निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग - 30

निर्मला को यद्यपि अपने घर के झंझटों से अवकाश न था, पर कृष्णा के विवाह का संदेश पाकर वह किसी तरह न रुक सकी। उसकी माता ने बहुत आग्रह करके बुलाया था। सबसे बड़ा आकर्षण यह था कि कृष्णा का विवाह उसी घर में हो रहा था, जहाँ निर्मला का विवाह पहले तय हुआ था। आश्चर्य यही था कि इस बार वे लोग बिना कुछ दहेज लिए कैसे विवाह करने पर तैयार हो गए।

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निर्मला को कृष्णा के लिए योग्य वर मिले; लेकिन उधर वकील साहब ने घर बैठ जाने और महाजन के नालिश कर देने से उसका हाथ तंग था। ऐसी दशा में यह खबर पाकर उसे बड़ी शान्ति मिली। चलने की तैयारी कर दी। वकील साहब स्टेशन तक पहुंचाने आये। नन्ही बच्ची से उन्हें प्रेम था। छोड़ते ही न थे, यहाँ तक कि निर्मला के साथ चलने को तैयार हो गए, लेकिन विवाह के एक महीने पहले उनका ससुराल जा बैठना निर्मला को उचित न मालूम हुआ।

निर्मला ने अपनी माता से अब तक अपनी विपत्ति कथा न कही थी। जो बात हो गई, उसका रोना माता को कष्ट देने और रुलाने से क्या फायदा? इसलिए उसकी माता समझी थी, निर्मला बड़े आनन्द से है। अब जो निर्मला की सूरत देखी तो मानो उसके हृदय पर धक्का सा लग गया। लड़कियां ससुराल से घुलकर नहीं आती, फिर निर्मला जैसी लड़की, जिसको सुख की सभी सामग्रियां प्राप्त थी? उसने कितनी लड़कियों को दूज के चन्द्रमा की भांति ससुराल जाते और पूर्ण चन्द्र बनकर मन में कल्पना कर रही थी, निर्मला का रंग निखर गया होगा, देह भर सुडोल हो गयी होगी – अंग-प्रत्यंग की शोभा कुछ और ही हो गई होगी। अब जो देखा, तो वह आधी भी न रही थी। न यौवन की चंचलता थी, न वह विहसित छवि, जो हृदय को मोह लेती है वह कमनीयता, सुकुमारता, जो विलासमय जीवन में आ जाती है, यहाँ नाम को न थी। मुख पीला, चेष्टा गिरी हुई, अंग शिथिल। उन्नीसवें ही वर्ष में बुड्ढी हो गई थी। जब मां-बेटियां रो-धोकर शान्त हुई तो माता ने पूछा – क्यों री, तुझे क्या तकलीफ थी?

कृष्णा ने हंसकर कहा – वहाँ मालिकन थीं कि नहीं? मालकिन को दुनियाभर की चिन्ताएं रहती हैं, भोजन कब करे।

निर्मला – नहीं अम्मा, वहाँ का पानी मुझे रास नहीं आता। तबीयत मरी रहती है।

माता – वकील साहब न्योते में आएंगे न? तब पूछूंगी कि आपने फूल-सी लड़की ले जाकर उसकी यह गत बना डाली। अच्छा, यह बता कि तूने यहाँ रुपये क्यों भेजे थे? मैंने तो तुझसे कभी न मांगे थे। लाख गयी-गुजरी हूं लेकिन बेटी का धन खाने की नीयत नहीं।

निर्मला ने चकित होकर पूछा – किसने रुपये भेजे थे अम्मा! मैंने तो नहीं भेजे।

माता – झूठ न बोल! तूने 500 रु के नोट नहीं भेजे थे?

कृष्णा – भेजे नहीं थे तो क्या आसमान से आ गए? तुम्हारा नाम साफ लिखा था। मोहर भी वहीं की थी।

निर्मला – चरण छूकर कहती हूं मैंने रुपये नहीं भेजे। यह कब की बात है?

माता – अरे, यह दो ढाई महीने हुए होंगे। मगर तूने नहीं भेजे, तो आये कहां से?

निर्मला – यह मैं क्या जानूं? मगर मैंने रुपये नहीं भेजे। हमारे यहाँ तो जब से जवान बेटा मरा है, कचहरी ही नहीं जाते। मेरा हाथ तो आप ही तंग था, रुपये कहां से आते?

