aankh ki kirkiri by ravindranath tagore
aankh ki kirkiri by ravindranath tagore

विनोदिनी ने झट अपना हाथ हटा लिया। कहा-“ऊंहूं, छोड़ दो। लहू बहने दो!”

महेन्द्र ने कहा-“पट्टी बांधकर एक दवा देता हूं-दर्द जाता रहेगा, घाव जल्दी ठीक हो जाएगा।”

विनोदिनी खिसक गई। बोली-“मैं दर्द मिटाना नहीं चाहती-यह जख्म रहे।”

महेन्द्र ने कहा-“आज बेताब होकर दूसरे के सामने मैंने तुम्हारी हेठी की है, माफ कर सकोगी मुझे?”

विनोदिनी बोली-“माफी किस बात की? ठीक किया है। मैं क्या किसी से डरती हूं? मैं किसी को नहीं मानती! जो मुझे धक्का देकर गिरा जाते हैं, वही क्या अपने सब हैं और जो पैर पकड़कर खींचते हुए रोक रखना चाहते हैं, वे कोई नहीं?”

महेन्द्र उन्मत्त-सा गद्गद् स्वर में बोला-“विनोदिनी! तो मेरे प्रेम को तुम पैरों से ठुकराओगी नहीं?”

विनोदिनी ने कहा-“सिर आंखों रखूंगी। जिन्दगी में मुझे इतना ज्यादा तो नहीं मिला कि मैं “नहीं चाहिए” कहकर लौटा दूं।”

महेन्द्र ने फिर तो दोनों हाथों से उसके दोनों हाथ थामकर कहा- “तो फिर मेरे कमरे में चलो! आज मैंने तुम्हारा दिल दुखाया है-तुम भी मुझे चोट पहुंचाकर चली आई हो, यह मलाल जब तक मिट नहीं जाता, मुझे न खाने में चैन है, न सोने में।”

विनोदिनी बोली-“आज नहीं। आज छोड़ दो मुझे। अगर मैंने तकलीफ पहुंचाई हो तो माफ करना!”

महेन्द्र बोला-“तुम भी माफ कर दो मुझे, वरना रात मैं सो नहीं सकूँगा।”

विनोदिनी बोली-“मैंने माफ कर दिया।”

उसी दम विनोदिनी से प्यार और क्षमा का निदर्शन पाने के लिए महेन्द्र व्यग्र हो उठा। लेकिन उसके मुंह की ओर नजर पड़ते ही वह ठिठक गया। विनोदिनी नीचे उतर गई और वह भी छत पर जाकर टहलने लगा। आज अचानक बिहारी के सामने उसकी चोरी पकड़ी गई, इससे उसके मन में मुक्ति की एक खुशी आई। चोरी-चुपके में एक घिनौनापन है. वह घिनौनापन मानो एक आदमी के पास प्रकट होने से बहुत हद तक जाता रहा। मन-ही-मन वह बोला-‘खुद को भला बताकर मैं अब यह झूठ नहीं चलाना चाहता-लेकिन मैं प्यार करता हूं, प्यार करता हूं-यह बात झूठी नहीं है।’ अपने प्रेम के गर्व से उसकी अकड़ इतनी बढ़ गई कि खुद को मानकर वह अकड़ में गर्व का अनुभव करने लगा।

दूसरे दिन सोकर उठते ही एक मीठे आवेग से महेन्द्र का हृदय परिपूर्ण हो गया। प्रभात की सुनहली किरणों ने मानो उसकी सभी चिंता-वासना पर सोना फेर दिया। कितनी प्यारी है पृथ्वी, कितना अच्छा आकाश! फूल के पराग जैसी हवा मानो उसके मन को उड़ा ले जाने लगी।

सवेरे-सवेरे मृदंग-मजीरे लिये वैष्णव भिखारी ने गाना शुरू कर दिया था। दरबान उन्हें खदेड़ने लगा। महेन्द्र ने दरबान को झिड़का और भिखारी को एक रुपया दे दिया। बैरा बत्ती लेकर लौट रहा था। लापरवाही से उसने बत्ती गिरा दी। चूर-चूर हो गई। महेन्द्र को देखकर तो उसके प्राण कूच करने लगे। महेन्द्र ने लेकिन डांट नहीं लगाई। कहा-“वहां अच्छी तरह से झाडू लगा दे, किसी को कांच न चुभ जाए।”

आज कोई नुकसान उसे नुकसान जैसा न लगा।

अब तक प्रेम पर्दे के पीछे नेपथ्य में छिपा बैठा था। अब सामने आकर उसने परदा उठा दिया है। मानो सारे संसार पर से परदा उठ गया। रोज-रोज की देखी-सुनी दुनिया की सारी तुच्छता गायब हो गई। पेड़-पौधे, राह चलते लोग, शहर की चहल-पहल… आज सब-कुछ जैसे अनोखा हो! संसारव्यापी यह नवीनता अब तक आखिर थी कहां!

