aankh ki kirkiri by ravindranath tagore
aankh ki kirkiri by ravindranath tagore

बिहारी ने कहा-“नहीं-नहीं भाभी, यह न होगा। मैं आरजू करता हूं, मेरे कहने से कुछ मत करना। मैं यहां का कोई नहीं होता, यहां की किसी भी बात में मैं दखल नहीं देना चाहता। तुम देवी हो, जो तुम्हें ठीक जंचे, वहीं करना! मैं चला।”

विनोदिनी को नम्रता से नमस्कार करके बिहारी जाने लगा।

विनोदिनी बोली- “मैं देवी नहीं हूं भाई साहब, सुनो तो सही। तुम चल दोगे, तो किसी का भला न होगा। फिर मुझे दोष मत देना!”

बिहारी चला गया। महेन्द्र ठगा-सा बैठा रहा।

विनोदिनी बिजली-सी कटाक्ष करती हुई बगल के कमरे में चली गई जहां आशा मारे शर्म के मरी-सी जा रही थी। बिहारी उसे प्यार करता है-महेन्द्र के मुंह से ऐसा सुनकर वह मुंह नहीं उठा पा रही थी। लेकिन उस समय उस पर विनोदिनी को दया न आई। आशा ने अगर निगाह उठाकर देखा होता, तो वह डर जाती। सारे संसार पर मानो खून चढ़ आया था विनोदिनी का झूठ! बेशक विनोदिनी को कोई भी नहीं प्यार करता।

आवेश में वही जो एक बार महेन्द्र के मुंह से निकल पड़ा था कि मैं नालायक हूं, उसके बाद जब वह आवेश जाता रहा तो अपने उस अचानक उबल पड़ने की वजह से बिहारी से वह सकुचा गया था। उसे लग रहा था कि उसकी सारी बातें खुल गई हैं। वह विनोदिनी को प्यार नहीं करता, फिर भी बिहारी का ख्याल है, प्यार करता है। जो कुढ़न बढ़ रही थी, आज वह अचानक भभक पड़ी।

लेकिन बगल के कमरे से विनोदिनी जैसी व्याकुल होकर दौड़ती आई, और उसने बिहारी को रोकने की कोशिश की और बिहारी के कहे मुताबिक वह काशी जाने को तैयार हो गई-यह सब महेन्द्र की कल्पना के भी बाहर था। इस दृश्य ने महेन्द्र को एक चोट पहुंचाकर अभिभूत कर दिया। उसने कहा था कि वह विनोदिनी को प्यार नहीं करता; लेकिन जो कुछ सुना, जो कुछ देखा, उसने उसे चैन न लेने दिया।

महेन्द्र ने सोचा, गलत, मैं विनोदिनी को प्यार नहीं करता। शायद प्यार न भी करता हूं; मगर कहना कि नहीं करता हूं यह तो और भी कठिन है। इससे चोट न पहुंचे, ऐसी स्त्री कौन है? इसके प्रतिवाद की गुंजाइश कैसे हो?

महेन्द्र ने बक्स से निकालकर उसकी तीनों चिट्ठियों को फिर से पढ़ा। वह मन-ही-मन बोला-“इसमें कोई सन्देह नहीं कि विनोदिनी मुझे प्यार करती है। मगर कल वह बिहारी के सामने इस तरह क्यों आई? शायद मुझे दिखाने के ही लिए। मैंने जब साफ जता दिया कि मैं उसे प्यार नहीं करता, तो फिर किसी मौके से मेरे सामने प्यार को ठुकराए नहीं तो और क्या करे? हो सकता है, मुझसे इस तरह ठुकराई जाने पर वह बिहारी को प्यार भी करने लगे।”

महेन्द्र को इस तरह क्षोभ बढ़ चला कि अपनी उतावली से वह आप ही अचरज में पड़ गया। डर उठा। और, विनोदिनी ने सुन ही लिया तो क्या कि महेन्द्र उसे प्यार नहीं करता? इसमें दोष भी क्या।

आंधी आने पर नाव की जंजीर जैसे लंगर को कसकर पकड़ती है, वैसे ही अकुलाहट में महेन्द्र ने आशा को और भी कसकर पकड़ा।

रात को महेन्द्र ने आशा का मुंह अपनी छाती से लगाकर पूछा-“चुन्नी, ठीक बताओ, तुम मुझे कितना प्यार करती हो?”

