विनोदिनी के दरवाजे पर एक बार फिर धक्का पड़ा। पहले तो आजिजी से उसने कोई जवाब ही न दिया; लेकिन जब बार-बार धक्का पड़ने लगा तो आग-बबूला होकर दरवाजा खोलते हुए उसने कहा-“नाहक क्यों बार-बार मुझे तंग करने आते हो तुम?”
बात पूरी करने के पहले ही उनकी नजर पड़ी-बिहारी खड़ा था। कमरे में महेन्द्र है या नहीं, यह देखने के लिए बिहारी ने एक बार भीतर की तरफ झांका। देखा, कमरे में सूखे फूल और टूटी मालाएं बिखरी पड़ी थी। उसका मन जबर्दस्त ढंग से विमुख हो उठा। यह नहीं कि बिहारी जब दूर था, तो उसके मन में विनोदिनी के रहन-सहन के बार में सन्देह का कोई चित्र आया ही नहीं, लेकिन कल्पना की लीला ने उस चित्र को ढककर भी एक दमकती हुई मोहिनी छवि खड़ी कर रखी थी। बिहारी जिस समय इस बगीचे में कदम रख रहा था, उस समय उसका दिल धड़कने लगा था-कल्पना की प्रतिमा को कहीं चोट न पहुंचे इस आंशका से उसका हृदय संकुचित हो रहा था। और विनोदिनी के सोने के कमरे के द्वार पर खड़े होते ही वही चोट लगी।
दूर रहते हुए बिहारी ने सोचा था कि अपने प्रेम के अभिषेक से मैं विनोदिनी के जीवन से सारी कालिमा को धो दूंगा। लेकिन पास आकर देखा, यह आसान नहीं। मन में करुणा की वेदना कहां उपजी? बल्कि एकाएक घृणा ने जगकर उसे अभिभूत कर दिया। बिहारी ने उसे बड़ा मलिन देखा।
वह तुरंत मुड़कर खड़ा हो गया और उसने ‘महेन्द्र-महेन्द्र कहकर पुकारा। इस अपमान से विनोदिनी ने नम्र स्वर में कहा-“महेन्द्र नहीं है, शहर गया है।”
बिहारी लौटने लगा। विनोदिनी बोली-“भाई साहब, मैं पैर पड़ती हूं, जरा देर बैठना पड़ेगा।”
बिहारी ने सोच रखा था, वह कोई आरजू-मिन्नत नहीं सुनेगा। तय कर लिया था कि नफरत के इस नजारे से तुरंत अपने को अलग कर लेगा। लेकिन विनोदिनी की करुण विनती से उसके कदम क्षण-भर के लिए उठ न सके।
विनोदिनी बोली-“आज अगर तुम मुझे इस तरह ठुकराकर चल दिए, तो तुम्हारी कसम खाकर कहती हूं, मैं मर जाऊंगी।”
बिहारी पलटकर खड़ा हो गया, बोला -“तुम अपने जीवन से मुझे जकड़ने की कोशिश क्यों करती हो? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? मैं तो कभी तुम्हारी राह में नहीं आया, तुम्हारे सुख-दु:ख में कभी दखल नहीं दिया।”
विनोदिनी बोली-“तुमने मुझ पर कितना अधिकार कर रखा है, एक बार तुमसे कहा था मैंने-तुमने विश्वास नहीं किया। तो भी तुम्हारी बेरुखी में भी फिर वही कहती हूं। बिना बोले जताने का, शर्म से बताने का मौका तो तुमने मुझे दिया नहीं। तुमने मुझे पैरों से झटक दिया है, मैं फिर भी तुम्हारे पांव पकड़कर कहती हूं-मैं तुम्हें…”
बिहारी ने टोकते हुए कहा-“बस-बस, रहने दो, यह बात जबान पर मत लाओ। एतबार की गुंजाइश नहीं रही।”
विनोदिनी-“इधर लोग इस पर विश्वास न करें, पर तुम करोगे। इसीलिए मैं तुम्हें जरा देर बैठने को कह रही हूं।”
बिहारी-“मेरे विश्वास करने, न करने से क्या आता-जाता है। तुम्हारी जिन्दगी तो जैसी चल रही है, चलती रहेगी। विनोदिनी इससे तुम्हारा कुछ आता-जाता नहीं।”
मैं जानती हूं? अपना नसीब ही ऐसा है कि तुम्हारे सम्मान को बचाते हुए तुम्हारे पास खड़ा होने का कोई चारा नहीं। तुमसे मुझे सदा दूर ही रहना होगा। बस मैं केवल इतना हक नहीं छोड़ना चाहती कि मैं चाहे जहां रहूं, मुझे जरा माधुर्य के साथ याद करना। मुझे मालूम है, मुझ पर तुम्हें थोड़ी-सी श्रद्धा हुई थी, मैं उसी को अपना अवलम्ब बनाए रहूंगी। इसीलिए मेरी पूरी बात तुम्हें सुननी होगी। मैं हाथ जोड़ती हूं, जरा देर बैठो!”
