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bhootnath by devkinandan khatri

रामेश्वरचंद्र की दुकान की तरफ जाते-जाते रास्ते में भूतनाथ ने सोचा, “मैं रामेश्वरचंद्र से मिलने के लिए जाता तो हूँ परन्तु यदि मैं अपना परिचय न दूँ और जैपालही बना हुआ उससे मिलूँ तो क्या वह मुझसे सीधा-सादा और रूखा बर्ताव करेगा या दारोगा का दोस्त समझ कर डरेगा और खातिरदारी से मिलेगा? अथवा मुझे फँसाने की फिक्र करेगा? वह क्या करेगा इस बात को देखना चाहिए और कुछ देर तक जैपाल ही बने रहकर और जैपाल ही के ढंग पर बातचीत करके जाँचना चाहिए कि वह कैसा बर्ताव करता है।” ।

भूतनाथ नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

इन्हीं सब बातों को सोचता हुआ भूतनाथ रामेश्वरचंद्र की दुकान पर जा पहुँचा और जब उससे मुलाकात हुई तो जिस तरह पढ़े-लिखे दुकानदार लोग ग्राहकों की खातिरदारी करते हैं उसी तरह खातिरदारी के साथ वह नकली जैपाल को दुकान के अन्दर ले गया और अपने एकांत वाले बैठने के कमरे में ले जाकर कुर्सी पर बैठा के बातचीत करने लगा।

रामेश्वरचंद्र : कहिए, मिजाज तो अच्छे हैं?

जैपाल सिंह : ईश्वर की कृपा से मैं बहुत अच्छा हूँ। (मुसकुराकर) आप अपनी दुकान का हाल कहिए, दिनोंदिन तरक्की तो हो रही है न?

रामेश्वरचंद्र : आप लोगों की कृपा रहेगी तो तरक्की में सन्देह ही क्या है? अभी तो यहाँ मुझे आठ पहर भी नहीं बीते हैं मगर फिर भी मैं यह जरूर कहूँगा कि आप और दारोगा साहब किस्मतवर हैं क्योंकि आने के साथ ही एक अनूठा शिकार हाथ लगा।

जैपाल सिंह : (ताज्जुब और प्रसन्नता की सूरत बनाकर) हाँ! किसको फाँसा सो तो कहो?

रामेश्वरचंद्र : यहाँ आकर हम लोगों ने असली रामेश्वर को खूब ही धोखा दिया और उसे फँसा लेने के बाद खुद रामेश्वरचंद्र बनकर इस दुकान पर कब्जा कर लिया। उसने नौकरों को अभी तक इस बात की कुछ खबर नहीं लगी।

इसके बाद रात को तीन बजे भैया राजा यहाँ आये। मालूम होता है कि उन्होंने गदाधरसिंह और रामेश्वरचंद्र से यहाँ आकर मिलने का वादा किया था। खैर, वे तो हमारी तरफ से बेफिक्र ही थे इसलिए सहज ही में फँस गये। कुछ खिला-पिला कर हमने उन्हें बेहोश कर दिया और गिरफ्तार कर लिया।

जैपाल सिंह : शाबाश-शाबाश, यह बड़ा ही काम हुआ। इस समय वे दोनों कहाँ हैं?

रामेश्वरचंद्र : इसी मकान में हैं। नीचे के तहखाने में मैंने उन्हें बंद कर रखा है, अब इस फिक्र में हूँ कि किसी तरह मौका देखकर उन्हें दारोगा साहब के घर पहुँचाया जाये और यहाँ के आदमियों को किसी तरह का गुमान न होने पावे।

जैपाल सिंह : ?ठीक है, तो इस काम को मैं अपने हाथ से करूँगा। रात को मैं कुछ आदमियों के साथ लेकर सौदा खरीदने के बहाने यहाँ आऊँगा और यह काम बड़ी खूबसूरती के साथ कर दूंगा, तब तक उनकी हिफाजत करो।

नकली जैपालअर्थात् भूतनाथ का तो यहाँ की अवस्था जान कर कलेजा हिल गया। यह तो सिर्फ इत्तिफाक की बात थी कि नकली रामेश्वरचंद्र ने भूतनाथ को असली जैपाल समझकर सब हाल कह दिया नहीं तो बड़ा ही बुरा होता और धोखे में पड़ कर स्वयं भूतनाथ भी शायद गिरफ्तार हो जाता मगर खैरियत गुजरी कि ऐसा नहीं होने पाया। असली रामेश्वरचंद्र वास्तव में भूतनाथ का शागिर्द है और जितने आदमी दुकान के मुखिया हैं सभी भूतनाथ और भैया राजा के शागिर्द और नौकर हैं।

भैया राजा ने इन्द्रदेव की मदद से और भूतनाथ के भरोसे पर यह ऐयारी की दुकान कायम की थी और नि:सन्देह इस दुकान के जरिए ये लोग बड़े-बड़े अनूठे काम कर गुजरते मगर दारोगा के ऐयारों ने इनके काम में बाधा डाल दी जिससे भूतनाथ को बड़ा ही कष्ट हुआ और वह सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए। बहूरानी को छुड़ाने की फिक्र करते-करते भैया राजा से भी हाथ धो बैठे।

