अन्नपूर्णा ने कहा- “सबको खुश करने की शक्ति सबमें नहीं होती, बेटी। लेकिन स्त्री अगर तहेदिल से श्रद्धा और भक्तिपूर्वक पति की सेवा और गृहस्थी के काम करती है, तो पति चाहे नाचीज समझकर उसे ठुकरा दें स्वयं जगदीश्वर जतन से उसे चुन लेते हैं।”
जवाब में आशा चुप रही। मौसी द्वारा दी गई सांत्वना को उसने अपनाने की बहुत कोशिश की, लेकिन यह बात उसके दिमाग में हर्गिज न बैठ सकी कि पति जिसे नाचीज समझकर ठुकरा देंगे, उसे जगदीश्वर सार्थक कर सकेंगे। वह सिर झुकाए मौसी के पांव सहलाती रही।
अन्नपूर्णा ने इस पर आशा को अपने और करीब खींच लिया। उसके माथे को चूमा। रुंधे कंठ को बलपूर्वक खोलकर बोली-“चुन्नी, तकलीफ झेलकर जीवन में जो सबक सीखा जा सकता है, केवल सुनकर वह सम्भव नहीं। तेरी इस मौसी ने भी तेरी उम्र में संसार से लेन-देन का बहुत बड़ा नाता जोड़ लिया था। उस समय मेरे भी जी में तेरी ही तरह होता था कि जिसकी मैं सेवा करूंगी, वह आखिर सन्तुष्ट क्यों न होगा। जिसकी पूजा करूंगी, उसका प्रसाद भला क्यों न मिलेगा? जिसके भले की करूंगी, वह मेरी चेष्टा को भली क्यों न समझेगा? लेकिन हर कदम पर देखा, वैसा होता नहीं है। और अन्त में एक दिन ऐसा लगा कि दुनिया में मेरा सारा किया-धरा बेकार गया-बस उसी दिन दुनिया को छोड़कर चली आई और आज यह पा रही हूं कि मेरा कुछ भी बेकार नहीं हुआ। असल में बिटिया जिससे लेन-देन का सही संबंध है, जो संसार की इस पैठ के असली महाजन हैं, वही मेरा सब-कुछ स्वीकार कर रहे हैं, आज मेरे अन्तर में बैठकर उन्होंने यह बात कबूल की है, काश! तब यह जानती होती! अगर संसार के कर्म को उनका समझकर करती, उन्हीं को दे रही हूं-यह समझकर संसार को अपना हृदय देती तो फिर कौन था जो मुझे दु:ख दे सकता है!”
बिस्तर पर पड़ी-पड़ी आशा बड़ी रात तक बहुत बातें सोचती रही। लेकिन तब भी ठीक-ठीक कुछ न समझ सकी।
आशा के बड़े चाचा के लौट जाने का दिन आया। जाने के पहले दिन शाम को अन्नपूर्णा ने आशा को अपनी गोदी में बिठाकर कहा-“चुन्नी, मेरी बिटिया, संसार के शोक-दुःख से सदा तुझे बचाते रहने की शक्ति मुझमें नहीं है। मेरा इतना ही कहना है कि जहां भी, जितना भी कष्ट क्यों न मिले, अपने विश्वास, अपनी भक्ति को दृढ़ रखना, तेरा धर्म जिससे अटूट रहे।”
आशा ने उनके चरणों की धूल ली। बोली-“आशीर्वाद दो मौसी! ऐसा ही हो।”
आशा लौट आई। रूठकर विनोदिनी ने कहा-“भई किरकिरी, इतने दिन पीहर रही, खत लिखना भी पाप था क्या?”
आशा बोली-“और तुमने तो लिख दिया जैसे!”
