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bhootnath by devkinandan khatri

मेरे पिता ने तो मेरा नाम गदाधर सिंह रखा था और बहुत दिनों तक मैं इसी नाम से प्रसिद्ध भी था परन्तु समय पड़ने पर मैंने अपना नाम भूतनाथ रख लिया था और इस समय यही नाम बहुत प्रसिद्ध हो रहा है। आज मैं श्रीमान् महाराज सुरेन्द्रसिंह जी की आज्ञानुसार अपनी जीवनी लिखने बैठा हूँ, परन्तु मैं इस जीवनी को वास्तव में जीवनी के ढंग और नियम पर न लिख कर उपन्यास के ढंग पर लिखूँगा, क्योंकि यद्यपि लोगों का कथन यही है, “तेरी जीवनी से लोगों को नसीहत होगी” परन्तु ऐबों और भयानक घटनाओं से भरी हुई मेरी नीरस जीवनी कदाचित् लोगों को रुचिकर न हो, इस खयाल से जीवनी का रास्ता छोड़ इस लेख को उपन्यास के रूप में लाकर रस पैदा करना ही मुझे आवश्यक जान पड़ा, प्रेमी पाठक महाशय यही समझें कि किसी दूसरे ही आदमी ने भूतनाथ का हाल लिखा है, स्वयं भूतनाथ ने नहीं, अथवा इसका लेखक कोई और ही है।

जेठ का महीना और शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी का दिन है। यद्यपि रात पहर-भर से कुछ ज्यादा हो चुकी है और आँखों में ठंडक पहुँचाने वाले चन्द्रदेव भी दर्शन दे रहे हैं परन्तु दिन भर की धूप और लू की बदौलत गरम भई हुई जमीन, मकानों की छतें और दीवारें अभी तक अच्छी तरह ठंडी नहीं हुई, अब भी कभी-कभी सहारा दे देने वाले हवा के झपटे में गर्मी पड़ती है और बदन से पसीना निकल रहा है, बाग में सैर करने वाले शौकीनों को भी पंखे की जरूरत है, और जंगल में भटकने वाले मुसाफिरों को भी पेड़ों की आड़ बुरी मालूम पड़ती है।

ऐसे समय में मिर्जापर से बाईस कोस दक्खिन की तरफ हट कर छोटी-सी पहाड़ी के ऊपर जिस पर बड़े-बड़े घने पेड़ों की कमी तो नहीं है। मगर इस समय पत्तों की कमी के सबब से जिसकी खूबसूरती नष्ट हो गई है, एक पत्थर की चट्टान पर हम ढाल-तलवार तथा तीर-कमान लगाए हुए दो आदमियों को बैठे देखते हैं जिनमें से एक औरत और दूसरा मर्द है। औरत की उम्र चौदह या पन्द्रह वर्ष की होगी मगर मर्द की उम्र बीस वर्ष से कम मालूम नहीं होती। यद्यपि इन दोनों की पोशाक मामूली सादी और बिलकुल ही साधारण ढंग की है मगर सूरत-शक्ल से यही जान पड़ता है कि ये दोनों साधारण व्यक्ति नहीं हैं बल्कि किसी अमीर बहादुर और क्षत्रिय खानदान के होनहार हैं। जिस तरह मर्द चपकन, पायजामा, कमरबंद और मुड़ासे से अपनी सूरत मर्दाने ढंग की बना रखी है। यकायक सरसरी निगाह देख कर कोई यह नहीं कह सकता कि यह औरत है, मगर हम खूब जानते हैं कि यह कमसिन औरत नौजवान लड़की है जिसकी खूबसूरती मर्दानी पोशाक पहिरने पर ही यकताई का दावा करती है, मगर जिसकी शर्मीली आँखें कह देती हैं कि इसमें ढिठाई और दबंगता बिलकुल नहीं है, चेहरे पर गर्द पड़ी है, सुस्त होकर पत्थर की चट्टान पर बैठ गए हैं, तथा रात्रि का समय भी है, इसलिए यहाँ पर इन दोनों की खूबसूरती तथा नखशिख का वर्णन करके हम शृंगार रस पैदा करना उचित नहीं समझकर केवल इतना ही कह देना काफी समझते हैं कि ये दोनों सौ-दो सौ खूब सूरतों में खूबसूरत हैं। इन दोनों की अवस्था इनकी बातचीत से जानी जाएगी अस्तु आइए और छिपकर सुनिए कि इन दोनों में क्या बातें हो रही हैं।