माता – यह बड़े आश्चर्य की बात है। वहाँ और कोई तेरा सगा-संबंधी तो नहीं है? वकील साहब ने तुमसे छिपाकर तो नहीं भेजे?

निर्मला – नहीं अम्मा, मुझे तो विश्वास नहीं।

माता – इसका पता लगाना चाहिए। मैंने सारे रुपये कृष्णा के गहने-कपड़े में खर्च कर डाले। यही बड़ी मुश्किल हुई।

दोनों लड़कों में किसी विषय पर विवाद उठ खड़ा हुआ और कृष्णा उधर फैसला करने चली गई, तो निर्मला ने माता से कहा – इस विवाह की बात सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। यह कैसे हुआ अम्मा?

माता – यहाँ जो सुनता है, दाँतों उंगली दबाता है। जिन लोगों ने पक्की करायी बात फेर दी, और केवल थोड़े से रुपये के लोभ से, वे अब बिना कुछ लिए कैसे विवाह करने को तैयार हो गए, समझ में नहीं आता। उन्होंने खुद पत्र भेजा। मैंने साफ लिख दिया कि मेरे पास देने-लेने को कुछ नहीं है, कन्या ही से आपकी सेवा कर सकती हूं।

निर्मला – इसका कुछ जवाब नहीं दिया?

माता – शास्त्रीजी पत्र लेकर गये थे। वह तो यही कहते थे कि अब मुंशीजी कुछ लेने के इच्छुक नहीं है। अपनी पहली वादाखिलाफी पर कुछ लज्जित भी हैं। मुंशीजी से तो इतनी उदारता की आशा न थी, मगर सुनती हूं उनके बड़े पुत्र सज्जन आदमी हैं। उन्होंने कह-सुनकर बाप को राजी किया है।

निर्मला – पहले तो वह महाशय भी थैली चाहते थे न?

माता – हां, मगर अब तो शास्त्रीजी कहते थे कि दहेज के नाम से चिढ़ते हैं। सुना है, यहाँ विवाह न करने पर पछताते भी थे। रुपये के लिए बात छोड़ी थी, और रुपये खूब पाये पर स्त्री पसंद नहीं।

निर्मला के मन में उस पुरुष को देखने की प्रबल उत्कंठा हुई, जो उसकी अवहेलना करके अब उसकी बहिन का उद्धार करना चाहता है। प्रायश्चित सही, लेकिन कितने ऐसे प्राणी है, जो इस तरह प्रायश्चित करने को तैयार हैं? उनसे बातें करने के लिए, नम शब्दों से उनका तिरस्कार करने के लिए, अपनी अनुपम छवि दिखाकर उन्हें और भी जलाने के लिए निर्मला का मन अधीर हो उठा। रात को दोनों बहिनें एक ही कमरे में सोयी। मुहल्ले में किन-किन लड़कियों का विवाह हो गया, कौन-कौन लड़कौरी हुई, किस-किसका विवाह धूमधाम से हुआ, किस-किसके पति कन्या के इच्छानुकूल मिले, कौन कितने और कैसे-कैसे गहने को चढ़ावे में लाया इन्हीं विषयों पर दोनों में बड़ी देर तक बातें होती रही। कृष्णा बराबर चाहती थी कि बहिन के घर का कुछ हाल पूछूं मगर निर्मला उसे पूछने का अवसर न देती थी। वह जानती थी कि वह जो बातें पूछेगी, उनके बताने में मुझे संकोच होगा। एक बार कृष्णा पूछ ही बैठी – जीजा जी भी आएंगे न?

निर्मला – आने को कहा तो है।

कृष्णा – अब तो तुमसे प्रसन्न रहते हैं न या अब भी वही हाल है? मैं तो सुना करती थी, दुहाजू पति अपनी स्त्री को प्राणों से भी प्रिय समझते हैं, यहाँ बिल्कुल उल्टी बात देखी। आखिर किस बात पर बिगड़ते रहते हैं?

निर्मला – अब मैं किसी के मन की बात क्या जानूं!