विनोदिनी-“मैं पहले क्यों लिखती, पहले तुम्हें लिखना था।”
विनोदिनी के गले से लिपटकर आशा ने अपना कसूर मान लिया। बोली-“जानती तो हो, मैं ठीक-ठीक लिख नहीं पाती। खासकर तुम-जैसी पंडिता को लिखने में शर्म आती है।”
देखते ही देखते दोनों का विषाद मिट गया और प्रेम उमड़ आया।
विनोदिनी ने कहा-“आठों पहर साथ रहकर तुमने अपने पति-देवता की आदत बिलकुल बिगाड़ रखी है। कोई हरदम पास न रहे, तो रहना मुश्किल।”
आशा-“तभी तो तुम पर जिम्मेदारी सौंप गई थी और साथ कैसे दिया जाता है, यह तुम मुझसे ज्यादा अच्छी तरह से जानती हो।”
विनोदिनी- “दिन को तो किसी तरह से कालेज भेजकर निश्चित हो जाती थी- मगर सांझ को किसी भी तरह से छुटकारा नहीं-किताब पढ़कर सुनाओ, और-और न जाने क्या-क्या? पूछो मत, मचलने का तो अन्त नहीं।”
आशा-“आई न काबू में! जब जी बहलाने में पटु हो, तो लोग छुट्टी क्यों दें?”
विनोदिनी-“मगर सावधान बहन, भाई साहब कभी-कभी तो ऐसी अति कर बैठते हैं कि धोखा होने लगता है, शायद मैं जादू-मंतर जानती हूं।”
आशा-“जादू तुम नहीं जानतीं तो कौन जानता है! तुम्हारी विद्या जरा मुझे आ जाती, तो जी जाती मैं।”
विनोदिनी-“क्यों, किसके बंटाधार का इरादा है! जो सज्जन घर में है, उन पर रहम करके किसी और को मोहने की कोशिश भी न करना।”
विनोदिनी को तर्जनी दिखाकर आशा बोली-“चुप भी रह, क्या बक-बक करती है!”
काशी से लौटने के बाद पहली बार आशा को देखकर महेन्द्र ने कहा-“तुम्हारी सेहत तो पहले से अच्छी हो गई है। काफी तन्दुरुस्त होकर लौटी हो।”
आशा को बड़ी शर्म आई। उसकी सेहत अच्छी नहीं रहनी चाहिए थी- मगर उस गरीब का बस नहीं चलता।
आशा ने धीमे से पूछा-“तुम कैसे रहे?”
पहले की बात होती तो महेन्द्र कुछ तो मजाक और कुछ मन से कहता- ‘मरा-मरा’। मगर अभी मजाक करते न बना-गले तक आकर अटक गया। कहा-“बेजा नहीं अच्छा ही था।”
आशा ने गौर किया, महेन्द्र पहले से कुछ दुबला ही हो गया है। चेहरा पीला पड़ गया है, आंखों में कैसी एक तेज चमक है। कोई भीतरी भूख मानो आग की जीभ से उसे चाटे जा रही हो। आशा पीड़ित होकर सोचने लगी-“स्वामी अपने दुरुस्त नहीं रहे यहां, मैं क्यों काशी चली गई। पति दुबले हो गए और खुद वह तगड़ी हो गई”-इसके लिए उसने अपनी सेहत को धिक्कारा।
महेन्द्र देर तक सोचता रहा कि अब कौन-सी बात की जाए। बोला- “चाची मजे में हैं।”
उत्तर में कुशल-क्षेम पाकर पूछने को दूसरी बात मन में लाना उसके लिए मुहाल हो गया। पास ही एक फटा-पुराना अखबार पड़ा था, उसे उठाकर वह अनमना-सा पढ़ने लगा। आशा सिर झुकाए सोचने लगी, ‘इतने दिनों के बाद भेंट हुई, लेकिन उन्होंने मुझसे ठीक से बात क्यों नहीं की? बल्कि लगा, मेरी ओर उनसे ताकते भी न बना।
महेन्द्र कॉलेज से लौटा। जलपान करते समय राजलक्ष्मी थीं। आशा भी घूंघट निकाले पास ही दरवाजा पकड़े खड़ी थी-लेकिन और कोई न था।
राजलक्ष्मी ने परेशान-सी होकर पूछा-“आज तेरी तबियत कुछ खराब है क्या, महेन्द्र?”
“जैसे ऊब गया हो, महेन्द्र बोला-“नहीं ठीक है।”
राजलक्ष्मी-“फिर तू कुछ खा क्यों नहीं रहा है?”
महेन्द्र फिर खीझे हुए स्वर में बोला-“खा तो रहा हूं-और कैसे खाते हैं?”