औरत : वास्तव में हम लोग बहुत दूर निकल आए।

मर्द : अब हमें किसी का डर भी नहीं है।

औरत : है तो ऐसा ही परन्तु घोड़ों की तरफ से जरा-सा खुटका होता है, क्योंकि हम दोनों के मरे हुए घोड़े अगर कोई जान-पहिचान का आदमी देख लेगा तो जरूर इसी प्रांत में हम लोगों को खोजेगा।

मर्द : फिर भी कोई चिंता नहीं, क्योंकि उन घोड़ों को भी हम लोग कम-से-कम दो कोस पीछे छोड़ आए हैं।

औरत : बेचारे घोड़े अगर मर न जाते तो हम लोग और भी कुछ दूर आगे निकल गए होते।

मर्द : यह गर्मी का जमाना, इतने कड़ाके की धूप और इस तेजी के साथ इतना लंबा सफर करने पर भी घोड़े जिंदा रह जाएँ तो बड़े ताज्जुब की बात है!!

औरत : ठीक है, अच्छा यह बताइए कि अब हम लोगों को क्या करना होगा?

मर्द : इसके सिवाय और किसी बात की जरूरत नहीं है कि हम लोग किसी दूसरे राज्य की सरहद में जा पहुँचे। ऐसा हो जाने पर फिर हमें किसी का डर न रहेगा, क्योंकि हम लोग किसी का खून करके नहीं भागे हैं, न किसी की चोरी की है, और न किसी के साथ अन्याय या अधर्म करके भागे हैं, बल्कि एक अन्यायी हकीम के हाथ से अपना धर्म बचाने के लिए भागे हैं। ऐसी अवस्था में किसी न्यायी राजा के राज्य में पहुँच जाते ही हमारा कल्याण होगा।

औरत : निःसन्देह ऐसा ही है, फिर आपने क्या विचार किया, किसके राज्य में जाने का इरादा है?

मर्द : मुझे तो राजा सुरेन्द्रसिंह का राज्य बहुत ही पसन्द है, वह राजा धर्मात्मा और न्यायी है तथा उनका राज्य भी बहुत दूर नहीं है, यहाँ से केवल तीन ही चार कोस और आगे निकल चलने पर उनकी सरहद में पहुँच जाएँगे।

औरत : वाह वाह! तो इससे बढ़कर और क्या बात हो सकती है! आप यहाँ क्यों अटके हुए हैं? आगे बढ़ कर चलिए, जहाँ इतनी तकलीफ उठाई वहाँ थोड़ी ही सही।

मर्द : मैं भी इसी खयाल में हूँ मगर अपने नौकरों का इंतजार कर रहा हूँ क्योंकि उन्हें अपने से मिलने के लिए यही ठिकाना बताया हुआ है।

औरत : जब राजा सुरेन्द्रसिंह की सरहद इतनी नजदीक है और रास्ता आपका देखा हुआ है तो ऐसी अवस्था में यहाँ ठहरकर नौकरों का इंतजार करना मेरी राय में तो ठीक नहीं है।

मर्द : तुम्हारा कहना कठिन है और नौगढ़ का रास्ता भी मेरा देखा हुआ है परन्तु रात का समय है और इस तरफ का जंगल बहुत ही घना और भयानक है तथा रास्ता भी पथरीला और पेचीदा है, संभव है कि रास्ता भूल जाऊँ और किसी दूसरी ही तरफ जा निकलूँ। यदि मैं अकेला होता तो कोई गम न था मगर तुमको साथ लेकर रात्रि के समय भयानक जानवरों से भरे हुए ऐसे घने जंगल में घुसना उचित नहीं जान पड़ता। मगर देखो तो सही (गर्दन उठाकर और गौर से नीचे की तरफ देखकर) वे शायद हमारे ही आदमी तो आ रहे हैं! मगर गिनती में कम मालूम होते हैं।

