महेन्द्र-“अच्छा, चलो, उन्हें देख आऊं।”
बहुत दिनों के बाद आशा ने इतनी-सी बात करके महेन्द्र जैसे हल्का हुआ। किसी दुर्भेद्य किले की दीवार-सी नीरवता मानो उन दोनों के बीच स्याह छाया डाले खड़ी थी महेन्द्र की ओर से उसे तोड़ने का काई हथियार न था, ऐसे समय आशा ने अपने हाथों किले में एक छोटा-सा दरवाजा खोल दिया। आशा सास के कमरे के दरवाजे पर खड़ी रही। महेन्द्र अन्दर गया। उसे असमय में अपने कमरे में आया देखकर राजलक्ष्मी को डर लगा। सोचा, ‘कहीं फिर दोनों में कहा-सुनी हो गई और वह चल देने की कहने आया हो।’ पूछा- “अब तक सोया नहीं महेन्द्र?”
महेन्द्र ने कहा- “क्या दमा उखड़ आया है, मां?”
जमाने के बाद यह सवाल सुनकर उनके मन में मान हो आया। समझीं, जब बहू ने जाकर बताया, तो यह मां का हाल पूछने आया है।’ इस आवेश से उनका कलेजा और भी कांपने लगा। किसी तरह बोलीं-“तू सो जाकर, यह कुछ नहीं।”
महेन्द्र-“नहीं, नहीं, एक बार जांच देखना अच्छा है। यह बीमारी टालने की नहीं।”
महेन्द्र को पता था, मां को हृदय की बीमारी है। इस वजह से तथा उनके चेहरे का लक्षण देखकर उसे घबराहट हुई।
मां ने कहा-“जांचने की जरूरत नहीं। मेरी यह बीमारी नहीं छूटेगी।”
महेन्द्र ने कहा-“खैर, आज की रात के लिए सोने की दवा ला देता हूं। सवेरे अच्छी तरह से देखा जाएगा।”
राजलक्ष्मी-“दवा ढेर खा चुकी, दवा से कुछ होता-जाता नहीं। बहुत रात हो गई, तुम सो जाओ।”
महेन्द्र-“तुम्हें जरा चैन तो मिले।”
इस पर राजलक्ष्मी ने दरवाजे पर खड़ी बहू को संबोधित करके कहा-“बहू, तुम रात में महेन्द्र को तंग करने के लिए यहां क्या ले लाई!”
कहते-कहते उनकी सांस की तकलीफ और भी बढ़ गई। तब आशा कमरे में आई उसने कोमल किन्तु दृढ़ स्वर में महेन्द्र से कहा- “तुम सोओ जाकर। मैं मां के पास रहूंगी।”
महेन्द्र ने आशा को अलग बुलाकर कहा-“मैंने एक दवा लाने भेजा है। दो-खुराक दवा होगी। एक से अगर नींद न आए तो घंटे भर बाद दूसरी खुराक देना। रात में सांस और बढ़े तो मुझे खबर देना।”
कहकर महेन्द्र अपने कमरे में चला गया। आशा आज जिस रूप में उसके सामने प्रकट हुई, उसके लिए वह रूप नया था। इस आशा में संकोच नहीं, दीनता नहीं-यह आशा अपने अधिकार में खड़ी हुई थी। अपनी स्त्री की महेन्द्र ने उपेक्षा की थी, मगर घर की बहू के लिए संभ्रम हुआ।
आशा उनकी देखभाल के खयाल से महेन्द्र को बुला लाई, इससे राजलक्ष्मी मन ही मन खुश हुईं। फिर बोलीं-मैंने तो तुम्हें सोने के लिए भेजा बहू, तुम फिर महेन्द्र को क्यों बुला लाई?”