गर्मी की सांझ। बदन पर एक हल्की चादर डाले महेन्द्र छत पर इधर-उधर घूमने लगा। बड़ी उम्मीद थी कि इधर जो पढ़ाई नियम से चल रही थी, वह वैसी ही चलेगी। ‘आनन्दमठ’ लगभग खत्म हो चला है। गिने-चुने कुछ अध्याय रह गए थे। यों जितनी भी निर्दयी हो विनोदिनी, ये बाकी अध्याय वह जरूर पढ़कर सुनाएगी लेकिन शाम हो गई और महेन्द्र को कुछ हासिल न हुआ तो वह सोने चला गया।
सजी-संवरी शरमाई आशा धीरे-धीरे कमरे में आई, देखा, महेन्द्र बिस्तर पर सोया है। वह यह न सोच पाई कि किस तरह से आगे बढ़े। जुदाई के बाद जरा देर के लिए एक नई लज्जा होती है-जहां पर से जुदा होते हैं, दोनों, ठीक वहां पर मिलने से पहले एक-दूसरे को नए संभाषण की उम्मीद होती है। अपनी उस चिरपरिचिता सेज पर आशा आज बिन बुलाए कैसे जाए? दरवाजे के पास देर तक खड़ी रही। महेन्द्र की कोई आहट न मिली। धीमे-धीमे पग-पग बढ़ी। अचानक किसी गहने की आवाज हो उठती तो मारे शर्म के मर-सी जाती। धड़कते हृदय से वह मच्छरदानी के पास जा खड़ी हुई। लगा, महेन्द्र सो गया है। उसका सारा साज-श्रृंगार उसे सर्वांग के बंधन-सा लगा। उसकी यह इच्छा होने लगी कि बिजली की गति से भाग जाए और जाकर और कहीं सो रहे।
अपने जानते भरसक चुपचाप संकुचित होकर आशा बिस्तर पर गई। फिर भी इतनी आवाज तो जरूर हुई कि महेन्द्र अगर सचमुच ही सोया होता, तो जग पड़ता। लेकिन आज उसकी आंखें न खुलीं, क्योंकि दरअसल वह सो नहीं रहा था। वह पलंग के एक किनारे करवट लिये पड़ा था। लिहाजा आशा उसके पीछे लेट गई। पड़ी-पड़ी आशा आंसू बहा रही थी। उधर मुंह करके सोने के बावजूद महेन्द्र को इसका साफ पता चल रहा था। अपनी बेरहमी से वह चक्की की तरह कलेजे को पीसकर दुखा रहा था। लेकिन वह क्या कहे, कैसे स्नेह जताए-यह उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था।
लेकिन आशा ने खुद ही उसकी यह मुसीबत भगा दी। वह तड़के ही अपमानित साज-सिंगार लिये उठकर चली गई। वह भी महेन्द्र को अपना मुंह न दिखा सकी।
आशा सोचने लगी-“लेकिन ऐसा क्यों हुआ है?” मैंने क्या किया? लेकिन असली आफत जहां थी, वहां उसकी नजर न पड़ी। महेन्द्र विनोदिनी को प्यार कर सकता है, इसकी सम्भावना तक उसके मन में न आ सकी थी। दुनिया के अनुभव उसे कुछ थे नहीं। इसके सिवा विवाह के कुछ ही दिन बाद से महेन्द्र को जैसा समझ लिया था, वह उसके सिवा भी कुछ हो सकता है, इसकी उसने कल्पना भी न की थी।
महेन्द्र आज कुछ पहले ही कालेज गया। कालेज जाते वक्त आशा सदा खिड़की के पास आ खड़ी होती और महेन्द्र गाड़ी में से एक बार झांक लेता-यह उसका सदा का नियम था। इसी आदत के मुताबिक यंत्रवत् वह खिड़की के सामने आ खड़ी हुई। अभ्यासवश महेन्द्र ने भी एक बार निगाह उठाकर ताका। देखा, आशा खिड़की पर खड़ी है-देखते ही महेन्द्र नजर झुकाकर अपनी गोद में रखी किताबें देखने लगा। आंखों में वह नीरव भाषा कहां थी, कहां थी वह बोलती हुई मुस्कान!