औरत : (गौर से देख कर) ये तो केवल तीन ही चार आदमी हैं, शायद कोई और हों।

मर्द : देखो ये लोग भी इसी पहाड़ी के ऊपर चले आ रहे हैं, अगर ये कोई और हैं तो यहाँ आकर तुम्हें देख लेना अच्छा न होगा! इसलिए मैं जरा आगे बढ़कर देखता हूँ कि कौन हैं।

इतना कहकर वह नौजवान उठ खड़ा हुआ और उसी तरफ बढ़ा जिधर से वे लोग आ रहे थे। कुछ ही दूर आगे बढ़ने और पहाड़ी से नीचे उतरने पर उन लोगों का सामना हो गया। यद्यपि रात का समय था और केवल चाँदनी ही का सहारा था, तथापि सामना होते ही एक ने दूसरे को पहचान लिया। हमारे नौजवान को मालूम हो गया कि ये हमारे दुश्मन के आदमी हैं और उन लोगों को निश्चय हो गया कि हमारे मालिक को इसी नौजवान के गिरफ्तारी की जरूरत है।

ये लोग जो दूर से गिनती में तीन-चार मालूम पड़ते थे वास्तव में छ: आदमी थे जो हर तरह से मजबूत और लड़ाई के दुरुस्त थे। ढाल-तलवार के अलावे सभों के कमर में खंजर और हाथ में नेजा था, उन सभों में से एक ने आगे बढ़कर नौजवान से कहा, “बड़ी खुशी की बात है कि आप स्वयम् हम लोगों के सामने चले आए। कल से हम लोग आपकी खोज में परेशान हो रहे हैं बल्कि सच तो यों है कि ईश्वर ही ने हम लोगों को यहाँ तक पहुँचा दिया और यहाँ आपका सामना हो गया। क्षमा कीजिएगा, आप हमारे अफसर और हाकिम रह चुके हैं इसलिए हम लोग आपके साथ बेअदबी नहीं करना चाहते मगर क्या करें मालिक के हुक्म से लाचार हैं, जिसका नमक खाते हैं। इस बात को हम लोग खूब जानते हैं कि आप बिलकुल बेकसूर हैं और आप पर व्यर्थ ही जुल्म किया जा रहा है, परन्तु…

नौजवान : ठीक है, ठीक है, मेरे प्यारे गुलाबसिंह! मैं तुम्हें अभी तक वैसा ही समझता हूँ और प्यार करता हूँ क्योंकि तुम वास्तव में नेक हो और मुझसे मुहब्बत रखते हो। तुम बेशक मुझे गिरफ्तार करने के लिए आये हो और मालिक के नमक का हक अदा किया चाहते हो, अस्तु मैं खुशी से तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि तुम मुझे गिरफ्तार करके अपने मालिक के पास ले चलो, परन्तु क्षत्रियों का धर्म निबाहने के लिए मैं गिरफ्तार न होकर तुमसे लड़ाई अवश्य करूँगा, इसी तरह तुम्हें भी मेरा मुलाहिजा न करना चाहिए।

गुलाबसिंह : ठीक है, बेशक् ऐसा ही चाहिए, परन्तु (कुछ सोच कर) मेरा हाथ आपके ऊपर कदापि न उठेगा! मुझे अपने जालिम मालिक की तरफ से बदनामी उठाना मंजूर है परन्तु आप ऐसे बहादुर और धर्मात्मा के आगे लज्जित होना स्वीकार नहीं है। हाँ मैं अपने साथियों को ऐसा करने के लिए मजबूर न करूँगा, ये लोग जो चाहें करें।

यह सुनते ही गुलाबसिंह के साथियों में से एक आदमी बोल उठा, “नहीं नहीं, कदापि नहीं, हम लोग आपके विरुद्ध कोई काम नहीं कर सकते और आपकी ही आज्ञा पालन अपना धर्म समझते हैं। सज्जनों और धर्मात्माओं की आज्ञा पालने का नतीजा कभी बुरा नहीं होता!”

इसके साथ ही गुलाबसिंह के बाकी साथी भी बोल उठे, “बेशक् ऐसा ही है, बेशक् ऐसा ही है!”

