aankh ki kirkiri by ravindranath tagore
aankh ki kirkiri by ravindranath tagore

इस पर काफी दिल्लगी रही। बहुत दिनों के बाद महेन्द्र के घर की मायूसी का भार मानो हल्का हो गया।

इतनी बातें होती रहीं, मगर किसी भी तरफ से किसी ने भी महेन्द्र का नाम न लिया। पहले बिहारी से महेन्द्र की चर्चा ही राजलक्ष्मी की एकमात्र बात हुआ करती थी। महेन्द्र ने अपनी मां का इसके लिए बहुत बार मजाक भी उड़ाया है। आज उसी राजलक्ष्मी की जबान पर भूलकर भी महेन्द्र का नाम न आते देखकर बिहारी दंग रह गया।

राजलक्ष्मी को झपकी-लग गई। बाहर जाकर बिहारी ने अन्नपूर्णा से कहा-“मां की बीमारी तो सहज नहीं लगती!”

अन्नपूर्णा बोलीं-“यह तो साफ ही देख रही हूं।” कहकर अन्नपूर्णा खिड़की के पास बैठ गई।

बड़ी देर चुप रहकर बोलीं-“महेन्द्र को तू खोज नहीं लाएगा, बेटे! अब तो देर करना वाजिब नहीं जंचता।”

बिहारी कुछ देर चुप रहा, फिर बोला-“जो हुक्म करोगी, वह करूंगा। उसका पता मालूम है किसी को?”

अन्नपूर्णा-“पता ठीक-ठीक किसी को मालूम नहीं, ढूंढ़ना पड़ेगा। और एक बात तुमसे कहूं-आशा का खयाल करो। अगर विनोदिनी के चंगुल से महेन्द्र को तू न निकाल सका, तो वह जिंदा न रहेगी।

मन ही मन तीखी हंस-हंसकर बिहारी ने सोचा, ‘मैं दूसरे का उद्धार करूं भगवान मेरा उद्धार कौन करे!’ बोला- “विनोदिनी के जादू से महेन्द्र को सदा के लिए बचा सकूं, मैं ऐसा कौन-सा मंतर जानता हूं, चाची!”

इतने में मैली-सी धोती पहने आधा घूंघट निकाले आशा अपनी मौसी के पांवों के पास आ बैठी। उसने समझा था, दोनों में राजलक्ष्मी की बीमारी के बारे में बातें हो रही हैं। इसीलिए चली आई। पतिव्रता आशा के चेहरे पर गुम-सुम दु:ख की मौन महिमा देखकर बिहारी के मन में एक अपूर्व भक्ति का संचार हुआ। शोक में गर्म आंसू से सिंचकर इस तरुणा ने पिछले युग की देवियों जैसी एक अटूट मर्यादा पाई है।

राजलक्ष्मी की दवा और पथ्य के बारे में आशा से बातें करके बिहारी ने उसे वहां से जब विदा किया, तो एक उसांस भरकर उसने अन्नपूर्णा से कहा-“महेन्द्र को मैं उस चंगुल से निकालूंगा।”

बिहारी महेन्द्र के बैंक में गया। वहां उसे पता चला महेन्द्र इन दिनों उनकी इलाहाबाद शाखा से लेन-देन करता है।’

  1. पूर्वी बंगाल के लोगों को बंगाल में मजाक में ‘बांगाल’ कहते हैं।

स्टेशन जाकर विनोदिनी औरतों वाले ड्योढ़े दर्जे के डिब्बे में जा बैठी। महेन्द्र ने कहा, “अरे, कर क्या रही हो, मैं तुम्हारा दूसरे दर्जे का टिकट ले रहा हूं।”

वह बोली “बेजा क्या है, यहां आराम से ही रहूंगी।” महेन्द्र ताज्जुब में पड़ गया। विनोदिनी स्वभाव से ही शौकीन थी। गरीबी का कोई भी लक्षण उसे न सुहाता था, अपनी गरीबी को वह अपने लिए अपमानजनक ही मानती थी। महेन्द्र ने इतना समझ लिया था कि कभी उसके घर की खुशहाली, विलास की सामग्रियों और औरों की अपेक्षा उनके धनी होने के गौरव ने ही विनोदिनी के मन को आकर्षित किया था। इस धन-दौलत की, इन सारे आराम और गौरव की वह सहज ही मालकिन हो सकती थी, इस कल्पना ने उसे बड़ा उत्तेजित कर दिया था। आज जब उसको महेन्द्र पर प्रभुत्व पाने का मौका मिला है, अनचाहे भी वह उसकी धन-दौलत को अपने काम में ला सकती है, तो वह क्यों ऐसी असह्य उपेक्षा से यों तनकर तकलीफदेह शर्मनाक दीनता अपना रही है? वह महेन्द्र पर कम से कम निर्भर रहना चाह रही थी।

महेन्द्र ने पूछा-“कहां का टिकट लूं, कहो!”

