(गृहलक्ष्मी कहानियां) सीमेंट के ऊंचे-ऊंचे जंगल शहर में सघन हो आए हैं। नदी के दोनों किनारों पर बसा यह नगर जो कभी बागों, उपवनों, तालाबों और झीलों की बहुलता से जाना जाता रहा है, अब अपना प्राचीन रूप-वैभव खो चुका है। कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर प्रतिवर्ष इस नदी के किनारे मेला लगा करता है। इस बार भी लगा। मेले में कमला भी रमिया बुआ को अपने साथ लेकर पूजा करने आई है।
तरह-तरह के सामान से सजी-लदी, रंग-बिरंगी दुकानें देखकर बुआ बौरा-सी गई हैं। उन्हें लग रहा है कि क्या न खरीद लें। यद्यपि बुआ यह जानती हैं कि यही चीजें बाहर आधे से भी कम दामों पर मिल जाएंगी, पर उनका मानना है कि यहां से लेने पर इस स्थान का आशीर्वाद भी तो साथ जाएगा। कमला भी उनकी देखा-देखी अपनी शन्नो-मन्नो के लिए माला-चूड़ी देखने लगी। तभी जोर का शोर उठा, दो संत वेषधारी लोग आपस में स्थान के लिए झगड़ पड़े और देखते ही देखते थोड़ी-सी देर में तमाशाई भीड़ जुट आई।
जो संत अभी-अभी लोगों की श्रद्धा का पात्र बने प्रवचन दे रहे थे, उनका इस तरह झगड़ पडऩा कौतूहल और मनोरंजन का विषय बन गया। कमला बहुत देख चुकी ऐसे नाटक-नौटंकी। क्या पुजारी, क्या मुल्ला सभी अपना हित साधते हैं और दूसरों को आपस में लड़ाते हैं। पहले जैसे दरवेश और संत-ऋषि कहां रहे अब। ईश्वर तो सच्चे दिल की पुकार सुनता है। उसने सच्चे दिल से ईश्वर से जो मांगा, मिला।
किसना, उसका पति पिछले कई महीनों तक कितना बीमार रहा। उसे भल-भल खून उगलते देख उसका जी कितना कच्चा हो आया था। टीबी बताई थी डॉक्टर ने। कितना इलाज करवाया, कितनी सेवा की उसकी तन-मन-धन से। अपने सारे ज़ेवर यहां तक कि सुहाग की निशानियां भी बेच दी। विश्वास नहीं था, फिर भी झाड़-फूंक करवाई कि चलो यह भी करके देख लें। जिसने जो-जो बताया, वह सब करती चली गई और अंतत: उसकी तपस्या रंग लाई और उसका किसना बिल्कुल ठीक हो चला, बल्कि अब तो वह पहले से ही कहीं अधिक स्वस्थ दिखता है। उसके भरे गुलाबी गाल वह आंख भर कर नहीं देखती कि कहीं नजर न लग जाए।
लोग उसकी प्रशंसा करते, कहते कि कमला सावित्री की तरह अपने पति किसना को यमराज के मुख से वापस लौटा लाई है। उसका सम्मान सती नारी के रूप में बढ़ा। सुबह उठते ही यदि उसका मुंह देखो तो दिन अच्छा बीतता है, ऐसी धारणा फैल गई। अच्छे काम पर जाने से पूर्व लोग उसका आशीर्वाद लेने आते। किसना भी अब उससे थोड़ा दबने लगा और अब वह उसका थोड़ा-बहुत ख्याल भी रखता।
‘ईश्वर ने उसकी लाज रखी, उसके दु:ख-कष्ट भरे दिन बीते!यह सोच कमला ने अभिभूत हो कण-कण में व्याप्त अज्ञात शक्ति को प्रणाम कर नदी का जल अंजुरी में भर माथे से छुआकर आचमन कर हाथ जोड़ दिये।
पूजन-अर्चन से निवृत्त हो कमला ने रमिया बुआ को खोजा, वे अभी भी मेले में रमी, उसकी रौनक में उलझी थी। कमला को घर लौटने की जल्दी हो रही थी, पर बुआ का मन अभी भरा नहीं था।
