विनोदिनी-“इसी से तुम्हें शर्म आनी चाहिए। दोस्ती कैसे करनी चाहिए, यह तुम अपने वैसे दोस्त से भी न सीख सके?”
महेन्द्र-“मुझे इसका कतई मलाल नहीं, मगर धोखे से औरत का दिल कैसे लिया जाता है, यह विद्या उससे सीखता तो आज काम आती।”
विनोदिनी-“केवल चाहने से वह विद्या नहीं सीखी जा सकती, उसकी क्षमता होनी चाहिए।”
महेन्द्र-“गुरुदेव का पता मालूम हो, तो मुझे बताओ, इस उम्र में उनसे दीक्षा ले आऊं, फिर क्षमता की कसौटी होगी।”
विनोदिनी-“मित्र का पता ढूंढ निकालने की जुर्रत न हो तो प्रेम की बात जुबान पर मत लाओ! बिहारी भाई साहब से तुमने ऐसा बर्ताव किया है कि तुम पर कौन यकीन करेगा?”
महेन्द्र-“मुझ पर पूरा यकीन न होता तो मेरा इतना अपमान न कर पाती-मेरे प्रेम पर अगर इतनी निश्चिन्तता न होती, तो शायद मुझे इतनी तकलीफ न होती। बिहारी पालतू न बनने की कला जानता है, वह कला अगर इस बदनसीब को बता देता तो वह एक दोस्त का फर्ज अदा करता।”
“आखिर बिहारी आदमी है, इसी से पालतू नहीं बनता” यह कहकर विनोदिनी खुले बालों को पीठ पर बिखेरकर खिड़की पर जिस तरह खड़ी थी, खड़ी रही। महेन्द्र अचानक खड़ा हुआ। मुठ्ठी कस ली और नाराजगी से गरजकर बोला-“आखिर बार-बार मेरा अपमान करने का साहस क्यों करती हो तुम? इस इतने अपमान का कोई बदला नहीं मिलता, वह तुम्हारी क्षमता के कारण या मेरे गुण से? इतना बड़ा पुरुष मैं नहीं कि चोट करना जानता ही नहीं।”
इतना कहकर वह विनोदिनी की तरफ देखता हुआ जरा देर स्तब्ध रहा, फिर बोला-“विनोद, चलो यहां से चलें कहीं और। चाहे पछांह, चाहे किसी पहाड़ पर, जहां तुम्हारा जी चाहे-चलो! यहां जीना मुहाल है। मैं मरा जा रहा हूं।”
विनोदिनी बोली-“चलो अभी चलें पछांह।”
महेन्द्र-“पछांह कहां?”
विनोदिनी-“किसी खास जगह नहीं। कहीं भी दो दिन रहते-घूमते फिरेंगे।”
महेन्द्र–“ठीक है, आज ही रात को चलो!”
विनोदिनी राजी होकर महेन्द्र के लिए खाना बनाने गई। महेन्द्र ने समझ लिया, बिहारी वाली खबर विनोदिनी की नजरों से नहीं गुजरी। अखबार में जी लगाने जैसी स्थिति अभी उसके मन की नहीं है। कहीं अचानक उसे वह खबर न मालूम हो जाए, इसी उधेड़-बुन में महेन्द्र पूरे दिन चौकन्ना रहा।
बिहारी की खोज-खबर लेकर महेन्द्र लौटेगा, इस आशा से घर में उसकी रसोई बनी थी। काफी देर हो गई तो दु:खी राजलक्ष्मी बेचैन हो उठीं। रात-भर नींद न आई थी, इससे वह काफी थकी थीं, फिर महेन्द्र के लिए यह बेताबी उन्हें और कष्ट दे रही थी। यह देखकर आशा ने पूछताछ कर यह पता किया कि महेन्द्र की गाड़ी वापिस आ चुकी है। कोचवान से मालूम हुआ, महेन्द्र बिहारी के यहां से होता हुआ पटलडांगा के डेरे पर गया है। राजलक्ष्मी ने सुना और दीवार की तरफ करवट बदलकर लेटी रहीं। आशा उनके सिरहाने चित्र-लिखी सी बैठी पंखा झलती रही और दिन समय पर आशा को खाने के लिए जाने का वह आदेश किया करती थीं-आज कुछ न कहा। कल जब उनकी तबीयत ज्यादा खराब थी, यह देखकर भी महेन्द्र विनोदिनी के मोह में चला गया, तो राजलक्ष्मी के लिए दुनिया में कुछ भी करने का मन बुझ गया।
कोई दो बजे आशा बोली-“मां, दवा पीने का वक्त हो गया।”
राजलक्ष्मी ने कोई जवाब न दिया, चुप रहीं, आशा दवा लाने जाने लगी, तो बोलीं-“दवा की जरूरत नहीं बहू, तुम जाओ!”