गुलाबसिंह : (प्रसन्नता से) ईश्वर की कृपा है कि मेरे साथी लोग भी मेरी इच्छानुसार चलने के लिए तैयार हैं। (नौजवान से) अब आप ही आज्ञा कीजिए कि हम लोग क्या करें? क्योंकि अब भी मैं अपने को आपका दास ही समझता हूँ।

नौजवान : मेरे प्यारे गुलाबसिंह, शाबाश! इसमें सन्देह नहीं कि तुम्हारे ऐसे नेक और बहादुर आदमी का साथ बड़े भाग्य से होता है। मैं तुम्हें अपने आधीन पाकर बहुत ही प्रसन्न था और अब भी ही इच्छा रहती है कि ईश्वर तुम्हें मेरा साथी बनाये, मगर क्या करूँ, लाचार हूँ, क्योंकि आज मेरा वह समय नहीं है। आज मुसीबत के फंदे में फँस जाने से मैं इस योग्य नहीं रहा कि तुम्हारे ऐसे बहादुरों का साथ…(लंबी साँस लेकर) अस्तु ईश्वर की मर्जी, जो कुछ वह करता है अच्छा ही करता है, कदाचित् इसमें भी मेरी कुछ भलाई ही होगी। (कुछ सोच कर) मैं तुम्हें क्या बताऊँ कि क्या करो? तुम्हारे मालिक ने बेशक् धोखा खाया कि मेरी गिरफ्तारी के लिए तुम्हें भेजा, इतने दिनों तक साथ रहने पर भी उसने तुम्हें और मुझे नहीं पहिचाना। मुझे इस समय कुछ भी नहीं सूझता कि तुम्हें क्या नसीहत करूँ और किस तरह उस दुष्ट का नमक खाने से तुम्हें रोकूँ!

गुलाबसिंह : (कुछ सोच कर) खैर कोई चिंता नहीं, जो होगा देखा जाएगा। इस समय मैं आपका साथ कदापि न छोड़ूँगा और इस मुसीबत में आपको अकेले भी न रहने दूंगा, जो कुछ आप पर बीतेगी उसे मैं भी सहूँगा। (अपने साथियों से) भाइयों, अब तुम लोग जहाँ चाहे जाओ और जो मुनासिब समझो करो, मैं तो आज इनके दुःख-सुख का साथी बनता हूँ। यद्यपि ये (नौजवान) उम्र में मुझसे बहुत छोटा है परन्तु मैं इन्हें अपना पिता समझता हूँ और पिता ही की तरह इन्हें मानता हूँ, अस्तु जो कुछ पुत्र का धर्म है मैं उसे निबाहूँगा। मैं इनको गिरफ्तार करने की आशा पाकर बहुत प्रसन्न था और यही सोचे हुए था कि इस बहाने से इन्हें ढूँढ़ निकालूँगा और सामना होने पर इनकी सेवा स्वीकार करूँगा।

गुलाबसिंह की बातें सुनकर उसके साथियों ने जवाब दिया, “ठीक है, जो कुछ उचित था आपने किया परन्तु आप हम लोगों का तिरस्कार क्यों कर रहे हैं? क्या हम लोग आपकी सेवा करने योग्य नहीं हैं? या हम लोगों को आप बेईमान समझते हैं?”

गुलाबसिंह : नहीं-नहीं, ऐसा कदापि नहीं है, मगर बात यह है कि जो कोई मुसीबत में पड़ा हो उसका साथ देने वाले को भी मुसीबत झेलनी पड़ती है, अस्तु मुझ पर तो जो कुछ बीतेगी उसे झेल लूँगा, तुम लोगों को जान-बूझकर क्यों मुसीबत में डालूँ! इसी खयाल से कहता हूँ कि जहाँ जी में आवे जाओ और जो कुछ मुनासिब समझो करो।

गुलाबसिंह के साथी : नहीं-नहीं, ऐसा कदापि न होगा और हम लोग आपका साथ कभी न छोड़ेंगे। आप आज्ञा दें कि अब हम लोग क्या करें।