आशा ने जवाब न दिया। पीछे बैठकर पंखा झलने लगी। राजलक्ष्मी ने कहा-“तुम सोओ जाकर, बहू।”
आशा धीमे से बोली-“मुझे यहीं रहने को कह गए हैं।”
आशा समझती थी कि यह जानकर मां खुश होंगी कि महेन्द्र उसे मां की सेवा के लिए छोड़ गया है।
राजलक्ष्मी ने जब साफ समझ लिया कि आशा महेन्द्र के मन को बांध नहीं पा रही है, तो उनके जी में आया, कम-से-कम मेरी बीमारी के नाते ही महेन्द्र को यहां रहना पड़े, तो भी अच्छा है। उन्हें डर लगा, कहीं वे सचमुच ठीक न हो जाएं। इसलिए आशा से छिपाकर दवा फेंकने लगीं।
अनमना महेन्द्र खास कुछ ख्याल नहीं करता था। लेकिन आशा यह देख रही थी कि राजलक्ष्मी की बीमारी दबने के बजाय कुछ बढ़ ही रही है। वह सोचती, ‘महेन्द्र खूब सोच विचारकर दवा नहीं दे रहा है-उसका मन इतना ही खराब हो गया है कि मां की तकलीफ भी उसे सचेतन नहीं कर पाती।’ उसकी इस दुर्गत पर आशा अपने मन में उसे धिक्कारे बिना न रह सकी। एक तरफ से बिगड़ने पर कोई क्या हर तरफ से बर्बाद हो जाता है।
एक दिन शाम को बीमारी की तकलीफ में राजलक्ष्मी को बिहारी की याद आ गई। जाने वह कब से नहीं आया। आशा से पूछा- “जानती हो बहू, बिहारी आजकल कहां है?”
“उसका महेन्द्र से कुछ झगड़ा है, क्यों? यह उसने बड़ा बेजा किया, बहू! उस-जैसा महेन्द्र का भला चाहने वाला और कोई दोस्त नहीं।”
कहते-कहते उनकी आंखों में आंसू जमा हो आए। एक-एक करके आशा को बहुतेरी बातें याद आईं। अंधी और भोली आशा को समय पर चेताने के लिए जाने कितनी बार, कितनी कोशिश बिहारी ने की और उन्हीं कोशिशों के चलते वह आशा का अप्रिय हो उठा।
फिर बड़ी देर तक चुपचाप चिंतित रहकर राजलक्ष्मी बोल उठीं-“बहू, बिहारी होता तो हमारे इस आड़े वक्त में बड़ा काम आता। वह हमें बचाता, बात यहां तक न बढ़ पाती।”
आशा चुपचाप सोचती रही। उसांस लेकर राजलक्ष्मी ने कहा- “उसे अगर मेरी बीमारी का पता चल जाए, तो वह हर्गिज नहीं रुक सकता।”
आशा समझ गई, राजलक्ष्मी चाहती हैं कि बिहारी को यह खबर मिले। बिहारी के न होने से वह असहाय-सी हो गई हैं।
कमरे की बत्ती गुल करके चांदनी में महेन्द्र खिड़की के पास चुप खड़ा था। पढ़ना अच्छा नहीं लग रहा था। घर में कोई आराम नहीं। जो नितांत अपने हैं, उनसे जब सहज नाता टूट जाता है तो उन्हें बिराने की तरह आसानी से छोड़ा नहीं जा सकता और फिर प्रियजन के समान सहज ही अपनाया भी नहीं जा सकता।
पीछे आहट मिली। महेन्द्र ने समझा, आशा आई है। मानो आहट उसे मिली ही नहीं, इस भाव से वह स्थिर खड़ा रहा। आशा बहाना ताड़ गई, फिर भी वह कमरे से बाहर नहीं गई। पीछे खड़ी-खड़ी बोली-“एक बात है, वही कहकर मैं चली जाऊंगी।”
महेन्द्र ने पलटकर कहा-“जाना ही क्यों पड़ेगा-जरा देर बैठ ही जाओ।”
इस भलमनसाहत पर उसने ध्यान न दिया। स्थिर खड़ी-खड़ी बोली-“बिहारी भाई साहब को मां की बीमारी की खबर देना लाजिमी है।”
बिहारी का नाम सुनते ही महेन्द्र के गहरे जख्म पर चोट लगी। अपने को संभालकर वह बोला-“लाजिमी क्यों है, मेरे इलाज का भरोसा नहीं हो रहा है, क्यों?”
