इतना कहकर महेन्द्र थोड़ा खिसक आया और कपड़ों में बंधी किताबों की गांठ को विनोदिनी के पैरों के पास रख दिया।
उसी गंभीर भाव से सिलाई करती हुई विनोदिनी बोली-“भाई साहब, तुम यहां नहीं रहोगे।”
अपने उठते हुए आग्रह पर चोट पाकर महेन्द्र व्याकुल हो उठा। गद्गद् स्वर में बोला-“क्यों, तुम मुझे दूर क्यों रखना चाहती हो? तुम्हारे लिए सब कुछ छोड़ने का यही पुरस्कार है?”
विनोदिनी-“अपने लिए मैं तुम्हें सब कुछ न छोड़ने दूंगी।”
महेन्द्र कह उठा-“अब वह तुम्हारे हाथ की बात नहीं- सारी दुनिया मेरी चारों तरफ से खिसक पड़ी है – बस, एक तुम हो- तुम विनोद…”
कहते-कहते विह्वल होकर महेन्द्र लौट पड़ा और विनोदिनी के पैरों को पकड़कर उन्हें बार-बार चूमने लगा।
पांव छुड़ाकर विनोदिनी उठ खड़ी हुई। बोली-“याद नहीं, तुमने क्या प्रतिज्ञा की थी?”
सारी शक्ति लगाकर महेन्द्र ने अपने को जब्त किया। कहा-“याद है मैंने शपथ ली थी कि तुम जो चाहोगी, वही होगा, मैं कभी कोई एतराज न करूंगा। उस शपथ को मैं रखूंगा। बताओ, मुझे क्या करना है?”
विनोदिनी-“तुम अपने घर पर रहोगे।”
महेन्द्र “एक मैं ही क्या तुम्हारी अनिच्छा की वस्तु हूं, विनोद! अगर यही बात है तो तुम मुझे खींच क्यों लाई? जो तुम्हारे भोग की चीज न थी, उसके शिकार की क्या जरूरत पड़ी थी? सच-सच बताओ, मैंने स्वेच्छा से तुम्हें पकड़ा दी या तुमने जानकर मुझे पकड़ा? मुझसे तुम इस तरह खिलवाड़ करोगी और यह भी मुझे सहना पड़ेगा? फिर भी अपनी शपथ मैं रखूंगा, जिस घर को मैं लात मारकर आया, वहीं जाकर रहूंगा।”
विनोदिनी जमीन पर बैठी फिर से सिलाई में जुट गई।
कुछ देर तक उसके मुंह की ओर एकटक देखकर महेन्द्र बोल उठा-“बेरहम! निर्दयी हो तुम, विनोद! मैं बड़ा ही अभागा हूं कि मैंने तुम्हें प्यार किया।”
विनोदिनी से सिलाई में कोई गलती हो गई। ‘रोशनी के पास बड़ी मेहनत से वह धागे को खोजने लगी। महेन्द्र के जी में आ रहा था कि विनोदिनी के संगदिल को अपनी मुट्ठी में लेकर पीस डाले। उसकी इस मौन निर्दयता और अडिग उपेक्षा को धक्का देकर बाहुबल से शिकस्त देने को जी चाह रहा था।
महेन्द्र बाहर निकला और फिर लौट आया। बोला-“मैं न रहूंगा तो यहां तुम्हारी हिफाजत कौन करेगा?”
