निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग - 21

कृष्णा के विवाह के बाद सुधा चली गई। लेकिन निर्मला मैके में ही रह गई। वकील साहब बार बार लिखते थे, पर वह न जाती थी। जाने को उसका जी न होता। छोटे भाईयों की देखभाल में उसका समय बड़े आनन्द से कट जाता था। वकील साहब खुद ही आते, तो शायद वह जाने पर राजी हो जाती, लेकिन इस विवाह में मुहल्ले की लड़कियों ने उनकी वह दुर्गत की थी कि बेचारे आने का नाम ही न लेते थे। सुधा ने भी कई बार पत्र लिखा, पर निर्मला ने उससे भी हीले-हवाले किए। आखिर एक दिन सुधा ने नौकर को साथ लिया और आ धमकी।

निर्मला नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

जब दोनों गले मिल चुकीं, तो सुधा ने कहा – तुम्हें तो वहां जाते मानो डर लगता है।

निर्मला – हां बहन, डर तो लगता है। ब्याह की गयी, तीन साल में आयी अबकी तो वहां उम्र ही खत्म हो जायेगी। फिर कौन बुलाता है और कौन आता है?

सुधा – आने को क्या हुआ, जब जी चाहे, चली आना। वहां वकील साहब बहुत बेचैन हो गए हैं।

निर्मला – बहुत बेचैन, रात को शायद नींद न आती हो!

सुधा – बहिन, तुम्हारा कलेजा पत्थर का है। उनकी दशा देखकर तरस आता है। कहते थे, घर में कोई पूछने वाला नहीं, न कोई लड़का, न बाला, किससे जी बहलाएं? जब से दूसरे मकान में उठ आये हैं, बहुत दुःखी रहते हैं।

निर्मला – लड़के तो ईश्वर के दिये दो-दो हैं।

सुधा – उन दोनों की बड़ी शिकायत करते थे। जियाराम तो अब बात ही नहीं सुनता – तुरकी-बतूरकी जवाब देता है। रहा छोटा, वह भी उसी के कहने में है। बेचारे बड़े लड़के को याद करके रोया करते हैं।

निर्मला – जियाराम तो शरीर न था; वह बदमाशी कब से सीख गया? मेरी तो कोई बात न टालता था – इशारे पर काम करता था।

सुधा – क्या जाने बहन! सुना, कहता है आप ने भैया को जहर देकर मार डाला – आप हत्यारे हैं। कई बार तुमसे विवाह करने के लिए ताने दे चुका है। ऐसी-ऐसी बातें कहता है कि वकील साहब रो पड़ते हैं। अरे, और तो क्या कहूं एक दिन पत्थर उठा कर मारने दौड़ा था। निर्मला ने गम्भीर चिन्ता में पड़कर कहा – यह लड़का तो बड़ा शैतान निकला। उससे यह किसने कहा कि उसके भाई को उन्होंने जहर दे दिया है!

सुधा – वह तुम्हीं से ठीक होगा।

निर्मला – लो यह नई चिन्ता पैदा हुई। अगर जिया का यही रंग है – अपने बाप से लड़ने पर तैयार रहता है, तो मुझसे क्यों दबने लगा? वह रात को बड़ी देर तक इसी फिक्र में डूबी रही। मंसाराम की आज उसे बहुत याद आयी। उसके साथ जिंदगी आराम से कट जाती। इस लड़के का जब अपने पिता के सामने ही यह हाल है, तो उनके पीछे उसके साथ कैसे निर्वाह होगा! घर हाथ से निकल ही गया। कुछ-न-कुछ कर्ज अभी सिर पर होगा ही। आमदनी का यह हाल! ईश्वर ही बेड़ा पार लगाएंगे। आज पहली बार निर्मला को बच्ची की फिक्र पैदा हुई इस बेचारी का न जाने क्या हाल होगा? ईश्वर ने यह विपत्ति सिर पर डाल दी। मुझे तो इसकी जरूरत ही न थी। जन्म ही लेना था, तो किसी भाग्यवान के घर जन्म लेती। बच्ची उसकी छाती से लिपटी हुई सो रही थी। माता ने उसको और भी चिपटा लिया, मानो कोई उसके हाथ से उसे छीने लिये जाता है।