“अच्छा चलो!” कहकर बिहारी उस कमरे से और कहीं जाने को तैयार हुआ।
विनोदिनी बोली-“भाई साहब, जो सोच रहे हो, वह बात नहीं है। इस कमरे को कलंक की छाया नहीं छू सकी है। कभी तुम यहां सोए थे-इसे मैंने तुम्हारे ही लिए उत्सर्ग करके रखा है। सूखे पड़े ये फूल तुम्हारी ही पूजा के हैं। तुम्हें यहीं बैठना होगा।”
सुनकर बिहारी के मन में पुलक का संचार हुआ। वह कमरे में गया। विनोदिनी ने दोनों हाथों से उसे खाट का इशारा किया। बिहारी खाट पर बैठा। विनोदिनी उसके पैरों के पास जमीन पर बैठी। विनोदिनी ने बिहारी को व्यस्त होते देखकर कहा-“तुम बैठो, भाई साहब! सिर की कसम तुम्हें, उठना मत। मैं तुम्हारे पैरों के पास भी बैठने लायक नहीं-दया करके ही तुमने मुझे यह जगह दी है। दूर रहूं, तो भी यह इतना अधिकार मैं रखूंगी।”
यह कहकर विनोदिनी जरा देर चुप रही। उसके बाद अचानक चौंककर बोली-“तुम्हारा खाना?”
बिहारी बोला-“स्टेशन से खाकर आया हूं।”
विनोदिनी-“मैंने गांव से तुम्हें जो पत्र दिया था, उसे खोलकर पढ़ा और कोई जवाब न देकर उसे महेन्द्र मार्फत के लौटा क्यों दिया?”
बिहारी-“कहां, वह चिट्ठी तो मुझे नहीं मिली।”
विनोदिनी-“इस बार कलकत्ता में महेन्द्र से तुम्हारी भेंट हुई थी।”
बिहारी-“तुम्हें गांव पहुंचाकर लौटा, उसके दूसरे दिन भेंट हुई थी। उसके बाद मैं पछांह की ओर सैर को निकल पड़ा, उससे फिर भेंट नहीं हुई।”
विनोदिनी-“उससे पहले और एक दिन मेरी चिट्ठी पढ़कर बिना उत्तर के वापिस कर दी?”
बिहारी-“नहीं, ऐसा कभी नहीं हुआ।”
विनोदिनी बुत-सी बैठी रही। उसके बाद लम्बी सांस छोड़कर बोली-“सब समझ गई। अब अपनी बात बताऊं-मगर यकीन करो तो अपनी खुशकिस्मती समझूं और न कर सको तो तुमको दोष न दूंगी, मुझ पर यकीन करना मुश्किल है।”
बिहारी का हृदय पसीज गया। भक्ति से झुकी विनोदिनी की पूजा का वह किसी भी तरह अपमान न कर सका। बोला-“भाभी, तुम्हें कुछ कहना न पड़ेगा। बिना कुछ सुने ही मैं तुम्हारा विश्वास करता हूं। मैं तुमसे घृणा नहीं कर सकता। तुम अब एक भी शब्द न कहना!”
