aankh ki kirkiri by ravindranath tagore
aankh ki kirkiri by ravindranath tagore

दूसरे दिन राजलक्ष्मी ने बिहारी को बुलवाकर कहा-“बेटा बिहारी, तुम एक बार महेन्द्र से पूछ देखो, जमाने से गांव नहीं गए। मैं एक बार बारासत जाना चाहती हूं।”

बिहारी ने कहा,“जमाने से नहीं गई तो क्या हुआ? खैर, मैं पूछ देखता हूं।

मगर वह राजी भी होगा, ऐसा नहीं लगता।”

महेन्द्र ने कहा-“जन्म-भूमि को देखने की इच्छा जरूर होती है लेकिन मां का वहां ज्यादा दिन न रहना ही अच्छा होगा। बरसात के मौसम में वह जगह अच्छी नहीं।”

महेन्द्र बड़ी आसानी से राजी हो गया, इससे बिहारी कुढ़ गया। बोला-“मां अकेली जाएंगी, वहां उनकी देखभाल कौन करेगा? भाभी को भी साथ भेज दो न?”

कहकर, बिहारी हंसा।

बिहारी के इस गहरे व्यंग से कुंठित होकर महेन्द्र ने कहा-“मेरे लिए यह कोई मुश्किल है क्या?”

मगर बात इससे आगे न बढ़ी।

बिहारी इसी तरह आशा के मन को विमुख कर दिया करता और यह जानकर कि आशा इससे कुढ़ती है, उसे मजा आता।

कहना बेकार होगा, राजलक्ष्मी जन्म-भूमि के दर्शन के लिए उतनी बेताब न थीं। गर्मी के दिनों में जब नदी का पानी सूख जाता है, तो मल्लाह कदम-कदम पर लग्गी से थाह लेता है कि कहां कितना पानी है। राजलक्ष्मी उसी तरह मां-बेटे के सम्बन्ध की थाह ले रही थी। उन्हें यह उम्मीद न थी कि उनके बारासत जाने का प्रस्ताव इतनी जल्दी मंजूर हो जायेगा। सोचा, “अन्नपूर्णा और मेरे दोनों के घर से बाहर जाने में फर्क है।”

अन्नपूर्णा भीतरी मतलब समझ गई। कहने लगी, “दीदी जाएंगी, तो मैं भी न रह सकूंगी।”

महेन्द्र ने मां से कहा-“सुन लिया तुमने? तुम जाओगी तो चाची भी जाएंगी। अपनी गृहस्थी का क्या होगा फिर?”

राजलक्ष्मी विद्वेष के जहर से जर्जर होकर बोलीं-“तुम भी जा रही हो मंझली? तुम्हारे जाने से काम कैसे चलेगा? नहीं, तुम्हें रहना ही पड़ेगा।”

राजलक्ष्मी उतावली हो गई। दूसरे दिन दोपहर को ही तैयार हो गई। महेन्द्र ही उन्हें पहुंचाने जाएगा, इसमें किसी को भी शुबहा न था। लेकिन रवाना होते वक्त मालूम पड़ा महेन्द्र ने मां के साथ जाने के लिए प्यादे और दरबान तक कर रखे हैं।

बिहारी ने पूछा-“तुम अभी तक तैयार नहीं हुए क्या, भैया?”

महेन्द्र ने लजाकर कहा-“मेरे कालेज की….”

बिहारी ने कहा-“खैर, तुम छोड़ दो! मां को मैं वहीं छोड़ आता हूं।”

महेन्द्र मन ही मन नाराज हुआ। अकेले में आशा से बोला, “सचमुच, बिहारी ने ज्यादती शुरू कर दी है। वह यह दिखाना चाहता है कि वह मां का खयाल मुझसे ज्यादा रखता है।”

अन्नपूर्णा को रह जाना पड़ा। परन्तु लाज, कुढ़न और खीझने से वह सिमटी-सी रहीं। चाची में यह दुराव देखकर महेन्द्र नाराज हुआ और आशा भी रूठी रही।

राजलक्ष्मी मैके पहुंची। तय था कि उन्हें छोड़कर बिहारी आ जाएगा लेकिन वहां की हालत देखकर वह ठहर गया।

राजलक्ष्मी के मैके में महज दो-एक बूढ़ी विधवाएं थीं। चारों तरफ घना जंगल और बांस की झाड़ियां; पोखर का हरा-हरा पानी; दिन-दोपहर में स्यार की ‘हुआ-हुआ’ से राजलक्ष्मी की रूह तड़प उठती।

बिहारी ने कहा-“मां, जन्म-भूमि यह जरूर है, मगर इसे ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ तो हर्गिज नहीं कहा जा सकता। तुम्हें यहां अकेली छोड़कर लौट जाऊं तो मुझे पाप लगेगा।”