गाड़ी निकल गई। आशा वहीं जमीन पर बैठ गई। यह दुनिया, यह गिरस्ती-सब का स्वाद फीका पड़ गया। अचानक आशा को लगा-‘हां, समझी। बिहारी बाबू काशी गए थे, यही सुनकर शायद वे नाराज हैं। इसके सिवा और तो कोई अप्रिय घटना इस बीच नहीं घटी। मगर इसमें मेरा क्या कसूर!’
सोचते-सोचते एक बार अचानक मानो उसके दिल की धड़कन बंद हो गई। उसे सन्देह हुआ, शायद महेन्द्र को यह शंका हो गई कि बिहारी के काशी जाने में उसकी भी सांठ-गांठ थी। राम-राम! ऐसी शंका! शर्म की हद!
महेन्द्र अचानक गाड़ी से झांककर आशा का जो मलिन करुण मुखड़ा देख गया, उसे वह दिनभर अपने मन से न मिल सका। कालेज के लैक्चरों, छात्रों की कतारों में वह खिड़की, आशा का वह सूखा-रूखा चेहरा, बिखरे बाल, मैली धोती और वह आकुल-व्याकुल दृष्टि बार-बार साफ लकीरों में खिंच-खिंच आने लगी।
कालेज का काम खत्म करके वह गोलदिग्घी के किनारे टहलने लगा। शाम हो गई। वह फिर भी तय न कर सका कि आशा से कैसा बर्ताव किया जाए. दयापूर्ण छल या कपटरहित निष्ठुरता, कौन-सा उचित है? विनोदिनी का वह त्याग करे, या न करे यह बात ही मन में न आई। दया और प्रेम-दोनों का दावा वह कैसे करे?
आखिर उसने यह कहकर अपने मन को समझाया कि आज भी आशा के प्रति उसका जो प्रेम है, वह बहुत ही कम स्त्रियों को नसीब होता है। वह स्नेह, वह प्रेम मिलता रहे, तो आशा सन्तुष्ट क्यों न रहेगी? विनोदिनी और आशा, दोनों को जगह देने की योग्यता महेन्द्र के प्रशस्त हृदय में है। विनोदिनी से उसका सम्बन्ध जिस पवित्र प्रेम का है, उससे दाम्पत्य में किसी तरह की आंच न आएगी।
मन को इस तरह समझाकर उसने एक भार उतार फेंका। “दोनों में से किसी को छोड़े बिना दो चन्द्रमा वाले ग्रह की तरह वह मजे में जीवन के दिन काट लेगा,” यह सोचकर उसका जी खिल उठा। यह सोचकर वह तेजी से कदम बढ़ाता हुआ घर की ओर चल पड़ा कि आज जरा पहले ही वह बिस्तर पर जा लेटेगा और स्नेह-जतन से, मीठे वचन से आशा के मन की सारी वेदना धो देगा।
उसके खाने के समय आशा मौजूद न थी-“लेकिन सोने तो आएगी ही,” यह सोचकर महेन्द्र बिस्तर पर लेट गया। लेकिन उस सन्नाटे में सूनी सेज पर किस स्मृति ने महेन्द्र के मन को छू लिया? ‘विषवृष’ के लिए विनोदिनी से उस दिन की छीना-झपटी याद आई। सांझ के बाद विनोदिनी ‘कपालकुंडला’ पढ़कर सुनाना शुरू करती, धीरे-धीरे रात हो आती, घर के सारे लोग सो जाते, सूने कमरे की स्तब्ध निर्जनता विनोदिनी की आवाज-आवेश से मानो धीमी हो आती, रुंध-सी जाती; अचानक वह अपने को जब्त करके उठ खड़ी होती, किताब रख देती-महेन्द्र कहता, “चलो, मैं तुम्हें सीढ़ी तक छोड़ आऊं।” ये बातें याद आने लगी और सर्वांग में सिहरन होने लगी। रात क्रमश: ज्यादा होने लगी-महेन्द्र को रह-रहकर आशंका होने लगी, अब आशा आएगी, अब आएगी लेकिन वह न आई। महेन्द्र ने सोचा, मैं तो अपने कर्तव्य के लिए तैयार था, अब अगर वह नाहक ही नाराज होकर न आये तो मैं क्या करूं?’ और गहरी रात में उसने विनोदिनी के ध्यान को गाढ़ा कर लिया।
जब एक बज गया, तो महेन्द्र से न रहा गया। मसहरी हटाकर वह बाहर निकला। छत पर गया। देखा, चांदनी रात बड़ी ही सुहानी हो रही है। महेन्द्र की जमाने से रुकी पड़ी आकांक्षा अब अपने-आपको न रोक सकी। जब से आशा आई, विनोदिनी की झलक भी न दिखाई दी। चांदनी से उमगी सूनी रात महेन्द्र को मोह से आच्छन्न करके विनोदिनी की तरफ ठेलकर ले जाने लगी। महेन्द्र नीचे उतरा। विनोदिनी के कमरे के पास गया। देखा, कमरा बंद नहीं है। अन्दर गया। सेज बिछी थी, उस पर कोई सोया न था। कमरे में आहट पाकर दक्खिन वाले खुले बरामदे से विनोदिनी ने पूछा-“कौन है?”
