aankh ki kirkiri by ravindranath tagore
aankh ki kirkiri by ravindranath tagore

बिहारी बोल उठा-“आप फिक्र न करें, गिरना या बहोश हो जाने की भूमिका नहीं।”

जैसे ही गाड़ी खिसकी, महेन्द्र ने कहा-“न हो तो मैं ही ऊपर जाता हूं, बिहारी अन्दर आ जाए।”

आशा ने जल्दी से उसकी चादर खींची। कहा-“नहीं, तुम नहीं जा सकते।”

विनोदिनी बोली-“आपको आदत नहीं, क्या पता गिर-विर पड़ें।”

जोश में आकर महेन्द्र ने कहा “गिर पडूंगा? हर्गिज नहीं।”

और वह गाड़ी से बाहर निकलने का प्रयत्न करने लगा।

विनोदिनी-“तोहमत आप बिहारी बाबू पर लगाते हैं, मगर हंगामा मचाने में बेजोड़ तो आप ही हैं।”

महेन्द्र ने जरा मुंह लटकाकर कहा-“अच्छा एक काम करें। मैं एक और गाड़ी लेकर चलता हूं, बिहारी यहां आ जाए।”

आशा ने कहा, “तो मैं तुम्हारे ही साथ चलूंगी।”

विनोदिनी बोली-“और मैं तब गाड़ी में से कूद पडूं?” होते-होते झंझट आखिर निबट गया।

रास्ते-भर महेन्द्र बड़ा गम्भीर रहा।

गाड़ी दमदम के बगीचे में पहुंच गई। नौकरों वाली गाड़ी बहुत पहले ही रवाना हुई थी, पर लेकिन अभी तक उसका पता न था।

शरत् का सवेरा! बड़ा ही सुहाना। धूप निकल आई थी। ओस की बूंदें सूख चुकी थीं, पर निर्मल प्रकाश से पेड़-पौधे झिलमिला रहे थे। दीवार से लगी हरसिंगार की कतार थी। नीचे फूल बिछ गए थे। मह-मह खुशबू!

कलकत्ता की ईंट की ऊंची दीवार के घेरे से बाहर आकर आशा वन की हिरनी-सी उमग उठी। विनोदिनी के साथ उसने ढेरों फूल बीने, पेड़ से शरीफे तोड़े और नीचे बैठकर खाए। दोनों सखियों ने पोखर में देर तक स्नान किया। एक निरर्थक आनन्द से इन दो नारियों ने पेड़ों की छाया और छिटकी किरणों, पोखर के पानी और कुंजों के फूल-पत्तों को पुलकित सचेतन कर दिया।

दोनों सखियां नहा आईं। देखा, नौकरों वाली गाड़ी अब भी नदारद है। महेन्द्र बंगले के बरामदे में बिछी एक चौकी पर बैठा-बैठा उदास होकर एक विलायती इश्तहार पढ़ रहा था।

विनोदिनी ने पूछा-“और बिहारी बाबू?”

संक्षेप में महेन्द्र बोला-“पता नहीं।”

विनोदिनी-“चलिए, उन्हें ढूंढ़ें।”

महेन्द्र-“आखिर उन्हें कोई चुराकर तो ले नहीं जाएगा! ढूंढ़ें बिना भी मिल जाएंगे।”

विनोदिनी-“मगर हो सकता है, आपकी फिक्र से वह बेहाल हो रहे हों। चलकर उन्हें दिलासा ही दे आएं।”

तालाब के किनारे बंधा हुआ विशाल बरगद था। उसी के चौंतरे पर बिहारी अपना पैक-बक्स खोलकर मिट्टी के तेल का चूल्हा जलाकर पानी गरम कर रहा था। जैसे ही लोग पहुंचे, उसने सबको चौंतरे पर बिठाकर एक-एक प्याला गरम चाय और तश्तरी में दो-एक मिठाइयां देकर उनकी खातिर की। विनोदिनी बार-बार कहने लगी-“गनीमत है कि बिहारी बाबू सारा सरंजाम साथ ले आए हैं! वरना चाय न मिलती तो क्या हाल होता महेन्द्र बाबू का।”

चाय मिली, तो महेन्द्र जी उठा। फिर भी बोला-“यह सब बिहारी की ज्यादती है। आए हैं हज़रत पिकनिक को और यहां भी बदस्तूर सारा इन्तज़ाम उठा लाए हैं। इससे मजा नहीं रहता!”

