महेन्द्र-“अब भी प्रायश्चित्त करने का समय है। मैं अगर दुविधा न करूं, सब कुछ छोड़-छाड़ कर चल दूं तो तुम मेरे साथ चलने को तैयार हो?”
यह कहकर महेन्द्र ने जोर से उसके दोनों हाथ पकड़कर उसे अपनी ओर खींच लिया। विनोदिनी बोली-“छोड़ो, डर लगता है।”
महेन्द्र-“लगने दो। पहले बताओ कि तुम मेरे साथ चलोगी?”
विनोदिनी-“नहीं! नहीं हर्गिज नहीं।”
महेन्द्र-“क्यों नहीं चलोगी? तुमने ही मुझे खींचकर सर्वनाश के जबड़े में पहुंचाया। अब आज तुम मुझे छोड़ नहीं सकतीं। चलना ही पड़ेगा तुम्हें।”
महेन्द्र ने बलपूर्वक विनोदिनी को अपनी छाती से लगाया और कसकर पकड़ते हुए कहा-“मैं तुम्हें ले जाकर ही रहूंगा और चाहे जैसे भी हो, प्यार तुम्हें करना ही पड़ेगा।”
विनोदिनी ने जबरदस्ती अपने को उसके शिकंजे से छुड़ा लिया। महेन्द्र ने कहा-“चारों तरफ आग लगा दी है, अब बुझा भी नहीं सकती, भाग भी नहीं सकती।”
कहते-कहते महेन्द्र की आवाज ऊंची हो आई। जोर से बोला-“आखिर ऐसा खेल तमने खेला क्यों, विनोद। अब इसे खेल कहकर टालने से छुटकारा नहीं। तुम्हारी और मेरी अब एक ही मौत है।”
राजलक्ष्मी अन्दर आई। बोली-“क्या कर रहा है, महेन्द्र?”
महेन्द्र की उन्मत्त निगाह पल भर को मां की ओर फिर गई। उसके बाद उसने फिर विनोदिनी की तरफ देखकर कहा-“मैं सब कुछ छोड़-छाड़ कर जा रहा हूं, बताओ, तुम मेरे साथ चलती हो?”
विनोदिनी ने नाराज राजलक्ष्मी के चेहरे की ओर एक बार देखा और अडिग भाव से महेन्द्र का हाथ थामकर बोली-“चलूंगी।”
महेन्द्र ने कहा-“तो आज-भर इन्तजार करो! मैं चलता हूं। कल से तुम्हारे सिवा मेरा और कोई न होगा।”
कहकर महेन्द्र चला गया।
इतने में धोबी आ गया। विनोदिनी से उसने कहा-“मां जी, अब तो जाने ही दीजिए। आज फुरसत नहीं है, तो मैं कल आकर कपड़े ले जाऊंगा।”
नौकरानी आई-“बहू जी, सईस ने बताया है, घोड़े का दाना खत्म हो गया है।”
विनोदिनी इकट्ठा सात दिन का दाना अस्तबल में भिजवा दिया करती थी और खुद खिड़की पर खड़ी होकर घोड़ों के खाने पर नजर रखती थी।
नौकर गोपाल ने आकर खबर दी-बीबीजी, झाडू दार से दादाजी (साधुचरण) की झड़प हो गई है। वह कह रहा है, उसके तेल का हिसाब समझ लें तो वह दीवान जी से अपना लेना-देना चुकाकर नौकरी छोड़ देगा।”
गृहस्थी के सारे काम-काज पहले की तरह चलते रहे।
बिहारी अब तक मेडिकल कालेज में पढ़ रहा था। ऐन इम्तहान के वक्त छोड़ दिया। कोई अचरज से पूछ बैठता, तो कहता-“पराई सेहत की बात फिर देखी जाएगी, पहले अपनी तन्दुरुस्ती का खयाल जरूरी है।”
असल में बिहारी के अध्यवसाय की हद न थी, कुछ न कुछ किए बिना रहना उसके लिए मुश्किल था-हालांकि यश की प्यास, दौलत का लोभ और गुजर बसर के लिए कमाने-धमाने की उसे बिल्कुल जरूरत न थी। कालेज की डिग्री हासिल करने के बाद पहले वह इंजीनियरिंग सीखने के लिए शिवपुर में दाखिल हुआ था। उसे जितना सीखने का कौतूहल था और हाथ के जितने-भर हुनर की वह जरूरत महसूस करता था-उतना-भर हासिल कर लेने के बाद ही वह मेडिकल कालेज में भर्ती हो गया। महेन्द्र सालभर पहले डिग्री लेकर मेडिकल कालेज गया था। कालेज के लड़कों में इन दोनों की मैत्री मशहूर थी। मजाक से सब इन्हें जुड़वां कहा करते थे। पिछले साल महेन्द्र परीक्षा में लुढ़क गया और दोनों दोस्त साथ हो गए। अचानक यह जोड़ी टूट कैसे गई, संगी-साथियों की समझ में न आया। रोज़ जहां महेन्द्र से भेंट अवश्यंभावी होती मगर पहले जैसी न हो पाती-वहां बिहारी हर्गिज न जा सका। सबको विश्वास था, बिहारी खूब अच्छी तरह पास होगा और सम्मान तथा पुरस्कार जरूर पाएगा। लेकिन उसने इम्तहान ही न दिया।