आशा ने मन में यह शिकायत भरी-सी थी कि महेन्द्र मां के इलाज में उतना ध्यान नहीं दे रहा है, तो उसके मुंह से निकल पड़ा-“कहां, उनकी बीमारी तो जरा भी नहीं सुधरी, बल्कि दिन-दिन बढ़ती ही जा रही है।”
इस मामूली बात में जो आंच थी, महेन्द्र ने उसे समझा। ऐसी गहरी भर्त्सना आशा ने महेन्द्र की कभी नहीं की। महेन्द्र अपने अहंकार से आहत हो विस्मित व्यंग्य के साथ बोला-“देखता हूं, तुमसे डाक्टरी सीखनी पड़ेगी।”
इस व्यंग से आशा को उसकी जमी हुई वेदना पर अप्रत्याशित चोट लगी। तिस पर कमरा अंधेरा था, जो सदा ही चुप रह जाने वाली आशा आज बे-खटके तेजी के साथ बोल उठी-“डाक्टरी न सही, मां की सेवा सीख सकते हो।”
आशा से ऐसा जवाब पाकर महेन्द्र के अचरज की सीमा न रही। ऐसे तीखे वाक्य सुनने का वह आदी न था। वह कठोर हो उठा। बोला-“तुम्हारे बिहारी भाई साहब को यहां आने की मनाही क्यों की है-तुम, तो जानती हो-शायद फिर याद आ गई है!”
आशा तेजी से बाहर चली गई। शाम की आंधी मानो उसे ढकेल कर ले गई। शर्म अपने लिए न थी। जो आदमी सिर से पैर तक अपराध में डूबा हो, वह जुबान पर ऐसे झूठे अपवाद भी ला सकता है! इतनी बड़ी बेहयाई को लाज के पहाड़ से भी नहीं ढांका जा सकता।
आशा के चले जाने के बाद ही महेन्द्र अपनी पूरी हार का अनुभव कर सका। महेन्द्र को मालूम भी न था कि आशा कभी भी किसी भी अवस्था में महेन्द्र को इस तरह धिक्कार सकती है। उसे लगा, जहां उसका सिंहासन था, वहीं वह धूल में लोट रहा है। इतने दिनों के बाद अब उसे शंका होने लगी, ‘आशा की वेदना कहीं घृणा में न बदल जाए।’
और उधर बिहारी की चर्चा आते ही विनोदिनी की चिंता ने उसे बेताब कर दिया। पश्चिम से बिहारी लौटा या नहीं, कौन जाने? हो सकता है, इस बीच विनोदिनी उसका पता ले आई हो, विनोदिनी से बिहारी की भेंट भी असंभव नहीं। महेन्द्र से अब प्रतिज्ञा का पालन न हो सका।
रात को राजलक्ष्मी की तकलीफ बढ़ गई। उससे न रहा गया। उन्होंने महेन्द्र को बुलावा भेजा। बड़ी तकलीफ से बोली-“महेन्द्र, बिहारी को देखने को मेरा बड़ा जी चाहता है-बहुत दिनों से वह नहीं आया है।”
आशा सास को पंखा झल रही थी। मुंह नीचा किये बैठी रही। महेन्द्र ने कहा-“वह यहां नहीं है। जाने कहां पछाह गया है।”
राजलक्ष्मी ने कहा-“मेरी अंतरात्मा कह रही है, वह यहां है, सिर्फ, तुझसे रूठकर नहीं आ रहा है। मेरे सिर की कसम रही, कल तू एक बार उसके यहां जाना।”
महेन्द्र ने कहा-“अच्छा, जाऊंगा।”
आज सब बिहारी के लिए परेशान हैं।
