महाराज के बाग में चोर गिरफ्तार तो हुआ मगर महाराज के पास न पहुँचाया जाकर सीधे दारोगा साहब के पास पहुँचा दिया गया। महाराज के सिपाहियों ने दारोगा साहब की यहाँ तक खातिर की कि उस चोर को पहिचानना तो दूर रहा, आँख से अच्छी तरह देखा भी नहीं और बड़े अफसोस के साथ महाराज से कह दिया कि चोर निकल भागा। बहुत उद्योग करने पर भी गिरफ्तार न हो सका।
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महाराज को इस बात का बहुत ही दु:ख हुआ फिर भी उन्होंने पहरे का इंतजाम ज्यों-का-त्यों कायम रखा, इस खयाल से कि कदाचित् एक-दो दिन बाद धोखा देकर पुन: वह चोर आवे।
उधर दारोगा अपने सोने वाले कमरे में चारपाई पर बैठा हुआ बड़ी बेचैनी के साथ इस बात का इंतजार कर रहा था कि महाराज के बाग में चोर गिरफ्तार हो और सीधे मेरे पास चला आवे क्योंकि उसे विश्वास हो गया था कि हो-न-हो वह चोर भैया राजा अर्थात् शंकरसिंह ही हैं, वह दरवाजे की तरफ आँख लगाए बैठा अपने दिल से भैया राजा के बारे में बातें कर रहा था और साथ ही यह भी सोच रहा था कि ‘आज नि:सन्देह भैया राजा गिरफ्तार होकर मेरे पास लाए जाएंगे और अगर ऐसा हुआ तो मैं उसको बिना मारे कभी न रहूँगा, किसी तरह की मुरौवत न करूँगा, आँखें चार होने पर लज्जा तथा भय के पास फटकने न दूंगा। आज मैं पूरा बेमुरौवत, पूरा निर्लज्ज, पूरा बेदर्द और पूरा अत्याचारी बन जाऊँगा मगर उन्हें कदापि जीता न छोडूंगा चाहे जो हो, इत्यादि इसी ढंग की बातें विचारता और खयाली पुलाव पकाता हुआ वह दरवाजे की तरफ देख रहा था कि यकायक दरवाजा खुला और तीन आदमी बेहोश भैया राजा को उठाए कमरे के अन्दर दाखिल हुए। बड़ी फुर्ती के साथ दारोगा ने नकाब उठाकर चोर के चेहरे पर निगाह डाली और यह जानकर बहुत ही प्रसन्न हुआ कि वह चोर वास्तव में भैया राजा ही है।
बेहोश भैया राजा दारोगा साहब के सामने डाल दिये गये। पहिले तो दारोगा के दिल में आया कि भैया राजा को होश में लाने के पहिले ही कत्ल कर डाले जिसमें चार आँखें न होने पावे मगर फिर कुछ सोचकर रुक गया क्योंकि आज उसने पूरी बेहयाई पर कमर बाँध ली थी, और इसके अलावा कई भेद की बातें भी उनसे दरियाफ्त करनी थीं।
बेईमान दारोगा ने पहिले तो उन तीनों आदमियों की बड़ी तारीफ की और शाबाशी दी और इसके बाद आज्ञा दी कि भैया राजा को उठाकर दूसरे कमरे में पहुंचा दें जहाँ इसी तरह की निर्दयता के काम किये जाते थे और जो एक तरह पर कैदखाने का काम भी दिया करता था। यहाँ पहुँचाने के बाद भैया राजा की मुश्कें बाँधी गईं और तीनों आदमियों को विदा कर दारोगा ने उन्हें लखलखा सूँघाया। होश में आने पर उसके कैदी ने घबड़ाकर चारों तरफ देखा और जब हाथ में नंगी तलवार लिए दारोगा पर उसकी निगाह पड़ी तो उसे और भी आश्चर्य हुआ। उसने बड़ी बेचैनी के साथ दारोगा की तरफ देखा और तब उससे पूछा, “मैं कहाँ पर हूँ और यह मकान किसका है?”
दारोगा : तुम मौत के पंजे में हो और यह मकान यमराज का है।
कैदी : (पुन: अच्छी तरह चारों तरफ देखकर) नहीं नहीं, मैं अच्छी तरह समझ गया कि यह घर आप ही का है, मगर आश्चर्य है कि आप मुझीं से दिल्लगी करते हैं!
दारोगा : इसमें दिल्लगी की क्या बात है? मान लो कि यह मेरा ही घर है मगर क्या तुम यह नहीं देखते कि मैं नंगी तलवार लिए तुम्हारा सर काटने को तैयार हूँ?
कैदी : हाँ देखता हूँ मगर यह मुझे कब विश्वास होने लगता है कि आप मेरे ही साथ ऐसा बर्ताव करेंगे!
दारोगा : मैं जरूर ऐसा करूँगा क्योंकि तुम्हारी बदौलत मैं बेतरह संकट में पड़ गया था।
कैदी : ठीक है लेकिन तब इससे यह जाहिर होता है कि तुम्हारी ही बदौलत इस समय मैं अपने को रस्सियों से जकड़ा हुआ देख रहा हूँ।
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दारोगा : बेशक् ऐसा ही है। मैंने ही तुम्हें गिरफ्तार कराया है, मैंने ही तुम्हारी मुश्कें कसवाई हैं, और मैं ही अब अपने हाथ से तुम्हारा सर काट हमेशा के लिए बेफिक्र हो जाना चाहता हूँ।
कैदी : (क्रोध में आकर) तो क्या तू मुझे मारेगा?
दारोगा : हाँ-हाँ, जरूर मारूँगा, कई दफे तो कह चुका अब कैसे कहूँ?
कैदी : अफसोस! मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी कि इस खुदगरज बेमुरौवत और दुष्ट भाई का साथ देने से मुझे यह दिन देखना नसीब होगा। अगर ऐसी खबर होती तो तुझ बेईमान को कई दफे गहरी आफतों से कदापि न बचाता और अपनी धन-दौलत तेरे हवाले करके तेरे घर का भिखमंगा न बन जाता। अफसोस, अफसोस, मैं यह नहीं जानता था कि भाई की सूरत में एक दुष्ट चांडाल की आत्मा बसी हुई है, मगर खैर, कोई चिंता नहीं, मैं ऐसा कमजोर भी नहीं हूँ कि इन पतली डोरियों से बेबस रहकर तेरे नापाक हाथों से मारा जाऊँगा!!

इतना कहते-कहते उस कैदी को जोश चढ़ आया। उस बहादुर ने झटका देकर हाथ-पैर की रस्सियाँ तोड़ डाली और ताल ठोंक कर दारोगा साहब के सामने खड़ा होकर बोला, “हाँ, देखें तो सही तू किस तरह मुझे मारता है। तेरे हाथ में तलवार है और मैं खाली हाथ तेरे सामने खड़ा हूँ। देखना तो यह है कि तू मुझे मारता है या मैं ही तेरा खून चूस कर इस बेइज्जती का बदला चुका लेता हूँ!”

