जब हमारे ऊपर कोई विपत्ति आ पड़ती है, तो उससे हमें केवल दुःख ही नहीं होता – हमें दूसरों के ताने भी सहने पड़ते हैं। जनता को हमारे ऊपर टिप्पणियां कसने का वह सुअवसर मिल जाता है, जिसके लिए वह हमेशा बेचैन रहती है। मंसाराम क्या मरा, मानो समाज को उन पर आवाजें कसने का बहाना मिल गया। भीतर की बातें कौन जाने, प्रत्यक्ष बात यही थी कि यह सब सौतेली मां की करतूत है। चारों तरफ यही चर्चा थी, ईश्वर न करे, लड़कों को सौतेली मां से पाला पड़े।
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जिसे अपना बना-बनाया घर उजाड़ना हो – अपने प्यारे बच्चों की गर्दन पर छुरी फेरवानी हो, वह बच्चे के रहते हुए अपना दूसरा ब्याह करें। ऐसा कभी नहीं देखा कि सौत के आने पर घर तबाह न हो गया हो। वहीं जो बच्चों पर जान देता था, सौत आते ही उन्हीं बच्चों का दुश्मन हो जाता है – उसकी मति ही बदल जाती है। ऐसी देवी ने जन्म ही नहीं लिया, जिसने सौत के बच्चों को अपना समझा हो।
मुश्किल यह थी कि लोग इन टिप्पणियों पर सन्तुष्ट न होते थे। कुछ ऐसे सज्जन भी थे, जिन्हें अब जियाराम और सियाराम से विशेष स्नेह हो गया था। वे दोनों बालकों से बड़ी सहानुभूति प्रकट करते; यहां तक कि दो-एक महिलाएं तो उनकी माता के शील और स्वभाव को याद कर आँसू बहाने लगती थी। हाय-हाय! बेचारी क्या जानती थी कि उसके मरते ही उसके लाड़लों की यह दुर्दशा होगी। अब दूध-मक्खन काहे को मिलता होगा।
जियाराम कहता – मिलता क्यों नहीं?
महिला कहती – मिलता है! अरे बेटा, मिलना भी कई तरह का होता है। पानीवाला दूध टके सेर मंगाकर रख दिया, पियो चाहे न पियो – कौन क्या है? नहीं तो बेचारी नौकर से दूध दुहवाकर मंगवाती थी; वह तो चेहरा ही कह देता है। दूध की सूरत छिपी नहीं रहती – वह सूरत नहीं रही।
जियाराम को अपनी अम्मा के समय के दूध का स्वाद तो याद था नहीं, जो इस आक्षेप का उत्तर देता और न उस समय की अपनी सूरत ही याद थी – चुप रह जाता। इन शुभकामनाओं का असर भी पड़ना स्वाभाविक था। जियाराम को अपने घरवालों से चिढ़ होती जाती थी! मुंशीजी मकान नीलाम हो जाने के बाद दूसरे घर में उठ आये तो किराए की फिक्र हुई। निर्मला ने मक्खन बन्द कर दिया। वह आमदनी ही न रही तो खर्च कैसे रहता? दोनों कहार अलग कर दिए गए। जियाराम को यह कतरब्योंत बुरी लगती थी। अब निर्मला मैके चली गयी, तो मुंशीजी ने दूध भी बन्द कर दिया। नवजात कन्या की चिन्ता अभी से उनके सिर पर सवार हो गई थी।
जियाराम ने बिगड़कर कहा – दूध बन्द करने से आपका महल बन रहा होगा, भोजन भी बन्द कर दीजिए!
मुंशीजी – दूध पीने का शौक है तो जाकर दुहा क्यों नहीं लाते? पानी के पैसे तो मुझसे न दिए जायेंगे।
जियाराम – मैं दूध दुहने जाऊँ, कोई स्कूल का लड़का देख ले तब?