विनोदिनी बोली-“पछांह की तरफ जहां भी चाहे, चलो! सुबह जहां गाड़ी रुकेगी उतर पड़ेंगे।”

महेन्द्र को ऐसी यात्रा में कोई आकर्षण नहीं। आराम न मिले तो तकलीफ होती है। बड़े शहर में रहने की अच्छी जगह न मिले तो मुश्किल। इधर मन में यह डर लगा रहा कि विनोदिनी चुपचाप कहीं उतर न पड़े।

इस तरह विनोदिनी शनि ग्रह की तरह घूमने और महेन्द्र को घुमाने लगी। कहीं भी चैन न लेने दिया। विनोदिनी बड़ी जल्दी दूसरे को अपना बना सकती है। कुछ ही देर में हमसफरों से मिताई कर लेती। जहां जाना होता वहां की सारी बातों का अता-पता लगा लेती, रात्रिशाला में ठहरती और जहां जो कुछ देखने जैसा होता, उन बन्धुओं की मदद से देखती। अपनी आवश्यकता से महेन्द्र विनोदिनी के आगे रोज-रोज अपने को बेकार समझने लगा। टिकट लेने के सिवाय कोई काम नहीं। शुरू-शुरू के कुछ दिनों तक वह विनोदिनी के साथ-साथ चक्कर काटा करता था, लेकिन धीरे-धीरे वह असह्य हो गया। खा-पीकर वह सो जाने की फिक्र में होता, विनोदिनी तमाम दिन घूमा करती। माता के लाड़ में पला महेन्द्र यों भी चल सकता है, कोई सोचता भी न था।

एक दिन इलाहाबाद स्टेशन पर दोनों गाड़ी का इन्तजार कर रहे थे। किसी वजह से गाड़ी आने में देर हो रही थी। इस बीच और जो गाड़ियां आ-जा रही थीं, विनोदिनी उनके मुसाफिरों को गौर से देख रही थी। शायद उसे यह उम्मीद थी कि पछांह में घूमते हुए चारों तरफ देखते-देखते अचानक किसी से भेंट हो जाएगी। कम से कम रुंधी गली के सुनसान घर में बेकार की तरह बैठकर अपने को घोंट मारने की इस रोज की अपेक्षा खोज-बीन में, इस खुली राह की चहल-पहल में शान्ति थी।

अचानक उधर कांच के एक बक्स पर नजर पड़ते ही विनोदिनी चौंक उठी। उसमें उन लोगों की चिट्ठियां रखी जाती है, जिनका पता नहीं चलता। उसी बक्स के पत्रों में से एक में उसने बिहारी का नाम देखा। बिहारी नाम कुछ असाधारण नहीं। यह समझने की कोई वजह न थी कि यह बिहारी विनोदिनी का ही वांछित बिहारी है – तो भी बिहारी का पूरा नाम देखकर उसे उसके सिवा दूसरे किसी बिहारी का सन्देह न हुआ। उसने ठिकाना याद कर लिया। महेन्द्र एक बेंच पर बड़ा खुश बैठा था। विनोदिनी उसके पास जाकर बोली- “कुछ दिन यहीं रहूंगी।”

विनोदिनी अपने इशारे पर महेन्द्र को नचा रही थी और फिर भी उसके भूखे-प्यासे मन को खुराक तक न देती थी, इससे उसके पौरुष गर्व को ठेस लग रही थी और उसका मन दिन प्रति-दिन बागी होता जा रहा था। इलाहाबाद रुककर कुछ दिन सुस्ताने का मौका मिले तो मानो वह भी जाए लेकिन इच्छा के अनुकूल होने के बावजूद उसका मन विनोदिनी के खयाल पर राजी होने को सहसा तैयार न हुआ। उसने नाराज होकर कहा- “जब निकल ही पड़ा तो जाकर ही रहूंगा, अब लौट नहीं सकता।”

विनोदिनी बोली-“मैं नहीं जाऊंगी।”