‘अब चलो भी बुआ, बहुत देर हो गई, देखो तो सूरज देवता सिर पर चढ़ आए हैं। बुआ को मनाते-समझाते उन्हें अपने साथ लेकर कमला अपने घरौंदे की ओर लौट चली। रमिया बुआ की झोंपड़ी पहले आ गई, उन्हें वहां छोड़कर वह अपनी झोपड़ी की ओर आगे बढ़ी कि उसकी प्रतीक्षा में आंखें बिछाये शन्नो-मन्नो उसे दूर से देखकर उसकी ओर भागकर आती दिखीं। अपनी बेटियों को देखकर कमला के कदमों में भी जैसे पंख लग गये। थोड़ी ही देर में शन्नो-मन्नो दौड़कर उससे आ लिपटी, खरगोश से नर्म एहसास से घिरी कमला ने प्यार से उसके लिए लाई चूड़ी, माला दोनों को पहना दी, फिर प्रसाद दिया।
तब तक किसना भी आ गया, कमला ने उसे भी प्रसाद दे उसके लिए लाई हुई जंत्री बाजू में पहना दी। सब बहुत खुश थे। कमला का किशमिश की भांति सूखता संवलाया चेहरा दमक रहा था। धन्य हो उठी थी वह। झोंपड़ी के बाहर लगे पौधे में एक नन्हीं चुलबुली चिडिय़ा कीड़े खोज रही थी। किसना छप्पर को ठीक से बांधने में लग गया और वह भी मुग्धा नायिका की भांति उसका हाथ बंटाते कद्दू, तोरई की बेलें अपने खुरदुरे हाथों से चढ़वाने लगी। चारों ओर फैली गंदगी में भी जैसे फूल ही फूल खिल आए थे, वातावरण में पसरे शोर के बावजूद कानों में मधुर संगीत गूंज उठा था। मन का सौंदर्य यदि कोई देख पाता तो कमला-सी मनभावन पत्नी की चाहना हर कोई करता।
तभी इन पलों का सम्मोहन एक झटके से टूट गया। एक लंबी, छरहरी, खूबसूरत घबराई-सी औरत उससे आ लिपटी। इस अप्रत्याशित धक्के से अपने परिवार में मगन कमला संभलते-संभलते भी लडख़ड़ा गई, बेलें उसके हाथ से छूट गई। घटना की आकस्मिकता से सहमी कमला उसे पहचान ही नहीं पाई और आगंतुक के खिलते श्यामल रंग और सलोने नैन-नक्श को देख कुछ बोल पाती इससे पहले ही उसने दोनों मेंहदी लगे कोमल हाथों से कमला के खुरदुरे पैरों को पकड़कर अटपटाते शब्दों में बोली- ‘दीदी, अपनी शरण में ले लो, अब तो तुम्हारा ही आसरा है।
‘ऐसे कैसे आई लक्ष्मी, क्या हुआ? उसे पहचानते ही किसी अनहोनी की आशंका से कमला का दिल बैठने लगा। किसना भी अवाक् हतबुद्धि-सा मुंह बाए प्रश्नवाचक भंगिमा में खड़ा रहा। लक्ष्मी को आवेश से हांफती-कांपती देख कमला उसे सहारा देकर झोपड़े के अंदर ले आई और पानी लाने के लिए मुड़ी, तो शन्नो को कटोरे में संभाल कर पानी लाते देखा। पानी का घूंट भरते न भरते लक्ष्मी ने रोते-बिलखते टूटे शब्दों में जो बताया उसका सार यह था कि कुछ ही दिन पहले लक्ष्मी का मर्द उसे अपने मां-बाप के पास छोड़ दूसरे शहर में काम करने चला गया।
कल तक तो सब ठीक ही चला, पर कल शाम जब सासू मां नित्य की भांति पड़ोस में चली गईं, उसका ससुर पता नहीं कैसे काम पर से जल्दी घर लौट आया और आते ही उससे पानी मांगा। जब वह पानी देने गई तो उन्होंने उसका हाथ ही पकड़ लिया। उनकी बदनीयती भांपकर उन्हें एक जोर से धक्का दे वह सीधी बाहर भाग ली। यह बताते हुए लक्ष्मी फूट-फूटकर रो दी। सुंदर होना भी अभिशाप है। लक्ष्मी के इस दारुण दु:ख का कारण भी यही है। लक्ष्मी का भोला मुख और रोने से गुड़हल-सी लाल और सूजी आंखें देख द्रवित हो कमला ने पूछा-