निर्मला के पास ही सुधा की चारपाई थी। निर्मला तो चिन्ता-सागर में गोता खा रही थी और सुधा मीठी नींद का आनन्द उठा रही थी। क्या उसे अपने बालक की फिक्र सताती है? मृत्यु तो बूढ़े और जवान का भेद नहीं रखती, फिर सुधा को कोई चिन्ता क्यों नहीं सताती? उसे तो कभी भविष्य की चिन्ता से उदास नहीं देखा।

सहसा सुधा की नींद खुल गई। उसने निर्मला से अभी तक जागते देखा, तो बोली – अरे, अभी तक सोयी नहीं?

निर्मला – नींद ही नहीं आती।

सुधा – आंखें बंद कर लो; आप ही नींद आ जायेगी। मैं तो चारपाई पर आते ही मर-सी जाती हूं। वह जगाते भी हैं, तो खबर नहीं होती। न जाने मुझे क्यों इतनी नींद आती है? शायद कोई रोग है।

निर्मला – हां, बड़ा भारी रोग है। इसे राज-रोग कहते हैं। डॉक्टर साहब से कहो दवा शुरू कर दें।

सुधा – तो आखिर जागकर क्या सोई! कभी-कभी मैके की याद आ जाती है, तो उस दिन जरा देर में आंख लगती है।

निर्मला – डॉक्टर साहब की याद नहीं आती?

सुधा – कभी नहीं, उनकी याद क्यों आए? जानती हूं कि टेनिस खेलकर आये होंगे, खाना खाया होगा और आराम से लेटे होंगे।

निर्मला – लो, सोहन भी जाग गया! जब तुम जाग गई, तो भला वह क्यों सोने लगा?

सुधा – हां बहिन, इसकी अजीब आदत है। मेरे साथ सोता और मेरे ही साथ जागता है। उस जन्म का कोई तपस्वी है। देखो, इसके माथे पर तिलक का कैसे निशान है। बांहों पर ऐसे ही निशान हैं। जरूर कोई तपस्वी है।

निर्मला – तपस्वी लोग तो चन्दन-तिलक नहीं लगाते। उस जन्म का कोई धूर्त पुजारी होगा। क्यों रे, तू कहां का पुजारी था? बता?

सुधा – इसका ब्याह मैं अपनी बच्ची से करूंगी।

निर्मला – चलो बहिन, गाली देती हो। बहिन से भी भाई का ब्याह होता है।

सुधा – मैं तो करूँगी, चाहे कोई कुछ कहे। ऐसी सुन्दर बहू और कहां पाऊंगी? जरा देख तो बहिन, इसकी देह कुछ गर्म है या मुझे ही मालूम होती है।

निर्मला ने सोहन का माथा छूकर कहा – नहीं, नहीं, देह गर्म है। यह ज्वर कब आ गया? दूध तो पी रहा है न?

सुधा – अभी सोया था, तब तो देह ठंडी थी। शायद सर्दी लग गई। उड़ाकर सुलाए देती हूं। सवेरे तक ठीक हो जायेगा।

सवेरा हुआ तो सोहन की हालत और भी खराब हो गई। उसकी नाक बहने लगी और बुखार भी तेज हो गया। आंखें चढ़ गईं और सिर झुक गया। न वह हाथ-पैर हिलाता था, न हंसता-बोलता था, बस चुपचाप पड़ा था। ऐसा मालूम होता था कि उसे इस वक्त किसी का बोलना अच्छा नहीं लगता। कुछ खांसी भी आने लगी। अब तो सुधा घबरायी। निर्मला की भी राय हुई कि डॉक्टर साहब को वुलाया जाए, लेकिन उसकी बूढ़ी माता ने कहा – डॉक्टर हकीम का यहां कुछ काम नहीं। साफ तो देख रही हूं कि बच्चे को नजर लग गई है। भला, डॉक्टर क्या करेगा?