सुनकर विनोदिनी की आंखों से आंसू बहने लगे। उसने बिहारी के चरणों की धूल ली। बोली-“सब न सुनोगे, तो मैं जी न सकूंगी। थोड़ी धीरज रखकर सुनना होगा- तुमने मुझे जो आदेश दिया था, मैंने उसी को सिर माथे उठा लिया था। तुमने मुझे पत्र तक न लिखा, तो भी अपने गांव में मैं लोगों की निंदा सहकर जिन्दगी बिता देती, तुम्हारे स्नेह के बदले तुम्हारे शासन को ही स्वीकार करती-लेकिन विधाता उसमें भी वाम हुए। जिस पाप को मैंने जगाया, उसने मुझे निर्वासन में भी न टिकने दिया। महेन्द्र वहां पहुंचा, मेरे घर पर जाकर उसने सबके सामने मेरी मिट्टी पलीद की। गांव में मेरे लिए जगह न रह गई। मैंने दुबारा तुम्हें बेहद तलाशा कि तुम्हारा आदेश लूं, पर तुमको न पा सकी। मेरी खुली चिट्ठी तुम्हारे यहां से लाकर मुझे देते हुए महेन्द्र ने धोखा दिया। मैंने समझा, तुमने मुझे एकबारगी त्याग दिया। इसके बाद मैं बिल्कुल नष्ट हो सकती थी-मगर पता नहीं तुममें क्या है, तुम दूर रहकर भी बचा सकते हो। मैंने दिल में तुम्हें जगह दी है, इसी से पवित्र वही कठिन परिचय सख्त सोने की तरह, ठोस मणि की तरह मेरे मन में है, उसने मुझे मूल्यवान बनाया है। देवता, तुम्हारे पैर छूकर कहती हूं, वह मूल्य नष्ट नहीं हुआ है।”
बिहारी चुप रहा। विनोदिनी भी और कुछ न बोली। तीसरे पहर की धूप पल-पल पर फीकी पड़ने लगी। ऐसे समय महेन्द्र दरवाजे पर आया और बिहारी को देखकर चौंक पड़ा। विनोदिनी के प्रति उसमें जो उदासीनता आ रही थी, ईर्ष्या से वह जाने-जाने को हो गई। विनोदिनी को बिहारी के पांवों के पास बैठी देखकर ठुकराए हुए महेन्द्र को चोट पहुंची।
व्यंग्य के स्वर में महेन्द्र ने कहा-“तो अब रंगमंच से महेन्द्र का प्रस्थान हुआ, बिहारी का प्रवेश! दृश्य बेहतरीन है। तालियां बजाने को जी चाहता है। लेकिन उम्मीद है, यही अन्तिम अंक है। इसके बाद अब कुछ भी अच्छा न लगेगा।”
विनोदिनी का चेहरा तमतमा उठा। महेन्द्र की शरण जब उसे लेनी पड़ी है, तो इस अपमान का क्या जवाब दे-व्याकुल होकर उसने केवल बिहारी की ओर देखा।
बिहारी खाट से उठा। बोला-“महेन्द्र, कायर की तरह विनोदिनी का यों अपमान न करो-तुम्हारी भलमनसाहत अगर तुम्हें नहीं रोकती, तो रोकने का अधिकार मुझको है।”
महेन्द्र ने हंसकर कहा-“इस बीच अधिकार भी हो गया? आज तुम्हारा नया नामकरण है-विनोदिनी!”
अपमान करने का हौसला बढ़ता ही जा रहा है, यह देखकर बिहारी ने महेन्द्र का हाथ दबाया। कहा-“महेन्द्र, मैं विनोदिनी से ब्याह करूंगा, सुन लो! लिहाजा संयत होकर बात करो।”
महेन्द्र अचरज के मारे चुप हो गया और विनोदिनी चौंक उठी। उसकी छाती के अन्दर का लहू खल-बला उठा।
बिहारी ने कहा-“और एक खबर देनी है तुम्हें। तुम्हारी मां मृत्यु-सेज पर हैं। बचने की कोई उम्मीद नहीं। मैं आज रात को ही गाड़ी से जाऊंगा-विनोदिनी भी मेरे साथ जाएगी।”
विनोदिनी ने चौंककर पूछा-“बुआ बीमार हैं?”