गुलाबसिंह : (कुछ सोच कर) अच्छा, अगर तुम लोग हमारा साथ देना ही चाहते हो तो जो कुछ हम चाहते हैं उसे करो। यहाँ से इसी समय चले जाओ। (नौजवान की तरफ बता कर) इनके मकान में जिसे राजा साहब ने जब्त कर लिया है रात के समय जिस तरह संभव हो घुसकर जहाँ तक दौलत हाथ लगे और उठा सको निकाल कर ले आओ और पिपलिया घाटी में जहाँ का पता तुम लोगों को मालूम है हमसे मिलो, अगर वहाँ, हमसे मुलाकात न हो तो टिक कर हमारा इंतजार करो।

गुलाबसिंह की बात सुनकर उसके साथियों ने “जो आज्ञा” कह कर सलाम किया और वहाँ से चले गए। उनके जाने के बाद गुलाबसिंह ने नौजवान से कहा, “इस समय इन लोगों को विदा कर देना ही मैंने उचित जाना। यद्यपि ये लोग मेरे साथ रहने में प्रसन्नता प्रकट करते हैं परन्तु कुछ टेढ़ा काम लेकर जाँच कर लेना जरूरी है।”

नौजवान : ठीक है तुम्हारे ऐसे होशियार आदमी के लिए यह कोई नई बात नहीं है।

गुलाबसिंह : अच्छा अब यह बताइए कि आपको मुझ पर विश्वास है या नहीं? या इस विषय में आपको कुछ जाँच करने की आवश्यकता है?

नौजवान : नहीं-नहीं, मुझे कुछ जाँच करने की जरूरत नहीं है, मुझे तुम पर पूरा-पूरा विश्वास और भरोसा है, मैं तुमसे मिल कर बहुत ही प्रसन्न हुआ, ऐसी अवस्था में यकायक सामना हो जाने पर मुझे किसी तरह का खुटका नहीं हुआ था।

गुलाबसिंह : ईश्वर आपका मंगल करे, अब कृपा कर यह बताइए कि आप मुझे अकेले क्यों दिखाई देते हैं और अब आपका इरादा क्या है?

नौजवान : मैं अकेला नहीं हूँ, मेरी स्त्री भी मेरे साथ है (हाथ का इशारा करके) इस पहाड़ी के ऊपर उसे अकेला छोड़ आया हूँ। हम दोनों आदमी वहाँ बैठे अपने नौकरों का इंतजार कर रहे थे कि यकायक तुम लोगों पर निगाह पड़ी, अस्तु उसे उसी जगह छोड़ कर तुम लोगों का पता लगाने के लिए मैं नीचे उतर आया था, अब तुम मेरे साथ वहाँ चलो और उससे मिलो, वह तुम्हें देखकर बहुत ही प्रसन्न होगी। इस आफत में भी वह तुम्हें बराबर याद करती रही।

गुलाबसिंह : चलिए, शीघ्र चलिए।

गुलाबसिंह को साथ लेकर नौजवान उस तरफ रवाना हुआ जहाँ अपनी स्त्री को अकेला छोड़ आया था।

गुलाबसिंह क्षत्री खानदान का एक बहादुर और ताकतवर आदमी था, वह बहुत ही नेक, रहमदिल और धर्म का सच्चा पक्षपाती था, साथ-ही-साथ वह बदमाशों की चालबाजियों को खूब समझता था और अच्छे लोगों में से बेईमानों और दगाबाजों को छाँट निकालने में भी विचित्र कारीगर था। वह उस नौजवान और उसकी स्त्री से सच्ची मुहब्बत और हमदर्दी रखता था, जिसका बहुत बड़ा सबब यह था कि उस स्त्री के पिता ने बहुत संकट के समय में गुलाबसिंह की सच्ची सहायता की थी और गुलाबसिंह को लड़के की तरह मानता था।

इस जगह पर हम इस नौजवान और इसकी सुशीला स्त्री का नाम खोल देना उचित समझते हैं। मगर इस बात को अभी न खोलेंगे कि दोनों कौन हैं और इनके इस तरह बेसरोसामान भागने का सबब क्या है।