‘पर तू यहां तक आई कैसे? तुझे अकेले बाहर निकलते डर नहीं लगा। कहीं कुछ हो जाता तो…
‘ना ऽऽऽदीदी, डर तो अपने ही घर में लगा, तभी तो अपनी लाज बचाने के लिए घर छोड़ कर बाहर भाग आई। पहले तो कभी अकेले घर की देहरी भी नहीं लांघी थी, पर उस बखत इतना डर गई कि और कुछ समझ में ही नहीं आया, होश उड़ गए थे मेरे। बस फिर तुम्हारा ध्यान आया और निकल भागी इधर की ओर। कमला ने अपने खुरदुरे हाथों से लक्ष्मी के आंसू पोंछे और उसका सिर-पीठ सहलाते, उसकी उलझी लटों को संवारते, उसने जो कुछ बिना कहे कहा था, वे शायद शब्द नहीं कह सकते थे।
कमला अपनी घनीभूत थकन जंजालों को भूल लक्ष्मी को अपने साथ लेकर पीसीओ तक आई और उसके मरद से बात कराई। मरद से बात हो जाने पर चहकती, खुशी से उमंगती लक्ष्मी ने किलकते स्वर में उसे बताया कि उसके मर्द ने कहा है कि अभी वह दीदी की ही शरण में रहे, वे छुट्टी मिलते ही एक-दो दिन में आकर उसे लिवा ले जाएंगे। धूप तिरछी हो चली थी। टीसते पांव के दर्द से बेहाल कमला लक्ष्मी का खुशी से खिल आया चेहरा देख खुश थी।
तभी लौटते समय मोड़ पर किसना का दोस्त छुन्नू मिल गया। कमला के पैर छूकर, लक्ष्मी की ओर ललचाई हुई दृष्टि से देखते हुए छुन्नू ने पूछा- ‘कैसी हो भौजी? अब तो भइया बिलकुल ही ठीक हो गए हैं। काम पर कब से चल रहे हैं… कमला उसे बताने लगी कि वह उन्हें कल से काम पर भेजेगी तभी लक्ष्मी की ओर छुन्नू की नर व्याघ्र दृष्टि भांप उसे झिड़की देकर आगे बढ़ आई। सोचा, आदमी ऐसा क्यों होता है? कभी-कभी उसे लगता कि समाज को पतन के गर्त से बचाने की सारी जिम्मेदारी नारी जाति की ही है।
झोपड़े पर पहुंच उसने फौरन चाय का पानी चढ़ा दिया। किसना दुकान से डबलरोटी ले आया। मासूम बच्चियां बहुत भूखी थीं। कमला अपने हिस्से का भी उन्हें खिलाकर किसना को जरूरी हिदायतें देकर लक्ष्मी को लेकर चल दी अपने काम पर और जगह तो आज उसने छुट्टी ले रखी है, पर मेंहदीरत्ता मेमसाहब के यहां जाना जरूरी है। मेंहदीरत्ता मेमसाहब के यहां आज किटी पार्टी है। लक्ष्मी साथ रहेगी, थोड़ा हाथ बंटा देगी। यहां झोपड़ी में छुन्नू की दृष्टि देखने के बाद लक्ष्मी को अकेली छोडऩा उसे निरापद नहीं लगा। लक्ष्मी अचंभित है। मेंहदीरत्ता मेमसाहब अपनी किटी पार्टी में मस्त हैं और साहब अकेले अपने कमरे में अपने कंप्यूटर और मोबाइल में व्यस्त हैं।
तभी कमला ने कहा, ‘जरा साहब को चाय दे आ। अपने में व्यस्त साहब चाय देने आई ताजगी से भरी लक्ष्मी को नजर उठाकर देखते हैं और देखते ही मुस्कुराकर उससे कुछ ऐसी हल्की बात कह देते हैं कि वह घबराकर फिर कमला के पास भाग कर आ जाती है। लौटते समय रास्ते में खिन्न लक्ष्मी कहती है ‘छि: इतने पढ़े-लिखे आदमी, पर नजरें बिलकुल वैसी ही…। कमला चिंतित है पता नहीं कौन सी ग्रह दशा है लक्ष्मी की, बार-बार उन्हीं स्थितियों से दो-चार होना पड़ रहा है।