बिहारी ने कहा-“अच्छा तो चाय का प्याला वापस दे दो! तुम चाय पिए बिना मौज करो-चूं भी न करूंगा।”

तपी दोपहरी की हवा पत्तों में मर्मराहट लाकर बहती रही, तालाब के बांध पर जामुन की डालों पर कोयल रह-रहकर कूकती रहीं। विनोदिनी अपने बचपन का किस्सा सुनाने लगी-मां-बाप की बात, छुटपन की सखी-सहेलियों की चर्चा। अचानक उसके माथे पर का पल्ला खिसक पड़ा। विनोदिनी की आंखों में कौतुक का जो तीखा कटाक्ष देख पैनी निगाहों वाले बिहारी के मन में आज तक तरह-तरह की शंकाएं उठती रही थीं, वह श्याम चमक जब एक शांत सजल रेखा से मंद पड़ गई, तो बिहारी ने मानो और ही नारी को देखा। लजीली सती की नाईं विनोदिनी एकांत भक्ति से पति की सेवा कर रही है, मंगलमयी माता के समान संतान को अपनी गोद में लिये हुए है-पहले यह छवि क्षण के लिए भी कभी बिहारी के मन में न आई-आज मानो जरा देर के लिए रंगमंच का परदा उठ गया और अन्दर का एक मंगल दृश्य उसे दिखाई दिया। बिहारी ने सोचा, “विनोदिनी बाहर से विलासिनी युवती तो है, पर उसके अंतर्मन में पूजा-निरत एक नारी तपस्या में लीन है।” एक लम्बी सांस तोड़कर बिहारी के मन-ही-मन कहा-“सही-सही अपने को मनुष्य आप भी नहीं जानता-अंतर्यामी ही जानते हैं-परिस्थितिवश जो रूप बाहर बन जाता है, दुनिया उसी को सच समझती है।” बिहारी ने बातों के सिलसिले को टूटने न दिया, प्रश्नों से उसे जगाए रहा।

आज सुबह ही जगने के जुल्म से थके हुए महेन्द्र की नींद पांच बजे खुली। आजिजी से बोला-“अब चल देना चाहिए।”

विनोदिनी ने कहा-“थोड़ी देर और रुकें तो?”

सामान सहेजने में अंधेरा हो आया। नौकर ने इतने में खबर दी, किराये की गाड़ी न जाने कहां गायब है। ढूंढ़े न मिली। गाड़ी बगीचे के बाहर खड़ी थी। दो गोरे जबर्दस्ती उसे लेकर स्टेशन चल दिए।

दूसरी गाड़ी ठीक करने के लिए नौकर भेजा गया। कुढ़ा हुआ महेन्द्र बार बार मन में कहने लगा-‘आज का दिन मुफ्त में बर्बाद हो गया।’ ऐसी नौबत आ गई कि अपनी अधीरता वह छिपा न सका।

बिहारी फिर कोच-बक्स पर जा बैठा। विनोदिनी चुपचाप बाहर की तरफ देखती रही-चांदनी में अवाक् पेड़ों की पांत दौड़ते हुए घने छाया-प्रवाह की तरह उसकी आंखों से होकर गुजरने लगी। आशा गाड़ी के एक कोने में सो गई और महेन्द्र सारी राह उदास बैठा रहा।

पिकनिक के दिन जो वाकया गुजरा उसके बाद फिर महेन्द्र में विनोदिनी को अपनाने की चाहत बढ़ने लगी। लेकिन दूसरे ही दिन राजलक्ष्मी को “लू हो गया। बीमारी कुछ खास न थी, फिर भी उन्हें तकलीफ और कमजोरी काफी थी। विनोदिनी रात-दिन उनकी सेवा में लगी रहती।

महेन्द्र बोला-“मां के सेवा-जतन में यों दिन-रात एक करोगी, तो तुम्हीं बीमार पड़ जाओगी।”

बिहारी ने कहा-“आप नाहक परेशान हैं, भैया! ये सेवा कर रही हैं, करने दो। दूसरा कोई ऐसी सेवा थोड़े ही करेगा।”

महेन्द्र बार-बार मरीज के कमरे में आने-जाने लगा। एक आदमी काम कुछ नहीं करता, लेकिन हर घड़ी पीछे लगा फिरता है, यह बात विनोदिनी को अच्छी न लगी। तंग आकर उसने दो-तीन बार कहा-“महेन्द्र बाबू, यहां बैठे रहकर आप क्या कर रहे हैं? जाइए, नाहक क्यों कालेज से गैर-हाजिर होते हैं?”