नौजवान का नाम प्रभाकर सिंह और स्त्री का नाम इंदुमति। प्रभाकर सिंह की शादी इंदुमति के साथ भये हुए आज एक वर्ष और सात महीने हो चुके हैं।

प्रभाकर सिंह और गुलाबसिंह बातचीत करते हुए इंदुमति की तरफ रवाना हुए और बहुत जल्द वहाँ जा पहुँचे इंदुमति चिंता-निमग्न बैठी हुई अपने पति का इंतजार कर रही थी। पति को देखकर वह प्रसन्नता के साथ उठ बैठी और जब उसने गुलाबसिंह को पहिचाना तो बहुत खुश होकर बोली-

इंदुमति : मैं पहिले ही कहती थी कि गुलाबसिंह को हम लोगों के विषय में बड़ी चिंता होगी और वे जरूर हमारी सुध लेंगे।

गुलाबसिंह : बेशक् ऐसा ही है। इसीलिए जिस समय राजा साहब ने आप लोगों की गिरफ्तारी का काम मेरे सुपुर्द किया तो मैं बहुत ही प्रसन्न हुआ और…

गुलाबसिंह अपनी बात पूरी न करने पाये थे कि लगभग चालीस-पचास गज की दूरी पर से सीटी बजने की आवाज आई जिसे सुनते ही तीनों चौंक पड़े और उसी तरफ देखने लगे। बेचारी इंदु को दुश्मन का खयाल आया गया और वह डरी हुई आवाज में बोली, “यहाँ तक भाग आने पर भी हम लोगों का खुटका न गया, इसी से मैं कहती थी कि जहाँ तक जल्द हो सके नौगढ़ की सरहद में हमें पहुँच जाना चाहिए!”

गुलाबसिंह : (इंदु से) डरो मत, हम दोनों क्षत्रियों के रहते किसकी मजाल है कि तुम्हें किसी तरह की तकलीफ पहुँचा सके। इसके अतिरिक्त इस बात को भी समझा रखो कि आज दिन सिवाय उस बेईमान राजा के और कोई तुम्हारा दुश्मन नहीं है और उसकी तरफ से इस काम के लिए मैं ही भेजा गया हूँ, ऐसी अवस्था में किसी वास्तविक दुश्मन का ध्यान लगाना वृथा है, हाँ चोर-डाकू में से यदि कोई हो तो मैं कह सकता।

इंदुमति : खैर पेड़ों की आड़ में तो हो जाइए।

गुलाबसिंह : हाँ इसके लिए कोई हर्ज नहीं।

इतने ही में पुन: सीटी की आवाज आई, मगर अबकी दफे की आवाज कुछ अजीब ढंग की थी। मालूम न होता था कि कोई बँधे हुए इशारे के साथ झिरनी को आवाज देकर सीटी बुला रहा है। इस आवाज को सुनकर गुलाबसिंह हँस पड़ा और इंदु तथा प्रभाकर सिंह की तरफ देख के बोला, “बस मालूम हो गया, डरने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि यह मेरे एक दोस्त की बजाई हुई सीटी है, मैं अभी जरूरी बातों से छुट्टी पाकर थोड़ी ही देर में आप लोगों से कहने वाला था कि यहाँ मेरे एक दोस्त का मकान है जिससे मिलकर आप बहुत प्रसन्न होंगे, और उनसे आपको सहायता भी पूरी-पूरी मिल सकती है। मैं अब इस सीटी का जवाब देता हूँ। बहुत अच्छा जो अकस्मात् वे खुद यहाँ आ पहुंचे। मालूम होता है कि मेरा यहाँ आना उन्हें मालूम हो गया!”

इतना कहकर गुलाबसिंह ने भी कुछ अजीब ढंग की सीटी बजाई अर्थात् उस सीटी का जवाब दिया।

प्रभाकर सिंह : भला अपने इस अनूठे दोस्त का नाम तो बता दो?