बिहारी बोला-“हां,सख्त। कब क्या हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता।”
यह सुनकर महेन्द्र ने और कुछ न कहा! चुपचाप कमरे से बाहर निकल गया।
विनोदिनी ने बिहारी से पूछा-“अभी-अभी तुमने जो कहा, तुम्हारी जुबान पर यह बात कैसे आई? मजाक तो नहीं?”
बिहारी बोला-“नहीं, मैंने ठीक ही कहा है। मैं तुमसे ब्याह करूंगा।”
विनोदिनी-“किसलिए? उद्धार करने के लिए।
बिहारी-“नहीं, मैं तुम्हें प्यार करता हूं, इसलिए।”
विनोदिनी-“यही मेरा पुरस्कार है। इतना-भर स्वीकार किया, मेरे लिए यही बहुत है, इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं चाहती। ज्यादा मिले भी तो रहने का नहीं!”
बिहारी-“क्यों?”
विनोदिनी-“वह सोचते हुए भी शर्म आती है। मैं विधवा हूं, बदनाम हूं-सारे समाज के सामने तुम्हारी फजीहत करूं, यह हर्गिज नहीं होगा। छिः यह बात जबान पर न लाओ।”
बिहारी-“तुम मुझे छोड़ दोगी?”
विनोदिनी-“छोड़ने का अधिकार मुझे नहीं। चुपचाप तुम बहुतों की बहुत भलाई किया करते हो-अपने वैसे ही किसी व्रत का काई-सा भार मुझे देना, उसी को ढोती हुई मैं अपने-आपको तुम्हारी दासी समझा करूंगी। लेकिन विधवा से तुम ब्याह करोगे, छिः! तुम्हारी उदारता से सब कुछ मुमकिन है, लेकिन मैं यह काम करूं, समाज में तुम्हें नीचा करूं तो जिन्दगी में यह सिर कभी उठा न सकूंगी।”
बिहारी-“मगर मैं तुम्हें प्यार करता हूं।”
विनोदिनी-“उसी प्यार के अधिकार से आज मैं एक ढिठाई करूंगी।”
इतना कहकर विनोदिनी झुकी। उसने उसके पैर की उंगली को चूम लिया। पैरों के पास बैठकर बोली-“तुम्हें अगले जन्म में पा सकूं, इसके लिए मैं तपस्या करूंगी। इस जन्म में अब कोई उम्मीद नहीं। मैंने बहुत दु:ख उठाया-काफी सबक मिला। यह सबक अगर भूल बैठती, तो मैं तुम्हें नीचा दिखाकर और भी नीची बनती। लेकिन तुम ऊंचे हो, तभी आज मैं फिर से सिर उठा सकी हूं-अपने इस आश्रय को मैं धूल में नहीं मिला सकती।”
बिहारी गंभीर हो रहा।
विनोदिनी ने हाथ जोड़कर कहा-“गलती मत करो-मुझसे विवाह करके तुम सुखी न होगे, अपना गौरव गंवा लोगे-मैं भी अपना गर्व खो बैठूंगी। तुम सदा निर्लिप्त रहो, प्रसन्न रहो। आज भी तुम वहीं हो-मैं दूर से ही तुम्हारा काम करूंगी। तुम खुश रहो, सदा सुखी रहो।”
महेन्द्र मां के कमरे में जा रहा था कि आशा दौड़ी-दौड़ी आई। कहा-“अभी वहां मत जाओ!”
महेन्द्र ने पूछा-“क्यों?”
आशा बोली-“डाक्टर ने बताया है मां को चाहे दुःख का हो चाहे सुख का-अचानक कोई धक्का लगने से आफत हो सकती है।”
महेन्द्र बोला-“मैं दबे पांवों उनके सिरहाने की तरफ जाकर एक बार देख आऊं जरा। उन्हें पता न चलेगा।”
महेन्द्र-“तो तुम कहना क्या चाहती हो?”