बिहारी के घर के पास ही एक झोंपड़े में राजेन्द्र चक्रवर्ती नाम का एक गरीब ब्राह्मण रहता था। छापेखाने में बारह रुपये की नौकरी करके अपनी रोटी चलाता था। बिहारी ने उससे कहा, “अपने लड़के को तुम मेरे जिम्मे कर दो, मैं उसे लिखाऊंगा-पढ़ाऊंगा।”
बेचारा ब्राह्मण तो मानो जी गया। उसने खुशी-खुशी अपने आठ साल के लड़के बसन्त को बिहारी के हाथों सौंप दिया।
बिहारी उसे अपने तरीके से शिक्षा देने लगा। बोला-“दस साल की उम्र तक मैं इसे किताब न छूने दूंगा-जबानी पढ़ाऊंगा। उसके साथ खेलने में, उसे लेकर मैदान, म्यूजियम, चिड़ियाघर, शिवपुर का बगीचा घूमने में बिहारी के दिन कटने लगे। जबानी अंग्रेजी सिखाता, कहानियों में इतिहास बताना, बालकों के मनोभाव का अधययन और विकास-बिहारी के पूरे दिन का यही काम था-अपने को वह पल-भर का भी अवकाश न देता।
उस दिन शाम को घर से निकलने की गुंजाइश न थी। दोपहर को बारिश थम गई थी, शाम को फिर शुरू हो गई। अपने दुमंजिले के बड़े कमरे में बत्ती जलाकर बिहारी बसन्त के साथ अपने नए ढंग का खेल खेल रहा था।
“अच्छा, कमरे में लोहे के कितने शहतीर हैं, जल्दी बताओ।”
“उंहूं, गिनना नहीं होगा।”
बसन्त-“बीस।”
बिहारी-“हार गए। अट्ठारह हैं।”
बिहारी ने झट खिड़की की झिलमिली खोलकर पूछा-“कितने पल्ले हैं इसमें?”-और, झिलमिली उसने बन्द कर दी।
बसंत ने कहा-“छः।”
“जीत गए।”
‘यह बेंच कितनी लम्बी है, इस किताब का वजन क्या होगा’-ऐसे सवालों से वह बसंत के दिमाग विकास की चेष्टा कर रहा था कि बैरे ने आकर कहा- “बाबूजी, एक औरत….”
उसका कहना खत्म भी न हो पाया था कि विनोदिनी कमरे में आ गई।
बिहारी ने अचरज से कहा-“यह क्या, भाभी?”
विनोदिनी ने पूछा-“तुम्हारे यहां अपनी सगी कोई स्त्री नहीं?”
बिहारी-“अपनी सगी भी कोई नहीं-पराई भी नहीं। बुआ है, गांव में रहती है।”
विनोदिनी-“तुम मुझे अपने गांव वाले घर ले चलो।”
बिहारी-“किस नाते?”
विनोदिनी-“नौकरानी के नाते। मैं कामकाज करूंगी।”
बिहारी-“बुआ को कैसा लगेगा! उन्होंने नौकरानी की जरूरत तो बताई नहीं है। खैर, पहले यह तो बताओ, अचानक ऐसा इरादा कैसे? बसंत, तुम जाकर सो रहो।”
बसंत चला गया।
विनोदिनी बोली-“बाहरी घटना से तुम अन्दर की बात जरा भी नहीं समझ सकोगे।”
बिहारी-“न समझूं तो भी क्या, गलत ही समझ लूं तो क्या हर्ज है।”
विनोदिनी-“अच्छी बात है, न तो गलत ही समझना। महेन्द्र मुझे प्यार करता है।”
बिहारी-“यह खबर कुछ नई तो है नहीं और न कोई ऐसी ही खबर है कि दोबारा सुनने को जी चाहे।”
विनोदिनी-“बार-बार सुनाने की इच्छा भी नहीं अपनी। इसलिए तुम्हारे पास आई हूं, मुझे पनाह दो।”
बिहारी-“इच्छा नहीं है? यह आफत आखिर ढाई किसने! महेन्द्र जिस रास्ते जा रहा था, उससे उसे डिगाया किसने?”