रुंधे हुए गीले स्वर से महेन्द्र बोला-“मैं हूं, विनोद।”
और महेन्द्र सीधा बरामदे में पहुंच गया।
गर्मी की रात। बरामदे में चटाई डालकर विनोदिनी के साथ राजलक्ष्मी सोई थीं। उन्होंने कहा-“महेन्द्र, इतनी रात को तू यहां कैसे?”
अपनी काली घनी भौंहों के नीचे से विनोदिनी ने महेन्द्र पर वज्र-कटाक्ष डाला। महेन्द्र ने कोई जवाब न दिया। तेजी से वहां से चला गया।
दूसरे दिन सुबह से ही घटा घुमड़ी रही। कुछ देर बेहद गर्मी थी, फिर काले-काजल से मेघों में से झुलसा आकाश जुड़ गया। आज महेन्द्र समय से पहले ही कालेज चला गया। बदले हुए कपड़े फर्श पर पड़े थे। आशा गिन-गिनकर कपड़े धोबी को देने लगी। हिसाब लिखकर रखने लगी।
महेन्द्र जरा लापरवाह है। इसी से आशा को हिदायत थी कि धोबी को कपड़े देते वक्त जेब जरूर देख लिया करे। आशा ने उसके एक कुरते की जेब में हाथ डाला कि एक चिट्ठी मिली।
वह चिट्ठी अगर जहरीला नाग बनकर उसी क्षण आशा की ऊंगली को काट खाती, तो अच्छा था, क्योंकि तीखा जहर शरीर में फैल जाता और कुछ ही मिनटों में शायद उसका काम तमाम कर देता; लेकिन जहर मन में फैलता है तो मौत की पीड़ा तो होती है, मौत नहीं होती।
खुली चिट्ठी। निकालकर देखा तो विनोदिनी की लिखावट। पलक मारते आशा का चेहरा पीला पड़ गया। उस चिट्ठी को उसने बगल के कमरे में ले जाकर पढ़ा।
“कल रात तुमने जो हरकत की, उससे भी जी न भरा? आज फिर तुमने नौकरानी के हाथ छिपाकर मुझे पत्र भेजा। छिः, उसने मन में क्या समझा होगा! दुनिया में मुझे किसी को भी मुंह दिखाने लायक नहीं रहने दोगे तुम?
“मुझसे तुम क्या चाहते हो? प्यार! यह भिखमंगी क्यों आखिर? जन्म से तुम प्यार-ही-प्यार पाते आ रहे हो, फिर भी तुम्हारे लोभ का कोई हिसाब नहीं!