महेन्द्र बोला-“तो तुम अकेली रहो, मैं चलता हूं।”

विनोदिनी बोली-“यह सही।” और बेझिझक उसने इशारे से कुली को बुलाया और स्टेशन से चल पड़ी।

पुरुष के कर्तव्य-अधिकार से परिपूर्ण महेन्द्र स्याह-सूरत लिये बैठा रह गया। जब तक विनोदिनी आंखों से ओझल न हो गई, वह देखता रहा। बाहर आकर देखा, विनोदिनी एक बग्घी पर बैठी है। उसने चुपचाप सामान रखवाया और कोचबक्स पर बैठ गया। अपने अभिमान की मिट्टीपलीद होने के बाद उसमें विनोदिनी के सामने बैठने का मुंह न रहा।

लेकिन गाड़ी चली, तो चली। घंटा भर बीत गया, शहर छोड़कर वह खेतों की तरफ जा निकली। गाड़ीवान से पूछने में महेन्द्र को संकोच हुआ। शायद गाड़ीवान यह सोचेगा कि असल में अन्दर की औरत ही मालकिन है, इस बेकार आदमी से उसने यह भी सलाह नहीं की है कि कहां जाना है। वह कड़वा घूंट पीकर चुपचाप कोच बक्स पर बैठा रहा।

गाड़ी यमुना के निर्जन तट पर सुन्दर ढंग से लगाये एक बगीचे के सामने आकर रुकी। महेन्द्र हैरत में पड़ गया। ‘किसका है यह बगीचा? इसका पता विनोदिनी को कैसे मालूम हुआ?’

फाटक बंद था। चीख-पुकार के बाद बूढ़ा रखवाला बाहर निकला। उसने कहा- “बगीचे के मालिक धनी हैं, बहुत दूर नहीं रहते। उनकी इजाजत ले आएं तो यहां ठहरने दूंगा।”

विनोदिनी ने एक बार महेन्द्र की तरफ देखा। बगीचे के सुन्दर घर को देखकर महेन्द्र लुभा गया था- बहुत दिनों के बाद कुछ दिनों के लिए रुकने की उम्मीद से वह खुश हो गया। विनोदिनी से कहा- “चलो, उस धनी के पास चलें। तुम बाहर गाड़ी पर रहना, मैं अन्दर जाकर किराया तय कर लूंगा।”

विनोदिनी बोली- “मैं अब चक्कर नहीं काट सकती। तुम जाओ, मैं तब तक यहीं सुस्ताती हूं। डरने की कोई बात नहीं।”

महेन्द्र गाड़ी लेकर चला गया। विनोदिनी ने उस बूढ़े ब्राह्मण को बुलाकर उसके बाल-बच्चों के बारे में पूछा; वे कौन हैं, कहां काम करते हैं, बच्चियों की शादी कहां हुई है। उसकी स्त्री के देहान्त हो जाने की बात सुनकर करुण स्वर में बोली- “ओह, तब तो तुम्हें काफी तकलीफ है। इस उम्र में दुनिया में निरे अकेले पड़ गए हो, कोई देखने वाला नहीं!”

और बातों-बातों में विनोदिनी ने पूछा-“यहां बिहारी बाबू न थे?”

बूढ़े ने कहा-“जी हां, थे कुछ दिन। मां जी क्या उनको पहचानती हैं?”

विनोदिनी बोली-“वे हमारे अपने ही हैं।”

बूढ़े से बिहारी का जो हुलिया मिला, उसे विनोदिनी को कोई शुबहा न रहा। घर बुलाकर उसने सब कुछ पूछ-ताछ लिया कि बिहारी किस कमरे में सोता था, कहां बैठता था। उसके चले जाने के बाद से घर बन्द पड़ा था, इससे लगा कि उसमें बिहारी की गंध है। लेकिन यह पता न चल सका कि बिहारी गया कहां-शायद ही वह फिर लौटे।

महेन्द्र ने किराया चुकाकर मालिक से वहां रहने की इजाजत ले ली।

शाम को महेन्द्र जब उस यमुना के तट पर जा बैठा, तो प्रेम के आवेश ने उसकी नजरों में, सांसों में, नस-नस में, हड्डियों के बीच गाड़े मोह रस का संचार कर दिया आसमान में डूबते सूरज की किरणों की सुनहली वीणा वेदना की मूर्च्छना से झरती जोत के संगीत से झंकृत हो उठी!