विनोदिनी-“मैंने डिगाया है। तुमसे कुछ नहीं छिपाऊंगी, यह सारी करतूत मेरी है। मैं बुरी हूं या जो कुछ भी हूं जरा मुझ जैसे होकर मेरे मन की बात समझने की कोशिश करो। मैंने अपने जी की ज्वाला से महेन्द्र की दुनिया में आग लगाई है। एक बार ऐसा लगा कि मैं महेन्द्र को प्यार करती हैं, लेकिन गलत है।”
बिहारी-“अगर प्यार ही हो तो भला कोई ऐसी आग लगा सकती है?”
विनोदिनी-“भाई साहब, यह सब आपके शास्त्र की बात है। ये बातें सुनने-जैसी मति अभी अपनी नहीं हुई। अपनी पोथी पटककर एक बार अंर्तयामी की तरह मेरे दिल की दुनिया में बैठो। आज मैं अपना भला-बुरा, सब तुमसे कहना चाहती हूं।”
बिहारी-“पोथी क्या यों ही खोले बैठा हूं, भाभी? हृदय को हृदय के कानून से समझने की जिम्मेदारी अंर्तयामी पर ही रहे, हम पोथी के अनुसार न चलें तो अंत में पार नहीं पड़ने का।”
विनोदिनी-“बेहया होकर कहती हूं सुनो, तुम मुझे लौटा सकते हो। महेन्द्र मुझे चाहता है, मगर वह अंधा है, मुझे नहीं समझता। कभी यह लगा था कि तुमने मुझे समझा है-कभी तुमने मुझ पर श्रद्धा की थी-सच-सच बताओ, आज इस बात को छिपाने की कोशिश मत करो!”
बिहारी-“सच है, मैंने श्रद्धा की थी।”
विनोदिनी-“तुमने गलती नहीं की थी भाई साहब! लेकिन जब समझ ही लिया, जब श्रद्धा की ही थी, तो फिर वहीं क्यों रुक गए? मुझे प्यार करने में तुम्हें क्या बाधा थी? आज मैं बेहया बनकर तुम्हारे पास आई हूं और बेहया होकर ही तुमसे कहती हूं, तुमने भी मुझे प्यार क्यों नहीं किया? मेरी फूटी तकदीर! या तुम भी आशा की मुहब्बत में गर्क हो गए! न, नाराज नहीं हो सकते तुम! बैठो, आज मैं छिपाकर कुछ नहीं कहना चाहती। आशा को तुम प्यार करते हो, इस बात का जब खुद तुम्हें भी पता न था, मैं जानती थी। लेकिन मैं समझ नहीं पाती कि आशा में तुम लोगों ने देखा क्या है! बुरा या भला-उसके पास है क्या? विधाता ने क्या मर्दों को जरा भी अन्तर्दृष्टि नहीं दी है? तुम लोग आखिर क्या देखकर, कितना देखकर दीवाने हो जाते हो।”
बिहारी उठ खड़ा हुआ। बोला-“आज तुम जो कुछ भी कहोगी, आदि से अंत तक मैं सब सुनुंगा, मगर इतनी ही विनती है, जो बात कहने की नहीं है,वह मत कहो।”
विनोदिनी-“तुम्हे कहां दुखता है, जानती हूं भाई साहब। लेकिन मैंने जिसकी श्रद्धा पाई थी और जिसका प्रेम पाने से मेरी जिन्दगी बन सकती थी, लाज-डर, सबको बाला-ए-ताक धरकर उसके पास दौड़ी आई हूं-कितनी बड़ी वेदना लेकर आई हूं, कैसे बताऊं? मैं बिल्कुल सच कहती हूं, तुम आशा को प्यार करते होते तो उसकी आज यह गत न हुई होती।”
बिहारी फक रह गया। बोला-“आशा को क्या हुआ? कौन-सी गत की तुमने।”
विनोदिनी-“अपना घर-बार छोड़कर महेन्द्र मुझे लेकर कल चल देने को तैयार है।”
बिहारी एकाएक चीख पड़ा-“यह हर्गिज नहीं हो सकता, हर्गिज नहीं।”
विनोदिनी-“हर्गिज नहीं? महेन्द्र को रोक कौन सकता है?”