कृष्णा – मैं तो समझती हूं तुम्हारी रुखाई से चिढ़ते होंगे। तुम तो यहीं से जली हुई गयी थी। वहां भी उन्हें कुछ कहा होगा।

निर्मला – यह बात है कृष्णा, मैं सौगन्ध खाकर कहती हूं जो मेरे मन में उनकी ओर से जरा भी मैल हो। मुझसे जहां तक हो सकता है, उनकी सेवा करती हूं। अगर उनकी जगह कोई देवता भी होता, तो भी मैं इससे ज्यादा और न कुछ कर सकती। उन्हें भी मुझसे प्रेम हैं। बराबर मेरा मुंह देखते रहते हैं, लेकिन जो बात उनके और मेरे काबू के बाहर है, उसके लिए वह क्या कर सकते हैं, और मैं क्या कर सख्ती हूं! न वह जवान हो सकते हैं, न मैं बुढ़िया हो सकती हूं। जवान बनने के लिए वह न जाने कितने रस और भस्म खाते रहते हैं, मैं बुढ़िया बनने के लिए दूध, घी सब छोड़ देती हूं। सोचती हूं मेरे दुबलेपन ही से अवस्था का भेद कुछ कम हो जाये, लेकिन न उन्हें पौष्टिक पदार्थों से कुछ लाभ होता है, न मुझे उपवासों से। जब से मंसाराम का देहान्त हो गया है, तब से उनकी दशा और खराब हो गई है।

कृष्णा – मंसाराम को तुम भी बहुत प्यार करती थीं?

निर्मला – वह लड़का ऐसा था जो देखता था, प्यार करता था। ऐसी बड़ी-बड़ी डोरेदार आंखें मैंने किसी की नहीं देखीं। कमल की भांति मुख हरदम खिला रहता था। ऐसा साहसी कि अगर अवसर आ जाता, तो आग में फाँद जाता। कृष्णा मैं तुम से सब कहती हूं जब मेरे पास आकर बैठ जाता, तो मैं अपने को भूल जाती थी। जी चाहता था, वह हरदम सामने बैठे रहे और मैं देखा करूं। मेरे मन में पाप का लेश भी न था। अगर एक क्षण के लिए भी मैंने उसकी ओर किसी और भाव से देखा हो, तो मेरी आँखें फूट जायें पर न जाने क्यों उसे अपने पास देखकर मेरा हृदय फूला न समाता था। इसीलिए मैंने उससे पढ़ने का स्वांग रचा, नहीं तो वह घर में आता ही न था। यह मैं जानती हूं कि अगर उसके मन में पाप होता, तो मैं उसके लिए सब कुछ कर सकती थी।

कृष्णा – अरे बहिन, चुप रहो, कैसी बात मुँह से निकालती हो।

निर्मला – हां, हां, यह बात सुनने में बुरी मालूम होती है, और है भी बुरी, लेकिन मनुष्य की प्रकृति को कोई नहीं बदल सकता। तू ही बता, एक पचास बर्ष के मर्द से तेरा विवाह हो जाये तो क्या करेगी?

कृष्णा – मैं तो, जहर खाकर सो रहूँ। मुझसे मुँह देखते भी न बने।

निर्मला – तो बस यही समझ ले। उस लड़के ने कभी मेरी ओर आँख उठाकर नहीं देखा, लेकिन बुड्ढे शक्की तो होते ही हैं – तुम्हारे जीजा उस लड़के के दुश्मन हो गए, और आखिर उसकी जान लेकर ही छोड़ी। जिस दिन से उसे ज्वर चढ़ा तो जान लेकर ही उतरा। हाय! उस अन्तिम समय का दृश्य आँखों से नहीं उतरा। मैं अस्पताल गयी थी, वह ज्वर में बेहोश था – उठने की शक्ति न थी, लेकिन ज्यों ही मेरी आवाज सुनी, चौंककर और ‘माता-माता’ कहकर मेरे पैरों पर गिर पड़ा। (रोकर) कृष्णा! उस समय ऐसा जी चाहता था कि अपने प्राण निकलकर उसे दे दूं। मेरे पैरों पर ही वह मूर्छित हो गया और आँखें न खोली। डॉक्टरों ने उसके देह में ताजा खून डालने का प्रस्ताव किया था, यह सुनकर मैं दौड़ी गई थी, लेकिन डॉक्टर लोग वह क्रिया आरम्भ करें, उसके प्राण निकल गए।

कृष्णा – ताजा रक्त पड़ जाने से उसकी जान बच जाती?