राजलक्ष्मी के प्राण भी कांप उठे। ऐसे में विनोदिनी भी आ गई। विनोदिनी के बारे में पहले ही कहा जा चुका है। महेन्द्र से, और कभी बिहारी से उसके विवाह की बात चली थी। विधना की लिखी भाग्य-लिपि से जिस आदमी से उसका विवाह हुआ वह जल्दी ही चल बसा।

उसके बाद से विनोदिनी घने जंगल में अकेली लता-सी, इस गांव में घुटकर जी रही थी। वही अनाथ, राजलक्ष्मी के पास आई, उन्हें प्रणाम किया और उनके सेवा-जतन में जुट गई। सेवा तो सेवा है, घड़ी को आलस नहीं। काम की कैसी सफाई, कितनी अच्छी रसोई, कैसी मीठी बातचीत! राजलक्ष्मी कहतीं-“काफी देर हो चुकी बिटिया, तुम भी थोड़ा-सा खा लो जाकर!”

वैसे राजलक्ष्मी उसकी फुफिया सास थी।

राजलक्ष्मी कहतीं-“इस तरह तो तुम बीमार पड़ जाओगी, बेटी!”

अपने प्रति बड़ी लापरवाही दिखाती हुई विनोदिनी कहती-“हमारे दु:ख-सहे शरीर में नाराजगी को गुंजाइश नहीं। अहा, कितने दिनों के बाद तो अपनी जन्मभूमि आई हो! यहां है भी क्या? काहे से तुम्हारा आदर करूं!”

बिहारी तो दो ही दिनों में मुहल्ले-भर का बुजुर्ग बन बैठा। कोई दवा-दारू, तो कोई मुकदमे के राय-मशविरे के लिए आता; कोई उसकी इसलिए खुशामद करता कि किसी बड़े दफ्तर में उसके बेटे को नौकरी दिला दे; कोई उससे अपनी दरखास्त लिखवाता। बूढ़ों की बैठक और कुली-मजूरों के ताड़ी के अड्डे तक वह समान रूप से जाता-आता। सभी उसका सम्मान करते।

गंवई गांव में आए कलकत्ता के उस नवयुवक के निर्वासन-दंड को भी विनोदिनी अंत:पुर की ओट से हल्का करने की भरसक कोशिश किया करती। मुहल्ले का चक्कर काटकर जब भी वह आता तो पाता कि किसी ने उसके कमरे को बड़े जतन से सहेज-संवार दिया है; कांसे के एक गिलास में कुछ फूल-पत्तों का गुच्छा सजा रखा है और सिरहाने के एक तरफ पढ़ने योग्य कुछ किताबें रख दी हैं। किताबों में किसी महिला के हाथ से बड़ी कंजूसी के साथ छोटे अक्षरों में लिखा है।

गांवों में अतिथि सत्कार का जो आम तरीका है, उससे इसमें थोड़ा फर्क था। उसी का जिक्र करते हुए बिहारी जब तारीफ करता, तो राजलक्ष्मी कहतीं-‘और ऐसी लड़की को तुम लोगों ने कबूल नहीं किया!’

हंसते हुए बिहारी कहता-“बेशक हमने अच्छा नहीं किया मां, ठगा गया। मगर एक बात है, विवाह न करके ठगाना बेहतर है, ब्याह करके ठगाता तो मुसीबत थी!”

राजलक्ष्मी के जी में बार-बार यही आता रहा, ‘यही तो मेरी पतोहू होने योग्य थी। क्यों न हुई भला!’

राजलक्ष्मी कलकत्ता लौटने का जिक्र करतीं कि विनोदिनी की आंखें छल छला उठतीं। कहती-“आखिर तुम दो दिन के लिए क्यों आई, बुआ? अब तुम्हें छोड़कर मैं कैसे रहूंगी?”

भावावेश में राजलक्ष्मी कह उठतीं-“तू मेरी बहू क्यों न हुई बेटी, मैं तुझे कलेजे से लगाए रखती।”

सुनकर शर्म से विनोदिनी किसी बहाने वहां से हट जाती। राजलक्ष्मी इस इंतजार में थीं कि कलकत्ता से विनीत अनुरोध का कोई पत्र आएगा। मां से अलग महेन्द्र आज तक इतने दिन कभी न रहा था। मां के इस लम्बे बिछोह ने निश्चय ही उसके सब्र का बांध तोड़ दिया होगा। राजलक्ष्मी बेटे के गिड़गिड़ाहट-भरे पत्र का इंतजार कर रही थीं।

बिहारी के नाम महेन्द्र का पत्र आया। लिखा था, “लगता हैं मां बहुत दिनों के बाद मैके गई हैं, शायद बड़े मजे में होंगी।”

राजलक्ष्मी ने सोचा, “महेन्द्र ने रूठकर ऐसा लिखा है। बड़े मजे में होंगी। महेन्द्र को छोड़कर बदनसीब मां भला सुख से कैसे रह सकती है?”

“अरे बिहारी, उसके बाद क्या लिखा है उसने, पढ़कर सुना तो जरा!”