विनोदिनी-“उसकी तो तुम फिक्र ही न करो। बुआ ने उस छमिया नौकरानी को जवाब दे दिया है। आज से वह यहीं रहेगी। अन्दर से घर बन्द करके हम दोनों मजे में यहां रह लेंगी।”
भीतर-भीतर उस पर जितना ही गुस्सा आने लगा, विनोदिनी के लिए उसका उतना ही जबरदस्त खिंचाव होने लगा। उस टस से मस न होने वाली मूरत को व्रज की ताकत से छाती से चिपकाकर चूर-चूर कर देने की इच्छा होने लगी। अपनी उस प्रबल इच्छा के हाथों से छुटकारा पाने के लिए महेन्द्र दौड़कर कमरे से बाहर चला गया।
रास्ते से जाते हुए महेन्द्र प्रतिज्ञा करने लगा, उपेक्षा के बदले में वह विनोदिनी की उपेक्षा ही करेगा। संसार में महेन्द्र के सिवाय अब विनोदिनी का और कोई सहारा नहीं, ऐसी हालत में भी इस निडरता और अडिगता से उसे ठुकराना-किसी मर्द के नसीब में ऐसा भी अपमान कभी हुआ। है। महेन्द्र का गर्व चूर-चूर होकर भी मटियामेट न हुआ-पीड़ित और दलित होता रहा। वह सोचने लगा- ‘ऐसा नाचीज हूं मैं! मेरे लिए ऐसी स्पर्द्धा उसके मन में कैसे आई? मेरे सिवाय इस समय उसका और है कौन?’
सोचते-सोचते अचानक याद आ गया-‘बिहारी’। सहसा उसके कलेजे का रक्त-प्रवाह थम गया। बिहारी को ही उसने अपना भरोसा माना है-मैं तो उपलक्ष्य-मात्र हूं, उसकी सीढ़ी हूं, पैर रखने की, कदम-कदम पर ठोकर मारने की जगह। इसी साहस पर मेरी ऐसी अवज्ञा।
महेन्द्र को शंका हुई कि विनोदिनी से बिहारी की चिट्ठी-पत्री चलती होगी और इसे कोई भरोसा मिला होगा।
सोचा और उसी दम वह बिहारी के घर की ओर चल पड़ा। जब उसके घर पहुंचा, तो रात नहीं के बराबर बाकी रह गई थी। बड़ी मुश्किल से दरवाजा पीटते-पीटते बैरे ने दरवाजा खोलकर बताया- “बाबूजी घर पर नहीं हैं।”
महेन्द्र चौंक उठा। सोचा, “मैं इधर नासमझ की तरह मारा-मारा फिर रहा हूं और इस मौके का फायदा उठाकर बिहारी विनोदिनी के पास गया है। इसीलिए उसने इस बेरहमी से मेरा अपमान किया और मैं भी मारकर भगाए गए गधे की तरह भाग आया।”
महेन्द्र ने उस जाने-पहचाने पुराने बैरे से पूछा-“भज्जो, तुम्हारे मालिक घर से किस वक्त निकले हैं?”
भज्जो ने कहा-“जी, चार-पांच दिन हो गए। पछांह की ओर कहीं घूमने गए हैं।”
महेन्द्र की मानो जान में जान आई। जी में आया, ‘अब आराम से थोड़ी देर सो लूं। तमाम रात भटकते रहने की अब हिम्मत नहीं है।’
वह ऊपर गया और बिहारी के कमरे में सोफे पर सो गया।
जिस रात महेन्द्र ने बिहारी के घर जाकर ऊधम मचाया, उसके दूसरे ही दिन बिना कुछ तय किए बिहारी न जाने कहां चला गया। उसने सोचा, “यहां रहने से जाने कब अपने दोस्त से ऐसा घिनौना संघर्ष हो जाए कि जन्म-भर पछताना पड़े।”
दूसरे दिन महेन्द्र जगा तो ग्यारह बज चुके थे। उठते ही उसकी निगाह सामने की तिपाई पर पड़ी। देखा, बिहारी का एक पत्र पड़ा था। ठिकाने के हरूफ विनोदिनी के थे। लिफाफा पत्थर के पेपर-वेट से दबा था। महेन्द्र ने झपटकर उसे उठा लिया। लिफाफा खोला नहीं गया था। प्रवासी बिहारी के इन्तजार में बन्द पड़ा था। कांपते हाथों से महेन्द्र ने उसे फाड़ डाला और पढ़ने लगा। यही चिट्ठी विनोदिनी ने अपने गांव से बिहारी को भेजी थी, जिसका उसे कोई जबाव नहीं मिला था।
चिट्ठी का एक-एक अक्षर महेन्द्र को काटने लगा। छुटपन से सदा ही बिहारी महेन्द्र की ही ओट में पड़ा था। प्रेम-स्नेह के नाते महेन्द्र-देवता के गले की उतरी माला ही उसे नसीब हुआ करती। आज महेन्द्र स्वयं प्रार्थी तथा बिहारी विमुख था, फिर भी विनोदिनी ने महेन्द्र को ठुकरा कर बिहारी को अपनाया। विनोदिनी की चिट्ठियां महेन्द्र को भी दो-चार मिली थीं, मगर इसके मुकाबले वे निरी नकली हैं, नासमझ को फुसलाने का बहाना!