निर्मला – कौन जानता है? लेकिन मैं तो अपनी रुधिर की अन्तिम बूंद तक देने को तैयार थी! उस दशा में भी उसका मुख-मण्डल दीपक की भांति चमकता था। अगर वह मुझे देखते ही दौड़कर मेरे पैरों पर न गिर पड़ता और पहले कुछ रक्त देह में पहुंच जाता, तो शायद बच जाता।

कृष्णा – तो तुमने उन्हें उसी वक्त लिटा क्यों न दिया?

निर्मला – अरे पगली, तू अभी तक बात न समझी। वह मेरे पैरों पर गिरकर और माता-पुत्र का सम्बन्ध दिखाकर अपने बाप के दिल से वह सन्देह निकाल देना चाहता था। केवल इसीलिए वह उठा था। मेरा क्लेश मिटाने के लिए उसने प्राण दिये और उसकी वह इच्छा पूरी हो गई। तुम्हारे जीजाजी उसी दिन से सीधे हो गए। अब तो उनकी दशा पर मुझे दया आती है। पुत्रशोक उनके प्राण लेकर छोड़ेगा। मुझ पर संदेह करके जो अन्याय किया है, अब उनका प्रायश्चित कर रहे हैं। अबकी उनकी सूरत देखकर तू डर जायेगी। बूढ़े बाबा हो गए हैं। कमर भी झुक चली है।

कृष्णा – बुड्ढे लोग इतने शक्की क्यों होते हैं, बहिन?

निर्मला – यह जाकर बुड्ढों से पूछो।

कृष्णा – मैं तो समझती हूँ उनके दिल में हरदम एक चोर-सा बैठा रहता होगा कि युवती को प्रसन्न नहीं रख सकता। इसीलिए जरा-जरा-सी बात पर उन्हें शक होने लगता है।

निर्मला – जानती तो फिर मुझसे क्यों पूछती है?

कृष्णा – इसीलिए बेचारा स्त्री से दबता भी होगा। देखने वाले समझते होंगे कि यह प्रेम करता है।

निर्मला – तूने इतने ही दिनों में इतनी बातें कहाँ से सीख ली? इन बातों को जाने दे बता, तुझे अपना वर पसंद है? उसकी तस्वीर तो देखी होगी?

कृष्णा – हां, आयी तो थी। लाऊँ देखोगी?

एक क्षण में कृष्णा ने तस्वीर लाकर निर्मला के हाथ में रख दी।

निर्मला ने मुस्कराकर कहा – तू बड़ी भाग्यवान है।

कृष्णा – अम्माजी ने भी बहुत पसन्द किया।

निर्मला – तुझे पसन्द है कि नहीं, सो कह; दूसरों की बात न चला।

कृष्णा – (लजाती हुई) शक्ल सूरत तो बुरी नहीं है, स्वभाव का हाल ईश्वर जाने। शास्त्रीजी तो कहते थे, ऐसे सुशील और चरित्रवान कम होंगे।

निर्मला – यहाँ से तेरी तस्वीर गई थी?

कृष्णा – गई तो थी, शास्त्रीजी तो ले गए थे।

निर्मला – उन्हें पसन्द आई?

कृष्णा – अब किसी के मन की बात मैं क्या जानूं? शास्त्रीजी तो कहते थे, बहुत खुश हुए थे।

निर्मला – अच्छा, बता तुझे क्या उपहार दूं? अभी से बता दे जिसमें बनवा रखूं।

कृष्णा – जो तुम्हारा जी चाहे दे देना। उन्हें पुस्तकों से बहुत प्रेम है। अच्छी-अच्छी पुस्तकें मँगवा देना।

निर्मला – उनके लिए नहीं पूछती तेरे लिए पूछती हूँ।

कृष्णा – अपने ही लिए तो मैं कह रही हूँ।

निर्मला – (तस्वीर की तरफ देखती हुई) कपड़े सब खद्दर के मालूम होते हैं।

कृष्णा – हां, खद्दर के बड़े प्रेमी है। सुनती हूं कि पीठ पर खद्दर लादकर देहातों में बेचने जाया करते हैं। व्याख्यान देने में बड़े चतुर हैं।

निर्मला – तब तो तुझे भी खद्दर पहनना पड़ेगा। तुझे तो मोटे कपड़ों से चिढ़ है।

कृष्णा – जब उन्हें मोटे कपड़े अच्छे लगते हैं, तो मुझे क्यों चिढ़ होगी; मैंने तो चरखा चलाना सीख लिया है।

निर्मला – सच। सूत निकाल लेती है?