बिहारी-“तुम रोक सकती हो।”
विनोदिनी ज़रा देर चुप रही, उसके बाद बिहारी पर अपनी आंखें रोपकर कहा-“आखिर किसके लिए रोकूं? तुम्हारी आशा के लिए? मेरा अपना सुख-दुःख है ही नहीं? तुम्हारी आशा का भला हो, तुम्हारे महेन्द्र की दुनिया बनी रहे-यह सोचकर मैं अपने आज का अपना सारा दावा त्याग दूं। इतनी भली मैं नहीं हूं-इतना शास्त्र मैंने नहीं पढ़ा। मैं छोड़ दूंगी तो उसके बदले मुझे क्या मिलेगा?”
धीरे-धीरे बिहारी के चेहरे का भाव सख्त हो आया। बोला-“तुमने बहुत साफ-साफ कहने की कोशिश की है, अब मैं भी एक बात स्पष्ट बताऊं। आज जो भी हरकत तुमने की है, और जो बेहूदा बातें कह रही हो, इसकी अधिकांश ही उस साहित्य से चोरी की हुई है, जो तुमने पढ़ा है। इसका पचहत्तर फीसदी नाटक और उपन्यास है।”
विनोदिनी-“नाटक! उपन्यास!”
बिहारी-“हां, नाटक, उपन्यास। वह भी वैसे महत्त्व का नहीं। तुम सोचती हो, यह सारा कुछ तुम्हारा निजी है-बिलकुल गलत। यह सब छापेखाने की प्रतिध्वनि है। तुम अगर निहायत अबोध, सीधी-सादी बालिका होतीं, तो भी संसार में प्रेम से वंचित न होती-लेकिन नाटक की नायिका रंगमंच पर ही फबती है, उससे घर का काम नहीं चलता।”
कहां है विनोदिनी का वह तीखा तेज, दारुण दर्प! मंत्रबिद्ध नागिन-सी वह स्तब्ध होकर झुक गई। बड़ी देर के बाद बिहारी की ओर देखे बिना ही शांत और नम्र स्वर में बोली-“तो मैं क्या करूं?”
बिहारी बोला-“अनोखा कुछ न करो। एक सामान्य स्त्री के अच्छे विचार से जो आए, वही करो। अपने घर चली जाओ।”
विनोदिनी ने कहा-“कैसे जाऊं?”
बिहारी-“गाड़ी में तुम्हें औरतों वाले डब्बे में बिठाकर तुम्हारे घर के स्टेशन तक छोड़ आऊंगा मैं।”
विनोदिनी-“आज की रात यहीं रहूं?”
बिहारी-“नहीं, अपने ऊपर मुझे इतना विश्वास नहीं।”
सुनते ही विनोदिनी कुर्सी से उतरकर जमीन पर लोट गई। बिहारी के दोनों पैरों को जी-जान से अपनी छाती से चिपकाकर बोली-“इतनी कमजोरी तो रखो भाई साहब! बिल्कुल पत्थर के देवता जैसे पवित्र मत बनो। बुरे को प्यार करके जरा-सा बुरा तो बनो।”
कहकर विनोदिनी ने बिहारी के पांवों को बार-बार चूमा। विनोदिनी के ऐसे आकस्मिक और अकल्पनीय व्यवहार से जरा देर के लिए तो बिहारी मानो अपने को जब्त न कर सका। उसकी तन-मन की सारी गांठें ढीली पड़ गईं। बिहारी की इस विह्वल दशा का अनुभव करके विनोदिनी ने उसके पैर छोड़ दिए, अपने घुटनों के बल ऊंची होकर उसने कुर्सी पर बैठे बिहारी की गर्दन को बांहों से लपेट लिया। बोली-“मेरे सर्वस्व, जानती हूं, तुम मेरे सदा के लिए नहीं, लेकिन आज एक पल के लिए तुम मुझे प्यार करो! फिर मैं अपने उसी जंगल में चली जाऊंगी-किसी से कुछ भी न चाहूंगी। मरने तक याद रखने लायक एक कोई चीज दो।”
आंखें मूंदकर विनोदिनी ने अपने होंठ बिहारी की ओर बढ़ा दिए। जरा देर के लिए दोनों सन्न रह गए, सारा घर सन्नाटा। इसके बाद धीरे-धीरे विनोदिनी की बांहें हटाकर बिहारी दूसरी कुर्सी पर जा बैठा और रुंधी-सी आवाज साफ करके कहा-“रात को एक बजे एक पैसेंजर गाड़ी है।”
विनोदिनी जरा देर खामोश रही, फिर बोली-“उसी गाड़ी से चली चलूंगी।”
इतने में नंगे पांव, खाली बदन अपना गोरा स्वस्थ शरीर लिये बसंत बिहारी के पास आ खड़ा हुआ और गंभीर होकर विनोदिनी को देखने लगा।
बिहारी ने पूछा-“सोने नहीं गया, बसंत?”