बिहारी बोला-“और कुछ नहीं लिखा है, मां!”

और उसने पत्र को मुट्ठी से दौंचकर एक कापी में रखा और कमरे में एक ओर धप्प से पटक दिया।

राजलक्ष्मी अब भला थिर रह सकती थी! हो न हो, महेन्द्र मां पर इतना नाराज हुआ है कि बिहारी ने पढ़कर सुनाया नहीं।

गौ के थन पर चोट करके बछड़ा जिस प्रकार दूध और वात्सल्य का संचार करता है, उसी प्रकार महेन्द्र की नाराजगी ने आघात पहुंचाकर राजलक्ष्मी के घुटे वात्सल्य को उभार दिया। उन्होंने महेन्द्र को माफ कर दिया। बोलीं-“अहा, अपनी बहू को लेकर महेन्द्र सुखी है, सुखी रहे-जैसे भी हो, वह सुख से रहे। जो मां उसे छोड़कर कभी एक पल नहीं रह सकती, वही उसे छोड़कर चली आई है, इसलिए महेन्द्र अपनी मां से नाराज हो गया है।”

रह-रहकर उनकी आंखों में आंसू उमड़ने लगे।

उस दिन वह बार-बार बिहारी से जाकर कहती रहीं-“बेटे, तुम जाकर नहा लो। यहां बड़ी बदपरहेजी हो रही है तुम्हारी।”

उस दिन बिहारी का भी जी नहाने-खाने का न था। वह बोला-“मुझ जैसे अभागे बदपरहेजी में ही ठीक रहते हैं।”

राजलक्ष्मी अड़ गई-“नहीं-नहीं, नहा डालो!”

बार-बार जिद करने से बिहारी नहाने गया। उसका कमरे से बाहर कदम रखना था कि झपटकर राजलक्ष्मी ने वह किताब उठा ली और उसके अंदर से पत्र को निकाला।

पत्र उसने विनोदिनी को दिया। कहा, “पढ़ तो देखो जरा, महेन्द्र ने बिहारी को क्या लिखा है?”

पढ़कर विनोदिनी सुनाने लगी। शुरू में महेन्द्र ने मां के बारे में लिखा था, लेकिन बड़ा मुख्तसर। बिहारी ने जितना भर सुनाया, उससे ज्यादा कुछ नहीं।

उसके बाद आशा का जिक्र था। मौज-मजे और खुशियों से विभोर होकर लिखा था।

विनोदिनी ने थोड़ा पढ़ा और शर्म से थक गई। कहा-‘यह क्या सुनोगी, बुआ!’

राजलक्ष्मी का स्नेह से अकुलाया चेहरा पल-भर में जमकर पत्थर जैसा सख्त हो गया। जरा देर चुप रहीं, फिर बोली-‘रहने दो!’

और चिट्ठी उन्होंने वापस न ली। चली गई।

चिट्ठी लेकर विनोदिनी कमरे में चली गई। अंदर से कुंडी बन्द कर ली और बिस्तर पर बैठकर पढ़ने लगी।

चिट्ठी में विनोदिनी को क्या रस मिला, वही जाने। पढ़ते-पढ़ते उसकी आंखें दोपहर के तपे बालू-सी जलने लगीं। उसका निःश्वास रेगिस्तान की बयार जैसी गर्म हो उठी।

“कैसा है महेन्द्र, कैसी है आशा और इन दोनों का प्रेम ही कैसा है,” यही बात उसके मन को मथने लगी। पत्र को गोद में डाले, पांव फैलाए, दीवार से पीठ टिकाकर सामने ताकती वह देर तक सोचती रही।

महेन्द्र की वह चिट्ठी बिहारी को फिर ढूंढ़े न मिली।

अचानक उसी दिन दोपहर में अन्नपूर्णा आ धमकी। किसी बुरी खबर की आशंका से राजलक्ष्मी का कलेजा सहसा कांप उठा। कुछ पछने की उन्हें हिम्मत न हुई। वह फक पड़े चेहरे से अन्नपूर्णा की तरफ ताकती रह गई।

अन्नपूर्णा ने कहा-‘कलकत्ता का समाचार ठीक है।’

राजलक्ष्मी ने पूछा-‘फिर तुम यहां कैसे?’

अन्नपूर्णा बोलीं-‘दीदी, अपनी गृहस्थी तुम जाकर सम्हालो। संसार से अपना जी उचट गया है। मैं काशी जाने की तय करके निकली हूं। तुम्हें प्रणाम करने आ गई। जान में, अनजान में जाने कितने कसूर हो गए हैं माफ करना। और तुम्हारी बहू…, कहते-कहते आंखों से आंसू उफन उठे-’वह नादान बच्ची है, उसके मां नहीं; वह दोषी हो चाहे निर्दोष, तुम्हारी है।’

अन्नपूर्णा और न बोल सकी।