आशा ने मां के रूठने का मर्म समझा और उसी समझ ने उसके हृदय के आन्दोलन को दूना कर दिया। आशा से न रहा गया। अपनी रुलाई रोकते-रोकते वह फफक पड़ी। राजलक्ष्मी धीरे-धीरे करवट बदलकर आशा की तरफ हो गई और स्नेह से उसका हाथ सहलाने लगीं। कहा-“बहू, तुम्हारी उम्र भी क्या है, सुख का मुंह देखने का तुम्हें बहुत समय है। मेरे लिए तुम परेशान मत होओ बिटिया, मैं काफी जी चुकी, अब क्या होगा जीकर?”
आशा की रुलाई और उमड़ आई। उसने आंचल से मुंह दबा लिया। रोगी के घर इस तरह निरानन्द दिन मन्द गति से कट गया। रूठे रहने के बावजूद दोनों नारियों को अन्दर ही अन्दर आशा थी कि महेन्द्र अभी आएगा। खटका होते ही दोनों के शरीर में एक चौंक-सी जगती थी, इसे दोनों समझ रही थीं। धीरे-धीरे सूर्यास्त की आभा धुंधली पड़ गई-कलकत्ता के अन्त:पुर में उस गोधुलि की आभा में न तो खिलावट है, और न अंधेरे का आवरण ही होता है – वह विषाद को गहरा और निराशा के आंसू सुखा डालती है कर्म और भरोसे के बल को वह छीन लेती है, लेकिन विश्राम और वैराग्य की शांति नहीं लाती। रोग से दु:खी घर की उस सूनी और कुरूप सांझ में आशा पांव दबाए गई और दीया जलाकर कमरे में ले आई। राजलक्ष्मी ने कहा, “बहू, रोशनी नहीं सुहाती, दीए को कमरे से बाहर रख दो!”
आशा दीए को बाहर रख आई। घना होकर अंधेरा जब अनन्त रात को छोटे से कमरे में ले आया, तो आशा ने धीमे से राजलक्ष्मी से पूछा-“मां, उन्हें खबर भिजवाऊं क्या?”
राजलक्ष्मी ने सख्त होकर कहा-“नहीं-नहीं, तुम्हें मेरी कसम, महेन्द्र को खबर मत देना!”
आशा स्तब्ध रह गई। रोने की उसमें शक्ति न थी। कमरे के बाहर से बैरे ने आवाज दी- “मांजी, बाबू के यहां से चिट्ठी आई है।”
यह सुना और तुरंत राजलक्ष्मी के मन में आया, ‘हो न हो, महेन्द्र की अचानक तबियत खराब हो गई है। इसीलिए वह आ न सका और चिट्ठी भेजी है।’ चिंतित और परेशान होकर उन्होंने कहा, “देखो तो बहू, महेन्द्र ने क्या लिखा है?”