“मेरे प्रेम करने और प्रेम पाने की संसार में कोई जगह नहीं-इसीलिए मैं खेल में प्यार के खेद को मिटाया करती हूं। जब तुम्हें फुर्सत थी, तुमने भी उस झूठे खेल में हाथ बंटाया था। लेकिन खेल की छुट्टी क्या खतम नहीं होती? अब गर्द-गुबार झाड़-पोंछकर वापस जाओ? मेरा तो कोई घर नहीं, मैं अकेली ही खेला करूंगी-तुम्हें नहीं बुलाऊंगी।
“तुमने लिखा है, तुम मुझे प्यार करते हो। खेल-कूद में यह बात मान ली जा सकती है-मगर सच कहना हो, तो इस पर यकीन नहीं करती! कभी तुम यह सोचते थे कि आशा को प्यार करते हो। वह भी झूठा था। और अब तुम्हारा खयाल है, तुम मुझे प्यार करते हो-यह भी झूठा है। असल में तुम सिर्फ खुद को प्यार करते हो।
“प्यार की प्यास से मेरी छाती तक सूख गई है और वह प्यास मिटाने का सहारा तुम्हारे हाथ में नहीं, यह मैं अच्छी तरह देख चुकी हूं। मैं बार-बार कहती हूं, मुझे छोड़ दो, मेरे पीछे मत पड़ो, बेशर्म होकर मुझे शर्मिन्दा न करो! मेरे खेल का शौक भी पूरा हो चुका, अब पुकारोगे भी तो जवाब नहीं मिलेगा। खत में तुमने मुझे निर्दयी लिखा है-शायद यह सच हो, लेकिन मुझमें थोड़ी दया भी है, इसलिए आज मैंने दया करके तुम्हें त्याग दिया। कहीं तुमने मेरे इस पत्र का कोई जवाब दिया, तो समझूंगी कि यहां से भागे बिना तुमसे बचने का कोई उपाय नहीं।”
चिट्ठी का पढ़ना था कि लमहे-भर में आशा के चारों तरफ के सहारे टूट गिरे, शरीर की सारी शिराएं मानो एकबारगी थम गई, सांस लेने के लिए हवा तक मानो न रही-सूरज ने उसकी आंखों के सामने से जैसे सारी रोशनी समेट ली। आशा ने पहले दीवार थामी, फिर अलमारी, और फिर कुर्सी पकड़ते-पकड़ते जमीन पर गिर पड़ी।
अन्त में कलेजा दबाकर उसांसें भरती हुई बोल पड़ी-“मौसी!”
स्नेह के इस संभाषण के उमड़ते ही उसकी आंखों से आंसू छलकने लगे रुलाई पर रुलाई, और फिर रुलाई-आखिर जब रुलाई थमी तो वह सोचने लगी-“लेकिन इस चिट्ठी का मैं क्या करूंगी? कहीं उन्हें पता चल जाए कि यह चिट्ठी मेरे हाथ लग गई है तो! ऐसे में उनकी शर्मिन्दगी की याद करके आशा बेतरह कुंठित होने लगी। सोचकर आखिर यह तय किया कि चिट्ठी को उसी कुरते की जेब में रखकर उसे खूंटी पर लटका देगी-धोबी को न देगी।
इसी विचार से चिट्ठी लिये वह सोने के कमरे में गई। इस बीच मैले कपड़ों की गठरी से टिककर धोबी सो गया था। वह कुरते की जेब में चिट्ठी डालने की चेष्टा कर रही थी कि आवाज सुनाई दी-“भई किरकिरी!”
