aankh ki kirkiri by ravindranath tagore
aankh ki kirkiri by ravindranath tagore

रबीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई “आंख की किरकिरी” एक उपन्यास है जो जीवन के प्रति संवेदनशीलता और सांस्कृतिक उत्थान की महत्वपूर्ण कथा प्रस्तुत करता है।

कथा का मुख्य पात्र निलाद्रि है, जो एक गरीब गांव में अपने परिवार के साथ रहता है। निलाद्रि की विशेषता यह है कि उसकी आंखें एकदम स्पष्ट नहीं हैं, और वह उसे देखने में कठिनाई महसूस करता है। फिर भी, उसके मन में एक अद्वितीय दृष्टिकोण और संवेदनशीलता होती है जिसे वह अपने अंदर धारण करता है।

निलाद्रि की जीवन की कथाएँ उसकी व्यक्तित्व और समाज में उसके स्थान को दर्शाती हैं। वह अपने अद्भुत भावनाओं, समझदारी, और साहस से जीतता है।

उपन्यास में, निलाद्रि के चारों ओर का संसार उसके सामने उजागर होता है। वह देखता है कि कैसे विभिन्न व्यक्तियों और समुदायों में अंतर का बयान किया जाता है, और कैसे उनकी समझदारी और निष्ठा उन्हें सफलता की ओर ले जाती है।

निलाद्रि का प्रेरणादायक चरित्र और उसकी जीवन दृश्यों में उन्होंने साहित्य के माध्यम से व्यक्तित्व के महत्व को प्रस्तुत किया है। उनके कठिनाइयों और संघर्षों के बावजूद, वह अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध रहता है और उसकी आत्मा को निर्मलता का मार्ग चुनता है।

“आंख की किरकिरी” एक उत्कृष्ट उपन्यास है जो मानवता, समाज, और साहित्य के महत्वपूर्ण मुद्दों को बताता है। रबीन्द्रनाथ टैगोर की यह कहानी हमें समझदारी, सहानुभूति, और सहयोग के महत्व को समझाती है और हमें जीवन में सकारात्मकता और संघर्ष के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा प्रदान करती है।

रवींद्रनाथ टैगोर, भारतीय साहित्य के एक अग्रणी और नोबेल पुरस्कार विजेता कवि, लेखक, और समाजसेवी थे। उनका जन्म 7 मई 1861 को कलकत्ता में हुआ था। उन्होंने अपने उत्कृष्ट साहित्य, संगीत, कला, और दार्शनिक विचारों के लिए विश्वभर में प्रसिद्धता प्राप्त की।

टैगोर की काव्य और कविताएं, जैसे “गीतांजलि”, “गोरा”, और “चित्रा”, उनकी अद्वितीय शैली, संवेदनशीलता, और साहित्यिक महत्त्व के लिए प्रसिद्ध हैं। उनके लेखन में संतुलन, सरलता, और गहराई थी, जो उन्हें अन्य कवियों से अलग बनाता है।

टैगोर ने भारतीय समाज को समर्पित और आधुनिक शिक्षा के लिए अपनी अद्वितीय योगदान भी दिया। उनका शिक्षा और साहित्य में दृष्टिकोण व्यापक था, जो विभिन्न जातियों, धर्मों, और भाषाओं के बीच सामंजस्य और समरसता को प्रोत्साहित करता था।

उन्होंने समाज में स्त्री-शिक्षा को बढ़ावा दिया और व्यक्तिगत स्वतंत्रता, स्वाधीनता, और सम्मान के महत्व को भी बढ़ावा दिया। टैगोर ने 7 अगस्त 1941 को अपने आदर्शों और कला के प्रशंसकों के बीच विचार गहनता में समाप्त किया। उनकी योगदान को भारतीय समाज और साहित्य की दृष्टि से अमर माना जाता है।

विनोद की मां हरिमती महेन्द्र की मां राजलक्ष्मी के पास जाकर धरना देने लगी। दोनों एक ही गांव की थीं, छुटपन में साथ खेली थीं।

राजलक्ष्मी महेन्द्र के पीछे पड़ गई-“बेटा महेन्द्र, इस गरीब की बिटिया का उद्धार करना पड़ेगा। सुना है, लड़की बड़ी सुन्दर है, फिर लिखी-पढ़ी भी है। उसकी रुचियां भी तुम लोगों जैसी हैं।

महेन्द्र बोला-“आजकल के तो सभी लड़के मुझ जैसे ही होते हैं।”

राजलक्ष्मी, “तुझसे शादी की बात करना ही मुश्किल है।”

महेन्द्र “मां, इसे छोड़कर दुनिया में क्या और कोई बात नहीं है।”

महेन्द्र के पिता उसके बचपन में ही चल बसे थे। मां से महेन्द्र का बर्ताव साधारण लोगों जैसा न था। उम्र लगभग बाईस की हुई, एम.ए. पास करके डाक्टरी पढ़ना शुरू किया है, मगर मां से उसकी रोज-रोज की जिद का अंत नहीं। कंगारू के बच्चे की तरह माता के गर्भ से बाहर आकर भी उसके बाहरी थैली में टंगे रहने की उसे आदत हो गई है। मां के बिना आहार-विहार, आराम-विराम कुछ भी नहीं हो पाता।

अब की बार जब मां विनोदिनी के लिए बुरी तरह उसके पीछे पड़ गई तो महेन्द्र बोला. “अच्छा, एक बार लड़की को देख लेने दो!”