गुलाबसिंह : आजकल इन्होंने अपना नाम भूतनाथ रख छोड़ा है।

प्रभाकर सिंह : (कुछ सोच कर) यह नाम तो कई दफे मेरे कानों में पड़ चुका है और एक दफे ऐसा भी सुन चुका हूँ कि इस नाम का एक आदमी बड़ा ही भयानक है जिसके रहन-सहन का किसी को कुछ पता नहीं चलता।

गुलाबसिंह : ठीक है, आपने ऐसा ही सुना होगा, परन्तु यह केवल दुष्टों और पापियों के लिए भयानक है।

गुलाबसिंह इससे ज्यादा कुछ कहने न पाया था कि सीटी बजाने वाला अर्थात् भूतनाथ वहाँ आ पहुँचा। प्रभाकर सिंह को सलाम करने के बाद भूतनाथ गुलाबसिंह के गले मिला और इसके बाद चारों आदमी पत्थर की चट्टानों पर बैठकर इस तरह बातचीत करने लगे:-

गुलाबसिंह : (भूतनाथ से) यहाँ यकायक आपका इस तरह आ पहुँचना बड़े आश्चर्य की बात है!!

भूतनाथ : आश्चर्य काहे का है! यहाँ तो मेरा ठिकाना ही ठहरा, या यों कहिए कि यह दिन-रात का मेरा रास्ता ही है।

गुलाबसिंह : ठीक है, मगर फिर भी आपका घर यहाँ से आधे घंटे की दूरी पर होगा ऐसी अवस्था में क्या जरूरी है कि आप दिन-रात इसी पहाड़ी पर दिखाई दें?

भूतनाथ : (हँसकर) हाँ सो तो सच है, मगर आप जो यहाँ आ पहुँचे तो फिर क्या किया जाय, आखिर मुलाकात करना भी तो जरूरी ठहरा!

गुलाबसिंह : (हँसी के साथ) बस तो सीधे यही क्यों नहीं कहते कि मेरा यहाँ आना आपको मालूम हो गया।

भूतनाथ : बेशक् आपका आना मुझे मालूम हो गया बल्कि और भी कई बातें मालूम हुई हैं जिनसे आप लोगों को होशियार कर देना जरूरी है। (प्रभाकर सिंह की तरफ देख कर) अभी तक दुश्मनों से आपका पीछा नहीं छूटा, खाली गुलाबसिंह ही आपकी गिरफ्तारी के लिए नहीं भेजे गये बल्कि इनको भेजने के बाद आपके राजा साहब ने और भी बहुत से आदमी आप लोगों को पकड़ने के लिये भेजे जो इस समय इस पहाड़ी के इधर-उधर आ गये हैं और आपके आदमियों को भी उन लोगों ने गिरफ्तार कर लिया है जिनका शायद आप इंतजार करते होंगे।

प्रभाकर सिंह : (ताज्जुब में आकर) आपकी जुबानी बहुत-सी बातें मालूम हुईं! मुझे इन सबकी कुछ भी खबर न थी। आप तो इस तरह बयान कर रहे हैं जैसे कोई जादूगर आइने के अन्दर जमाने भर की हालत देख-देख कर सभा में बयान करता हो!

गुलाबसिंह : यही तो इनमें एक अनूठी बात है जिससे बड़े-बड़े नामी ऐयार दंग रहा करते हैं। इनसे किसी भेद का छिपा रहना बहुत ही कठिन है। (भूतनाथ से) अच्छा तो मेरे प्यारे दोस्त, मैं प्रभाकर सिंह और इंदुमति को आपके सुपुर्द करता हूँ। जिससे इनका कल्याण हो सो कीजिए। यह बात आपसे छिपी हुई नहीं है कि में इन्हें कैसा मानता हूँ।

भूतनाथ : मैं सब जानता हूँ और इसीलिए यहाँ आया भी हूँ, परन्तु अब विशेष बातचीत करने का मौका नहीं, आप ठहरिए और मेरे पीछे आइए।

प्रभाकर सिंह : (उठते हुए) मुझे अपने लिए कुछ भी फिक्र नहीं है, केवल बेचारी इंदु के लिए मुझे नामों की तरह भागने की और अदने-अदने आदमियों से छिपकर चलने…

भूतनाथ : (बात काटकर) मैं खूब जानता हूँ, मगर क्या कीजिएगा, समय पर सब कुछ करना पड़ता है, आँख रहते भी टटोलना पड़ता है!