कृष्णा – हां बहिन, थोड़ा-थोड़ा लेती हूँ। जब वह खद्दर के इतने प्रेमी है तो चरखा भी जरूर चलाते होंगे। मैं न चला सकूंगी, तो मुझे कितना लज्जित होना पड़ेगा।

इस तरह बात करते-करते दोनों बहिनें सोयी, कोई दो बजे रात को बच्ची रोयी तो निर्मला की नींद खुली। देखा तो कृष्णा की चारपाई खाली पड़ी थी। निर्मला को आश्चर्य हुआ कि इतनी रात गए, कृष्णा कहाँ चली गई। शायद पानी वानी पीने गयी हो मगर पानी तो सिरहाने रखा हुआ है, फिर कहां गयी है? उसने दो-तीन बार उसका नाम लेकर आवाज दी; पर कृष्णा का पता न था। तब तो निर्मला घबड़ा उठी। उसके मन में भाँति-भांति की शंकाएँ होने लगी। सहसा उसे ख्याल आया कि शायद अपने कमरे में न चली गई हो। बच्ची सो गई, तो वह उठकर कृष्णा के कमरे के द्वार पर आयी। उसका अनुमान ठीक था, कृष्णा अपने कमरे में थी। सारा घर सो रहा था और वह बैठी चरखा चला रही थी। इतनी तन्मयता से शायद उसने थियेटर भी न देखा होगा। निर्मला दंग रह गई और अन्दर जाकर बोली – क्या कर रही है रे! यह चरखा चलाने का समय है?

कृष्णा चौंक कर उठ बैठी और संकोच से सिर झुकाकर बोली – तुम्हारी नींद कैसे खुल गई? पानी-वानी तो मैंने रख दिया था।

निर्मला – मैं कहती हूं, दिन को तुझे समय नहीं मिलता, जो इतनी रात को चरखा लेकर बैठी है?

कृष्णा – दिन को फुरसत नहीं मिलती।

निर्मला – (सूत देखकर) सूत तो बहुत महीन है।

कृष्णा – कहां बहिन, यह सूत तो मोटा है। मैं बारीक सूत कातकर उनके लिए साफा बनाना चाहती हूं। यही मेरा उपहार होगा।

निर्मला – बात तो तूने खूब सोची है। इससे अधिक मूल्यवान वस्तु उनकी दृष्टि में और क्या होगी? अच्छा उठ इस वक्त, कल कातना। कहीं बीमार पड़ जायेगी, तो यह सब धरा रह जायेगा।

कृष्णा – नहीं मेरी बहिन; तुम चलकर सोओ, मैं अभी आती हूं।

निर्मला ने अधिक आग्रह नहीं किया – लेटने चली गई। मगर किसी तरह नींद न आई। कृष्णा की उत्सुकता और यह उमंग देखकर उसका हृदय किसी अलक्षित आकांक्षा से आन्दोलित हो उठा। ओह! इस समय इसका हृदय कितना प्रफुल्लित हो रहा है। अनुराग ने इसे कितना उन्मत्त कर रखा है। तब उसे अपने विवाह की याद आई। जिस दिन तिलक गया था, उसी दिन से उसकी सारी चंचलता, सारी सजीवता विदा हो गई थी। अपनी कोठरी में बैठी वह अपनी किस्मत को रोती थी और ईश्वर से विनय करती थी कि प्राण निकल जाएँ। अपराधी जैसे दण्ड की प्रतीक्षा करता है, उसी भांति वह विवाह की प्रतीक्षा करती थी – उस विवाह की, जिसमें उसके जीवन की सारी अभिलाषाएँ विलीन हो जायेंगी, जब मण्डप के नीचे बने हुए एक हवन-कुण्ड में उसकी आशाएँ जलकर भस्म हो जायेगी।