लड़की देखने जाने का दिन आया तो कहा, “देखने से क्या होगा? शादी तो मैं तुम्हारी खुशी के लिए कर रहा हूं। फिर मेरे अच्छा-बुरा देखने का कोई अर्थ नहीं है।”

महेन्द्र के कहने में पर्याप्त गुस्सा था, मगर मां ने सोचा, “शुभ-दृष्टि”1 के समय जब मेरी पसन्द और उसकी पसन्द एक हो जाएगी, तो उसका स्वर भी नर्म हो जाएगा।”

राजलक्ष्मी ने बेफिक्र होकर विवाह का दिन तय किया। दिन जितना ही करीब आने लगा, महेन्द्र का मन उतना ही बेचैन हो उठा। मात्र दो-चार दिन पहले वह कह बैठा-“नहीं मां, यह मुझसे हर्गिज न होगा।”

छुटपन से महेन्द्र को हर तरह का सहारा मिलता रहा है। इसलिए उसकी इच्छा सर्वोपरि है। दूसरे का दबाव उसे बर्दाश्त नहीं। अपनी स्वीकृति और दूसरों के आग्रह ने उसे बेबस कर दिया है, इसीलिए विवाह के प्रस्ताव के प्रति नाहक ही उसकी वितृष्णा बढ़ गई और विवाह का दिन नजदीक आ गया तो उसने एकबारगी ‘नाही’ कर दी।

महेन्द्र का जिगरी दोस्त था बिहारी; वह महेन्द्र को ‘भैया’ और उसकी मां को ‘मां’ कहा करता था। मां उसे स्टीमर के पीछे जुड़ी डोंगी जैसा भारवाही सामान मानती थीं और वैसी ही उस पर ममता भी रखती थीं। वे बिहारी से बोली-“बेटे, यह तो अब तुम्हें ही करना है, नहीं तो उस बेचारी लड़की….”

बिहारी ने हाथ जोड़कर कहा-“मां, यह मुझसे न होगा। अच्छी न लगी कहकर महेन्द्र जो मिठाई छोड़ देता है वह मैंने बहुत खाई, मगर लड़की के बारे में ऐसा नहीं हो सकता।”

राजलक्ष्मी ने सोचा, ‘भला बिहारी विवाह करेगा! उसे तो बस एक महेन्द्र की पड़ी है, बहू लाने का खयाल भी नहीं आता उसके मन में।’

यह सोचकर बिहारी के प्रति उनकी कृपा-मिश्रित ममता कुछ और बढ़ गई।

विनोदिनी के पिता कुछ खास धनी न थे, परन्तु अपनी इकलौती बेटी को मिशनरी मेम रखकर बड़े जतन से पढ़ाया-लिखाया। इतना ही नहीं घर के काम में भी चाक चौबंद किया। वे गुजर गए और बेचारी विधवा मां बेटी के विवाह के लिए परेशान हो गई। पास में रुपया-पैसा नहीं, ऊपर से लड़की की उम्र भी ज्यादा।

आखिर राजलक्ष्मी ने अपने मौके में गांव के एक रिश्ते के भतीजे से विनोदिनी का विवाह करा दिया।

कुछ ही दिनों में वह विधवा हो गई। महेन्द्र ने हंसकर कहा, “गनीमत थी कि शादी नहीं की।”

कोई तीन साल बाद मां-बेटे में फिर एक बात हो रही थी।

“बेटा, लोग तो मेरी ही शिकायत करते हैं।”

“क्यों भला, तुमने लोगों का ऐसा क्या बिगाड़ा है?”

“बहू के आने से बेटा पराया न हो जाए, मैं इसी डर से तेरी शादी नहीं करती-लोग यही कहा करते हैं।”

महेन्द्र ने कहा, “डर तो होना ही चाहिए। मैं मां होता, तो जीते जी लड़के का विवाह न करता। लोगों की शिकायतें सुन लेता।”

मां हंसकर बोली-“सुनो, जरा इसकी बातें सुन लो।”

महेन्द्र बोला-“बहू तो आकर लड़के को अपना बना ही लेती है। फिर इतना कष्ट उठाने वाली मां अपने-आप दूर हो जाती है। तुम्हें यह चाहे जैसा लगे मुझे तो ठीक नहीं लगता।”

राजलक्ष्मी ने मन-ही-मन गद्गद् होकर हाल ही आई अपनी विधवा देवरानी से कहा, “सुनो मंझली, जरा महेन्द्र की सुनो! कहीं बहू आकर मां पर हावी न हो जाए, इसी डर से वह विवाह नहीं करना चाहता। ऐसी बात कभी सुनी है तुमने?”