‘हम लोग तो ढोर ढंगर का जीवन जीते हैं पर ऐसी शानदार जिंदगी जीने वाले सफेदपोश लोग भी कितने ओछे होते हैं। लक्ष्मी की इस टिप्पणी पर कमला मौन थी, लक्ष्मी ने फिर पूछा, ‘दीदी क्या सभी बड़े आदमी ऐसे होते हैं? ‘नहीं, सब ऐसे नहीं होते और अच्छे-बुरे, ओछे आदमी तो कभी भी कहीं भी हो सकते हैं- कमला ने अपना जीवनदर्शन बघारा। फिर कुछ याद कर दुखी हो आई। कहने लगी- ‘जानती हो, कुछ समय पहले यहां से थोड़ी दूरी पर एक साहब-मेमसाहब रहते थे और साथ में था उनका एक नन्हा-मुन्ना। दोनों ही एक-दूसरे से बड़ा प्यार करते। अपने ही घर में एक बड़े कमरे में उन्होंने कोई प्रयोगशाला बनवाई थी, वहीं कुछ किया करते दोनों मिलकर, फिर एक दिन… कहते-कहते कमला का कंठ रूंध आया, ‘मेमसाहब प्रयोगशाला में कुछ कर रही थीं। साहब बाहर चंदा वाले आए थे, उन्हें चंदा दे रहे थे, हम भी तभी काम करने पहुंचे कि अंदर से धमाके की आवाज आई और आग की लपटें…, साहब बदहवास हो अंदर भागे, वहां सब धूं-धूं कर जल रहा था। साहब मेमसाहब और बच्चे को जलती आग की लपटों से खींच लाए थे, पर वे उन्हें बचा नहीं पाए… वे खुद भी बुरी तरह जल गए थे।
काफी दिनों वे सदमे से बेहोश रहे। एक खूबसूरत, प्यार भरा घर उजड़ गया। बाद में चलने-फिरने लायक होते ही अपनी सारी धन-सम्पत्ति महिला आश्रम और बाल आश्रम को दान कर जाने कहां चले गए। कुछ लोग बताते हैं, शायद वैरागी हो गए हैं। कमला ने एक गहरी सांस ली, फिर कहा, ‘उनके बारे में सोचती हूं तो लगता है कि बड़ी भाग्यशाली हूं मैं। भगवान की कृपा से किसना ठीक हो गया शन्नो-मन्नो भी अब समझदार हो रही हैं। बातों में न समय का पता चला और न ही रास्ते का, झोपड़ी आ गई थी।
मेंहदीरत्ता मेमसाहब ने काफी सारा खाना दे दिया था। चलो, अच्छा ही है, कुछ बनाना नहीं पड़ेगा। सबने साथ मिलकर खाना खाया। रात गहराने लगी थी तब कमला ने झोपड़ी के अंदर की शन्नो-मन्नो के साथ लक्ष्मी के भी सोने की व्यवस्था कर दी। वह और किसना बाहर खुले में सो जाएंगे। खुले में उसे अच्छा लगता है। किसना से बोलते-बतियाते हुए जाने कब वह सो गई। एकाएक किसी ने उसे झिझोड़ कर उठा दिया। प्रकृतिस्थ हुई तो पाया थर-थर कांपती लक्ष्मी उसके कान में फुसफुसा रही है- ‘अंदर कोई नरपिशाच है दीदी।
कमला झटके से उठी, ढिबरी जलाकर पूरे झोपड़े में देखने लगी, कनस्तर और संदूक के पीछे भी देखा। कहीं कोई नहीं। ‘तुझे वहम हुआ होगा, कौन आएगा यहां? चिढ़कर अधनींद से जगी कमला ने झिड़क दिया लक्ष्मी को। फिर रसोई के सामान की ओर वह बढ़ी थी कि उकडू बैठे, मुंह छिपाये अपने पति को देख झट से ढिबरी बुझाई और बोली, ‘यहां तो कोई नहीं, चल तू आराम से सो जा, मैं दरवाजे पर बैठी हूं। अंधेरे में उसने अपने पति किसना को बाहर निकल जाने दिया।
फिर वह भरभराकर दरवाजे पर ही ढह गई।
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