अपने बगीचे के दक्खिन में फले जामुन-तले बिहारी मेघ-घिरे प्रभात में चुपचाप पड़ा था, सामने से कोठी की डोंगी आ-जा रही थीं। अलसाया-सा वह उसी को देख रहा था। बेला धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। नौकर ने आकर पूछा, “भोजन का प्रबन्ध करे या नहीं?” बिहारी ने कहा-“अभी रहने दो।”
इतने में उसने चौंक कर देखा, सामने अन्नपूर्णा खड़ी है। बदहवास-सा वह उठ पड़ा, दोनों हाथों से उनके पांव पकड़कर जमीन पर माथा टेककर प्रणाम किया। अन्नपूर्णा ने बड़े स्नेह से अपने दाएं हाथ से उसके बदन और माथे को छुआ। भर आए से स्वर में पूछा-‘तू इतना दुबला क्यों हो गया है, बिहारी?”
बिहारी ने कहा-“ताकि तुम्हारा स्नेह पा सकूं।”
सुनकर अन्नपूर्णा की आंखें बरस पड़ी। बिहारी ने व्यस्त होकर पूछा- “तुमने अभी भोजन नहीं किया है, चाची?”
अन्नपूर्णा बोलीं-“अभी मेरे खाने का समय नहीं हुआ।”
बिहारी बोला- “चलो-चलो, मैं रसोई की जुगत किये देता हूं। एक युग के बाद तुम्हारे हाथ की रसोई पत्तल का प्रसाद पाकर जी जाऊंगा मैं।”
महेन्द्र और आशा के बारे में बिहारी ने कोई चर्चा नहीं की। इसका दरवाजा। एक दिन खुद अन्नपूर्णा ने ही अपने हाथों बन्द कर दिया था। मान में भरकर उससे उसी निष्ठुर निषेध का पालन किया।
खा चुकने के बाद अन्नपूर्णा ने कहा- “घाट पर नाव तैयार है बिहारी, चल, कलकत्ता चल!”
बिहारी बोला-“कलकत्ता से मेरा क्या लेना-देना।”
अन्नपूर्णा ने कहा-“दीदी बहुत बीमार है, वे तुम्हें देखना चाहती हैं एक बार।”
सुनकर बिहारी चौंक उठा। पूछा- “और महेन्द्र भैया।”
अन्नपूर्णा-“वह कलकत्ता में नहीं है, बाहर गया है।”
सुनते ही बिहारी का चेहरा सफेद पड़ गया। वह चुप रहा।
अन्नपूर्णा ने पूछा- “तुझे क्या मालूम नहीं है सारा किस्सा?”
बिहारी बोला- “कुछ तो मालूम है, अंत तक नहीं।”
इस पर अन्नपूर्णा ने विनोदिनी को लेकर महेन्द्र के भाग जाने का किस्सा बताया। बिहारी की निगाह में जल, थल,आकाश का रंग ही बदल गया, उसकी कल्पना के खजाने का सारा रस सुनते ही कड़वा हो गया- ‘तो क्या वह मायाविनी उस दिन शाम को मेरे साथ खेल, खेल गई? उसका प्रेम-निवेदन महज मक्कारी था! वह अपना गांव छोड़कर बेहया की तरह महेन्द्र के साथ भाग गई!’
बिहारी सोच रहा था, दुखिया आशा की ओर वह देखेगा कैसे! ड्योढ़ी के अंदर कदम रखते ही स्वामीहीन घर की घनीभूत पीड़ा उसे दबोच बैठी। घर के नौकर-दरबानों की ओर ताकते हुए बौराए हुए महेन्द्र के भाग जाने की शर्म ने उसके सिर को गाड़-सा दिया। पुराने और जाने-पहचाने नौकरों से उसने पहले की तरह मुलायमियत से कुशल-क्षेम न पूछी। हवेली में जाने को मानो उसके कदम नहीं उठ रहे थे। दुनिया के सामने खुले-आम महेन्द्र बेबस आशा को जिस गहरे अपमान में छोड़ गया है, जो अपमान औरत के सबसे बड़े परदे को उघाड़ कर उसे सारी दुनिया की कौतूहल भरी कृपा दृष्टि के बीच खड़ा कर देता है, उसी अपमान के आवरणहीन स्वरूप में बिहारी सकुचाई और दुखित आशा को कौन-से प्राण लेकर देखेगा!
लेकिन इन चिन्ताओं और संकोच का मौका ही न रहा। हवेली में पहुंचते ही आशा दौड़ी-दौड़ी आई और बिहारी से बोली- “भाई साहब, जरा जल्दी आओ, मां को देखो जल्द!”