आशा-“पहले बिहारी बाबू उन्हें देख आएं, वे जैसा कहेंगे, वही करूंगी।”
इतने में बिहारी आ गया। आशा ने उसे बुलवाया था।
बिहारी को देखकर आशा को थोड़ा भरोसा हुआ। बोली-“तुम्हारे जाने के बाद से मां और भी अकुला उठी हैं, भाई साहब। पहले दिन जब तुम न दिखाई पड़े उन्होंने पूछा-“बिहारी कहां गया?” मैंने कहा- ‘वे एक जरूरी काम से बाहर गए हैं। बृहस्पति तक लौट आएंगे।’ उसके बाद से वे रह-रहकर चौंक-चौंक पड़ती हैं। मुंह से कुछ नहीं कहतीं लेकिन अन्दर ही अन्दर मानो किसी की राह देख रही हैं। कल तुम्हारा तार मिला। मैंने उन्हें बताया, तुम आ रहे हो। उन्होंने आज तुम्हारे लिए खासतौर से खाने का इन्तजाम करवाने को कहा है। तुम्हें जो-जो चीजें अच्छी लगती है, सब मंगवाईं हैं, सामने बरामदे पर रसोई का प्रबन्ध कराया है, अन्दर से वह खुद बताती रहेंगी। डाक्टर ने लाख मना किया, एक न सुनी। अभी-अभी जरा देर पहले मुझे बुलाकर कहा, ‘बहू, रसोई तुम अपने हाथों बनाना, आज बिहारी को मैं अपने सामने बिठाकर खिलाऊंगी’।”
सुनते ही बिहारी की आंखें छल-छला उठीं। पूछा-“मां हैं कैसी?”
आशा ने कहा-“तुम खुद चलकर देखो, मुझे तो लगता है, बीमारी और बढ़ गई है।”
बिहारी अन्दर गया। महेन्द्र खड़ा अचरज में पड़ गया। आशा ने मजे में गृहस्थी सम्हाल ली है-कितनी आसानी से महेन्द्र को अन्दर जाने से रोक दिया। न संकोच किया, न रूठी।
महेन्द्र आज कितना सकुचा गया है! वह अपराधी है-चुपचाप खड़ा रहा, बाहर। मां के कमरे में न घुस सका।
फिर भी यह अजीब बात-बिहारी से वह कैसे बे-खटके बोली। सलाह-परामर्श सब उसी से। वही आज इस घर का सबसे बड़ा शुभचिंतक है, एकमात्र रक्षक है। उसको कहीं रोक नहीं, उसी के निर्देश पर सब कुछ चलता है। कुछ दिनों के लिए महेन्द्र जो स्थान छोड़कर चला गया था, लौटकर देखा, वह स्थान अब ठीक वैसा ही नहीं हैं।
बिहारी के अन्दर जाते ही राजलक्ष्मी ने पूछा-“तू आ गया, बेटे?”
बिहारी बोला-“हां मां, लौट आया।”
राजलक्ष्मी ने पूछा-“काम हो गया तेरा?”
खुश होकर बिहारी बोला-“हां मां, हो गया। अब मुझे कोई चिन्ता नहीं रही।”
और, उसने एक बार बाहर की तरफ देखा।
राजलक्ष्मी-“बहू आज तेरे लिए खुद खाना पकाएगी-मैं यहां से उसे बताती जाऊंगी। डॉक्टर ने मना किया है-मगर अब काहे की मनाही, बेटे! मैं क्या इन आंखों से एक बार तुम लोगों का खाना भी न देख पाऊंगी!”
बिहारी ने कहा-“डाक्टर के मना करने की बात तो समझ में नहीं आती-तुम न बताओगी तो चलेगा कैसे? छुटपन से तुम्हारे हाथ की ही रसोई हमें भाई है महेन्द्र भैया का जी तो पश्चिम की दाल-रोटी से ऊब गया है-तुम्हारे हाथ की बनाई मछली मिलेगी, तो वह जी जाएगा। आज हम दोनों भाई जैसे बचपन में करते थे, होड़ लगाकर खाएंगे। तुम्हारी बहू जुटा सके, तब जानो।”
राजलक्ष्मी समझ तो गई थी कि बिहारी के साथ महेन्द्र आया है, फिर भी उसकी धड़कन बढ़ गई।
बिहारी ने कहा-“पछांह जाकर महेन्द्र की सेहत बहुत-कुछ सुधर गई है। आज सफर से आया है, इसलिए थका-मांदा लगता है नहाने से ठीक हो जाएगा।”
राजलक्ष्मी ने फिर भी महेन्द्र के बारे में कुछ न कहा। इस पर बिहारी ने कहा-“मां, महेन्द्र बाहर ही खड़ा है। जब तक तुम नहीं बुलाओगी वह नहीं आएगा।”
राजलक्ष्मी कुछ बोलीं नहीं, सिर्फ दरवाजे की तरफ नजर उठाई। उनका उधर देखना था कि बिहारी ने कहा-“महेन्द्र भैया, आ जाओ!”