मुंशीजी – तब कुछ नहीं। कह देना, अपने लिए दूध लिए जाता हूं। दूध लाना कोई चोरी नहीं है।
जियाराम – चोरी नहीं है! आप ही को कोई दूध लाते देख ले, तो आपको शर्म न आएगी?
मुंशीजी – बिल्कुल नहीं। मैंने तो इन्हीं हाथों से पानी खींचा है, अनाज की गठरियां लाया हूं। मेरे बाप लखपति नहीं थे।
जियाराम – मेरे बाप तो गरीब नहीं है, मैं दूध क्यों लाऊं? आखिर अपने कहारों को क्यों जवाब दे दिया?
मुंशीजी – क्या तुम्हें इतना भी नहीं सूझता कि मेरी आमदनी अब पहली सी नहीं रही। इतने तो नादान नहीं हो?
जियाराम – अब आपकी आमदनी क्यों कम हो गई?
मुंशीजी – जब तुम्हें अक्ल नहीं है, तो क्या समझाऊं? यहां जिन्दगी से तंग आ गया हूं, मुकदमे कौन ले, और ले तो तैयार कौन करे? वह दिल ही नहीं रहा। अब तो जिन्दगी के दिन पूरे कर रहा हूं। सारे अरमान लल्लू के साथ चले गए।
जियाराम – अपने ही हाथों न!
मुंशीजी ने चीखकर कहा – अरे अहमक! यह ईश्वर की मर्जी थी। अपने हाथों कोई अपना गला काटता है?
जियाराम – ईश्वर तो आपका विवाह करने न आया था।
मुंशीजी अब जब्त न कर सके, लाल-लाल आँखें निकालकर बोले – क्या तुम आज लड़ने के लिए कमर बांधकर आए हो? आखिर किस बिरसे पर? मेरी रोटियां तो नहीं चलाते? जब इस लायक हो जाना, तो मुझे उपदेश देना। तब मैं सुन लूंगा। अभी तुमको मुझे उपदेश देने का अधिकार नहीं। कुछ दिनों अदब और तमीज सीखो। तुम मेरे सलाहकार नहीं हो कि मैं तो काम करूं, उसमें तुमसे सलाह लूं। मेरी पैदा की हुई दौलत है, उसे जैसे चाहूं खर्च कर सकता हूं। तुमको जबान खोलने का हक नहीं है। अगर फिर तुमने मुझसे ऐसी बेअदबी की, तो नतीजा बुरा होगा। जब मंसाराम ऐसा रत्न खोकर मेरे प्राण न निकले, तो तुम्हारे बगैर मैं मर न जाऊंगा, समझ गए?
यह कड़ी फटकार पाकर भी जियाराम वहां से न टला। निःशंक भाव से बोला – तो क्या आप चाहते हैं कि हमें चाहे कितनी ही तकलीफ हो मुंह न खोले? मुझसे तो यह न होगा। भाई साहब को अदब और तमीज का जो इनाम मिला, उसकी मुझे भूख नहीं। मुझमें जहर खाकर प्राण देने की हिम्मत नहीं! ऐसे अदब को दूर से दण्डवत्।
मुंशीजी – तुम्हें ऐसी बातें करते शर्म नहीं आती?