उसे लगने लगा, आज विनोदिनी से और दिनों जैसा साधारण मिलन न होगा। आज सुबह से वह बेताब घूमता रहा-कालेज न जा सका। जाने मिलन की घड़ी अचानक कब आ जाए-यह तो किसी पत्र में लिखा नहीं।

घर के धंधों में जुटी विनोदिनी की आवाज कभी भंडार से, कभी रसोई से महेन्द्र के कानों में पहुंचने लगी। आज यह उसे अच्छा न लगा। आज मन ही मन विनोदिनी को उसने संसार से बहुत दूर ले जाकर स्थापित किया था।

समय काटे नहीं कट रहा था। महेन्द्र का खाना-पीना चुक गया। घर के काम-धन्धों से छुट्टी हुई। दोपहरी सुनसान हो गई। मगर विनोदिनी का पता नहीं। दुःख और सुख, बेताबी और उम्मीद में महेन्द्र के मन के सितार के सारे तार झनझनाने लगे।

कल जिसके लिए छीना-झपटी हुई थी, वह ‘विषवृक्ष’ किताब फर्श पर पड़ी थी। उसे देखते ही छीना-झपटी की याद हो आई और महेन्द्र के मन में पुलकन भरा आवेश जग गया। कल विनोदिनी ने जिस तकिये पर अपना सिर रखा था, उसे करीब खींचकर महेन्द्र ने उस पर अपना माथा रखा। पड़ा-पड़ा ‘विषवृक्ष’ के पन्ने पलटने लगा। जाने कब किताब में जी लग गया और कब पांच बज गए, पता नहीं।

इतने में एक मुरादाबादी थाली में फल-मिठाई और एक तश्तरी में बर्फ-चीनी डाल खुशबू-बसा खरबूजा लिये विनोदिनी आई। महेन्द्र से बोली-“क्या कर रहे हैं! आखिर बात क्या है, पांच बज गए और न तुमने मुंह-हाथ धोया, न कपड़े बदले!”

महेन्द्र के मन में एक धक्का-सा लगा। उसे क्या हुआ है, यह भी पूछने की बात है? महेन्द्र खाने लगा। विनोदिनी जल्दी से महेन्द्र के छत पर सूखते कपड़े लाकर तह करने और अपने कुशल हाथों से उन्हें आलमारी में करीने से रखने लगी।

महेन्द्र ने कहा-“जरा रुको तो सही, खा लूं; फिर मैं भी तुम्हारा हाथ बंटाता हूं।”

विनोदिनी ने हाथ जोड़कर कहा-“दुहाई है, और चाहे जो करो, हाथ मत बंटाना!”

महेन्द्र खा चुका तो उठकर बोला-“अच्छा, मुझे निकम्मा समझती हो खैर. हो जाए आज इम्तहान!”

और महेन्द्र ने नाहक ही कपड़े तह करने की कोशिश की।

विनोदिनी बोली- “जनाबेमन, आप रख दीजिए। मेरा काम मत बढ़ाइए!”

महेन्द्र बोला-“तो तुम काम किए जाओ, मैं देख-देखकर सीखूं।”

वह अलमारी के सामने विनोदिनी के पास जाकर बैठ गया। विनोदिनी कपड़े झाड़ने के बहाने कभी-कभी महेन्द्र की पीठ पर उन्हें पटककर ढंग से तह लगाने और सहेजने लगी।

और इस तरह आज का मिलन शुरू हुआ। तड़के से उठकर महेन्द्र ने जैसी कल्पना कर रखी थी, उस अनोखेपन का कोई आभास ही नहीं। महेन्द्र फिर भी दु:खी न हुआ, बल्कि उसे थोड़ा आराम मिला। अपने काल्पनिक आदर्श को किस तरह वह रूप देता, उसका ढंग क्या होता, क्या कहता, क्या जताता, तय नहीं कर पा रहा था। कपड़े सहेजने के इस हंसी-मजाक में मानो अपने गढ़े एक असम्भव और कठिन आदर्श से उसे मुक्ति मिली।

इतने में राजलक्ष्मी आई। कहा-“महेन्द्र, बहू कपड़े सहेज रही है, तू वहां बैठा क्या कर रहा है?”