सुधा – अम्माजी, भला यहां नजर कौन लगा देगा? अभी तक तो बाहर कहीं गया भी नहीं।

माता – नजर कोई लगाता नहीं बेटी, किसी-किसी आदमी की दीठ बुरी होती है, आप-ही-आप लग जाती हे। कभी-कभी मां बाप तक की नजर लग जाती है। मैं तो इसे हुमकते देखकर डरी थी कि कुछ-न-कुछ अनिष्ट होने वाला है। आंखें नहीं देखती हो, कितनी चढ़ गई हैं। यही नजर की सबसे बड़ी पहचान है।

बुढ़िया महरी और पड़ोस की पंडिताइन ने इस कथन का अनुमोदन कर दिया। बस महंगू ने आकर बच्चे का मुंह देखा और हंसकर बोला – मालकिन, यह दीठ है, और कुछ नहीं। जरा पतली-पतली तीलियां तो मंगवा दीजिए। भगवान् ने चाहा, तो संझा तक बच्चा हंसने लगेगा।

सरकण्डे के पांच टुकड़े लाए गए। महंगू ने उन्हें बराबर करके एक डोरे से बांध दिया और कुछ बुदबुदाकर उसी पीले हाथों से पांच बार सोहन का सिर सहलाया। अब जो देखा, तो पांचों तीलियां छोटी-बड़ी हो गई थी। सब स्त्रियां कौतुक देखकर दंग रह गई। अब नजर में किसे सन्देह हो सकता था? महंगू ने फिर बच्चे को तीलियों से सहलाना शुरू किया। अबकी तीलियां बराबर हो गई, केवल थोड़ा-सा अन्तर रह गया। यह सब इस बात का प्रमाण था कि नजर अब थोड़ा-सा रह गया। महंगू सबको दिलासा देकर शाम को फिर आने का वायदा करके चला गया।

बालक की दशा दिन को और भी खराद हो गई। खाँसी का जोर हो गया। शाम के समय महंगू ने आकर फिर तीलियों का तमाशा किया। इस वक्त पाँचों तीलिया बराबर निकली, स्त्रियां निश्चिन्त हो गई। लेकिन सोहन को सारी रात खाँसते गुजरी। यहां तक कि कई बार उसकी आंखें उलट गई। सुधा और निर्मला दोनों ने बैठकर सवेरा किया। खैर, रात कुशल से कट गई। अब वृद्धा माताजी नया रंग लायी। महंगू नजर न उतार सका, इसलिए अब किसी मौलवी से फूंक डलवाना जरूरी हो गया। सुधा फिर भी अपने पति को सूचना न दे सकी। महरी सोहन को एक चादर से लपेटकर मस्जिद में ले गई और फूंक डलवा लायी। शाम को भी फूंक छोड़ी गई, पर सोहन ने सिर न उठाया। रात आ गई। सुधा ने मन में निश्चय किया कि रात कुशल से बीतेगी, तो प्रातःकाल ही पति को तार दूंगी।

लेकिन रात कुशल से न बीतने पायी। आधी रात जाते-जाते बच्चा हाथ से निकल गया। सुधा की जीवन-सम्पत्ति देखते-देखते उसके हाथों से छिन गई।

वहीं जिसके विवाह का दो दिन पहले विनोद हो रहा था, आज सारे घर को रुला रहा है। जिसकी भोली-भोली सूरत देखकर माता की छाती फूल उठती थी, उसी को देखकर आज माता की छाती फटी जाती है। सारा घर सुधा को समझाता था, पर उसके आंसू न थमते थे, सब्र न होता था। सबसे बड़ा दुःख इस बात का था कि पति को कौन मुंह दिखलाऊंगी। उन्हें खबर तक न थी।