बारिश जैसा हो रहा था। नदी अपने उद्दाम यौवन में। महेन्द्र के पास निर्दिष्ट कुछ नहीं था उसे वैष्णव कवियों का वर्षाभिसार याद आया। नायिका बाहर निकली है; यमुना के किनारे वह अकेली खड़ी है। उस पार कैसे जाए? अरे ओ, पार करो, पार कर दो। महेन्द्र की छाती के अन्दर यही पुकार पहुंचने लगी- “पार करो”।

नदी से उस पार बड़ी दूर पर वह अभिसारिका खड़ी थी- फिर भी महेन्द्र उसे साफ देख पाया। उसका कोई काल नहीं, उम्र नहीं, वह चिरंतन गोपबाला है, मगर महेन्द्र ने उसे फिर भी पहचान लिया- पहचाना कि वह विनोदिनी है। सारा विरह, सारी वेदना यौवन का सारा भार लिये वह उस युग के अभिसार के लिए चली थी और आज के युग के किनारे आ निकली है। आज के इस सुने यमुना-तट के ऊपर आकाश में उसी का स्वर सुनाई पड़ रहा है। ‘अरे ओ, पार करो, पार कर दो!’ नाव के लिए यहां इस अंधेरे में अकेली आखिर कब तक खड़ी रहे- ‘अरे ओ, पार कर दो!’

महेन्द्र मतवाला हो गया। विनोदिनी उसे ठुकरा देगी, चांदनी रात के इस स्वर्ग-खण्ड को वह लक्ष्मी बनकर पूरा न करेगी, वह यह सोच भी नहीं सका। वह तुरन्त उठकर विनोदिनी को ढूंढ़ने चल दिया।

सोने के कमरे में गया। कमरा फूलों की खुशबू से महमहा रहा था। खुली खिड़कियों से छन कर चांदनी सफेद बिछौने पर आ पड़ी थी। बगीचे से फूल लाकर विनोदिनी ने माला गूंथकर जूड़े में, गले में, कमर में पहन रखी थी। फूलों से सजी वह बसंत की बिखरी लता जैसी चांदनी में बिस्तर पर लेटी हुई थी।

महेन्द्र को मोह दुगुना हो गया। उसने रुंधे गले से कहा- “विनोद, मैं यमुना के तट पर तुम्हारी राह देख रहा था और तुम यहां इन्तजार कर रही हो, यह सन्देशा मुझे चांद ने दिया। इसी से मैं यहां आ गया।”

यह कहकर महेन्द्र बिस्तर पर बैठने ही जा रहा था कि विनोदिनी उठ बैठी और दायां हाथ बढ़ाकर बोली-“जाओ; इस बिस्तर पर मत बैठो।” पाल वाली नाव मानो चौंर में अटक गई- महेन्द्र सन्न रह गया। बड़ी देर तक उसकी जबान से आवाज न निकली। कहीं महेन्द्र कहा न माने, इसीलिए विनोदिनी बिस्तर से उतरकर खड़ी हो गई।

महेन्द्र ने पूछा-“तो तुम्हारा यह शृंगार किसके लिए है? किसका इन्तजार कर रही हो?”

विनोदिनी ने अपनी छाती को दबाकर कहा-“मैं जिसके लिए सजी-संवरी, वह मेरे अंतस्तल में है।”

महेन्द्र ने पूछा-“आखिर कौन? बिहारी।”

विनोदिनी बोली-“उसका नाम तुम अपनी जबान पर मत लाओ!”

महेन्द्र-“उसी के लिए तुम पछांह का दौरा कर रही हो?”

विनोदिनी-“हां, उसी के लिए।”

महेन्द्र-“उसका पता मालूम है?”

विनोदिनी-“मालूम नहीं, मगर जैसे भी हो, मालूम करूंगी।”

महेन्द्र-“तुम्हें यह हर्गिज न मालूम होने दूंगा।”

विनोदिनी-“न सही, मगर मेरे हृदय से उसे निकाल नहीं पाओगे।”

यह कहकर विनोदिनी ने आंखें बन्द करके अपने हृदय में एक बार बिहारी का अनुभव कर लिया।

फूलों से सजी विरह-विधुरा विनोदिनी से एक साथ ही खिंचकर और ठुकराया जाकर महेन्द्र अचानक भयंकर हो उठा; वह मुट्ठी कसकर बोला-“छुरी से चीर कर मैं उसे तुम्हारे कलेजे से निकाल बाहर करूंगा।”

विनोदिनी ने दृढ़ता से कहा- “तुम्हारे प्रेम से तुम्हारी यह छुरी मेरे हृदय में आसानी से घुस सकेगी।”

महेन्द्र “तुम मुझसे डरती क्यों नहीं? यहां तुम्हें बचाने वाला कौन है?”