दूसरे दिन तड़के ही महेन्द्र बिहारी के यहां पहुंच गया। देखा, दरवाजे पर कई बैल गाड़ियों पर नौकर-चाकर सामान लाद रहे हैं। महेन्द्र ने भज्जो से पूछा-“माजरा क्या है?” भज्जो ने कहा- “बाबू ने बाली में गंगा के किनारे एक बगीचा लिया है। यह सब वहीं जा रहा है।” महेन्द्र ने पूछा-“बाबू घर पर हैं क्या?” भज्जो ने कहा-“वे सिर्फ दो दिन कलकत्ता रुककर कल बगीचे चले गए।”
सुनते ही महेन्द्र का मन आशंका से भर गया। उसकी गैरहाजिरी में बिहारी से विनोदिनी की भेंट हुई है, इस पर उसे कोई सन्देह न रहा। उसने कल्पना की आंखों से देखा, विनोदिनी के डेरे के बाहर भी बैल गाड़ियां लद रही हैं। उसे यह निश्चित-सा लगा कि इसलिए मुझ नासमझ को विनोदिनी ने डेरे से दूर ही रखा है।
पल की भी देर न करके महेन्द्र गाड़ी पर सवार हुआ और कोचवान से हांकने को कहा। बीच-बीच में कोचवान को इसके लिए गालियां सुनाई कि घोड़े तेज नहीं चल रहे हैं। गली के अन्दर डेरे के दरवाजे पर पहुंचकर देखा, यात्रा की कोई तैयारी नहीं है। डर लगा, कहीं यह काम पहले ही न हो चुका हो। तेजी से किवाड़ के कड़े खटखटाए। अन्दर से जैसे ही बूढ़े नौकर ने दरवाजा खोला, महेन्द्र ने पूछा-“सब ठीक तो है?”
उसने कहा-“जी हां, ठीक ही है।”
ऊपर जाकर महेन्द्र ने देखा, विनोदिनी नहाने गई है। उसके सुने सोने के कमरे में जाकर महेन्द्र विनोदिनी के रात के बिस्तर पर लोट गया, दोनों हाथों से खींचकर चादर को छाती के पास ले आया और सूंघकर उस पर मुंह रखते हुए बोला-“बेरहम, निर्दयी!”
हृदय के उच्छ्वास को इस तरह निकालकर वह सेज से उठकर विनोदिनी का इन्तजार करने लगा। कमरे में चहलकदमी करते हुए देखा, फर्श के बिछौने पर एक अखबार खुला पड़ा है। समय काटने के खयाल से कुछ अनमना-सा होकर अखबार उठाकर देखा। जहां पर उसकी नजर पड़ी, वहीं पर बिहारी का नाम था। उसका मन बात की बात में अखबार देखते-देखते वहीं पर टूट पड़ा। किसी ने संपादक के नाम पत्र लिखा था, ‘मामूली वेतन पाने वाले गरीब किरानियों के बीमार होने पर निःशुल्क चिकित्सा और सेवा के लिए बिहारी ने बाली में एक बगीचा खरीदा है, वहां एक साथ पांच आदमियों के लिए प्रबन्ध हो चुका है, आदि-आदि।’
यह खबर विनोदिनी ने पढ़ी पढ़कर उसके मन में क्या हुआ होगा! बेशक उसका मन उधर ही भाग-भाग कर रहा होगा। न केवल इसीलिए बल्कि महेन्द्र का जी इस वजह से और भी छटपटाने लगा कि बिहारी के इस संकल्प से उसके प्रति विनोदिनी की भक्ति और भी बढ़ जाएगी। बिहारी को महेन्द्र ने अपने मन में ‘हम्बग’ और उसके इस काम को ‘सनक’ कहा।
विनोदिनी के पैरों की आहट सुनकर महेन्द्र ने अखबार मोड़ दिया। नहाकर विनोदिनी कमरे में जो आई, महेन्द्र उसके चेहरे की तरफ देखकर हैरत में आ गया। उसमें जाने कैसा एक अनोखा बदलाव आ गया था। मानो पिछले कई दिन तक वह धूनी जलाकर तप कर रही थी। शरीर उसका दुबला हो गया था और उस दुबलेपन को भेदकर उसके पीले चेहरे से एक दमक निकल रही थी