रात को ही तार दिया गया और दूसरे दिन डॉक्टर सिन्हा नौ बजते-बजते मोटर पर आ पहुंचे। सुधा ने उनके आने की खबर पायी, तो और भी फूट-फूट कर रोने लगी। बालक की जल क्रिया हुई! डॉक्टर साहब कई बार अन्दर आये, पर सुधा उनके पास न गयी। उनके सामने कैसे जाए? कौन मुख दिखाए? उसने अपनी नादानी से उनके जीवन का रत्न छीनकर दरिया में डाल दिया। अब उनके पास जाते उसकी छाती के टुकड़े-टुकड़े हुए जाते थे। बालक को उसकी गोद में देखकर पति की आंखें चमक उठती थी। बालक ठुमककर पिता की गोद में चला जाता था। माता फिर बुलाती, तो पिता की छाती से चिमट जाता था, और लाख चुमकारने-दुलारने पर भी बाप की गोद न छोड़ता था। तब मां कहती थी, बड़ा मतलबी है! आज वह किसे गोद में लेकर पति के पास जायेगी? उसकी सूनी गोद देखकर कहीं वह चिल्लाकर रो न पड़े। पति के सम्मुख जाने की अपेक्षा उसे मर जाना कहीं आसान जान पड़ता था। वह एक क्षण के लिए निर्मला को न छोड़ती थी कि कहीं पति से सामना न हो जाए।

निर्मला ने कहा – बहिन, अब तो जो होना था हो चुका; अब उनसे कब तक भागती फिरोगी? रात ही को चले जायेंगे, अम्मा कहती थी।

सुधा ने सजल नेत्रों से ताकते हुए कहा – कौन मुंह लेकर उनके पास जाऊं? मुझे डर लग रहा है कि उनके सामने जाते ही मेरे पैर न थर्राने लगे और मैं गिर न पड़ूं।

निर्मला – चलो, मैं तुम्हारे साथ चलती हूं। तुम्हें संभाले रहूंगी।।

सुधा – मुझे छोड़कर भाग तो न जाओगी?

निर्मला – नहीं-नहीं, भागूंगी नहीं।

सुधा – मेरा कलेजा तो अभी से उमड़ा आता है। मैं इतना घोर वज्रपात होने पर भी बैठी हूं मुझे यही आश्चर्य हो रहा है। सोहन को वह बहुत प्यार करते थे बहिन! न जाने उनके चित्त की क्या दशा होगी। मैं उन्हें ढाढस क्या दूंगी, आप ही रोती रहूंगी। क्या रात ही को चले जायेंगे?

निर्मला – हां, अम्माजी तो कहती थीं, छुट्टी नहीं ली है।

दोनों सहेलियां मर्दाने बैठक की ओर चली; लेकिन कमरे के द्वार पर पहुंचकर सुधा ने निर्मला को विदा कर दिया। अकेली कमरे में दाखिल हुई।

डॉक्टर साहब घबरा रहे थे कि न जाने सुधा की क्या दशा हो रही हैं। भांति-भांति की शंकाए मन में आ रही थी। जाने को तैयार तो उठे बैठे थे, लेकिन जी न चाहता था। जीवन शून्य-सा मालूम होता था। मन-ही-मन कुढ़ रहे थे। अगर ईश्वर को इतनी जल्दी यह पदार्थ देकर छीन लेना था, तो दिया ही क्यों था? उन्होंने तो कभी सन्तान के लिए ईश्वर से प्रार्थना भी न की थी। बह आजन्म निःसन्तान रह सकते थे, पर सन्तान पाकर उससे वंचित हो जाना उन्हें असहाय जान पड़ता था। क्या सचमुच मनुष्य ईश्वर का खिलौना है? यही मानव जीवन का महत्व है? वह केवल बालकों का घरौंदा है, जिसके बनाने का न कोई हेतु है, न बिगाड़ने का। फिर बालकों को भी अपने घरौंदे से – अपनी कागज की नावों से – अपने लकड़ी के घोड़ों से ममता होती है। अच्छे खिलौनों को बह जान के पीछे छिपाकर रखते हैं। अगर ईश्वर बालक ही है, तो वह विचित्र बालक हैं।

किन्तु बुद्धि तो ईश्वर का यह रूप स्वीकार नहीं करती। अनंत सृष्टि का कर्ता उद्दंड बालक नहीं हो सकता। हम उसे उन सारे गुणों से विभूषित करते हैं, जो हमारी बुद्धि की पहुंच से बाहर है। खिलाड़ीपन तो उन महान् गुणों में नहीं? क्या हंसते-खेलते बालक का प्राण हर लेना कोई खेल है? क्या ईश्वर ऐसा पैशाचिक खेल खेलता हैं?