अपना नया ठिकाना बताने के लिए महेन्द्र को गांव के डाकखाने में भेजने की व्याकुलता महेन्द्र को याद आई और अब उसका कारण उसकी समझ में आया। विनोदिनी बिहारी के पत्र का बेसब्री से इन्तजार कर रही है।
जैसा कि पहले किया करता था, मालिक की गैरहाजिरी में भज्जो ने महेन्द्र को बाजार से लाकर चाय-नाश्ता दिया। नहाना महेन्द्र भूल गया। तभी जैसे रेत पर राही जल्दी-जल्दी कदम उठाकर चलता है, उसी तरह विनोदिनी की जलाने वाली चिट्ठी पर वह तेजी से नजर दौड़ाने लगा। वह प्रतिज्ञा करने लगा कि विनोदिनी से अब हर्गिज भेंट न करूंगा। फिर मन में आया, “और दो-एक दिन में जब उसे बिहारी का जवाब न मिलेगा, तो वह बिहारी के यहां आएगी और तब सारा हाल जानकर उसे तसल्ली होगी।’ यह संभावना महेन्द्र के लिए असह्य हो गई।
आखिर उस पत्र को अपनी जेब में डालकर वह पटलडांगा पहुंचा। महेन्द्र की यह गत देखकर विनोदिनी को दया आ गई। वह समझ गई – हो न हो तमाम रात वह रास्ते के ही चक्कर काटता रह गया है। पूछा- “रात घर नहीं गए?”
महेन्द्र ने कहा- “नहीं।”
विनोदिनी ने परेशान होकर पूछा- “अभी तक खाया-पिया भी नहीं क्या?” कहकर सेवा-परायणा विनोदिनी ने उसके खाने का इन्तजाम करना चाहा।
महेन्द्र बोला-“रहने दो, मैं खा चुका हूं।”
विनोदिनी-“कहां खाया?”
महेन्द्र-“बिहारी के यहां।”
पलभर के लिए विनोदिनी का चेहरा पीला पड़ गया। जरा देर चुप रहकर उसने अपने को संभाला और पूछा- “बिहारी बाबू कुशल से तो हैं न?”
महेन्द्र बोला-“कुशल से ही है। वह तो पछांह चला गया।” महेन्द्र ने कुछ इस लहजे से कहा मानो बिहारी आज ही गया है।
विनोदिनी का चेहरा फिर एक बार पीला पड़ गया। फिर अपने को संभालकर बोली-“ऐसा डांवाडोल आदमी तो मैंने नहीं देखा। उन्हें हम लोगों का सारा हाल मालूम पड़ गया है? खूब नाराज हो गए हैं क्या?”
महेन्द्र-“नाराज न हुआ होता तो इस शिद्दत की गर्मी में भी कोई भला आदमी पछांह घूमने जाता है!”
विनोदिनी-“मेरे बारे में कुछ कहा?”
महेन्द्र-“कहने को क्या है। यह उसकी चिट्ठी लो!”