कांपते हुए हाथों से आशा ने बाहर जाकर रोशनी में चिट्ठी खोलकर पढ़ी। उसने लिखा था, इधर कुछ दिनों से तबियत उचाट है, इसलिए वह घूमने के लिए पछांह जा रहा है। मां की बीमारी के लिए खास कोई चिंता की बात नहीं। उन्हें बराबर देखने के लिए नवीन डॉक्टर से कह दिया है रात को उन्हें नींद न आए या सिर-दर्द हो तो क्या करना होगा, यह भी उसमें लिखा था। साथ ही दवाखाने से मंगाकर उसने हल्के और ताकतवर पथ्य के दो डब्बे भी भेज दिए थे। फिलहाल गिरीडीह के पते पर मां का हाल लिखने के लिए चिट्ठी में ‘पुनश्च’ में अनुरोध किया था।
चिट्ठी पढ़कर आशा स्तम्भित हो गई-एक जबरदस्त धिक्कार ने उसके दु:ख को भांप लिया। यह कठोर समाचार वह मां को किस तरह सुनाए?
आशा के इस विलम्ब से राजलक्ष्मी बहुत ही उतावली हो उठीं। बोलीं – “बहू, मुझे बताओ, महेन्द्र ने क्या लिखा है?”
आशा ने आखिर अन्दर बैठकर शुरू से आखिर तक चिट्ठी पढ़ सुनाई। राजलक्ष्मी ने कहा- “अपनी तबियत के बारे में उसने क्या लिखा है, जरा वह जगह फिर से पढ़ो तो…”
आशा ने फिर से पढ़ा-“इधर कुछ दिनों से तबियत उचाट-सी चल रही थी, इसीलिए मैं…”
राजलक्ष्मी-“बस, बस, रहने दो। उचाट न हो तबियत, क्या हो! बुड्ढ़ी मां मरती भी नहीं और बीमार होकर उसे तंग करती है। तुम मेरी बीमारी को कहने उससे क्यों गईं?
कहकर वह बिस्तर पर लेट गई।
बाहर जूतों की चरमराहट हुई। बैरे ने कहा-“डॉक्टर आए हैं।”
खांसकर डॉक्टर साहब अन्दर आए। घूंघट निकालकर आशा पलंग की आड़ में हो गई। डाक्टर ने पूछा-“आपको शिकायत क्या है, यह तो कहें”।
राजलक्ष्मी झुंझलाकर बोलीं-“शिकायत क्यों होगी? किसी को मरने भी न देंगे। आपकी दवा से ही क्या मैं अमर हो जाऊंगी?”
डाक्टर ने दिलासा देते हुए कहा-“अमर चाहे न कर पाऊं, तकलीफ घटे, इसकी कोशिश तो…”
राजलक्ष्मी कह उठीं “तकलीफ की दवा. तभी होती थी, जब विधवाएं जल मरती थीं अब तो बांधकर मारना ठहरा। आप जाएं डाक्टर साहब, मुझे तंग न करें- मैं अकेली रहना चाहती हूं।”
डाक्टर ने डरकर कहा-“जरा आपकी नब्ज…”
राजलक्ष्मी ने खीझकर कहा-“मैं कह रही हूं, आप जाइए… मेरी नब्ज सही है-यह खतरा नहीं कि यह जल्दी छूटेगी।”
लाचार होकर डाक्टर कमरे से बाहर चला गया। उसने आशा को बुलाया उससे बीमारी का सारा ब्यौरा पूछा। सब कुछ सुनकर गम्भीर सा होकर वह फिर कमरे में गया। बोला-“महेन्द्र मुझ पर आपके इलाज का भार सौंप गया है। अगर आप इलाज न कराएंगी, तो उसे दु:ख होगा।”
महेन्द्र को दुःख होगा, यह बात राजलक्ष्मी को मजाक जैसी लगी। उन्होंने कहा- “महेन्द्र की इतनी फिक्र न करें आप। दुनिया में हर किसी को दु:ख भोगना पड़ता है। आप जाएं मुझे सोने दें।
‘डॉक्टर ने समझा, बीमार को ज्यादा तंग करना ठीक नहीं। वह बाहर निकला और जो कुछ करना था, आशा को बता दिया।