बिहारी से आशा की खुलकर बातचीत ही पहली थी। दुर्दिन का मामूली झटका सारी रुकावटों को उड़ा ले जाता है – जो दूर-दूर रहते हैं, बाढ़ उन सबको अचानक एक संकरी जगह में इकट्ठा कर देती है।
आशा की इस संकोचहीन अकुलाहट से बिहारी को चोट लगी। इस छोटे-से वाक्य से ही वह समझ सका कि महेन्द्र अपनी गिरस्ती की कैसी मिट्टीपलीद कर गया है।
बिहारी राजलक्ष्मी के कमरे में गया। अचानक सांस की तकलीफ हो जाने से राजलक्ष्मी फीकी पड़ गई थीं- लेकिन वह तकलीफ ज्यादा देर नहीं रही इसलिए संभल गईं।
बिहारी ने राजलक्ष्मी को प्रणाम किया। चरणों की धूल ली। राजलक्ष्मी ने उसे पास बैठने का इशारा किया और धीरे-धीरे कहा-“कैसा है बिहारी? जाने कितने दिनों से तुझे नहीं देखा!”
बिहारी ने कहा-“तुमने अपनी बीमारी की खबर क्यों नहीं भिजवाई? फिर क्या मैं जरा भी देर कर पाता।”
राजलक्ष्मी ने धीमे से कहा- “यह क्या मुझे मालूम नहीं, बेटे! तुझे कोख में नहीं रखा मैंने, लेकिन तुझसे बढ़कर मेरा अपना क्या दुनिया में है कोई?”
कहते-कहते राजलक्ष्मी की आंखों से आंसू बहने लगे। बिहारी झटपट उठा। ताखों पर दवा-दारू की शीशियों को देखने के बहाने उसने आपने-आपको जब्त किया। उसके बाद आकर उसने राजलक्ष्मी की नब्ज देखनी चाही। राजलक्ष्मी बोलीं-“मेरी नब्ज को छोड़-मैं पूछती हूं, तू इतना दुबला क्यों हो गया है?”
अपने दुबले हाथों से राजलक्ष्मी ने बिहारी की गर्दन की हड्डी छूकर देखी।
बिहारी ने कहा – “जब तक तुम्हारे हाथ की रसोई नसीब नहीं होती, यह हड्डी ढंकने की नहीं। तुम जल्दी ठीक हो जाओ मां, मैं इतने में रसोई का इन्तजाम कर रखता हूं।”
राजलक्ष्मी फीकी हंसी हंसकर बोलीं- “हां, जल्दी-जल्दी इन्तजाम कर, बेटे-तेरी देख-रेख के लिए कोई भी नहीं है। अरी ओ मंझली- तुम लोग अब बिहारी की शादी करा दो, देखो न, इसकी शक्ल कैसी हो गई है।”
अन्नपूर्णा ने कहा-“तुम चंगी हो लो, दीदी- यह तो तुम्हारी ही जिम्मेदारी है।”
राजलक्ष्मी बोलीं-“मुझे अब यह मौका न मिलेगा बहन, बिहारी का भार तुम्हीं लोगों पर रहा, इसे तुम लोग सुखी रखना। मैं इसका ऋण नहीं चुका सकी, लेकिन भगवान भला करे इसका।” यह कहकर उन्होंने बिहारी के माथे पर अपना दायां हाथ फेर दिया।
आशा से कमरे में न रहा गया। वह रोने के लिए बाहर चली गई। अन्नपूर्णा ने भरी हुई आंखों से बिहारी को स्नेह भरी दृष्टि से देखा।
राजलक्ष्मी को अचानक न जाने क्या याद आ गया। बोलीं-“बहू, अरी ओ बहू!”
आशा के अन्दर आते ही बोलीं-“बिहारी के खाने का इंतजाम किया या नहीं?”
बिहारी बोला—“तुम्हारे इस पेटू को सबने पहचान लिया है मां। ड्योढ़ी पर आते ही नजर पड़ी, अंडे वाली मछलियां लिये वैष्णवी जल्दी-जल्दी अन्दर जा रही है, मैं समझ गया, अभी इस घर से मेरी ख्याति मिटी नहीं है।”
और बिहारी ने हंसकर आशा की ओर देखा।
आशा आज शर्माई नहीं। स्नेह से हंसते हुए उसने यह दिल्लगी कबूल की। इस घर के लिए बिहारी क्या है, पहले आशा यह पूरी तरह न जानती थी- बहुत बार एक बे-मतलब का मेहमान समझकर उसने उसकी उपेक्षा की है, बहुत बार उसकी यह बेरुखी उसके व्यवहार में साफ झलक पड़ी है। उसी अफसोस से धिक्कार से उसकी श्रद्धा और करुणा की तरफ तेजी से उमग पड़ी है।
राजलक्ष्मी ने कहा-“मंझली बहू, यह महाराज के बस की बात नहीं, रसोई की निगरानी तुम्हें करनी पड़ेगी। काफी कड़वा न हो तो अपने इस ‘बांगाल’1 लड़के को खाना नहीं रुचता।”
बिहारी बोला-“मां, तुम्हारी मां विक्रमपुर की लड़की थीं और तुम नदिया जिले के एक भले घर के लड़के को बांगाल कहती हो! मुझे यह बर्दाश्त नहीं।”
