aankh ki kirkiri by ravindranath tagore
aankh ki kirkiri by ravindranath tagore

कन्या देखने की बात महेन्द्र ने की जरूर मगर वह भूल गया फिर भी अन्नपूर्णा नहीं भूली। उन्होंने लड़की के अभिभावक, उसके बड़े चाचा को जल्दी में श्याम बाजार पत्र भेजा और एक दिन तय कर लिया।

महेन्द्र ने जब सुना कि देखने का दिन पक्का हो गया है तो बोला-“चाची, इतनी जल्दी क्यों की! बिहारी से तो मैंने अभी तक जिक्र नहीं किया।”

अन्नपूर्णा बोलीं-“ऐसा भी होता है भला! अब अगर तुम लोग न जाओ तो वे क्या सोचेंगे?”

महेन्द्र ने बिहारी को बुलाकर सारी बातें बताई कहा-“चलो तो सही लड़की न जंची, तो तुम्हें मजबूर नहीं किया जाएगा।”

बिहारी बोला-“यह मैं नहीं कह सकता। चाची की भानजी को देखने जाना है। देखकर मेरे मुंह से यह बात हर्गिज न निकल सकेगी कि लड़की मुझे पसन्द नहीं।”

महेन्द्र ने कहा-“फिर तो ठीक ही है।”

बिहारी बोला-“लेकिन तुम्हारी तरफ से यह ज्यादती है, महेन्द्र भैया! खुद तो हल्के हो जाएं और दूसरे के कंधे पर बोझ रख दें, यह ठीक नहीं। अब चाची का जी दुखाना मेरे लिए बहुत कठिन है।”

महेन्द्र कुछ शर्मिन्दा और नाराज होकर बोला-“आखिर इरादा क्या है तुम्हारा?”

बिहारी बोला-“मेरे नाम पर जब तुमने उन्हें उम्मीद दिलाई है तो मैं विवाह करूंगा। यह देखने जाने का ढोंग बेकार है।”

बिहारी अन्नपूर्णा की देवी की भांति भक्ति करता था। आखिर अन्नपूर्णा ने खुद बिहारी को बुलवा कर कहा-“ऐसा भी कहीं होता है, बेटे! लड़की देखे बिना ही विवाह करोगे। यह हर्गिज न होगा। लड़की पसंद न आए तो तुम हर्गिज ‘हां’ नहीं करोगे। समझे। तुम्हें मेरी कसम…!”

जाने के दिन कालेज से लौटकर महेन्द्र ने मां से कहा-“जरा मेरा वह रेशमी कुरता और ढाका वाली धोती निकाल दो!”

मां ने पूछा-“क्यों, कहां जाना है?”

महेन्द्र बोला-“काम है, तुम ला दो, फिर बताऊंगा।”

महेन्द्र थोड़ा संवरे बिना न रह सका। दूसरे के लिए ही क्यों न हो, लड़की का मसला जवानी में सभी से थोड़ा-संवार करा ही लेता है।

दोनों दोस्त लड़की देखने निकल पड़े।

लड़की के बड़े चाचा अनुकूल बाबू ने अपनी कमाई से अपना बाग वाला तिमंजिला मकान मुहल्ले में सबसे ऊंचा बना रखा है।

गरीब भाई की मां-बाप-विहीना बेटी को उन्होंने अपने ही यहां रखा है। उसकी मौसी अन्नपूर्णा ने कहा था, मेरे पास रहने दो। इससे खर्च की कमी जरूर होती, लेकिन गौरव की कमी के डर से अनुकूल राजी न हुए। यहां तक कि मुलाकात के लिए भी कभी उसे मौसी के यहां नहीं जाने देते थे। अपनी मर्यादा के बारे में इतने ही सख्त थे वे।

लड़की के विवाह की चिंता का समय आया। लेकिन इन दिनों विवाह के विषय में ‘यादृशी भावना यस्य सिद्धर्भवति तादृशी’ वाली बात लागू नहीं होती। चिंता के साथ-साथ लागत भी लगती। परन्तु दहेज की बात उठते ही अनुकूल कहते, मेरी भी तो अपनी लड़की है, अकेले मुझसे कितना करते बनेगा। इसी तरह दिन निकलते जा रहे थे। ऐसे में बन-संवर कर खुशबू बिखेरते हुए रंग-भूमि में अपने दोस्त के साथ महेन्द्र ने प्रवेश किया।