सहसा सुधा दबे पांव कमरे में -दाखिल हुई। डॉक्टर साहब उठ खड़े हुए और उसके समीप आकर बोले – तुम कहां थी सुधा? मैं तुम्हारी राह देख रहा था।

सुधा की आंखों से कमरा जान पड़ा। पति की गर्दन में हाथ डालकर उसने छाती पर सिर रख दिया और रोने लगी, लेकिन इस अश्रुप्रवाह में उसे असीम धैर्य और सान्त्वना का अनुभव न हो रहा था। पति के वक्षस्थल से लिपटी हुई वह अपने हृदय में एक विचित्र मूर्ति और बल का संचार होता हुआ पाती थी; मानो पवन से थरथराता हुआ दीपक आंचल की आड़ में आ गया हो।

डॉक्टर साहब ने पत्नी के अश्रुसिंचित कपोलों को दोनों हाथों में लेकर कहा – सुधा, तुम इतना छोटा दिल क्यों करती हो? सोहन अपने जीवन में जो कुछ करने आया था, वह कर चुका था; फिर वह क्यों बैठ रहता? जैसे कोई वृक्ष जल और प्रकाश से बढ़ता है, लेकिन पवन के प्रबल झोंकों ही से सुदृढ़ होता है, उसी भांति प्रणय भी दुःख के आघातों ही से विकास पाता है। खुशी में साथ हँसने वाले बहुतेरे मिल जाते हैं, रंज में जो साथ रोए, वही हमारा सच्चा मित्र है। जिन प्रेमियों को साथ रोना नहीं नसीब हुआ वे मुहब्बत के मजे क्या जानें? सोहन की मृत्यु ने आज हमारे द्वैत को बिल्कुल मिटा दिया। आज ही हमने एक-दूसरे का सच्चा स्वरूप देखा है।

सुधा ने सिसकते हुए कहा – मैं नजर के धोखे में थी। हाय! तुम उसका मुँह भी न देख पाए। न जाने इन दिनों उसे इतनी समझ कहां से आ गई थी। जब मुझे रोते देखता, तो अपने कष्ट भूलकर मुस्करा देता। तीसरे दिन मेरे लाडले की आंखें बन्द हो गई। कुछ दवा-दर्पन भी न करने पायी।

यह कहते-कहते सुधा के आंसू फिर उमड़ आए। डॉक्टर सिन्हा ने उसे सीने से लगाकर करुणा से काँपती हुई आवाज से कहा – प्रिये, आज तक कोई ऐसा बालक या वृद्ध न मरा होगा, जिसके घरवालों की उसके दवा-दर्पन की लालसा पूरी हो गई होगी।

सुधा – निर्मला ने मेरी मदद की। मैं तो एकाध झपकी भी लेती थी; उसकी आँखें नहीं झपकी। रात-रात लिए बैठी या टहलती रहती थी। उसके एहसान कभी न भूलूंगी। क्या तुम आज ही जा रहे हो?

डॉक्टर – हां, छुट्टी लेने का मौका न था। सिविल सर्जन शिकार खेलने गया हुआ था!

सुधा – यह सब हमेशा शिकार ही खेला करते हैं?

डॉक्टर – राजाओं का और काम ही क्या है?

सुधा – में तो आज न जाने दूंगी।

डॉक्टर – जी तो मेरा भी नहीं चाहता।

सुधा – तो मत जाओ, तार दे दो। मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। निर्मला को भी लेती चलूंगी।

सुधा वहाँ से लौटी, तो उसके हृदय का बोझा हल्का हो गया था। पति की प्रेमपूर्ण कोमल वाणी ने उसके सारे शोक और संताप का हरण कर लिया था। प्रेम में असीम विश्वास है, असीम धैर्य है, असीम बल है।