महेन्द्र उसके पीछे लगा डोलता है, इसका विनोदिनी को नाज था। खुशी थी। लेकिन फिर भी ऐसा क्या, बीमार मां के बिस्तर के पास भी क्षुब्ध बैठे रहना-उसका धीरज टूट जाता, घृणा होती। अपने ऊपर किसी काम की जिम्मेदारी रहने पर वह और किसी बात का ख्याल नहीं करती। जब तक खिलाना-पिलाना, रोगी की सेवा, घर के काम-धंधे की जरूरत रहती-किसी ने उसे कभी ढीला-ढाला नहीं देखा और वह खुद भी काम-काज के समय निकम्मापन पसंद नहीं करती।

कभी-कभी जरा देर को, मां का हाल पूछने के लिए बिहारी आ जाया करता। कमरे में कदम रखते ही वह समझ जाता कि काहे की जरूरत है; कहां कौन-सी चीज की कमी है, उसकी आंखें तुरंत ताड़ जातीं और लमहे-भर में सब कुछ ठीक करके वह कमरे से निकल जाता। विनोदिनी समझ रही थी कि मेरी सेवा को बिहारी श्रद्धा की नजर से देखता है। लिहाजा बिहारी के आने से उसे जैसे विशेष पुरस्कार मिलता था।

महेन्द्र नियम से कालेज जाने लगा। एक तो उसका मिजाज ही बड़ा कड़वा हो गया, उस पर यह कैसा परिवर्तन! समय पर खाना तैयार नहीं होता, साईस जाने कहां गायब रहता, मोजे का छेद धीरे-धीरे बड़ा होता जाता। ऐसी गड़बड़ में उसे पहले-जैसा आनन्द नहीं आता। जब जिस चीज की जरूरत हो, उसी क्षण उसे पा जाने से आराम कैसा होता है, इस बारे में वह कई दिन पहले ही स्वाद चख चुका था। अब उसकी कमी से आशा की जहालत में मजा खत्म हो गया-“चुन्नी, मैंने बाहर तुमसे कहा कि मेरे नहाने के पहले ही कुरते में बटन लगा रखना, अचकन, पतलून ठीक करके रखना-मगर यह कभी नहीं होता। नहाकर बटन लगाने और कपड़े ढूंढ़ने में ही मेरा घंटा-भर निकल जाता है।”

शर्मसार होकर आशा कहती-“मैंने बैरे से कह दिया था।”

“…बैरे से कह दिया था! खुद कर लेतीं तो कौन-सा गुनाह हो जाता! कभी जो तुमसे कोई काम हो!”

आशा पर मानो गाज गिरी। ऐसी झिड़की उसे कभी नहीं सुननी पड़ी। उसकी जबान पर या मन में यह जवाब न आया कि मेरी इस जहालत के तुम्हीं तो जिम्मेदार हो। उसे तो मालूम ही न था गृह-कार्य की कुशलता अभ्यास और अनुभव से आती है। वह सोचा करती थी कि अपनी अयोग्यता और निर्बुद्धिता के कारण ही मैं कोई भी काम ठीक से नहीं कर पाती। जब-जब महेन्द्र ने विनोदिनी की उपमा देकर आशा को धिक्कारा है, उसने उसे विनम्रता से स्वीकारा है।

कभी-कभी आशा बीमार सास के आस-पास चक्कर काटती, कभी-कभी शर्माई-सी दरवाजे के पास खड़ी हो जाती। उसकी इच्छा होती कि अपने आपको वह गृहस्थी के उपयुक्त बनाए, कुछ काम करके दिखाए, परन्तु उससे कोई भी काम नहीं लेना चाहता। वह जानती ही न थी कि कामों में पैठ कैसे हो? न जाने कैसी मनोवेदना उसमें भीतर ही भीतर बढ़ रही थी, लेकिन अपनी अस्पष्ट व्यथा और अजानी आशंका को वह साफ समझ नहीं पाती। वह खूब महसूस कर रही थी कि उसके चतुर्दिक का सब कुछ बर्बाद हो रहा है। -लेकिन यह सब कैसे बना था और नष्ट ही कैसे हो रहा है और कैसे इसका प्रतिकार हो-वह नहीं जानती। रह-रहकर यही कहने को जी चाहता कि मैं निरी अयोग्य हूं, – मेरी मूढ़ता की तुलना नहीं हो सकती।