आशा सोचने लगी-“यह सवाल कैसा! बिहारी के बारे में जो शर्मनाक बात निकली है, क्या उसी से उस पर संदेह की ऐसी छाया पड़ी?”

वह शर्म से छुईमुई-सी होकर बोली-“छिः, आज यह क्या पूछ रहे हो तुम! तुम्हारे पैर पड़ती हूं, साफ बताओ, मेरे प्यार में तुम्हें कब क्या कमी दिखाई दी?”

उसे सताकर उसका माधुर्य निचोड़ने की नीयत से महेन्द्र बोला-“फिर तुम काशी क्यों जाना चाहती हो?”

आशा बोली-“मैं नहीं जाना चाहती। कहीं भी नहीं जाऊंगी मैं।”

महेन्द्र-“लेकिन चाहा तो था पहले?”

आशा बहुत दु:खी होकर बोली-“तुम्हें पता है, मैंने क्यों चाहा था?”

महेन्द्र-“मुझे छोड़कर अपनी मौसी के पास बड़े मजे से रहतीं, क्यों?”

आशा बोली-“हर्गिज नहीं, मजे से रहने के लिए नहीं जाना चाहती थी मैं।”

महेन्द्र ने कहा-“सच कहूं चुन्नी, और किसी से विवाह किया होता तो तुम इससे कहीं ज्यादा सुखी होतीं।”

सुनते ही चौंककर आशा महेन्द्र से छिटक पड़ी और तकिए में मुंह गाड़कर काठ की मारी-सी पड़ी रही। कुछ ही क्षण में उसकी रुलाई रोके न रुकी। सांत्वना देने के लिए महेन्द्र ने उसे कलेजे से लगाने की कोशिश की, पर आशा तकिए से चिपकी रही। पतिव्रता के ऐसे रूठने से महेन्द्र सुख, गर्व और धिक्कार से क्षुब्ध होने लगा।

विनोदिनी सोचने लगी, “आखिर ऐसी तोहमत लगाए जाने पर बिहारी ने प्रतिवाद क्यों नहीं किया? उसने झूठा प्रतिवाद भी किया होता, तो मानो विनोदिनी को खुशी होती। ठीक ही हुआ कि महेन्द्र ने बिहारी पर ऐसी चोट की। यह उसका पावना ही था। आखिर बिहारी-जैसा आदमी आशा को प्यार क्यों करेगा? इस चोट ने बिहारी को दूर जो हटा दिया, मानो वह अच्छा ही हुआ” -विनोदिनी निश्चिन्त हो गई।

लेकिन मृत्यु-बाण से बिंधे बिहारी का रक्तहीन पीला मुखड़ा विनोदिनी के हर काम में उसके पीछे-पीछे घूमता-सा रहा। विनोदिनी के अन्दर जो एक सेवा पारायण नारी-प्रकृति थी, वह उस कातर चेहरे को देखकर रोने लगी।

दो-तीन दिन तक वह सभी कामों में अनमनी रही। आखिर उससे न रहा गया। उसने एक सान्त्वना पत्र लिखा-

“भाई साहब, तुम्हारा जो सूखा चेहरा देखा, है, तब से मैं हृदय से यही कामना करती हूं कि तुम भले-चंगे हो जाओ, जैसे तुम थे, वैसे ही हो जाओ-तुम्हारी वह सहज हंसी फिर कब देखूंगी-वह उदार बातें फिर कब सुनूंगी; एक पंक्ति में अपनी कुशल मुझे लिख भेजो!

तुम्हारी विनोदिनी, भाभी।”

दरबान के मार्फत चिट्ठी उसने बिहारी को भेज दी।

बिहारी आशा को प्यार करता है, इस बात को महेन्द्र इस रुखाई और इस बेहयाई से जुबान पर ला सकता है।-बिहारी ने यह कभी स्वप्न में भी न सोचा था। क्योंकि उसने खुद भी कभी ऐसी बात को दिल में जगह न दी थी।

लेकिन बात जब एक बार मुंह से निकल पड़ी, तो एकबारगी मार तो नहीं डाला जा सकता। उसमें सच्चाई का बीज जितना था, देखते ही देखते वह अंकुराने लगा।

अब उसने खुद को कसूरवार समझा। मन ही मन बोला-“मेरा गुस्सा करना तो शोभा नहीं देता, महेन्द्र से माफी मांगकर विदा लेनी होगी। उस रोज मैं कुछ इस तरह चला आया था, मानो महेन्द्र दोषी है, मैं विचारक हूँ… अपनी यह गलती मुझे कबूल करनी पड़ेगी।”

बिहारी समझ रहा था, आशा चली गई है। एक दिन शाम को वह धीरे-धीरे जाकर महेन्द्र के दरवाजे पर जाकर खड़ा हुआ। राजलक्ष्मी के दूर रिश्ते के मामा साधुचरण पर नजर पड़ी। कहा-“कई दिनों से इधर आ नहीं सका-सब कुशल तो है?”