चिट्ठी उसके हाथ में देकर महेन्द्र तीखी नजर से उसके मुंह के भाव पर गौर करने लगा।
विनोदिनी ने झट से चिट्ठी लेकर देखी, खुली थी वह। लिफाफे पर उसी के हरुफ़ में बिहारी का नाम लिखा था। अन्दर से चिट्ठी निकाली। वह उसी की लिखी वहीं चिट्ठी थी। उलट-पलटकर देखा, बिहारी का जवाब तो कहीं न मिला।
थोड़ी देर चुप रहकर विनोदिनी ने पूछा-“यह चिट्ठी तुमने पढ़ी है?”
विनोदिनी के चेहरे के भाव से महेन्द्र को डर लगा। वह झूठ बोल गया-“नहीं।”
विनोदिनी ने चिट्ठी फाड़ डाली। उसके टुकड़े-टुकड़े किए और खिड़की से बाहर फेंक दिए।
महेन्द्र बोला-“मैं घर जा रहा हूं।”
विनोदिनी ने कोई जवाब न दिया।
महेन्द्र-“तुमने जैसा चाहा है, मैं वैसा ही करूंगा। सात दिन मैं वहीं रहूंगा। कॉलेज आते समय रोज नौकरानी की मार्फत यहां का सारा प्रबन्ध कर जाया करूंगा। तुमसे भेंट करके तुम्हें आजिज न करूंगा।”
विनोदिनी महेन्द्र की कोई बात सुन भी पाई या नहीं, कौन जाने, मगर उसने कोई जवाब न दिया। खुली खिड़की से बाहर अंधेरे आसमान को ताकती रही।
अपनी चीजें उठाकर महेन्द्र वहां से निकल पड़ा।
सुने कमरे में विनोदिनी बड़ी देर तक काठ की मारी-सी बैठी रही और अंत में मानो जी-जान से अपने को सजग करने के लिए छाती का कपड़ा फाड़कर अपने-आप पर बेरहमी से चोट करने लगी।
आवाज़ पाकर नौकरानी दौड़ी आई-“दादी जी, क्या कर रही हैं?”
“तू चली जा यहां से”-डपटकर विनोदिनी ने छमिया को कमरे से बाहर निकाल दिया। उसके बाद जोरों से किवाड़ बंद करके दोनों हाथों से मुट्ठी बांध कर जमीन पर लोट गई–तीर खाए जानवर जैसी रोने लगी। अपने को इस तरह विक्षत और श्रांत बनाकर विनोदिनी रात-भर खिड़की के पास नीचे पड़ी रही।
सुबह जैसे ही सूरज की किरणें कमरे में आईं विनोदिनी को अचानक ऐसा लगा, बिहारी गया नहीं होगा, कहीं उसे चकमा देने के लिए महेन्द्र ने यों ही झूठ कह दिया हो। उसने छमिया को बुलाकर कहा-“छम्मी, तू फौरन ज़रा बिहारी भाई साहब के यहां जा-उन लोगों को हाल पूछ आ।”
छमिया कोई घंटे-भर बाद लौटकर बोली-“उनके घर के सारे खिड़की-दरवाजे बन्द हैं। दरवाजा पीटने पर अन्दर से बैरा निकला। बोला-“वे घर पर नहीं है। वे घूमने के लिए पछांह गए हैं।”
विनोदिनी ने संदेह का कोई कारण ही न रहा।
‘महेन्द्र रात में ही उठकर चला गया,’ यह सुनकर राजलक्ष्मी बहू पर बहुत नाराज हुईं। उन्होंने समझा बहू की लानत-मलामत से ही वह चला गया। उन्होंने आशा से पूछा-“महेन्द्र रात चला क्यों गया?”
आशा ने सिर झुकाकर कहा-“मालूम नहीं, मां!”
राजलक्ष्मी को लगा, यह भी रूठने की बात है। आजिजी से कहा-“तुम्हें नहीं मालूम तो किसे मालूम होगा? कुछ कहा था उससे?”
आशा ने सिर्फ ‘नहीं’ कहा।