चिट्ठी और कुरते को झटपट पलंग पर डालकर वह उस पर बैठ गई। विनोदिनी अन्दर आकर बोली-“धोबी कपड़े बहुत उलट-पुलट करने लगा है। जिन कपड़ों में निशान नहीं लगाए गए हैं, मैं उन्हें ले जाती हूं।”
आशा विनोदिनी की ओर न देख सकी चेहरे के भाव से सब कुछ जाहिर न हो जाए, इसलिए खिड़की की ओर मुंह करके वह आसमान ताकती रही। होंठ-से-होंठ दबाए रही कि आंखों से आंसू न बह आए।
विनोदिनी ठिठक गई। एक बार आशा को गौर से देखा। सोचा, ‘ओ, समझी, कल का वाकया मालूम हो गया है लेकिन सारा गुस्सा मुझी पर! मानो कसूर मेरा ही है।
उसने आशा से बात करने की कोशिश ही न की। कुछ कपड़े उठाकर जल्दी-जल्दी वहां से चली गई।
एक बार मिलकर देखने की इच्छा हुई।
वह खत खोलने लगी कि इतने में लपककर महेन्द्र कमरे में आया। जाने क्या उसे याद आया कि लैक्चर के बीच से ही अचानक उठकर चला आया।
आशा ने पत्र आंचल में छिपा लिया। आशा को कमरे में देखकर महेन्द्र भी सहम गया। उसके बाद व्यग्र दृष्टि से कमरे के इधर-उधर देखने लगा। आशा ताड़ गई कि महेन्द्र क्या ढूंढ रहा है, लेकिन चिट्ठी को चुपचाप जहां थी, वहां रखकर वह कैसे भाग खड़ी हो, यह न समझ सकी।
महेन्द्र एक-एक करके मैले कपड़े उठा-उठाकर देखने लगा। महेन्द्र की उस बेकार कोशिश को देखकर आशा से न रहा गया। उसने कुरते और चिट्ठी को फर्श पर फेंक दिया और दाएं हाथ से पलंग के डंडे को थामकर मुंह गड़ा लिया। महेन्द्र ने बिजली की तेजी से चिट्ठी उठाई। एक पल को आशा की ओर कुछ न बोलते हुए लेकिन कुछ कहने के अंदाज में उसने देखा मगर कुछ कहा नहीं।
फिर तुरन्त आशा को सीढ़ियों पर उसके तेज कदम की आहट मिली।
इधर धोबी ने पुकारा-“मां जी, कपड़े देने में और कितनी देर करेंगी? बड़ी देर हो गई, मेरा घर भी तो पास नहीं।”
राजलक्ष्मी ने आज सुबह से विनोदिनी को बुलाया नहीं। रोज की तरह विनोदिनी भंडार में गई। राजलक्ष्मी ने सिर उठाकर उसकी ओर नहीं देखा।
यह देखकर भी उसने कहा-“बुआ, तबीयत ठीक नहीं है, क्यों? हो भी कैसे? कल रात भाई साहब ने तो करतूत की! पागल-से आ धमके। मुझे तो फिर नींद ही न आई।”
राजलक्ष्मी मुंह लटकाए रही। हां-ना कुछ न कहा।
विनोदिनी बोली-“किसी बात पर चख-चख हो गई होगी आशा से। कुछ भी कहो! बुआ, नाराज मत होना, तुम्हारे बेटे में चाहे हजारों सिफ्त हों, धीरज जरा, भी नहीं। इसीलिए मुझसे हरदम झड़प ही होती रहती है।”
राजलक्ष्मी ने कहा-“बहू, झूठ-मूठ बकती जा रही हो तुम, मुझे आज कोई भी बात नहीं सुहाती।”
विनोदिनी बोली-“मुझे भी कुछ नहीं सुहा रहा है, बुआ। तुम्हारे दिल को ठेस लगेगी, इसी डर से झूठ से मैं तुम्हारे बेटे का गुनाह ढंकना चाहती थी। लेकिन इस हद को पहुंच गया है कि अब ढका नहीं रहना चाहता।”
राजलक्ष्मी-“अपने बेटे का गुण-दोष मुझे मालूम है, मगर तुम कैसी मायाविनी हो, यह पता न था।”
विनोदिनी न जाने क्या कहने जा रही थी कि अपने को जब्त कर गई।
बोली-“यह बेजा है बुआ, कोई किसी को नहीं जानता; अपने मन को ही क्या सब कोई जानते हैं? कभी क्या तुम्हीं ने अपनी बहू से डाह करके इस मायाविनी के जरिये अपने बेटे का मन मोहने की कोशिश नहीं कराई थी? जरा सोच कर देखो!”
राजलक्ष्मी आग-सी दहक उठीं। बोली-“अभागिन, लड़के के लिए तू मां पर ऐसा आरोप लगा सकती है? जीभ गलकर नहीं गिरेगी तेरी?”