साधुचरण ने कुशल कही। बिहारी ने पूछा-“भाभी काशी कब गई?”

साधुचरण ने कहा-“कहां, गई कहां? उनका जाना अब न होगा।”

यह सुनकर बिहारी सब-कुछ भूलकर अन्दर जाने को बेचैन हो उठा। पहले वह जैसे ग्रहण भाव से खुशी-खुशी अपनों-सा परिचित सीढ़ियों से अन्दर जाया करता था, सबसे हंसता-बोलता था, जी में कुछ होता न था, आज उसकी मनाही थी, दुर्लभ था वह-इसकी याद आते ही उसका मन पागल हो गया। बस एक बार, केवल अन्तिम बार इसी तरह अन्दर जाकर परिवार के सदस्य-सा राजलक्ष्मी से घूंघट निकाले आशा भाभी से दो बातें मात्र कर आना उसके लिए परम आकांक्षा का विषय बन बैठा।

साधुचरण ने कहा-“अरे, अंधेरे में खड़े क्यों रह गए, अन्दर आओ!”

बिहारी तेजी से दो-चार डग की तरफ बढ़ा और मुड़कर बोला-“नहीं, चलूं मैं, काम है।”

और जल्दी से लौट गया।

उसी रात बिहारी पश्चिम की ओर कहीं चला गया।

बिहारी घर पर नहीं मिला-दरबान विनोदिनी की चिट्ठी लेकर लौट आया।

महेन्द्र ड्योढ़ी के सामने वाले बगीचे में टहल रहा था। उसने पूछा-“किसकी चिट्ठी है?”

दरबान ने बताया। महेन्द्र ने उससे चिट्ठी ले ली। एक बार तो जी में आया, चिट्ठी वह विनोदिनी को दे आये-कुछ कहे नहीं, सिर्फ विनोदिनी का लज्जित चेहरा देख आये। उसे इसमें जरा भी शक न था कि खत में लज्जा की बात जरूर है। याद आया, पहले भी एक बार उसने बिहारी को चिट्ठी भेजी थी। आखिर खत में है क्या, यह जाने बिना मानो उससे रहा ही न गया। उसने अपने-आपको समझाया, “विनोदिनी उसी की देख-रेख में है, उसके भले-बुरे का वही जिम्मेदार है। लिहाजा ऐसे संदेह वाले खत को खोलकर देखना वाजिब है। विनोदिनी को गलत रास्ते पर हर्गिज नहीं जाने दिया जा सकता।”

खोलकर महेन्द्र ने उस छोटी-सी चिट्ठी को पढ़ा। वह सहज भाषा में लिखी थी, इसलिए उसमें मन का सच्चा उद्वेग फूट पड़ा था। महेन्द्र ने उसे बार-बार पढ़ा। खूब सोचा, मगर समझ नहीं सका कि विनोदिनी का झुकाव है किस तरफ। उसे रह-रहकर यही आशंका होने लगी, चूंकि मैंने यह कहकर उसका अपमान किया है कि मैं उसे प्यार नहीं करता, इसीलिए रूठकर वह अपने मन को और तरफ लगाना चाहती है।

इसके बाद महेन्द्र के लिए धीरज रखना असंभव हो उठा। जो लड़की अपने-आपको उसके हाथों सौंप देने के लिए आई थी, वह महज जरा-सी गलती से उसके कब्जे से निकल जाएगी। यह सोचकर महेन्द्र भीतर ही भीतर सुलगने लगा। मन में सोचा, ‘विनोदिनी मन ही मन अगर तुझे चाहती है, तो उसकी खैर जानो-क्योंकि वह एक जगह बंधी रहेगी। अपने मन का तो मुझे पता है, मैं उस पर कभी जुल्म नहीं कर सकूँगा… वह मुझे निश्चिन्त होकर प्यार कर सकती है। मैं आशा को प्यार करता हूं, मुझसे उसे कोई खतरा नहीं। यदि वह और किसी तरफ खिंची तो क्या अनर्थ होगा, वह कौन जानता है?”