विनोदिनी बोली-“जरा देखो तो सही बुआ, नाहक ही मेरे काम में देर कर रहे हैं।”

महेन्द्र बोला-“अरे-रे! मैं तो मदद कर रहा था।”

राजलक्ष्मी बोलीं-“हाय मेरी तकदीर! तू और मदद, सुनती है बहू, इसकी सदा की यही आदत है। मां-चाची के लाड़ में पला-कभी जो अपने हाथ से तिनका भी हिलाए!”

विनोदिनी से जब भी बातचीत होती सिर्फ यही कि इसका क्या किया जाए! यह तो हर बात में अपनी मां का मुंह देखता रहता है। वह उसकी सेवा का भार विनोदिनी पर डालकर निश्चित थीं, वह इससे भी खुश थी कि महेन्द्र ने विनोदिनी की मर्यादा समझी है। महेन्द्र को सुना-सुनाकर वह बोलीं-“बहू, आज तुमने महेन्द्र के गरम कपड़े धूप में सुखा लिए, कल उसके नए रूमालों में उसके नाम का हरुफ तुम्हें काढ़ देना पड़ेगा। जबसे तुम्हें साथ ले आई हूं, आदर-जतन तो कुछ किया नहीं, बस काम से ही परेशान करती रही।”

विनोदिनी ने कहा- “ऐसा कहोगी बुआ, तो मैं समझूंगी, तुम मुझे पराई समझती हो।”

दुलार से राजलक्ष्मी ने कहा-“अहा बिटिया, तुम्हारी जैसी अपनी और है कौन मेरी?”

विनोदिनी कपड़े सहेज चुकी। राजलक्ष्मी ने पूछा-“तो अब चीनी का सिरका चढ़ा दूं कि और कोई काम है तुम्हें?”

विनोदिनी बोली-“नहीं बुआ, और कोई काम नहीं है। चलो मिठाइयां बना लूं चलकर।”

महेन्द्र बोला-“अभी-अभी तो तुम रोना रो गई कि इसे काम से ही परेशान करती रही और फिर तुरन्त काम के लिए खींचे लिये जा रही हो।”

विनोदिनी की ठोड़ी पकड़ राजलक्ष्मी ने कहा-“मेरी रानी बिटिया को तो काम करना ही पसन्द नहीं है।”

महेन्द्र बोला-“आज मैंने सोच रखा था, इसके साथ कोई किताब पढ़ूंगा बैठकर क्योंकि मेरे पास कोई काम नहीं था।”

विनोदिनी ने कहा-“ठीक है बुआ, शाम को हम दोनों भाई साहब का पढ़ना सुनेंगी-क्यों?”

राजलक्ष्मी ने सोचा-“महेन्द्र बड़ा अकेला पड़ गया है-उसे बहलाए रखना जरूरी है।” बोलीं-“हां, ठीक तो है खाना बनाकर शाम हम लोग पढ़ना सुनने आएं?”

कनखियों से विनोदिनी ने एक बार महेन्द्र को देख लिया। वह बोला-“अच्छा।” लेकिन उसे कोई उत्साह नहीं रह गया। विनोदिनी राजलक्ष्मी के साथ-साथ चली गई।

नाराज होकर महेन्द्र ने सोचा-“ठीक है, मैं भी कहीं चला जाऊंगा और देर से लौटूंगा।” और उसी समय उसने बाहर जाने के लिए कपड़े बदले। बड़ी देर तक वह छत पर टहलता रहा, बार-बार जीने की तरफ ताकता रहा और अन्त में कमरे में जाकर बैठ गया। खीझकर मन ही मन बोला आज मैं मिठाई नहीं खाऊंगा। मां को यह बता दूंगा कि देर तक चीनी के रस को उबालते रहने से उसमें मिठास नहीं रहती।’

महेन्द्र को भोजन कराने के समय आज विनोदिनी राजलक्ष्मी को साथ ले आई। दम फूलने के डर से वे ऊपर नहीं आना चाहती थी। महेन्द्र बहुत गम्भीर होकर खाने बैठा।

विनोदिनी बोली-“अरे यह क्या भाई साहब, तुम तो आज कुछ खा ही नहीं रहे हो।”

परेशान होकर राजलक्ष्मी ने पछा-“तबियत तो खराब नहीं?”