विनोदिनी उसी अडिग भाव से बोली-“बुआ, हम हैं मायाविनी की जात, मुझमें कौन-सी माया थी मैं ठीक-ठाक नहीं जानती थी, तुम्हें पता था, तुममें भी क्या माया थी-इसका तुम्हें ठीक पता न था, मैं जानती थी। मगर माया जरूर थी, नहीं तो यह घटना न घटती। मैंने भी कुछ जानते और कुछ अजानते फन्दा डाला था। और फन्दा तुमने भी कुछ तो जानकर बिना जाने डाला था। हमारी जात का धर्म ही ऐसा है-हम मायाविनी हैं।”
क्रोध के मारे राजलक्ष्मी का कंठ जकड़ गया। वह तेजी से कमरे के बाहर निकल गई।
विनोदिनी सूने कमरे में जरा देर स्थिर खड़ी रही-उसकी आंखों में आग जल उठी।
सुबह का काम-काज चुक गया तो राजलक्ष्मी ने महेन्द्र को बुलवा दिया। महेन्द्र समझ गया, कल रात की घटना के बारे में कहेंगी। इस बीच विनोदिनी से चिट्ठी का उत्तर पाकर उसका मन बेकल हो गया। उसी आघात के प्रतिघात स्वरूप उसका लहराया हृदय विनोदिनी की ओर जोरों से दौड़ रहा था। इस स्थिति में मां से सवाल-जवाब करना उसके लिए कठिन था। वह खूब समझ रहा था जहां से मां ने विनोदिनी के बारे में उसे फटकार बताई कि वह विद्रोही की तरह सच बता देगा और सच कहते ही भीषण गृह-युद्ध शुरू हो जायगा। लिहाजा इस समय कहीं बाहर जाकर सारी बातों पर ठीक से गौर कर लेना ठीक है। महेन्द्र ने नौकर से कहा- “मां से जाकर कह दे, आज कालेज में मुझे विशेष काम से, जल्दी जाना है; लौटकर मिलूंगा।”
और तुरन्त कपड़े पहनकर बिना खाए-पिए वह भाग खड़ा हुआ। विनोदिनी की जिस सख्त चिट्ठी को वह आज सुबह से ही बारम्बार पढ़ता और जेब में लिये-लिये फिरता रहा-जल्दी में वह चिट्ठी कुरते में ही छोड़कर चला गया।
एक झमक बारिश हो गई, फिर घुमड़न-सी हो रही। विनोदिनी का मन आज खीझा हुआ था। उसका मन भी जब ऐसा होता है तो वह काम ज्यादा करती है। इसीलिए आज घर भर में जितने भी कपड़े मिले सबको बटोरकर निशान लगा रही थी। आशा से कपड़े मांगने गई तो उसके चेहरे का भाव देखकर उसका मन और भी बिगड़ गया। संसार में अगर कसूरवार ही ठहरना है तो उसकी सारी जहमतें ही क्यों झेले, कसूर के सुखों से ही क्यों वंचित हों?
झमाझम बारिश शुरू हो गई। विनोदिनी कमरे के फर्श पर आ बैठी। सामने कपड़ों का पहाड़ लगा था। नौकरानी एक-एक कपड़ा उसकी ओर बढ़ा रही थी और वह स्याही से उस पर हरुफ उगा रही थी।
महेन्द्र ने कोई आवाज़ न दी। दरवाजा खोलकर सीधा कमरे में दाखिल हो गया। नौकरानी घूंघट निकालकर वहां से भाग गई।
विनोदिनी ने अपनी गोद पर का कपड़ा उतार फेंका और बिजली-सी लपक खड़ी हुई। बोली-“जाओ, मेरे कमरे से चले जाओ!”
महेन्द्र बोला-“क्यों, मैंने क्या किया है?”
विनोदिनी-“क्या किया है! डरपोक, कायर! कुछ करने की जुर्रत ही कहां है तुममें! न प्यार करना आता है, न कर्तव्य का पता है। बीच में मुझे क्यों लोगों की नजरों में गिरा रहे हो?”
महेन्द्र-“तुम्हें प्यार नहीं किया, यह क्या कहती हो?”
विनोदिनी-“मैं यही कह रही हूं-चोरी चुप-चुप, झोप-तोप, एक बार इधर तो एक बार उधर-तुम्हारी यह चोर जैसी हरकत देखकर मुझे नफरत हो गई है। अब अच्छा नहीं लगता। तुम जाओ यहां से।”
महेन्द्र मुरझा गया। बोला-“तुम मुझसे नफरत करती हो, विनोद?”
विनोदिनी-“हां, करती हूं।”