महेन्द्र ने निश्चय किया, ‘अपने को प्रकट किये बिना किसी न किसी तरह फिर से विनोदिनी को अपनी ओर खींचना ही पड़ेगा।’

अंदर जाते ही महेन्द्र न देखा, विनोदिनी बीच में ही खड़ी उत्सुकता से किसी का इन्तजार कर रही है और महेन्द्र का मन डाह से जल उठा। बोला- “नाहक इन्तजार में खड़ी है, भेंट नहीं होने की। यह लीजिए, आपकी चिट्ठी लौट आई।”

कहकर उसने चिट्ठी उसकी ओर फेंक दी।

विनोदिनी बोली-“खुली क्यों?”

महेन्द्र जवाब दिये बिना ही चला गया। “बिहारी ने चिट्ठी खोलकर पढ़ी और कोई जवाब न देकर चिट्ठी वापस भेज दी, “यह सोचकर विनोदिनी की सारी नसें दप-दप करने लगीं। उसने चिट्ठी ले जाने वाले दरबान को बुलवा भेजा। वह और कहीं चला गया था-न मिला। चिराग की कोर से जैसे गरम तेल की बूंदें टपक पड़ती हैं-बन्द कमरे में विनोदिनी की दमकती हुई आंखों से आंसुओं में टपक गए। उसने अपनी चिट्ठी के टुकड़े कर डाले, फिर भी उसे चैन न मिला। स्याही की उन दो-चार लकीरों को भूत और वर्तमान से पोंछ डालने की, कतई मनाही कर देने की गुंजाइश क्यों नहीं? गुस्से में आई मधुमक्खी जिस प्रकार हर सामने पड़ने वाले को काट खाती हैं उसी प्रकार क्षुब्ध विनोदिनी अपने चारों ओर की दुनिया को जला डालने पर आमादा हो गई। मैं जो भी चाहती हूं, उसी में रुकावट? किसी बात में कामयाबी नहीं!

उस दिन फागुन की पहली बसंती बयार बह आई। बड़े दिनों के बाद आशा शाम को छत पर चटाई बिछाकर बैठी। मद्धिम रोशनी में एक मासिक पत्रिका में छपी हुई एक धारावाहिक कहानी पढ़ने लगी। एक जगह जब कहानी का नायक काफी दिनों बाद पूजा की छुट्टी में अपने घर लौट रहा था कि डकैतों के चंगुल में फंस गया। आशा का दिल धड़क उठा। इधर ठीक उसी समय नायिका सपना देखकर रोती हुई जग पड़ी। आशा के आंसू रोके न रुके। वह कहानियों की बड़ी उदार समालोचक थी। जो भी कहानी पढ़ती, वह उसे अच्छी लगती। विनोदिनी को बुलाकर कहती, “भई आंख की किरकिरी, मेरे सिर की कसम रही, इस कहानी को पढ़ देखना। ऐसी ही है! पढ़कर रोते-रोते बेदम!”

विनोदिनी की अच्छे-बुरे की कसौटी से आशा की उमंगों, उत्साह को बड़ी चोट पहुंचती।

महेन्द्र को कहानी पढ़ाने का निश्चय करके गीली आंखों से उसने पत्रिका बन्द की। इतने में महेन्द्र आ गया। महेन्द्र बोला-“छत पर अकेली किस भाग्यवान को याद कर रही हो?”

आशा नायक-नायिका की बात भूल गई। उनसे पूछा- “आज तुम्हारी तबियत कुछ खराब है क्या?”

महेन्द्र-“नहीं, तबियत ठीक है।”

आशा-“फिर तुम मन ही मन जो कुछ सोच रहे हो मुझे साफ-साफ बताओ।”

आशा के डब्बे में से एक पान निकालकर खाते हुए महेन्द्र ने कहा-“मैं यह सोच रहा था कि तुम्हारी बेचारी मौसी ने न जाने कब से तुम्हें नहीं देखा। अचानक ही एक दिन तुम वहां पहुंच जाओ तो वे कितनी खुश हो जाएं।”

आशा ने कोई जवाब न दिया। उसकी ओर ताकती रही। वह समझ न सकी कि एकाएक फिर क्यों यह बान महेन्द्र के मन में आई।

आशा को चुप देखकर महेन्द्र ने पूछा-“तुम्हारी जाने की इच्छा नहीं होती क्या?”