आशा जब कमरे में लौटी, तो राजलक्ष्मी बोलीं- “तुम जरा आराम कर लो जाकर, बिटिया! तमाम दिन मरीज के पास बैठी हो! हारू की मां से कह दो, बगल के कमरे में बैठेगी।
आशा राजलक्ष्मी को समझती थी। यह उनके स्नेह का आग्रह नहीं, आदेश था-इसे मान लेने के सिवाय चारा नहीं। उसने हारू की मां को भेज दिया था और अपने कमरे में नीचे लेट गई।
दिन-भर उसने खाया-पीया नहीं। तकलीफ भी थी। उसका तन-मन चूर-चूर हो गया था। उस दिन पड़ोस में दिन-भर ब्याह के बाजे बजते रहे। अभी फिर शहनाई पर धुन छिड़ी। उस रागिनी से चोट खाकर रात का अंधेरा कांपकर आशा पर बार-बार आघात करने लगा। उसके अपने विवाह के दिन की छोटी से छोटी घटना भी सजीव हो उठी और सबने मिलकर रात के आसमान को स्वप्न की छवि से पूर्ण कर दिया।
कमरे में रोशनी जलाकर वह कागज लिए लगातार आंसू पोंछती हुई लिखने बैठ गई-
“पूजनीय मौसी-
तुम्हारे सिवाय आज मेरा कोई नहीं। एक बार आओ और अपनी इस दुखिया को अपनी गोद में उठा लो, वरना मैं जिऊंगी कैसे! और क्या लिखूं, नहीं जानती। चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम।
तुम्हारी प्यारी
चुन्नी”
अन्नपूर्णा काशी से आई। धीरे-धीरे राजलक्ष्मी के कमरे में जाकर उन्हें प्रणाम करके उनके चरणों की धूल माथे ली। बीच में इस विलगाव के बावजूद अन्नपूर्णा को देखकर राजलक्ष्मी ने मानो कोई खोई निधि पाई। उन्हें लगा, वे मन के अनजान ही अन्नपूर्णा को चाह रही थीं। इतने दिनों के बाद आज पल-भर में ही यह बात स्पष्ट हो उठी कि उनको इतनी वेदना महज इसलिए थी कि अन्नपूर्णा न थीं। एक पल में उसके दुखी चित्त ने अपने चिरंतन स्थान पर अधिकार कर लिया। महेन्द्र की पैदाइश से भी पहले जब इन दोनों जिठानी-देवरानी ने वधू के रूप में इस परिवार के सारे सुख-दुःखों को अपना लिया था पूजा-त्यौहारों पर, शोक-मृत्यु में दोनों ने गृहस्थी के रथ पर साथ-साथ यात्रा की थी-उन दिनों के गहरे सखीत्व ने राजलक्ष्मी के हृदय को आज पल-भर में आच्छन्न कर लिया। जिसके साथ सुदूर अतीत में उन्होंने जीवन का आरंभ किया था-तरह-तरह की रुकावटों के बाद बचपन की सहचरी गाढ़े दु:ख के दिनों में उनकी बगल में खड़ी हुई। यह एक घटना उनके मौजूदा सुख-दु:खों, प्रिय घटनाओं में स्मरणीय हो गई। जिसके लिए राजलक्ष्मी ने इसे भी बेरहमी से चोट पहुंचाई थी, वह आज कहां है!
अन्नपूर्णा बीमार राजलक्ष्मी के पास बैठकर उनका दायां हाथ अपने हाथ में लेती हुई बोली-“दीदी!”
राजलक्ष्मी ने कहा-“मंझली!”
उनसे और बोलते न बना। आंखों में आंसू बहने लगे। यह दृश्य देखकर आशा से न रहा गया। वह बगल के कमरे में जाकर जमीन पर बैठकर रोने लगी।
राजलक्ष्मी या आशा से अन्नपूर्णा महेन्द्र के बारे में कुछ पूछने का साहस न कर सकीं। साधुचरण को बुलाकर पूछा-“मामा, महेन्द्र कहां है?”
मामा ने महेन्द्र और विनोदिनी का सारा किस्सा कह सुनाया। अन्नपूर्णा ने पूछा-“बिहारी कहां है?”
