और वीर आज तक नहीं देखा। हम तीनों सौ पर भारी हैं, गाँव के गाँव डोल कर बजाकर लूटते हैं, पर आज तुमने हमें नीचा दिखा दिया। हम तुम्हारा लोहा मान गए। कहकर तीनों फिर नजरों से गायब हो गए।

निर्मला ने गंभीर भाव से मुस्कुराकर कहा – इस छड़ी पर तलवारों के बहुत से निशान बने होंगे?

मुंशीजी इस शंका के लिए तैयार न थे, पर कोई जबाब देना आवश्यक था, बोले – मैं वारों को बराबर खाली कर देता था। दो-चार चोटें छड़ी पर पड़ी भी तो उचटती हुई, जिनसे कोई निशान नहीं पड़ सकता था।

अभी उनके मुँह से पूरी बात भी न निकली थी कि सहसा रुक्मिणी देवी बदहवास दौड़ती हुई आयीं और हाँफते बोली – तोता, तोता है कि नहीं? मेरे कमरे में एक साँप निकल आया है। मेरी चारपाई के नीचे बैठा हुआ है। मैं उठकर भागी। मुआ कोई दो गज का होगा। फन निकाले पुकार रहा है, जरा चलो तो! डंडा लेते चलना।

तोताराम के चेहरे का रंग उड़ गया, मुँह पर हवाइयाँ छूटने लगीं। मगर मन के भावों को छिपाकर बोले – साँप यहाँ कहाँ? तुम्हें धोखा हुआ होगा? कोई रस्सी होगी।

रुक्मिणी – अरे, मैंने अपनी आंखों से देखा है। जरा चलकर देख न लो। हे! हे! मर्द होकर डरते हो?

मुंशीजी घर से निकले, लेकिन बरामदे में फिर ठिठक गये। उनके पांव ही न उठते थे। कलेजा धड़-धड़ कर रहा था। साँप बड़ा क्रोधी जानवर है। कहीं काट ले तो मुफ्त में प्राण से हाथ धोना पड़े। बोले – डरता नहीं। साँप ही तो है, शेर तो नहीं। मगर साँप पर लाठी नहीं असर करती; जाकर किसी को भेजूं, किसी के धर से भाला लाये।

यह कहकर मुंशीजी लपके हुए बाहर चले गए। मंसाराम खाना खा रहा था। मुंशीजी तो बाहर गये, उधर वह खाना खाकर अपनी हॉकी का डंडा हाथ में ले, कमरे में घुस ही तो पड़ा और तुरन्त चारपाई खींच ली। साँप मस्त था, भागने के बदले फन निकालकर खड़ा हो गया। मंसाराम ने चटपट चारपाई की चादर उठाकर साँप के ऊपर फेंक दी और ताबड़तोड़ तीन-चार डण्डे कसकर जमाए। साँप चादर के अन्दर तड़पकर रह गया। तब उसे डण्डे पर उठाए, बाहर चला। मुंशीजी कई आदमियों को साथ लिए चले आ रहे थे। मंसाराम को साँप लटकाए आते देखा, तो सहसा उनके मुख से चीख निकल पड़ी। मगर फिर संभल गए और बोले – मैं तो आ ही रहा था, तुमने क्यों जल्दी की? दे दो, कोई फेंक आये।

यह कहकर बहादुरी के साथ रुक्मिणी के कमरे के द्वार पर आकर खड़े हो गए और कमरे को खूब देखभालकर मूंछों पर ताव देते हुए निर्मला के पास जाकर बोले – मैं जब तक आऊँ-आऊँ मंसाराम ने मार डाला! बेसमझ लड़का डण्डा लेकर दौड़ पड़ा। मैंने ऐसे-ऐसे कितने साँप मारे है। साँप को खिला-खिलाकर मारता हूँ। कितनों ही को मुट्ठी में पकड़कर मसल दिया है।

रुक्मिणी ने कहा – जाओ भी, देख ली तुम्हारी मर्दानगी।

मुंशीजी झेंप कर बोले – अच्छा जाओ, मैं डरपोक ही सही! तुमसे कुछ ईनाम तो नहीं माँग रहा हूं। जाकर महाराज से कहो, खाना निकाले।

मुंशीजी तो भोजन करने गये और निर्मला द्वार की चौखट पर खड़ी सोच रही थी भगवान्! क्या इन्हें सचमुच कोई भीषण रोग हो रहा है? क्या मेरी दशा को और भी दारुण बनाना चाहते हो? मैं इनकी सेवा कर सकती हूं, अपना जीवन इनके चरणों पर अर्पण कर सकती हूं लेकिन वह नहीं कर सकती, जो मेरे किए नहीं हो सकता। — समझ गई। आह! यह बात पहले ही नहीं समझी थी, नहीं तो इनको क्यों इतनी तपस्या करनी पड़ती, क्यों इतने स्वांग भरने पड़ते?