बसंत ने कोई उत्तर न दिया। उसी तरह गंभीर खड़ा रहा।
विनोदिनी ने अपने दोनों हाथ फैला दिए। बसंत ने पहले तो जरा आगा-पीछा किया, फिर विनोदिनी के पास चला गया। विनोदिनी उसे छाती से लगाकर जोर से रो पड़ी।
असंभव भी संभव हो जाता है, असह्य भी सह्य जाता है। ऐसा न होता तो उस दिन की रात महेन्द्र के घर में कटती नहीं। विनोदिनी को तैयार रहने का कहकर महेन्द्र ने रात ही एक पत्र लिखा था। वह पत्र डाक से सवेरे महेन्द्र के यहां पहुंचा। आशा उस समय बिस्तर पर ही थी। बैरे ने आवाज दी-“मां जी, चिट्ठी।”
आशा के कलेजे पर लहू ने धक् से चोट की। पलक मारने भर की देर में हजारों आशा-आशंकाएं एक साथ ही उसकी छाती में बज उठीं। झटपट सिर उठाकर उसने पत्र देखा। देखा, महेन्द्र के अक्षरों में विनोदिनी का नाम। तुरंत उसका माथा तकिए पर लुढ़क पड़ा। बोली कुछ नहीं। चिट्ठी बैरे को वापस कर दी। बैरे ने पूछा-“किसे दूं?”
आशा ने कहा-“मैं नहीं जानती।”
रात के आठ बज रहे होंगे। महेन्द्र आंधी की तरह लपककर विनोदिनी के कमरे के सामने हाजिर हुआ। देखा, कमरे में रोशनी नहीं है। घुप्प अंधेरा। जेब से दियासलाई निकालकर एक तीली जलाई। कमरा खाली पड़ा था। विनोदिनी नहीं थी, उसका सरो-समान भी नदारद। दक्खिन वाले बरामदे में गया। वह भी सूना पड़ा था। आवाज दी-“विनोदिनी!” कोई जवाब नहीं।
‘नासमझ! नासमझ हूं मैं। उसी समय साथ ले जाना चाहिए था। मां ने जरूर उसे इस बुरी तरह डांटा-फटकारा है कि वह टिक न सकी।’
ध्यान में यही आया और अटल विश्वास बन गया। अधीर होकर वह उसी दम मां के कमरे में गया। रोशनी वहां भी न थी, लेकिन राजलक्ष्मी बिस्तर पर लेटी थीं-यह अंधेरे में भी दिखा। महेन्द्र ने रंजिश में कहा-“मां, तुम लोगों ने विनोदिनी से क्या कहा?”
राजलक्ष्मी बोलीं-“कुछ नहीं।”
महेन्द्र-“तो वह कहां गई?”
राजलक्ष्मी-“मैं क्या जानूं?”
महेन्द्र ने अविश्वास के स्वर में कहा-“तुम नहीं जानतीं? खैर उसे तो मैं जहां भी होगी, ढूंढ ही निकालुंगा।
महेन्द्र चल पड़ा। राजलक्ष्मी झटपट उठ खड़ी हुई और उसके पीछे-पीछे चलती हुई कहने लगीं-“मत जा, महेन्द्र, मत जा, मेरी एक बात सुन ले, ठहर।”
महेन्द्र दौड़कर एक ही सांस में घर से बाहर निकल गया। उलटे पांवों लौट कर उसने दरबान से पूछा-“बहू जी कहां गई?”