महेन्द्र धीरे-धीरे अन्दर आया। कलेजे की धड़कन कहीं एकाएक थम जाए, इस डर से राजलक्ष्मी तुरन्त महेन्द्र की ओर न देख सकीं। आंखें अधमुंदी रहीं। बिस्तर की तरफ ताक कर महेन्द्र चौंक उठा। उसे मानो किसी ने पीटा हो।
मां के पैरों के पास सिर रखकर उनका पैर पकड़े पड़ा रहा। कलेजे की धड़कन से राजलक्ष्मी का सर्वांग कांपता रहा। कुछ देर बाद अन्नपूर्णा ने धीमे से कहा-“दीदी, तुम महेन्द्र को कहो कि वह उठे, नहीं तो वह यहीं बैठा रहेगा।”
बड़ी मुश्किल से उन्होंने कहा-“महेन्द्र उठ!” बहुत दिनों के बाद महेन्द्र का जो नाम लिया तो उनकी आंखों से आंसू की धारा फूट पड़ी। आंसू बहने से मन की पीड़ा कुछ हल्की हुई। महेन्द्र उठा, जमीन पर घुटना गाड़, खाट की पाटी पर छाती रखकर मां के पास बैठा। राजलक्ष्मी ने बड़ी तसल्ली से करवट बदली। दोनों हाथों से अपनी ओर खींचकर उन्होंने महेन्द्र का सिर सूंघा; और ललाट को चूम लिया।
महेन्द्र ने रुंधे कंठ से कहा- “मैंने तुम्हें बड़ी तकलीफ पहुंचाई है, मां मुझे माफ करो।”
कलेजा ठंडा हुआ तो राजलक्ष्मी ने कहा-“ऐसा मत कह बेटे, तुझे माफ किये बिना मैं जी सकती हूं भला! बहू कहां गई? बहू!”
आशा पास ही दूसरे कमरे में पथ्य तैयार कर रही थी। अन्नपूर्णा उसे बुला लाई।
राजलक्ष्मी ने महेन्द्र को जमीन पर से उठकर बिस्तर पर बैठने का इशारा किया। महेन्द्र बैठा, तो उसकी बगल की जगह दिखाती हुई राजलक्ष्मी ने कहा-“तुम यहां बैठो, बहू। आज तुम दोनों को मैं पास-पास बिठाकर देख लूं, तभी मेरी तकलीफ मिटेगी। बहू, आज मुझसे शर्म न करो! महेन्द्र के लिए जो मलाल है, उसे भी भुला दो उसके पास बैठो।”
इस पर आशा घूंघट निकाले धड़कते दिल से लजाती हुई आकर महेन्द्र के पास बैठ गई। राजलक्ष्मी ने महेन्द्र का दाहिना हाथ लिया और आशा के दाहिने हाथ से मिलाकर दबाया। बोलीं-“अपनी इस बिटिया को मैं तेरे हाथों सौंप जाती हूं, महेन्द्र-इसका खयाल रखना, ऐसी लक्ष्मी तुझे और कहीं नहीं मिलेगी। मंझली आओ, दोनों को आशीर्वाद दो, तुम्हारे पुण्य से ही दोनों का मंगल हो।”
अन्नपूर्णा उनके सामने गई। दोनों ने आंसू-भरे नेत्रों से उनके चरणों की धूल ली। उन्होंने दोनों के माथे को चूमा-“ईश्वर तुम्हारा मंगल करें!”