विनोदिनी बोली-“इतने जतन से मिठाइयां बनाईं, कुछ तो खानी ही पड़ेंगी। ठीक नहीं बनीं शायद। तो फिर रहने दो। जिद पर खाना भी क्या! रहने दो!”

महेन्द्र बोला- “अच्छी मुसीबत में डाल दिया है! मिठाई ही खाने की इच्छा ज्यादा है और अच्छी भी लग रही है; तुम रोको भी तो सुनने क्यों लगा भला।”

दोनों ही मिठाइयां महेन्द्र रस लेकर खा गया।

खाना हो गया, तो तीनों महेन्द्र के कमरे में आ बैठे। राजलक्ष्मी ने कहा-“तूने कहा था न, कोई किताब पढ़ेगा। शुरू कर न!”

महेन्द्र बोला-“मगर उसमें धर्म और देवताओं की कोई बात नहीं है। तुम्हें अच्छी नहीं लगेगी।”

अच्छी नहीं लगेगी! जैसे भी हो, अच्छी तो राजलक्ष्मी को लगनी ही थी। महेन्द्र चाहे किसी भाषा में पढ़े, उसे अच्छी लगनी ही थी। आह, बेचारा महेन्द्र, बहू काशी चली गई है।- अकेला पड़ गया है। उसे जो अच्छा लगेगा, वह मां को अच्छा क्यों नहीं लगेगा?

विनोदिनी बोली-“एक काम क्यों नहीं करते भाई साहब, बुआ के कमरे में “शान्ति-शतक” पड़ा है, आज वही पढ़कर सुनाओ। बुआ को भी अच्छा लगेगा और शाम भी मजे में कटेगी।”

महेन्द्र ने बड़े ही करुण भाव से एक बार विनोदिनी की तरफ देखा। इतने में किसी ने आकर खबर दी-“मांजी, ललाइन आकर आपका इन्तजार कर रही हैं।”

ललाइन राजलक्ष्मी की जिगरी दोस्त है। शाम को उनसे गप-शप करने का लोभ छोड़ सकना उनके लिए असंभव है। फिर भी वह नौकरानी से बोली-“उनसे जाकर कह, आज मुझे महेन्द्र से कुछ काम है। कल मगर जरूर आए। मैं उनकी प्रतीक्षा करूंगी।”

महेन्द्र झटपट बोल उठा-“तुम उनसे मिल क्यों नहीं आती हो मां!”

विनोदिनी बोली-“न हो तो तुम रुको बुआ; मैं ही बल्कि उनके पास जाती हूं।”

राजलक्ष्मी प्रलोभन न छोड़ सकीं। बोलीं-“बहू, तब तक तुम यहां बैठो-देखूं, मैं अगर उन्हें रुखसत करके आ पाऊं। पढ़ना शुरू करो तुम लोग। मेरी प्रतीक्षा की जरूरत नहीं है।”

राजलक्ष्मी का कमरे से बाहर जाना था कि महेन्द्र से और न रहा गया। कह उठा-“जान-बूझकर क्यों तुम मुझे इस तरह परेशान करती हो?”

विनोदिनी ने अचरज से कहा-“मैंने क्या सताया तुम्हें! मेरा आना गुनाह है क्या? तो फिर क्या जरूरत है, मैं जाती हूं।”

और वह नाराज-सी होकर उठने लगी।

महेन्द्र ने उसका हाथ पकड़ लिया। बोला-“इसी तरह से तो तुम मुझे जलाया करती हो।”

विनोदिनी ने कहा-“अच्छा, मुझे किसी बात की खबर न थी कि मुझमें इतना तेज है। और तुम्हारी जान तो कम कठिन नहीं है, बेहद झेल सकते हो। शक्ल से तो समझना मुश्किल है कि काफी जले-झुलसे हो।”

महेन्द्र ने कहा-“शक्ल से क्या समझोगी?” -और उसने जबरदस्ती विनोदिनी का हाथ खींचकर अपनी छाती से लगा लिया।

विनोदिनी ‘उफ्’ कर उठी जोर से। महेन्द्र ने झट उसका हाथ छोड़ दिया। पूछा-“दर्द हो गया क्या?”