दरबान ने कहा-“हमें बताकर नहीं गई। पता नहीं।”
महेन्द्र ने चीखकर कहा-“पता नहीं।”
दरबान ने हाथ बांधकर कहा-“जी नहीं, नहीं मालूम।”
महेन्द्र ने सोचा, ‘मां ने इन्हें पट्टी पढ़ा दी है।’ बोला-“खैर।”
महानगरी के राजपथ पर गैस की रोशनी के मारे अंधेरे में बर्फ वाला बर्फ और मछली वाला मछली की रट लगा रहा था। भीड़ की हलचल में घुसकर महेन्द्र ओझल हो गया।
रात के अंधेरे में बिहारी कभी अकेले ध्यान नहीं लगाता। अपने लिये अपने को उसने कभी भी आलोच्य नहीं बनाया। वह पढ़ाई-लिखाई, काम-काज, हित-मित्रों में ही मशगुल रहता। अपने बजाय अपने चारों तरफ की दुनिया को प्रमुखता देकर वह मजे में था। लेकिन अचानक जोर के धक्के से एक दिन उसका सब कुछ विच्छिन्न हो गया-प्रलय के अंधेरे में वेदना की आकाश-छूती चोटी पर उसे अकेले खद को लेकर खड़ा होना पड़ा। उसी समय अपने निर्जन संग से उसे डर लगने लगा-जबरदस्ती कंधे पर काम का भार लादकर इस संगी को वह भूलकर भी अवकाश नहीं देना चाहता।
लेकिन आज अपने उस भीतर वाले को बिहारी किसी भी तरह से दूर न रख सका। कल वह विनोदिनी को उसके घर छोड़ आया, उसके बाद जो भी काम, जिस भी आदमी के साथ जुटा रहा है, उसका गुफा के अन्दर का वेदनामय हृदय उसे अपने गहरे एकांत की ओर लगातार खींच रहा था।
थकावट और अवसाद ने आज बिहारी को परास्त कर दिया। रात के ठीक नौ बजे होंगे। घर के सामने दक्खिन वाली छत पर गर्मी के दिन ढले की हवा उतावली-सी हो उठी थी। वह अंधेरी छत पर एक आराम-कुर्सी पर बैठ गया।
आज शाम को उसने बसन्त को पढ़ाया नहीं-जल्दी ही वापस कर दिया। आज सांत्वना के लिए, संग के लिए, प्रेम-सुधा-सने अपने पिछले जीवन के लिए उसका हृदय मानो मां द्वारा त्यागे गए शिशु की तरह संसार के अंधेरे में दोनों बांहें फैलाकर न जाने किसे खोज रहा था! जिनके बारे में न सोचने की उसने कसम खाई थी-उसका अंतर्मन उन्हीं की ओर दौड़ रहा था-रोकने की शक्ति ही नहीं रह गई थी।
छुटपन से छूट जाने तक महेन्द्र से उसकी मैत्री की जो कहानी रंगों में चित्रित, जल-स्थल, नदी-पर्वत में बंटी मानचित्र जैसी उसके मन में सिमटी पड़ी थी, बिहारी ने उसे फैला दिया। लेकिन फिर भी यह बिछोह, और वेदना अनोखी नेह-किरणों रंगी माधुरी से भरी-पूरी रहीं। उसके बाद जिस शनि का उदय हुआ, जिसने मित्र के स्नेह, दंपत्ति के प्रेम घर की शांति और पवित्रता को एकबारगी मटियामेट कर दिया, उस विनोदिनी को बिहारी ने बेहद घृणा से अपने मन से निकाल फेंकने की कोशिश की। लेकिन गजब! चोट गोया निहायत हल्की हो आई, उसे छू न सकी। वह अनोखी खूबसूरत पहेली अपनी अगम रहस्यभरी घनी काली आंखों की स्थिर निगाह लिये कृष्ण पक्ष के अंधेरे में बिहारी के सामने डटकर खड़ी हो गई। गर्मी की रात की उमगी हुई दक्खिनी बयार उसी के गहरे निश्वास-सी बिहारी को छूने लगी। धीरे-धीरे उन अपलक आंखों की जलती हई निगाह मलिन हो आने लगी, प्यास से सूखी वह तेज नजर आंसुओं में भीगकर स्निग्ध हो गई और देखते ही देखते गहरे भाव रस में डूब गई। अचानक उस मूर्ति ने बिहारी के कदमों के पास लौटकर उसकी दोनों जांघों को जी जान से अपनी छाती से जकड़ लिया। उसके बाद एक अनूठी मायालता की तरह उसने पल में बिहारी को लपेट लिया और फैलकर तुरन्त खिले सुगंधित फूल जैसे चुम्बनोन्मुख मुखड़े को बिहारी के होंठों के पास बढ़ा दिया। आंखें मूंदकर अपनी सुधियों की दुनिया से बिहारी उस कल्पमूर्ति को निर्वासित कर देने की चेष्टा करने लगा; लेकिन उस पर आघात करने को उसका हाथ हर्गिज न उठा! एक अधूरा अकुलाया चुंबन उसके मुंह के पास उत्सुक हो रहा-पुलक से उसने उसे आच्छन्न कर दिया।
छत पर के सूने अंधेरे में बिहारी और न रह सका। किसी और तरफ ध्यान बंटाने के खयाल से वह जल्दी-जल्दी चिराग की रोशनी से जगमग कमरे में चला आया।
कोने में तिपाई पर रेशमी कपड़े में टकी एक मढ़ी हुई तस्वीर थी। बिहारी ने कपड़ा हटाया, तस्वीर को लेकर रोशनी के पास बैठा और उसे अपनी गोद में रखकर देखने लगा।
तस्वीर महेन्द्र और आशा की थी-ब्याह के तुरंत बाद की। उसमें महेन्द्र ने अपने लेख में ‘महेन्द्र भैया’ और आशा ने ‘आशा’ लिख दिया था।
तस्वीर को अपनी गोद में रखकर धिक्कारते हुए बिहारी ने विनोदिनी को मन से दूर हटाना चाहा। लेकिन विनोदिनी की प्रेम-कातर, यौवन कोमल बांहें बिहारी की जांघों को जकड़े रहीं। बिहारी मन ही मन बोला-‘प्रेम की इतनी अच्छी दुनिया को तबाह कर दिया!’ लेकिन विनोदिनी का उमगा आकुल चुंबन-निवेदन उससे चुपचाप कहने लगा-‘मैं तुम्हें प्यार करती हूं। सारी दुनिया में मैंने तुम्हीं को अपनाया है।’
‘लेकिन यही क्या इसका उत्तर हुआ! एक उजड़ी हुई दुनिया की करुणाभरी चीख को यह बात ढक सकती है! पिशाचिन!’