साधुचरण ने कहा-“काफी दिनों से वे इधर आए नहीं। उनका हाल ठीक ठीक नहीं बता सकता।”
अन्नपूर्णा बोलीं-“एक बार बिहारी के यहां जाकर खोज-खबर तो ले आइए!”
साधुचरण ने उसके यहां से लौटकर बताया-“वे घर पर नहीं है, अपने बाली वाले बगीचे में गए हैं।”
अन्नपूर्णा ने डाक्टर नवीन को बुलाकर मरीज की हालत के बारे में पूछा। डाक्टर ने बताया, “दिल की कमजोरी के साथ ही उदरी हो आई है, कब अचानक चल बसें, कहना मुश्किल है।”
शाम को राजलक्ष्मी की तकलीफ बढ़ने लगी। अन्नपूर्णा ने पूछा-“दीदी, नवीन डाक्टर को बुलवा भेजूं?”
राजलक्ष्मी ने कहा- “नहीं बहन. नवीन डाक्टर के करने से कुछ न होगा।”
अन्नपूर्णा बोलीं-“तो फिर किसे बुलवाना चाहती हो तुम?”
राजलक्ष्मी ने कहा-“एक बार बिहारी को बुलवा सको, तो अच्छा हो।”
अन्नपूर्णा के दिल में चोट लगी। उस दिन काशी में उन्होंने बिहारी को दरवाजे पर से ही अंधेरे में अपमानित करके लौटा दिया था। वह तकलीफ वे आज भी न भुला सकी थीं। बिहारी अब शायद ही आए। उन्हें यह उम्मीद न थी कि इस जीवन में उन्हें अपने किए का प्रायश्चित करने का कभी मौका मिलेगा।
अन्नपूर्णा एक बार छत पर महेन्द्र के कमरे में गई। घर-भर में यही कमरा आनन्द-निकेतन था। आज उस कमरे में कोई श्री नहीं रह गई थी- बिछौने बेतरतीब पड़े थे। साज-सामान बिखरे छत के गमलों में कोई पानी नहीं डालता था, पौधे सूख गए थे।
आशा ने देखा, मौसी छत पर गई है। वह भी धीरे-धीरे उनके पीछे-पीछे गई। अन्नपूर्णा ने उसे खींचकर छाती से लगाया और उसका माथा चूमा। आशा ने झुककर दोनों हाथों से उनके पांव पकड़ लिये। बार-बार उनके पांवों से अपना माथा लगाया। बोली-“मौसी, मुझे आशीर्वाद दो, बल दो। आदमी इतना कष्ट भी सह सकता है, मैंने यह कभी सोचा तक न था। मौसी, इस तरह कब तक चलेगा?”
अन्नपूर्णा वहीं जमीन पर बैठ गई। आशा उनके पैरों पर सिर रखकर लोट गई। अन्नपूर्णा ने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया और चुपचाप देवता को याद करने लगीं।
जमाने के बाद अन्नपूर्णा के स्नेह-सने मौन आशीर्वाद ने आशा के मन में बैठकर शांति का संचार किया। उसे लगा, उसकी मनोकामना पूरी हो गई है। देवता उस-जैसी नादान की उपेक्षा कर सकते हैं, मगर मौसी की प्रार्थना नहीं ठुकरा सकते।
मन में दिलासा और बल पाकर आशा बड़ी देर के बाद एक लंबा निश्वास छोड़कर उठ बैठी। बोली-“मौसी, बिहारी भाई साहब को आने के लिए चिट्ठी लिख दो!”
अन्नपूर्णा बोलीं- “उंहु, चिट्ठी नहीं लिखूगी।”
आशा-“तो उन्हें खबर कैसे होगी?”