सब कोई उठकर भूतनाथ के पीछे-पीछे रवाना हुए।

जो कुछ हाल हम ऊपर बयान कर चुके हैं इसमें कई घंटे गुजर गये।

पिछले पहर की रात बीत रही है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है, इन चारों के पैरों के तले दबने वाले सूखे पत्तों की चरमराहट के सिवाय और किसी तरह की आवाज सुनाई नहीं देती। भूतनाथ इन तीनों को साथ लिए हुए एक अनूठे और अनजान रास्ते से बात-की-बात में पहाड़ी के नीचे उतर आया और इसके बाद दक्षिण की तरफ जाने लगा। जंगल-ही-जंगल लगभग आधा कोस के जाने के बाद ये लोग पुन: एक पहाड़ के नीचे पहुंचे। इस जगह का जंगल बहुत ही घना तथा रास्ता घूमघुमौवा और पथरीला था। भूतनाथ इस तरह घूमता और चक्कर देता हुआ पेचीली पगडंडियों पर जाने लगा कि कोई अनजान आदमी उसकी नकल नहीं कर सकता था, अथवा यों समझना चाहिए कि एक-दो दफे का जानकार आदमी भी धोखे में आकर भटक सकता था, किसी अनजान का जाना तो बहुत ही कठिन बात है।

कुछ ऊपर चढ़ने के बाद घूमता-फिरता भूतनाथ एक ऐसी जगह पहुँचा जहाँ पत्थरों के बड़े-बड़े ढोकों के अन्दर छिपी हुई एक गुफा थी। इन तीनों के लिए हुए भूतनाथ उस गुफा के अन्दर घुसा। आगे-आगे भूतनाथ, उसके पीछे गुलाबसिंह, उसके बाद इंदुमति और सबसे पीछे प्रभाकर सिंह जाने लगे। कुछ दूर गुफा के अन्दर जाने के बाद भूतनाथ ने अपने ऐयारी के बटुए में से समान निकाल कर मोमबत्ती जलाई और उसकी रोशनी के सहारे अपने साथियों को ले जाने लगा। लगभग पचीस गज के जाने के बाद एक चौमुहानी मिली अर्थात् जहाँ से एक रास्ता सीधी तरफ चला गया था, दूसरा बाईं तरफ, और तीसरी सुरंग दाहिनी तरफ चली गई थी, तथा चौथा रास्ता वह था जिधर से ये लोग आये थे। यहाँ तक तो रास्ता खुलासा था मगर आने का रास्ता बहुत ही बारीक और तंग था जिसमें दो आदमी बराबर से मिलकर नहीं चल सकते थे।

यहाँ पर आकर भूतनाथ अटक गया और मोमबत्ती की रोशनी में आगे की दोनों सुरंगों को बताकर अपने साथियों से बोला, “हमारे मकान में जाने वाले को इस दाहिनी तरफ वाली सुरंग में घुसना चाहिए। सामने अथवा बाईं तरफ वाली सुरंग में जाने वाला किसी तरह जीता नहीं बच सकता है।”

इतना कहकर भूतनाथ दाहिनी तरफ वाली सुरंग में घुसा और कुछ दूर जाने के बाद उसने मोमबत्ती बुझा दी।

लगभग दो सौ कदम चले जाने के बाद यह सुरंग खतम हुई और उसका दूसरा मुहाना नजर आया। सबके पहले भूतनाथ सुरंग से बाहर हुआ, उसके बाद गुलाबसिंह और उसके पीछे इंदुमति रवाना हुई, मगर प्रभाकर सिंह न निकले तीन आदमी घूम कर उनका इंतजार करने लगे कि शायद पीछे रह गए हों मगर कुछ देर इंतजार करने पर भी वे नजर न आये। इंदुमति का कलेजा उछलने लगा, उसकी दाहिनी भुजा फड़क उठी और आँखों में आँसू डबडबा आये। भूतनाथ ने इंदुमति और गुलाबसिंह को कहा, “तुम जरा इसी जगह दम लो, मैं सुरंग में घुस कर प्रभाकर सिंह का पता लगाता हूँ।” इतना कहकर भूतनाथ पुन: उसी सुरंग में घुस गया।

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