पिशाचिन! यह बिहारी की निखालिस झिड़की थी या इसमें जरा स्नेह का सुर भी आ मिला था? जीवन में प्रेम के सारे अधिकारों से वंचित होकर जब वह निरा भिखारी-सा राह पर जा खड़ा हुआ, तब अनमांगे अज प्रेम के ऐसे उपहार को वह तहेदिल से ठुकरा सकता है! और इससे बेहतर उसे मिला भी क्या! अब तक तो वह अपने जीवन की बलि देकर प्रेम-भंडार से महज़ टूटे कणों की भीख ही मांगता रहा। आज जब प्रेम की अन्नपूर्णा ने महज उसी के लिए सोने की थाली में पकवान परोसकर भेजा है, तो किस संकोच से वह अभागा अपने को उससे वंचित करे?
तस्वीर को गोद में रखे वह इसी तरह की बातों में डूबा हुआ था कि पास ही आहट हुई। चौंककर देखा, महेन्द्र आया है। वह हड़बड़ी में खड़ा हो गया। तस्वीर गोद से फर्श के कालीन पर लुढ़क पड़ी। बिहारी ने इसका खयाल न किया।
महेन्द्र एकबारगी पूछ बैठा-“विनोदिनी कहां है?”
बिहारी ने जरा आगे बढ़कर उसका हाथ थाम लिया। बोला-“महेन्द्र भैया, बैठ जाओ, अभी बातें करते हैं।”
महेन्द्र ने कहा-“मेरे पास बैठने और बात करने का वक्त नहीं है। तुम यह बताओ कि विनोदिनी कहां है?”
बिहारी ने कहा-“तुम जो पूछ रहे हो, एक वाक्य में जवाब नहीं दिया जा सकता। उसके लिए जरा बैठना पड़ेगा।”
महेन्द्र ने कहा-“उपदेश दोगे? वे सारे उपदेश मैं बचपन में ही पढ़ चुका हूं।”
बिहारी-“नहीं। उपदेश देने का न तो मुझे अधिकार है, न क्षमता।”
महेन्द्र-“तो धिक्कारोगे? मुझे पता है, मैं पापी हूं, और तुम जो कहोगे, वह सब हूं मैं। लेकिन सिर्फ इतना पूछना चाहता हूं, विनोदिनी कहां है?”
बिहारी-“मालूम है।”
महेन्द्र-“मुझे तो बताओगे या नहीं?”
बिहारी-“नहीं बताऊंगा।”
महेन्द्र–“तुम्हें बताना ही पड़ेगा। तुम उसे चुरा लाए हो और छिपाकर रखे हुए हो। वह मेरी है। मुझे लौटा दो।”
बिहारी कुछ क्षण ठगा-सा रहा। फिर दृढ़ता से बोला- “वह तुम्हारी नहीं है। मैं उसे चुराकर भी नहीं लाया-वह खुद-ब-खुद मेरे पास आई है।”
महेन्द्र चीख उठा-“सरासर झूठ!”
और महेन्द्र ने बगल के कमरे के दरवाजे पर धक्का देते हुए आवाज दी- “विनोद! विनोद!”
अन्दर से रोने की आवाज सुनाई पड़ी। बोला-“कोई डर नहीं विनोद, मैं महेन्द्र हूं-मैं तुम्हें कोई कैद करके नहीं रख सकता।”
महेन्द्र ने जोर से धक्का दिया कि किवाड़ खुल गया। दौड़कर अंदर गया। कमरा था। धुंधली छाया-सी उसे लगी। न जाने वह किस डर के मारे काठ होकर तकिए से लिपट गया। जल्दी से बिहारी कमरे में आया। बिस्तर से बसंत को गोद में उठाकर दिलासा देता हुआ बोला-“डर मत बसंत, मत डर।”
महेन्द्र लपकर वहां से निकला। घर के एक-एक कमरे की खाक छान डाली। उधर से लौटकर देखा, अब भी बसंत डर से रह-रहकर रो उठता था। बिहारी ने उसके कमरे की रोशनी जलाई। उसे बिछौने पर सुला कर बदन सहलाते हुए उसे सुलाने की चेष्टा करने लगा।
महेन्द्र ने आकर पूछा-“विनोदिनी को तुमने कहां रखा है?”