चैत का महीना। सूरज डूब रहा था। दुमंजिले का दक्षिणी बरामदा चिकने चीनी टाइलों का बना, उसी के एक ओर दोनों मेहमानों के लिए फल-फूल, मिठाई से भरी चांदी की तश्तरियां रखी गईं। बर्फ के पानी-भरे गिलास जैसे ओस-बूंदों से झल-मल। बिहारी के साथ महेन्द्र सकुचाते हुए खाने बैठा। नीचे माली पौधों में पानी डाल रहा था और भीगी मिट्टी की सौंधी सुगन्ध लिए दक्खिनी बयार महेन्द्र की धप्-धप् धुली चादर के छोर को हैरान कर रही थी। आसपास के दरवाजे के झरोखों की ओट से कभी-कभी दबी हंसी, फुसफुसाहट, कभी-कभी गहनों की खनखनाहट सुनाई दे रही थी।

खाना खत्म हो चुका तो अन्दर की तरफ देखते हुए अनुकूल बाबू ने कहा-“चुन्नी, पान तो ले आ, बेटी!”

जरा देर में संकोच से पीछे का दरवाजा खुल गया और सारे संसार की लाज से सिमटी एक लड़की हाथ में पानदान लिये अनुकूल बाबू के पास आकर खड़ी हुई। वे बोले, “शर्म काहे की बिटिया, पानदान उनके सामने रखो!”

उसने झुककर कांपते हुए हाथों से मेहमानों की बगल में पानदान रख दिया। बरामदे के पश्चिमी छोर से डूबते हुए सूरज की आभा उसके लज्जित मुखड़े को मंडित कर गई। इसी मौके से महेन्द्र ने उस कांपती हुई लड़की के करुण मुख की छवि देख ली।

बालिका जाने लगी। अनुकूल बाबू बोले-“जरा ठहर जा, चुन्नी! बिहारी बाबू, यह है छोटे भाई अपूर्व की लड़की; अपूर्व तो चल बसा, अब मेरे सिवाय इसका कोई नहीं।”

और उन्होंने एक लम्बी उसांस ली।

महेन्द्र का मन पसीज गया। उसने एक बार फिर लड़की की तरफ देखा।

उसकी उम्र साफ-साफ कोई न बताता। सगे-संबंधी कहते, बारह-तेरह होगी। यानि चौदह-पंद्रह होने की संभावना ही ज्यादा थी। लेकिन चूंकि दया पर चल रही थी इसलिए सहमे से भाव ने उसके नवयौवन के आरंभ को जब्त कर रखा था।

महेन्द्र ने पूछा-“तुम्हारा नाम?”

अनुकूल बाबू ने उत्साह दिया-“बता बेटी, अपना नाम बता!”

अपने अभ्यस्त आदेश-पालन के ढंग से झुककर उसने कहा-“जी, मेरा नाम आशालता है।”

आशा! महेन्द्र को लगा, नाम बड़ा ही करुण और स्वर बड़ा कोमल है।

दोनों मित्रों ने बाहर सड़क पर आकर गाड़ी छोड़ दी। महेन्द्र बोला-“बिहारी, इस लड़की को तुम हर्गिज मत छोड़ो?”

बिहारी ने इसका कुछ साफ जवाब न दिया। बोला-“इसे देखकर इसकी मौसी याद आ जाती है। ऐसी ही भली होगी शायद!”

