उस दिन बेबस आंखों वाली, मरियल सी दिखती उस गैया मैया ने अस्पताल के संक्रमित कचरे से कुछ खा लिया था। देखते ही देखते वह लुढ़क कर पछाड़ खाने लगी। तीन घंटे के भीतर उसके सींगों की मार से धरती में बन गए गडढे उसकी दास्तान बयां कर रहे थे। अथक किन्तु निरर्थक प्रयास करती, उभरी पसलियों वाली उस जर्जर देह के मुंह से निकलते झाग और उठती हूक गुजरते राहगीरों को रोकती थी।
आखिर एक राहगीर का दिल पसीज ही गया। इंसानों के इस अस्पताल से जानवरों के अस्पताल की दूरी मात्र चार किलोमीटर ही थी लेकिन गाड़ी तो चाहिए थी, गाड़ी को अस्पताल से आना था। फोन घुमाया जानवरों के अस्पताल में। डॉक्टर का जवाब। ‘अच्छा मजाक करते हो? इंसानों के लिए तो एंबुलेंस समय पर मिलती नहीं और आप हैं कि एक गाय के लिए गाड़ी भेजने की बात कर रहे हैं जैसे कोई वीआईपी दम तोड़ रहा है। ‘अरे भाई…! जानवर को खुद ही लाना पड़ता है यहां। फोन फिर घनघनाया। ‘अच्छा-अच्छा कुछ करता हूं। मैं नगर निगम वालों को कहे देता हूं। उनकी गाड़ी पहुंचा देगी उसे यहां।
घंटी नगर निगम कार्यालय में बज-बजा रही थी ‘अजी डॉक्टर साब, नगर निगम की गाड़ी क्या जानवरों को अस्पताल पहुंचाने के लिए होती है? वह होती है दम तोड़ चुके लावारिस जानवरों को ठिकाने लगाने के लिए। जिन्दा जानवरों को अस्पताल पहुंचाने लगे तो हो गई कमाई? ‘सुनो भाई! रिसीवर मत रखो। मैं तुम्हें पचास रुपये दे दूंगा अपने पास से। गाय को तुरन्त पहुंचा दो। उसे फूड पॉयजनिंग हो गई है शायद। डॉक्टर कह रहा था।
‘अच्छा ठीक है। डॉक्टर साब। इस गाय के बारे में अब कोई फोन मत करना। ठेकेदार को भनक लग गई तो तुम्हारा तो कुछ नहीं जाएगा मेरी कमाई पर ग्रहण लग जाएगा। नगर निगम का कर्मचारी अपने धंधे की गहनता समझाते हुए बोला। ‘ठीक है, पर तुम अपना नाम- डॉक्टर पूछता, कर्मचारी ने फोन पटक दिया।
दोपहर के बारह बजते-बजते डॉक्टर ने सुबह से तड़प रही गैया मैया को अस्पताल लाने के लिए उस कर्मचारी को राजी कर लिया था। जेठ की दुपहरी और चिलचिलाती धूप में पानी की एक बूंद को तरसती, तड़पती उस गाय को प्रशासन की इस व्यवस्था से क्या लेना देना? सो तीन बजते-बजते उसकी आंखे बंद होने लगीं।
शाम के चार बजे गाय के पास आकर रूके नगर निगम के ट्रक से एक नीली वर्दी वाला कर्मचारी उतरा। ओफ ओ, गाय तो अभी जिन्दा है। सोचकर वह बेहद सहज भाव से सड़क के एक ओर मुड़ लिया। दस मिनट में किसी प्लॉट पर ईंटे छोड़कर आए खाली ठेला लेकर जाते हुए मजदूर से ‘ले पच्चीस रुपये, थोड़ी देर में आकर ठेला ले जाइयो कहते हुए वह बोला। जब फायदा हजारों में होने वाला हो तो पच्चीस रुपये की क्या बिसात? पर फिलहाल फायदा होने मेें देरी थी। सो ट्रक के पहिए के पास टेक लगाए जमीन झाड़कर बैठ गया। गाय अभी जिन्दा थी। ‘गाय तड़प रही है। इसे अस्पताल ले क्यों नहीं जाते। गाड़ी किसलिए लाए हो? कोई कह रहा था। कर्मचारी के सिर में जुएं उसका सिर छोड़कर कानों पर रेंगने को तैयार नहीं थी। उसने अपना कान साफ किया और मुंह ढक कर सो गया।
‘पांच बजे उसकी डयूटी भी समाप्त होने को ही थी। पांच बजने से आधे घंटे पहले ही उसने अपनी वर्दी उतारी और गाड़ी में रखी और दूसरी गलीच सी कमीज़ पहन ली। बस थोड़ी ही देर में… साल भर की कमाई एक दिन में…। वह सोच रहा था अस्पताल ठीक हो भी गई तो कल फिर किसी कचरे के ढेर पर मंडराती फिरेगी। डॉक्टर देगा पचास रुपये। और ठेकेदार देगा बस कमीशन। असली फायदा तो ठेकेदार खुद ले लेगा, इसलिए अब सीधे ही ठेले में लादकर दे आऊंगा चमड़ा फैक्टरी में। पास ही तो है। सोचते सोचते वह कब सो गया पता नहीं।
अनायास पांच बजे फैक्टरी का सायरन। इधर-उधर झांका। कोई नहीं था वहां। ट्रक की आड़ में उसने झांका। गाय अब नहीं हिल रही थी। वह उछला। ये हुई न बात। साली ने बहुत देर लगा दी मरने में। एक झटके में वह खड़ा हुआ। भगवान जब देता है छप्पर फाड़ कर। वही मोची ठीक रहेगा जिसे पिछले साल एक मरी गाय सौंप कर आया था। क्या बढिय़ा कमाई हुई थी। इस बार घरवाली से बिरयानी पकाने को कहूंगा और इसी सामने वाले शोरूम में जो साड़ी दिख रही है न, कल ही उसे लांऊगा और कहूंगा, ले पंसद कर ले, साड़ी, जो तुझे चाहिए हो।
साढ़े पांच… भैया मदद करना… जोर लगाकर हाईशा…। पास खड़े ठेले पर गैया मैया लादी जा चुकी थी। मजदूर हैरान। काफी हद तक परेशान भी। ‘चल खींच भाई, थोड़ा ऊपर को। मैं भी बहुत थक गया हूं। अपने कोरों की कीचड़ पोंछता गाय की लाश के पास ही जगह बनाकर खुद भी उस ईटों वाले ठेले पर गाय की टेक लगाकर नगर निगम का वह कर्मचारी पसर गया। सांझ ढल चुकी थी। नगर निगम का ट्रक, जानवरों का अस्पताल सब कुछ गाय की नियति की तरह पीछे छूट चुका था। मजदूर ने ठेला खींचते मुड़कर देखा। ठेले पर दो लाशें लदी थी। कहीं कोई अन्तर नहीं। पर कभी न समाप्त होने वाली गैया मैया की गाथा अभी भी ठेले के कोने में दुबकी कुनकुना रही थी- जै गैया मैया।
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