चाची बोली, “यह तुम्हारी ज्यादती है बेटे! जब की जो बात हो, वही अच्छी लगती है। मां का दामन छोड़कर अब घर-गृहस्थी बसाने का समय आ गया है। अब नादानी अच्छी नहीं लगती उल्टे शर्म आती है।”

राजलक्ष्मी को यह बात अच्छी नहीं लगी। इस सिलसिले में उन्होंने जो कुछ कहा, वह जैसा हो मगर शहर भागा तो नहीं था। बोली “मेरा बेटा अगर और लड़कों की अपेक्षा अपनी मां को ज्यादा स्नेह करता है, तो तुम्हें शर्म क्यों लगती है, मंझली बहू? कोख का लड़का होता तो समझ में आता।”

राजलक्ष्मी को लगा, ‘निपूती बेटे के सौभाग्य वाली से ईर्ष्या कर रही है।’

मंझली बहू ने कहा-“तुमने बहू लाने की चर्चा चलाई। इसीलिए यह बात निकल गई, वर्ना मुझे क्या हक है?”

राजलक्ष्मी बोलीं-“मेरा बेटा अगर विवाह नहीं करता, तो तुम्हारी छाती क्यों फटती है! ठीक तो है, लड़के की जैसे आज तक देख-भाल करती आई हूं, आइन्दा भी कर लूंगी-इसके लिए और किसी की मदद की जरूरत न होगी।”

मंझली बहू आंसू बहाती चुपचाप चली गई। महेन्द्र को मन-ही-मन इससे चोट पहुंची। कॉलेज से कुछ पहले ही लौटकर वह अपनी चाची के कमरे में दाखिल हुआ।

वह समझ रहा था कि चाची ने जो कुछ कहा था, उसमें सिवाय स्नेह के और कुछ न था। और उसे यह भी पता था कि चाची की एक भानजी है। जिसके माता-पिता नहीं हैं। वे चाहती हैं कि महेन्द्र से उसका ब्याह हो जाए। हालांकि शादी करना उसे पसंद न था। फिर भी चाची की यह आंतरिक इच्छा उसे स्वाभाविक और करुण लगती है। उसे मालूम था कि उनकी कोई संतान नहीं है।

महेन्द्र कमरे में पहुंचा, तो दिन ज्यादा नहीं रह गया था। चाची अन्नपूर्णा खिड़की पर माथा टिकाए उदास बैठी थीं। बगल के कमरे में खाना ढका रखा था। शायद उन्होंने खाया नहीं।

बहुत थोड़े में ही महेन्द्र की आंखें भर आतीं। चाची को देखकर उसकी आंखें छल-छला उठीं। करीब जाकर स्निग्ध स्वर से बोला- “चाची!”

अन्नपूर्णा ने हंसने की कोशिश की। कहा, “आ बेटे, बैठ!”

महेन्द्र बोला-“भूख बड़ी जोर से लगी है चाची, प्रसाद पाना चाहता हूं।”

अन्नपूर्णा उसकी चालाकी ताड़ गई और अपने उमड़ते आंसुओं को मुश्किल से जब्त करके उसने खुद खाया और उसे खिलाया।

महेन्द्र का मन भीगा हुआ था। चाची को दिलासा देने के विचार से वह अचानक बोल उठा, “अच्छा चाची, तुमने अपनी भानजी की बात बताई थी, एक बार दिखा सकती हो?”

कहकर महेन्द्र डर गया।

अन्नपूर्णा हंसकर बोलीं-“क्यों? शादी के लड्डू फूट रहे हैं बेटा!”

महेन्द्र झटपट बोल उठा-“नहीं-नहीं, अपने लिए नहीं, मैंने बिहारी को राजी किया है। लड़की देखने का कोई दिन तय कर दो!”

अन्नपूर्णा बोली-“अहा, उस बेचारी का ऐसा भाग्य कहां? भला उसे बिहारी जैसा लड़का नसीब हो सकता है!”

महेन्द्र चाची के कमरे से निकला कि दरवाजे पर मां से मुलाकात हो गई। राजलक्ष्मी ने पूछा, “क्यों रे, क्या राय-मशविरा कर रहा था?”

महेन्द्र बोला-“राय-मशविरा नहीं, पान लेने गया था।”

मां ने कहा-“तेरा पान तो मेरे कमरे में रखा है।”

महेन्द्र ने कुछ नहीं कहा। चला गया।

राजलक्ष्मी अन्दर गई और अन्नपूर्णा की रुलाई से सूजी आंखें देखकर लमहेभर में बहुत-सोच लिया। छूटते ही फुफकार छोड़ी-“क्यों मंझली बहू, महेन्द्र के कान भर रही थी, है न?”

और बिना कुछ सुने तत्काल तेजी से निकल गई।