महेन्द्र ने कहा- “जो बोझा तुम्हारे कंधे पर लाद दिया, अब वह शायद वैसा भारी नहीं लग रहा है।”

बिहारी ने कहा-“नहीं, लगता तो है ढो लूंगा।”

महेन्द्र बोला-“इतनी तकलीफ उठाने की क्या जरूरत है? तुम्हें बोझा लग रहा हो तो मैं उठा लूं।”

बिहारी ने गम्भीर होकर महेन्द्र की तरफ ताका। बोला-“सच? अब भी ठीक-ठीक बता दो! यदि तुम शादी कर लो तो चाची कहीं ज्यादा खुश होंगी-उन्हें हमेशा पास रखने का मौका मिलेगा।”

महेन्द्र बोला-“पागल हो तुम! यह होना होता तो कब का हो जाता।”

बिहारी ने कोई एतराज न किया। चला गया और महेन्द्र भी यहां-वहां भटककर घर पहुंच गया।

मां पूरियां निकाल रही थीं। चाची तब तक अपनी भानजी के पास से लौटकर नहीं आई थीं।

महेन्द्र अकेला सूनी छत पर गया और चटाई बिछाकर लेट गया। कलकत्ता की ऊंची अट्टालिकाओं के शिखरों पर शुक्ला सप्तमी का आधा चांद टहल रहा था। मां ने खाने के लिए बुलाया, तो महेन्द्र ने अलसाई आवाज में कहा- “छोड़ो, अब उठने को जी नहीं चाहता।”

मां ने कहा-“तो यहीं ले लाऊं?”

महेन्द्र बोला-“आज नहीं खाऊंगा। मैं खाकर आया हूं।”

मां ने पूछा-“कहां खाने गया था?”

महेन्द्र बोला-“बाद में बताऊंगा।”

वे लौटने लगी तो थोड़ा सोचते हुए महेन्द्र ने कहा-“मां! खाना यहीं ले आओ।”

रात में महेन्द्र ठीक से सो नहीं पाया। सुबह ही वह बिहारी के घर पहुंच गया। बोला-“भई यारो, मैंने बड़ी ध्यान से सोचा और देखा- कि चाची यही चाहती है कि शादी मैं ही करूं।”

बिहारी बोला-“इसके लिए सोचने की जरूरत नहीं थी। यह बात तो वे खुद कई बार कह चुकी हैं।”

महेन्द्र बोला-“तभी तो कहता हूं, मैंने आशा से विवाह न किया तो उन्हें दुःख होगा।”

बिहारी बोला-“हो सकता है!”

महेन्द्र ने कहा, “मेरा खयाल है, यह तो ज्यादती होगी।”

“हां! बात तो ठीक है।” बिहारी ने कहा। उसने कहा-“मगर यह बात थोड़ी देर से आपकी समझ में आई। कल आ जाता तो अच्छा होता।” महेन्द्र–“एक दिन बाद ही आया, तो क्या बुरा हो गया।”

विवाह की बात पर मन की लगाम को छोड़ना था कि महेन्द्र के लिए धीरज रखना कठिन हो गया। उसके मन में आया-इस बारे में बात करने का तो कोई अर्थ नहीं है। शादी हो ही जानी चाहिए।

उसने मां से कहा-“अच्छा मां, मैं विवाह करने के लिए राजी हूं।”

मां मन-ही-मन बोलीं-“समझ गई, उस दिन अचानक क्यों मंझली बहू अपनी भानजी को देखने चली गई। और क्यों महेन्द्र बन-ठन कर घर से निकला।”

उनके अनुरोध की बार-बार उपेक्षा होती रही और अन्नपूर्णा की साजिश कारगर हो गई, इस बात से वह नाराज हो उठीं। कहा-“अच्छा, मैं अच्छी सी लड़की को देखती हूं।”

आशा का जिक्र करते हुए महेन्द्र ने कहा-“लड़की तो मिल गई।”

राजलक्ष्मी बोली-“उस लड़की से विवाह नहीं हो सकता, यह मैं कहे देती हूं।”

महेन्द्र ने बड़े संयत शब्दों में कहा-“क्यों मां, लड़की बुरी तो नहीं है।”

राजलक्ष्मी-“उसके तीनों कुल में कोई नहीं। ऐसी लड़की से विवाह रचकर अपने कुटुम्ब को सुख भी न मिल सकेगा।”

महेन्द्र-“कुटुम्ब को सुख मिले न मिले लड़की मुझे खूब पसन्द है। उससे शादी न हुई तो मैं दु:खी हो जाऊंगा।”