बिहारी के पत्र की उम्मीद उसने छोड़ दी है। अपने ऊपर बिहारी की बेहद हिकारत की कल्पना करके वह आठों पहर चुपचाप जल रही थी। बिहारी मानो उसी का तिरस्कार करके पछांह चला गया है-उस तक पहुंच पाने की कोई तरकीब उसे नहीं सूझी। काम-काजी विनोदिनी काम की कमी से इस छोटे-से घर में घुल रही थी- उसकी सारी तत्परता खुद उसी को घायल करती हुई चोट करती थी। उसके समूचे भावी जीवन को इस प्रेमहीन, कर्महीन, आनन्दहीन घर में इस संकरी गली में सदा के लिए कैद समझकर उसकी बागी प्रकृति हाथ न आने वाले अदृश्य के खिलाफ मानो आसमान से सिर मारने की बेकार कोशिश कर रही थी। जिस नादान महेन्द्र ने विनोदिनी की मुक्ति के सारे रास्तों को चारों तरफ से बंद करके जीवन को इतना संकरा बना दिया है, उस महेन्द्र के प्रति उसकी घृणा और विद्वेष की सीमा न रही।
विनोदिनी का दुबला-पीला चेहरा देखकर महेन्द्र के मन में ईर्ष्या जल उठी। उसमें ऐसी कोई शक्ति नहीं कि वह बिहारी की चिंता में लगी इस तपस्विनी को जबरदस्ती उखाड़ सके? गिद्ध जैसे मेमने को झपट्टा मारकर देखते ही देखते अपने अगम अभ्रभेदी पहाड़ के बसेरे में ले भागता है, क्या वैसी ही कोई मेघों से घिरी दुनिया की निगाहों से परे जगह नहीं, जहां महेन्द्र अकेला अपने इस सुन्दर शिकार को कलेजे के पास छिपाकर रख सके?
विरह की जलन स्त्रियों के सौंदर्य को सुकुमार कर देती है, ऐसा महेन्द्र ने संस्कृत-काव्यों में पढ़ा था। आज विनोदिनी को देखकर वह जितना ही अनुभव करने लगा, उतना ही सुख-सने दु:ख के आलोड़न से उसका हृदय बड़ा व्यथित होने लगा।
विनोदिनी जरा देर स्थिर रही। फिर पूछा- “तुम चाय पीकर आए हो?”
महेन्द्र ने कहा-“समझ लो, पीकर ही आया हूं, मगर इस वजह से अपने हाथ से प्याला देने की कंजूसी मत करो-प्याला मुझे दो।”
शायद जानकर ही विनोदिनी ने निहायत निर्दयता से महेन्द्र से इस उच्छ्वास को चोट पहुंचाई। कहा-“बिहारी भाई साहब इन दिनों कहां हैं, मालूम है?”
महेन्द्र का चेहरा फक हो गया। बोला-“कलकत्ता में तो वह नहीं हैं इन दिनों।”
विनोदिनी-“पता क्या है उनका?”
महेन्द्र-“यह तो वह किसी को बताना नहीं चाहता।”
विनोदिनी-“खोज नहीं की जा सकती पूछ-ताछ कर?”
महेन्द्र-“मुझे ऐसी जरूरत नजर नहीं आती।”
विनोदिनी-“जरूरत ही क्या सब-कुछ है, बचपन से आज तक की मैत्री क्या कुछ भी नहीं?”
महेन्द्र-“बिहारी मेरा छुटपन का साथी है, तुम्हारी दोस्ती महज दो दिन की है, फिर भी ताकीद तुम्हारी ही ज्यादा है।”