कल उसका हाथ जहां से कट गया था, वहां से फिर रक्त बहने लगा। अफसोस से महेन्द्र ने कहा-“गलती हो गई, मैं भूल गया था। लेकिन मैं आज वहां पर पटी बांधकर ही रहूंगा।”

विनोदिनी बोली-“नहीं-नहीं, कुछ नहीं हुआ। दवा मैं नहीं लगाती।”

महेन्द्र बोली-“क्यों?”

विनोदिनी ने कहा-“तुम्हारी डाक्टरी की मुझे जरूरत नहीं। जैसा है, वैसा ही रहे।”

महेन्द्र तुरन्त गम्भीर हो गया। मन ही मन बोला-“औरत का मन समझ पाना बहुत ही मुश्किल है।”

विनोदिनी उठ खड़ी हुई। रूठे महेन्द्र ने रोकने की कोशिश न की। केवल पूछा- “जा कहां रही हो?”

विनोदिनी बोली – “काम है।”

कहकर वह धीरे से चली गई।

महेन्द्र एक मिनट तो बैठा रहा, फिर उसे लौटाने के लिए तेजी से लपका। लेकिन सीढ़ी तक ही बढ़कर लौट आया और छत पर जाकर टहलने लगा।

विनोदिनी प्रतिपल उसे खींचा भी करती, मगर पास नहीं फटकने देती। कोई उसे जीत नहीं सकता, महेन्द्र को इस बात का नाज था। इस नाज को आज उसने तिलांजलि दे दी। लेकिन औरों को वह जीत सकता है क्या- उसका यह गर्व भी अब नहीं रहने का। आज उसने हार मान ली, पर हरा न सका। दिल की बाबत महेन्द्र का सिर सदा ऊंचा रहा था, वह अपना सानी नहीं समझता था-लेकिन उसी बात में उसे अपना सिर मिट्टी में गाड़ना पड़ा। अपनी जो ऊंचाई उसने खो दी, उसके बदले कुछ पाया भी नहीं।

फागुन-चैत में बिहारी की जमींदारी से सरसों के फल का शहद आता है और हर साल वह राजलक्ष्मी के लिए शहद भेजा करता था। इस बार भी भेज दिया।

शहद का मटका विनोदिनी खुद राजलक्ष्मी के पास ले गई। कहा-“बुआ, बिहारी भाई साहब ने भिजवाया है।”

राजलक्ष्मी ने उसे भंडार में रख देने को कहा। बोली-“बिहारी बाबू तुम लोगों की खोज खबर में कभी नहीं चूकते। बेचारे की मां नहीं, तुम्हें ही मां मानते हैं।”

राजलक्ष्मी बिहारी को महेन्द्र की ऐसी एक छाया समझा करती थीं कि उसके बारे में विशेष कुछ जानती न थीं। वह उसका बिना दाम का, बिना जतन का और बिना चिन्ता का फरमाबरदार था। विनोदिनी ने उन्हें उसकी मां के बारे में जो बताया, वह बात उनके मर्म को छू गई। सहसा उन्हें लगा-‘सच ही, बिहारी की मां नहीं, वह मुझे ही मां मानता आया है। याद आया, दु:ख परेशानी में, रोग-शोक में बिना बुलाए, बिहारी सदा चुपचाप निष्ठा के साथ उनकी सेवा करता आया है। उन सेवाओं को राजलक्ष्मी निश्वास प्रश्वास की तरह ग्रहण करती रही हैं और उनके लिए किसी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने की बात उनके मन में भी न आई। लेकिन बिहारी की खोज-खबर किसी ने न रखी?’ अन्नपूर्णा जब तक थी, खोज-खबर रखती थीं।’ राजलक्ष्मी सोचा करती थीं कि बिहारी को वश में रखने के लिए अन्नपूर्णा आडम्बर फैलाती है।

उसांस लेकर राजलक्ष्मी ने कहा-“बिहारी कोख के लड़के जैसा ही है।”

कहते ही उनके जी में आया कि बिहारी अपने लड़के से भी ज्यादा करता है और उसने अपनी भक्ति सदा एक-सी रखी। खयाल आते ही एक लम्बा निश्वास बरबस उनके अन्तर से निकल पड़ा।

विनोदिनी बोली-“उन्हें तुम्हारे हाथ की रसोई बड़ी प्रिय है।”