जियाराम – लड़के अपने बुजुर्गों ही की नकल करते हैं।
मुंशीजी का क्रोध शांत हो गया। जियाराम पर उससे कुछ भी असर न होगा। इसका उन्हें यकीन हो गया। उठकर टहलने चले गए। आज उन्हें सूचना मिल गई कि इस घर का शीघ्र ही सर्वनाश होने वाला है।
उस दिन से पिता और पुत्र में किसी-न-किसी बात पर रोज ही एक झड़प हो जाती। मुंशीजी ज्यों-त्यों तरह देते थे, जियाराम और भी शेर हुआ जाता था। एक दिन जियाराम ने रुक्मिणी से यहां तक कह डाला बाप है, यह समझ कर छोड़ देता हूं नहीं तो मेरे ऐसे-ऐसे साथी हैं कि चाहूं तो भरे बाजार में पिटवा दूं। रुक्मिणी ने मुंशीजी से कह दिया। मुंशीजी ने प्रकट रूप से तो बेपरवाही दिखायी, पर उनके मन में शंका समा गई। शाम को सैर करना छोड़ दिया। नई चिन्ता सवार हो गई। इसी भय से निर्मला को भी न लाते थे कि शैतान उसके साथ भी यही बर्ताव करेगा, जियाराम एक बार दबी जबान कह भी चुका था – देखूं अब की कैसे इस घर में आती है? दूर ही से न दुत्कार दूं, तो जियाराम नाम नहीं। बुड्ढे मियां कर ही क्या लेंगे? मुंशीजी भी खूब समझ गए थे कि मैं इसका कुछ भी नहीं कर सकता। कोई बाहर का आदमी होता, तो उसे पुलिस और कानून के शिकंजे में कसते। अपने लड़कों को क्या करें? सच कहा है, आदमी हारता है तो अपने लड़कों से।
एक दिन डॉक्टर सिन्हा ने जियाराम को बुलाकर समझाना शुरू कर किया। जियाराम उनका अदब करता था। चुपचाप बैठा सुनता रहा। जब डॉक्टर साहब ने पूछा, आखिर तुम चाहते क्या हो? तो वह बोला – साफ-साफ कह दूं न? बुरा तो न मानिएगा।
सिन्हा – नहीं! जो तुम्हारे दिल में हो साफ-साफ कह दो।
जियाराम – तो सुनिए, जब से भैया मरे हैं, मुझे पिताजी की सूरत देखकर क्रोध आता है। मुझे ऐसा मालूम होता है कि इन्हीं ने भैया की हत्या की है और एक दिन मौका पाकर हम दोनों भाइयों की हत्या करेंगे। अगर इनकी यह इच्छा न होती, तो ब्याह ही क्यों करते?
डॉक्टर साहब ने बड़ी मुश्किल से हंसी रोककर कहा – तुम्हारी हत्या करने के लिए उन्हें ब्याह करने की जरूरत थी, यह बात मेरी समझ में नहीं आई। बिना विवाह किए भी हत्या कर सकते थे।
जियाराम उस वक्त तो उनका दिल ही कुछ और था – हम लोगों पर जान देते थे। अब मुंह नहीं देखना चाहते। उनकी यही इच्छा है कि उन दोनों प्राणियों के सिवा घर में और कोई न रहे। अब जो लड़की होंगे, उनके रास्ते से हम लोगों को हटा देना चाहते हैं, यही उन दोनों आदमियों की दिली मंशा है। हमें तरह-तरह की तकलीफें देकर भगा देना चाहते हैं। इसलिए आजकल मुकदमे नहीं लेते। हम दोनों भाई आज भाग जायें, तो फिर देखिए; कैसी बहार होती है।
डॉक्टर – अगर तुम्हें भगाना होता, तो कोई इल्जाम लगाकर घर से निकाल देते।
जिया – इसके लिए पहले ही से तैयार बैठा हूं।
डॉक्टर – सुनूं, क्या तैयारी की है?