अन्नपूर्णा बोली “मैं कल खुद उससे मिलने जाऊंगी।”
जिन दिनों बिहारी पश्चिम में भटकता फिर रहा था, उसके मन में आया, “जब तक कोई काम लेकर न बैठूं चैन न मिलेगा।’ यही सोचकर उसने कलकत्ता के गरीब किरानियों के मुफ्त इलाज और सेवा-जतन का भार उठाया। गर्मी के दिनों में डाबर की मछलियां जिस तरह कम पानी और कीचड़ में किसी प्रकार जिंदा रह लेती हैं, तंग गलियों के संकरे कमरों में परिवार का बोझ उठाने वाले बेचारे किरानियों की ज़िन्दगी वैसी ही है-उन दुबले, पीले पड़े, चिन्ता से पिसने वाले भद्रवर्ग के लोगों के प्रति बिहारी को बहुत पहले ही दया हो आई थी-इसलिए उसने उन्हें बगीचे की छांह और गंगा-तट की खुली हवा दान देने का संकल्प किया।
बाली में उसने बगीचा खरीदा और चीनी कारीगरों से छोटे-छोटे झोंपड़े बनवाने शुरू किए लेकिन मन को राहत न मिली। काम में लगने का दिन ज्यों-ज्यों करीब आने लगा, उसका मन अपने निश्चय से डिगने लगा। बार-बार उसका मन यही कहने लगा-“इस काम में कोई सुख नहीं, रस नहीं, सौंदर्य नहीं-यह महज एक नीरस भार है।” काम की कल्पना ने इसके पहले कभी भी बिहारी को इतना परेशान नहीं किया।
कभी ऐसा भी था कि बिहारी को खास कोई जरूरत ही न थी, जो कुछ भी सामने आ जाता, उसी में वह सहज ही अपने को लगा सकता था। अब उसके मन में न जाने कौन-सी भूख जगी है, उसे बुझा लेने के पहले और किसी भी चीज में उसकी आसक्ति नहीं होती। जैसी शुरू से आदत रही है, इस-उसमें हाथ डालकर देखता और दूसरे ही क्षण उसे छोड़कर छुटकारा पाना चाहताः
बिहारी में यौवन सिकुड़कर आराम कर रहा था। उसने कभी सज्ञान होकर इस तरफ देखा भी नहीं, लेकिन विनोदिनी के स्पर्श ने उसे धधका दिया। अभी-अभी पैदा हुए गरुड़ की तरह अपनी खुराक के लिए वह सारी दुनिया को झिंझोड़ती फिर रही हैं।
बिहारी का जो पिछला जीवन सुख और सन्तोष से कट गया, उसे वह अब भारी नुकसान समझता। ऐसी मेघघिरी सांझ जाने कितनी आईं, पूर्णिमा की कितनी रातें-वे सब हाथों में अमृत का पात्र लिए बिहारी के सुने हृदय के द्वार से चुपचाप लौट गई-उन दुर्लभ शुभ घड़ियों में कितने गीत घुटे रहे, कितने उत्सव न हो पाए, इसकी कोई हद नहीं। बिहारी के मन में जो पुरानी सुधियां थीं, उन्हें विनोदिनी ने उद्यत चुंबन की रक्तिम आभा से ऐसा फीका और तुच्छ कर दिया था। जीवन के ज्यादातर दिन महेन्द्र की छाया में कटे! उनकी सार्थकता क्या थी? प्रेम की वेदना में सारे जल, थल, आकाश के केन्द्र-कुहर से ऐसी तान में इस तरह बांसुरी बजती है, यह तो अचेतन बिहारी कभी सोच भी न पाया था। विनोदिनी ने बिहारी को बाहो में लपेटकर अचानक एक पल में जिस अनोखे सौंदर्य-लोक में पहुंचा दिया, उसे वह कैसे भूले!
फिर भी उस विनोदिनी से बिहारी आज इस तरह दूर क्यों है? इसलिए कि विनोदिनी ने जिस सौंदर्य-रस के बिहारी का अभिषेक किया उस सौंदर्य के अनुकूल संसार में विनोदिनी से किसी संबंध की वह कल्पना नहीं कर सकता।
वह न तो मानिनी का मान भंग करना चाहता है, न सौन्दर्य को कलंकित करना चाहता है और न ही महेन्द्र से कुहनी बाजी करना होता है। शायद यही वजह है कि वह चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता।