अब तक तो पति-पत्नी दोनों घर के एक कोने में दुबके कभी बोल-बतियाकर कभी यों ही चुपचाप मजे में दिन बिताते रहे। मगर जब विनोदिनी न होती तो आशा के साथ अकेले बैठकर महेन्द्र बात ही न कर पाता।

महेन्द्र ने बैरे से पूछा-“किसकी चिट्ठी है?”

“बिहारी बाबू की।”

“किसने दी है?”

“बहूजी (विनोदिनी) ने।”

“देखू जरा।” चिट्ठी ले ली। जी में आया, फाड़कर उसे पढ़े। उलट-पलटकर देखा, फिर बैरे की तरफ फेंक दिया। खोलता कहीं, तो उसमें लिखा मिलता-“बुआ साबूदाना या बार्ली हर्गिज नहीं खाना चाहतीं। आज उन्हें थोड़ा-सा दाल का पानी दिया जा सकता है?” दवा-दारू के बारे में विनोदिनी महेन्द्र से कभी कुछ न पूछती-उसके लिए वह बिहारी पर ही निर्भर रहती।

बरामदे में कुछ देर चहलकदमी करके कमरे में आकर महेन्द्र ने देखा, कमरे की दीवार पर टंगी एक तस्वीर की डोरी टूटने वाली है और इसकी वजह से तस्वीर टेढ़ी हो गई है। आशा को डांटते हुए महेन्द्र ने कहा-“तुम कुछ भी नहीं देखतीं। इस तरह सारी चीजें बर्बाद हो रही हैं।”

दमदम के फूलों का जो गुच्छा बनाकर विनोदिनी ने पीतल की फूलदानी में सजाया था, वह आज भी वहीं सूखा पड़ा है। महेन्द्र कभी इन बातों पर गौर नहीं करता था, आज उसकी निगाह उस पर पड़ी। बोला-“जब तक विनोदिनी आकर फेंक न दे, यह पड़ा ही रहेगा।”

उसने फूल-समेत फूलदानी उठाकर बाहर फेंक दी। ठन्-ठन् बजती वह सीढ़ी पर लुढ़कती जा पड़ी। ‘आशा मेरे मन के लायक क्यों नहीं रहती, क्यों वह मेरे मन-मुताबिक काम नहीं करती?

महेन्द्र बाहर निकला। जाकर फूलदानी उठा लाया। कोने में एक मेज पड़ी थी। कुर्सी पर बैठकर उसी टेबल पर कोहनी टिकाए हाथों पर सिर रखे सोया रहा।

अंधेरा होने पर कमरे में बत्ती आई, लेकिन आशा नहीं। महेन्द्र छत पर जोर-जोर से चहल-कदमी करने लगा। रात के नौ बजे, महेन्द्र के सूने कमरे में आधी रात का सन्नाटा छा गया-आशा फिर भी न आई। महेन्द्र ने बुलावा भेजा। सकुचाई-सी आकर वह छत पर दरवाजे के पास ठिठक गई। महेन्द्र पास गया-उसे छाती से लगा लिया। पति के कलेजे से लगकर वह जोरों से रो पड़ी-अपने को जब्त न कर सकी, आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। कलेजे से लगा कर महेन्द्र ने उसके बालों को चूमा मौन आसमान के सितारे चुपचाप देखते रहे।

रात को महेन्द्र ने बिस्तर पर बैठकर बताया-“कालेज में मेरी रात की ड्यूटी लगी है, कुछ दिनों के लिए मुझे कालेज के ही आस-पास कहीं डेरा लेना पड़ेगा।”

आशा सोचने लगी-“गुस्सा शायद रह ही गया है? मुझ पर नाराज होकर तो नहीं जा रहे? आखिर निगुनी मैं पति को घर से रूखसत करके ही रही! मेरा तो मर जाना ही अच्छा था।”

लेकिन महेन्द्र के हाव-भाव में गुस्से का कोई लक्षण न दीखा। बड़ी देर तक वह चुप रहा। आशा के मुखड़े को कलेजे से लगाकर उंगली से बालों को चीरते-चीरते उसके जूड़े को ढीला कर दिया। पहले प्यार से महेन्द्र इसी तरह आशा का जूड़ा खोल दिया करता था-आशा इस पर एतराज करती थी। आज मगर उसने चूं भी न की। अचानक उसके कपाल पर आंसू की एक बूंद टपक पड़ी। महेन्द्र ने उसका मुंह अपनी ओर फेरकर स्नेह से रुंधे स्वर में पुकारा-“चुन्नी!”