जिया – जब मौका आएगा, देख लीजिएगा।
यह कहकर जियाराम चलता हुआ। डॉक्टर सिन्हा ने बहुत पुकारा, पर उसने फिरकर देखा भी नहीं।
कई दिन के बाद डॉक्टर साहब की जियाराम से फिर मुलाकात हो गई। डॉक्टर साहब सिनेमा के प्रेमी थे और जियाराम की तो जान ही सिनेमा में बसती थी। डॉक्टर साहब ने सिनेमा पर आलोचना करके जियाराम को बातों में लगा लिया और अपने घर लाए। भोजन का समय आ गया था, दोनों आदमी साथ ही भोजन करने बैठे। जियाराम को वहां भोजन बहुत स्वादिष्ट लगा, बोला – मेरे यहां तो जब महाराज अलग हुआ, खाने का मजा ही जाता रहा! बुआजी पक्का वैष्णवी भोजन बनाती हैं, जबरदस्ती खा लेता हूं पर खाने की तरफ ताकने का जी नहीं चाहता।
डॉक्टर – मेरे यहाँ तो जब घर में खाना पकता है, तो इससे कहीं स्वादिष्ट होता है। तुम्हारी बुआजी प्याज लहसुन न छूती होंगी।
जिया – हां, साहब, उबालकर रख देती है। लालाजी को इसकी परवाह ही नहीं कि कोई खाता है या नहीं! इसीलिए तो महाराज को अलग किया है। अगर रुपये नहीं हैं, तो रोज गहने कहां से बनते हैं?
डॉक्टर यह बात नहीं है जियाराम, उनकी आमदनी सचमुच बहुत कम हो गई है। तुम उन्हें बहुत दिक करते हो।
जिया – (हँसकर) मैं उन्हें दिक करता हूं? मुझसे कसम ले लीजिए, जो कभी उनसे बोलता भी हूं। मुझे बदनाम करके इन्होंने बीड़ा उठा लिया। बेसबब पीछे पड़े रहते है। यहां तक कि मेरे दोस्तों से भी उन्हें चिढ़ है। आप सोचिए, दोस्तों के बगैर कोई जिन्दा रह सकता है? मैं कोई लुच्चा नहीं हूं कि लुच्चा की सोहबत रखूं, मगर आप दोस्तों ही के पीछे मुझे रोज सताया करते हैं। कल तो मैंने साफ कह दिया – मेरे दोस्त घर आएंगे, किसी को अच्छा लगे या बुरा। जनाब, कोई हो, हर वक्त की धौंस नहीं सह सकता।
डॉक्टर – मुझे तो भाई, उन पर बड़ी दया आती है। यह जमाना उनके आराम करने का था। एक तो बुढ़ापा, उस पर जवान बेटे का शोक, स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं। ऐसा आदमी क्या कर सकता है? वह जो कुछ थोड़ा-बहुत करते हैं, वही बहुत है। तुम अभी और कुछ नहीं कर सकते, तो कम-से-कम अपने आचरण से तो उन्हें प्रसन्न रख हंसकर बोलना ही उन्हें खुश करने के काफी है। इतना पूछने में तुम्हारा क्या खर्च होता है – बाबूजी, आपकी तबीयत कैसी है? वह तुम्हारी यह उद्दंडता देखकर मन-ही-मन कुढ़ते रहते हैं। मैं तुमसे सच कहता हूं, कई बार रो चुके हैं। उन्होंने मान लो शादी करने में गलती की। इसे वह स्वीकार करते हैं, लेकिन तुम अपने कर्त्तव्य से क्यों मुंह मोड़ते हो? वह तुम्हारे पिता है, तुम्हें उनकी सेवा करनी चाहिए। एक बात भी मुंह से ऐसी न निकालनी चाहिए जिससे उनका दिल दुखे। उन्हें यह ख्याल करने का मौका क्यों दो कि सब मेरी कमाई खाने वाले हैं, बात पूछने वाला कोई नहीं। मेरी उम्र तुमसे कहीं ज्यादा है जियाराम, पर आज तक मैंने अपने पिता जी को किसी बात का जवाब नहीं दिया। वह आज भी मुझे डांटते हैं, सिर झुकाकर सुन लेता हूं, वह जो कुछ कहते है, मेरे भले ही को कहते हैं। माता-पिता से बढ़कर हमारा हितैषी और कौन हो सकता है? उनके ऋण से कौन मुक्त हो सकता है?