विनोदिनी-“बचाने वाले तुम हो! तुम्हीं मुझे अपने से बचाओगे।”

महेन्द्र-“इतनी श्रद्धा, इतना विश्वास अब भी है!”

विनोदिनी-“यह न होता तो मैं खुदकुशी कर लेती, तुम्हारे साथ परदेस न आती।”

महेन्द्र-“क्यों न कर ली खुदकुशी- उस विश्वास की फांस मेरे गले में डाल कर मुझे देश-देशान्तर में घसीटकर क्यों मार रही हो? सोच देखो, तुम मर जाती तो कितना कल्याण होता!”

विनोदिनी-“जानती हूं, मगर जब तक बिहारी की उम्मीद है, मर न पाऊंगी।”

महेन्द्र “जब तक तुम नहीं मरतीं, तब तक मेरी आशा भी नहीं मरने की, मैं भी छुटकारा नहीं पाने का। आज से मैं हृदय से भगवान से तुम्हारी मृत्यु की कामना करता हूं। तुम मेरी भी न बनो, बिहारी की भी नहीं! जाओ, मुझे मुक्ति दो। मेरी मां रो रही है, स्त्री रो रही है, उनके आंसू दूर से ही मुझे जला रहे हैं। जब तक तुम मर नहीं जाती; मेरी और दुनिया भर की आशा से परे नहीं हो जाती, तब तक मुझे उनके आंसू पोंछने का अवसर नहीं मिलेगा।”

इतना कहकर महेन्द्र बड़ी तेजी से बाहर निकल गया। अकेली पड़ी विनोदिनी अपने चारों तरफ माया का जाल बुन रही थी, उसे वह फाड़ गया विनोदिनी खड़ी-खड़ी चुपचाप बाहर देखती रही- आकाश -भरी चांदनी को खाली करके उसका सारा संचित अमृत कहीं चला गया? वह क्यारियों वाला बगीचा, उसके बाद रेती-भरा किनारा, उसके बाद नदी का काला-काला पानी, उसके बाद उस पार का धुंधलापन-सब मानो एक सादे कागज पर पेंसिल का बना चित्र हो- नीरस, बेमानी।

उसने महेन्द्र को किस बुरी तरह अपनी ओर खींचा है खौफनाक तूफान की तरह कैसे उसे जड़ समेत उखाड़ लिया है – यह अनुभव करके आज उसका हृदय मानो और भी बेचैन हो गया। उसमें यह सारी शक्ति तो है, फिर भी बिहारी पूर्णिमा की रात में मड़े हुए समुद्र की तरह उसके सामने आकर पछाड़ क्यों नहीं खाता? क्यों बेमतलब प्यार की कचोट रोज उसके ध्यान में आकर रोती है?

उसे लगा सब बेकार और निरर्थक है। इतनी व्यर्थता के बावजूद जो जहां है, वहीं खड़ा है – दुनिया में किसी बात का कोई कार्यक्रम नहीं। सूरज तो कल भी उगेगा और दुनिया अपने छोटे-से काम को भी न भूलेगी। और बिहारी जैसे दूर रहा है, वैसे ही दर रहेगा और उस ब्राह्मण के बच्चे को किताब का नया पाठ पढ़ाता रहेगा।

उसकी आंखों से आंसू फूटकर झरने लगे। अपनी इच्छा और शक्ति लिये वह किस पत्थर को ढकेल रही है? उसका हृदय लहू से नहा उठा, लेकिन उसकी तकदीर सुई की नोक के बराबर भी न खिसकी।