आशा को कोई जवाब न मिला। अपने कोमल हाथों से उसने कसकर महेन्द्र को दबा लिया। महेन्द्र ने कहा-“मुझसे गलती हो गई, माफ कर दो।”

अपने फूल-से सुकुमार हाथ से महेन्द्र के होंठों को दबाती हुई वह बोली-“छि:, ऐसा न कहो! तुमने कोई कसूर नहीं किया। कसूर मेरा है। मुझे दासी के समान फटकारो। मुझे अपने पांवों में रहने लायक बना लो!”

जिस दिन जाना था, सुबह जगते समय महेन्द्र ने कहा-“चुन्नी, मेरी रतन, तुम्हें मैं अपने हृदय में सबसे ऊपर रखूंगा। कोई तुमसे आगे नहीं जा सकेगा।”

कलेजे को कड़ा कर सब तरह का त्याग करने को तैयार होकर उसने पति से अपनी एक निहायत मामूली-सी मांग की। बोली-“मुझे रोज-रोज चिट्ठी लिखना!”

महेन्द्र ने पूछा-“तुम भी लिखोगी?”

आशा ने कहा-“मैं क्या लिखना जानती हूं?”

उसके कान के पास की लट को सरकाता हुआ महेन्द्र बोला-“तुम अक्षय कुमार दत्त से भी अच्छा लिख सकती हो-जिसे चारुपाठ कहते हैं!”

आशा ने कहा-“मजाक रहने दो, हां।”

जाने के पहले आशा महेन्द्र का सामान सहेजने लगी। मोटे-मोटे गरम कपड़ों की तह बनाना कठिन था, बक्स में सबका सामान और भी कठिन। दोनों ने मिल कर दबा-दुबूकर जो एक बक्स में आ जाता, उसे दो बक्सों में रखा। फिर भी भूल से जो चीजें छूट गईं, उनकी कई गठरियां अलग से बन गईं। इससे आशा शर्म महसूस करती रही, तो भी आपस की छीना-झपटी और हंस-हंसकर एक-दूसरे को दोषी ठहराने में आनन्द के पिछले दिन लौट आए। यह तैयारी विदाई की है, जरा देर के लिए आशा यह भूल गई। साईस कम से कम दस बार जता गया कि गाड़ी तैयार है, मगर कौन सुनता है। अन्त में खिन्न होकर बोला-“खोल दो घोड़ों को।”

सुबह से तीसरा पहर हो गया और अब सांझ होने को आई। तब कहीं एक दूसरे को सेहत का ख्याल रखने की ताकीद करके, नियम से चिट्ठी लिखने का बार-बार वादा कराके भारी हृदय लिये दोनों जुदा हुए।

दो दिन हुए, राजलक्ष्मी उठने-बैठने लगी है। शाम को बदन पर एक मोटी चादर लपेटे विनोदिनी के साथ ताश खेल रही थीं। आज उसे कोई हरारत न थी। महेन्द्र कमरे में आया। विनोदिनी की तरफ उसने बिलकुल नहीं देखा। मां से बोला-“मां, कालेज में मेरी रात की ड्यूटी लगी है। यहां से आते-जाते नहीं बनता-कालेज के पास ही एक डेरा ले लिया है। आज से वहीं रहूंगा।”

राजलक्ष्मी अन्दर से रूठकर बोलीं-“जाओ, पढ़ाई में हर्ज होगा, तो रह भी कैसे सकते हो!”

बीमारी तो उनकी जाती रही थी, लेकिन जैसे ही उन्होंने सुना कि महेन्द्र जा रहा है, अपने को बीमार और कमजोर महसूस करने लगी। विनोदिनी से कहा-“जरा तकिया तो इधर खिसका दो, बिटिया!”