जियाराम बैठा रोता रहा। अभी उसके सद्भावों का सम्पूर्णतः लोप न हुआ था। अपनी दुर्जनता उसे साफ नजर आ रही थी। इतनी ग्लानि उसे बहुत दिनों से न आई थी। रोकर डॉक्टर साहब से हो – मैं बहुत ही लज्जित हूं। दूसरों के बहकाने में आ गया था। अब आप मेरी जरा भी शिकायत न सुनेंगे। आप पिताजी से मेरे अपराध क्षमा करा दीजिए। मैं सचमुच बड़ा अभागा हूं। उन्हें मैंने बहुत सताया। उनसे कहिए, मेरे अपराध क्षमा दें, नहीं मैं मुंह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊंगा – डूब मरूँगा।
डॉक्टर साहब अपनी उपदेश-कुशलता पर फूले न समाए। जियाराम को गले लगाकर विदा किया।
जियाराम घर पहुँचा, तो ग्यारह बज गए। मुंशीजी भोजन करके अभी बाहर आये थे। उसे देखते ही बोले – जानते हो, कै बजे हैं? बारह का वक्त है।
जियाराम ने बड़ी नम्रता से कहा – डॉक्टर सिन्हा मिल गए। उनके साथ उनके घर तक चला गया। उन्होंने खाने के लिए जिद की मजबूरन खाना पड़ा। इसी से देर हो गई।
मुंशीजी – डॉक्टर सिन्हा से दुखड़े रोने गये होगे या और कोई काम था?
जियाराम की नम्रता का चौथा भाग उड़ गया, बोला – दुखड़े रोने की मेरी आदत नहीं है।
मुंशीजी – जरा भी नहीं, तुम्हारे मुंह में तो जबान ही नहीं मुझसे जो लोग तुम्हारी बातें करते हैं, वह गढ़ा करते होंगे!
जियाराम – और दिनों की मैं नहीं कहता, लेकिन आज डॉक्टर सिन्हा के यहां मैंने कोई ऐसी बात नहीं की, जो इस वक्त आपके सामने न कर सकूं।
मुंशीजी – बड़ी खुशी की बात है। बेहद खुशी हुई! आज से गुरुदीक्षा ले ली है क्या?
जियाराम की नम्रता का चतुर्थांश और गायब हो गया। सिर उठाकर बोला – आदमी बिना गुरुदीक्षा लिये हुए भी अपनी बुराइयों पर लज्जित हो सकता है। अपना सुधार करने के लिए गुरुमंत्र कोई जरूरी चीज नहीं।
मुंशीजी – अब तो लुच्चे जमा न होंगे?
जियाराम – आप किसी को लुच्चा क्यों कहते हैं, जब तक ऐसा कहने के लिए आपके पास कोई प्रमाण नहीं।
मुंशीजी – तुम्हारे दोस्त सब लुच्चे लफंगे है। एक भी भला आदमी नहीं। मैं तुमसे कई बार कह चुका हूं कि उन्हें मत जमा किया करो, तुमने सुना नहीं। आज मैं आखिरी बार कहे देता हूं कि अगर तुमने उन शोहदों को जमा किया, तो मुझे पुलिस की सहायता होनी पड़ेगी।
जियाराम की नम्रता का एक चतुर्थांश और गायब हो गया। फड़ककर बोला – अच्छी बात है, पुलिस क्या करती है? मेरे दोस्तों में आधे से ज्यादा पुलिस के अफसरों ही के बेटे हैं। जब आप ही मेरा सुधार करने पर तुले हुए है, तो मैं व्यर्थ क्यों कष्ट उठाऊं।
यह कहता हुआ जियाराम अपने कमरे में चला गया और एक क्षण के बाद हारमोनियम ‘के मीठे स्वरों की आवाज आने लगी।
सहृदयता का जलाया हुआ दीपक निर्दय व्यंग के हर एक झोंके से बुझ गया। अड़ा हुआ घोड़ा चुमकारने से जोर मारने लगा था, पर हण्टर पड़ते ही फिर अड़ गया और गाड़ी पीछे ढकेलने लगा।