रात में महेन्द्र सोया नहीं-थकावट के मारे सुबह-सुबह उसे नींद आई। सुबह आठ-नौ बजे के करीब जगकर वह झट उठ बैठा। पिछली रात की कोई अधूरी पीड़ा नींद के भीतर ही भीतर घूमती रही थी। सचेतन होते ही महेन्द्र उसकी तकलीफ महसूस करने लगा। कुछ ही देर में रात की सारी घटना मन में जाग पड़ी। सुबह की उस धूप में, पूरी नींद न आ पाने की थकावट से सारी दुनिया और जिन्दगी बड़ी सूखी-सी लगी। घर छोड़ने की ग्लानि, धर्म छोड़ने का परिताप और इस उद्भ्रांत जीवन की ये जिल्लतें आखिर वह किसके लिए झेल रहा है! मोह के आवेश से रहित सुबह की इस धूप में महेन्द्र को लगा, वह विनोदिनी को प्यार नहीं करता। उसने रास्ते की ओर झांका-सारी दुनिया परेशान-सी काम के पीछे भाग रही है। और आत्म-गौरव को कीचड़ में डुबोकर एक बेरूखी औरत के पैरों से लिपटे रहने की जो नादानी है, वह महेन्द्र की निगाहों में स्पष्ट हो उठी। आवेग के किसी बड़े झोंके के बाद हृदय में अवसाद आता है, ऐसे वक्त थका-हरा हृदय अपनी अनुभूति के विषय को कुछ समय के लिए दूर हटाना चाहता है।

फिर तो धिक्कार के इस मोह-चक्र से अपने को छुड़ाकर घर जाने के लिए महेन्द्र ललक उठा, बिहारी को निर्भर करने योग्य अडिग मिताई बड़ी बेशकीमती लगने लगी। महेन्द्र मन ही मन कह उठा-‘जो वास्तव, गम्भीर और स्थायी होता है, उसमें अनायास, बाधा-विहीन-सा अपने को पूरी तरह खोया जा सकता है, इसीलिए उसके गौरव को हम नहीं समझते। जो महज धोखा है, जिसकी तृप्ति में भी सुख का नाम नहीं, चूंकि वह हमें अपने पीछे घुड़दौड़-सी कराता है, इसलिए हम उसे अपनी चरम कामना का धन समझते हैं।’

महेन्द्र ने तय किया-‘मैं आज ही अपने घर जाऊंगा। विनोदिनी जहां भी रहना चाहेगी, वहीं उसका इन्तजाम करके मैं मुक्त हो जाऊंगा’-यह जोर से उच्चारण करते ही उसके मन में एक आनन्द का उदय हुआ। लगातार दुविधा का जो भार वह ढोता चला आ रहा था, हल्का हो गया। अब तक होता ऐसा रहा कि, अभी-अभी जो बात उसे रुचती न थी, दूसरे ही क्षण उसे मानने को मजबूर होना पड़ता था, हां-ना कहते न बनता; उसकी अन्तरात्मा उसे जो आदेश देती, सदा बलपूर्वक उसे दबाकर वह दूसरी ही राह पर चला करता-अभी जैसे ही उसने जोर से कहा- मैं मुक्त हो जाऊंगा’-वैसे ही शरण पाकर उसके झकझोरे हुए हृदय ने उसे बधाई दी।

महेन्द्र बिस्तर से उठा, मुंह-हाथ धोया और विनोदिनी से मिलने गया। देखा, कमरा अन्दर से बन्द है। दरवाजे पर धक्का देकर पूछा-“सो रही हो?”

विनोदिनी बोली-“नहीं, अभी जाओ!”

महेन्द्र ने कहा-“तुमसे जरूरी बात करनी है। ज्यादा देर न रुकूंगा।”

विनोदिनी बोली-“बात अब मैं नहीं सुनना चाहती, तुम जाओ, मुझे तंग मत करो-अकेली रहने दो।”

और दिन होता, तो इससे महेन्द्र का आवेग और बढ़ ही जाता। लेकिन आज उसे बेहद घृणा हुई। सोचा, इस मामूली औरत के आगे अपने-आपको मैंने ऐसा गया-बीता बना छोड़ा है कि अब उसमें मुझे इस बुरी तरह दुत्कार कर दूर कर देने की हिम्मत हो गई है? यह अधिकार इसका स्वाभाविक नहीं। मैंने ही यह अधिकार देकर इसके मिजाज को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया है।

विनोदिनी की इस झिड़की से महेन्द्र ने अपने में अपनी श्रेष्ठता के अनुभव की कोशिश की। उसके मन ने कहा- “मैं विजयी होऊंगा-इसके बन्धन तोड़कर चला जाऊंगा।’

भोजन करके महेन्द्र रुपया निकालने बैंक गया। रुपया निकाला और आशा तथा मां के लिए कुछ नई चीजें खरीदने के खयाल से वह बाजार की दुकानों में घूमने लगा।