राजलक्ष्मी-“बिहारी,आगे आओ बेटे, महेन्द्र को तुम माफी दो।”
बिहारी ज्यों ही महेन्द्र के सामने जाकर खड़ा हुआ, उसने उसे बांहों में लपेटकर कसकर छाती से लगा लिया।
राजलक्ष्मी ने कहा-“मैं आशीर्वाद देती हूं महेन्द्र, बिहारी छुटपन से तेरा जैसा मित्र था, सदा वैसा ही रहे।
इसके बाद राजलक्ष्मी थकावट के मारे और कुछ न कह सकीं। चुप हो गई। बिहारी कोई उत्तेजक दवा उनके होंठों तक ले गया। हाथ हटाकर राजलक्ष्मी ने कहा-“अब दवा नहीं बेटे, अब मैं भगवान को याद करूं-वही मुझे दुनिया की सारी जलन की दवा देंगे। महेन्द्र, तुम लोग थोड़ा आराम कर लो बेटे। बहू, रसोई चढ़ा दो!”
शाम को महेन्द्र और बिहारी राजलक्ष्मी की खाट के पास नीचे खाने बैठे। परोसने का जिम्मा राजलक्ष्मी ने आशा को दे रखा था। वह परोसने लगी।
महेन्द्र का कौर नहीं उठ रहा था, कलेजे में आंसू उमड़े आ रहे थे। राजलक्ष्मी बोलीं-“तू ठीक से खा क्यों नहीं रहा है, महेन्द्र? खा, मैं आंखें भरकर देखूं।”
बिहारी ने कहा-“तुम तो जानती ही हो मां, महेन्द्र भैया का सदा का यही हाल है। वह खा नहीं सकता। भाभी, जरा यह घंट थोड़ा-सा और दो मुझे, बेहतरीन बना है।”
खुश होकर राजलक्ष्मी जरा हंसी। .. “मुझे मालूम है, बिहारी को यह बेहद पसंद है। बहू, भला उतने से क्या होगा, और दो।”
बिहारी बोला-“तुम्हारी यह बहू अव्वल दर्जे की कंजूस है। इसके हाथ से कुछ निकलता ही नहीं।”
राजलक्ष्मी बोलीं-“सुन लो बहू, तुम्हारा ही नमक खाकर बिहारी तुम्हारी ही निंदा करता है।”
आशा बिहारी की पत्तल में सब्जी डाल गई।
बिहारी बोल उठा-“हाय राम, मुझे तो सब्जी देकर ही धता बतानी चाहती हैं, अच्छी-अच्छी चीजें सब महेन्द्र भैया के हिस्से।”
आशा-फुसफुसाकर कह गई-“कुछ भी करो, निन्दक की जबान बन्द नहीं होने की।”
बिहारी बोला-“मिठाई देकर देखो, बंद होती है या नहीं।”
दोनों दोस्त खा चुके तो राजलक्ष्मी को बड़ी तृप्ति मिली। बोलीं-“बहू, अब तुम जाकर खा लो।”
आशा उनके हुक्म पर खाने चली गई। उन्होंने महेन्द्र से कहा-“तू थोड़ा सो ले, महेन्द्र!”
महेन्द्र बोला-“सो जाऊं अभी से!”
महेन्द्र ने सोच रखा था, रात को वह मां की सेवा में रहेगा। मगर राजलक्ष्मी ने धीमे से कहा-“बहू, देख आओ कि महेन्द्र का बिस्तर ठीक भी है या नहीं। वह अकेला है।”
आशा लाज के मारे मरी-सी किसी तरह कमरे से बाहर चली गई। वहां केवल बिहारी और अन्नपूर्णा रह गए।
तब राजलक्ष्मी ने कहा-“तुमसे एक बात पूछनी है, बिहारी। विनोदिनी का क्या हुआ, पता है। कहां है वह?”
बिहारी ने कहा-“वह कलकत्ता में हैं।”
राजलक्ष्मी ने आंखों की मौन दृष्टि से ही प्रश्न किया। बिहारी समझ गया।
बोला-“उसकी तुम अब फिक्र ही न करो, मां!”
राजलक्ष्मी बोलीं-“उसने मुझे बहुत दु:ख दिया है बिहारी, फिर भी मैं अंदर से उसे प्यार करती हूं।”
बिहारी बोला-“वह भी मन ही मन तुम्हें प्यार करती है, मां!”