बिहारी ने कहा-“महेन्द्र भैया, शोर न मचाओ। नाहक ही तुमने इस बच्चे को इतना डरा दिया कि यह बीमार हो जाएगा। मैं कहता हूं, विनोदिनी के बारे में जानने की तुम्हें कोई जरूरत नहीं।”
महेन्द्र बोला-“महात्माजी, धर्म का आदर्श न बनो। मेरी स्त्री की तस्वीर अपनी गोद में रखकर इस रात को किस देवता के ध्यान में किस पुण्य मन्त्र का जाप कर रहे थे? पाखंडी!”
कहकर महेन्द्र ने तस्वीर को जूते से रौंदकर चूर-चूर कर डाला और फोटो के टुकड़े-टुकड़े करके बिहारी पर फेंक दिया। उसका पागलपन देखकर बसंत फिर रो पड़ा। गला रुंध आया बिहारी का। अंगुली से दरवाजे का इशारा करते हुए वह बोला-“जाओ!”
महेन्द्र आंधी की तरह वहां से निकल गया।
रेल के औरतों वाले सुने डिब्बे में बैठी विनोदिनी ने खिड़की में से जब जुते हुए खेत और बीच-बीच में छाया से घिरे गांव देखे, तो मन में सुने शीतल गांव की जिंदगी ताजी हो आई। उसे लगने लगा, पेड़ों की छाया के बीच अपने-आप बनाए कल्पना के बसेरे में अपनी किताबों से उलझकर कुछ दिनों के इस नगर-प्रवास के दुःख-दाह और जख्म से उसे शान्ति मिलेगी।
प्यासी छाती में चैन की यह उम्मीद ढोती हुई विनोदिनी अपने घर पहुंची। मगर हाय, चैन कहां! वहां तो केवल शून्यता थी, थी गरीबी। बहुत दिनों से बन्द पड़े सीले घर के भाप से उसकी सांस अटकने लगी। घर में जो थोड़ी-बहुत चीज़ थीं, उन्हें कीड़े चाट गए थे, चूहे कुतर गए थे, गर्द से बुरा हाल था। वह शाम को घर पहुंची-और घर में पसरा था बांह भर अंधोरा। सरसों के तेल से किसी तरह रोशनी जलाई-उसके धुएं और धीमी जोत से घर की दीनता और भी साफ झलक उठी। पहले जिससे उसे पीड़ा नहीं होती थी, वह अब असह्य हो उठी-उसका बागी हृदय अकड़कर बोल उठा-“यहां तो एक पल भी नहीं कटने का। ताक पर दो-एक पुरानी पत्रिकाएं और किताबें पड़ी थीं, किन्तु उन्हें छूने को जी न चाहा। बाहर सन्न से पड़े आम के बगीचे में झींगुर और मच्छरों की तानें अंधेरे में गूंजती रहीं।
विनोदिनी की जो बूढ़ी अभिभाविका वहां रहती थीं, वह घर में ताला डालकर अपनी बेटी से मिलने उसकी ससुराल चली गई थीं। विनोदिनी अपनी पड़ोसिन के यहां गई। वे तो उसे देखकर दंग रह गई। उफ़, रंग तो खासा निखर आया है, बनी-ठनी, मानो मेम साहब हो। इशारे से आपस में जाने क्या कहकर विनोदिनी पर गौर करती हुई एक-दूसरे का मुंह ताकने लगीं।
विनोदिनी पग-पग पर यह महसूस करने लगी कि अपने गांव से वह सब तरह से बहुत दूर हो गई है। अपने ही घर में निर्वासित-सी। कहीं पल-भर आराम की जगह नहीं।
डाकखाने का बूढ़ा डाकिया विनोदिनी का बचपन से परिचित था। दूसरे दिन वह पोखर में डुबकी लगाने जा रही थी कि डाक का थैला लिए उसे जाते देख विनोदिनी अपने-आपको न रोक सकी। अंगोछा फेंक जल्दी से बाहर निकलकर पूछा- “पंचू भैया, मेरी चिट्ठी है?”
बुड्ढे ने कहा-“नहीं।”
विनोदिनी उतावली होकर बोली-“हो भी सकती है। देखूं तो ज़रा।”