अब किस तरकीब से इन सभों को छुड़ाया जाये? अगर खुल्लमखुल्ला नकली रामेश्वर से भिड़ जायें तो यह दुकानदारी चौपट हो जाएगी और फिर इस दुकान के जरिए से कुछ भी काम न निकलेगा।

दुकानदारी तो सब चौपट हो ही जाएगी बल्कि चौपट हो गई क्योंकि दारोगा के ऐयारों को मालूम हो ही गया होगा कि यह जाल वास्तव में गदाधरसिंह का फैलाया हुआ है परन्तु फिर भी जब तक मैं जैपालबना हुआ दारोगा को अपने कब्जे में रखूंगा तब तक इस दुकान से कुछ-न-कुछ काम निकलता रहेगा, या जब तक दारोगा को यह विश्वास रहेगा कि हमारा ही ऐयार रामेश्वरचंद्र बना हुआ उस दुकान पर है तब तक यह दुकान कायम रहेगी।

अगर कोई ऐसी तरकीब निकल आवे कि हम इस ऐयार को गिरफ्तार करके पुन: अपने रामेश्वरचंद्र के यहाँ कायम कर दें तो बड़ा ही काम हो। वह दारोगा के आदमियों के सामने दारोगा ही का एक ऐयार बना रहेगा और उन्हीं के ढब की बातें किया करेगा।

ऐसी अवस्था में काम भी ज्यादा निकलेगा, मगर समस्या जरा कठिन है। मेरे ज्यादा देर तक यहाँ ठहरने से या विशेष बातचीत करने से कहीं इस ऐयार को मुझीं पर शक न हो जाए। हाँ, यह भी मालूम होना चाहिए कि असल में यह ऐयार कौन है? क्या बिहारीसिंह और हरनामसिंह में से यह कोई है?चलते समय दारोगा ने मुझसे कहा था कि मैंने अपने दोनों ऐयारों को इस काम पर मुकर्रर किया है।

जरूर यह उन्हीं दोनों में से कोई होगा। इस समय दारोगा के मकान पर मेरा जाना भी बहुत जरूरी है, अगर ऐसा न करूँगा तो बड़ा हर्ज होगा, मगर अब इसका पीछा छोड़ देना भी मुझे अच्छा नहीं मालूम होता। यद्यपि मैंने इससे यह कह दिया है कि रात को आकर दोनों कैदियों को ले जाऊँगा, मगर यह बात ठीक नहीं है। खैर मैं कोई-न-कोई तरकीब ऐसी जरूर करूँगा कि इसे फँसा लूँ।

इसी तरह की बातें भूतनाथ ने थोड़ी देर में सोची सो भी ऐसे ढंग से कि नकली रामेश्वरचंद्र को किसी तरह का शक नहीं हुआ और न उसने यह समझा कि जैपाल कुछ सोच रहा है।

नकली रामेश्वरचंद्र : अच्छा तो अब आपका इरादा क्या है सो कहिए।

भूतनाथ : इरादा तो यही था कि इस समय यहाँ से जाकर दारोगा साहब का जरूरी काम करूँ और रात को यहाँ आकर दोनों कैदियों को ले जाऊँ मगर फिर सोचता हूँ कि रात को मेरा यहाँ आना शायद कठिन हो जाये तो ताज्जुब नहीं क्योंकि एक ऐयार ने दारोगा साहब को बेढब धोखे में डाल कर उन्हें नागर के मकान में फँसा दिया और वे इस समय दिन होने के कारण अपने घर जा नहीं सकते, मैं उनके घर जाकर उनके बिगड़े हुए कामों को सुधारने की फिक्र करूँगा और उनके गायब होने से जो घबराहट फैली हुई होगी उसे शान्त करने के बाद राजा साहब से मिलूँगा क्योंकि उन्होंने दारोगा साहब को जरूर याद किया होगा।

नकली रामेश्वरचंद्र : (आश्चर्य से) किसी ऐयार ने दारोगा साहब को धोखे में डाला! क्या मामला हुआ सो तो कहिए

भूतनाथ : अजी ऐसी दिल्लगी हुई कि अगर सुनोगे तो हँसते-हँसते लोटे जाओगे।

नकली रामेश्वरचंद्र : क्या-क्या, कुछ कहिए भी?

भूतनाथ : एक बड़े महात्मा बाबाजी आए थे, नागर के सामने वाले मकान के नीचे जो चबूतरा है उसी पर बैठ कर गाने लगे, गाना बेशक् मजेदार था, सुनने के साथ ही नागर का जी बेचैन हो गया। उसने बाबाजी को अपने यहाँ बुलवाया, बड़े नखरे-तिल्ले के साथ बाबाजी आए और सभों को उल्लू बना गये।

इतना कहकर नकली जैपाल अर्थात भतनाथ ने मसखरेपन के साथ यह सब हाल बयान किया जो उसकी बदौलत नागर के मकान पर हुआ था। उसे सुन कर नकली रामेश्वर पहिले तो बहुत हँसा और तब अफसोस करने लगा।

इसके बाद दोनों आदमियों में देर तक बातचीत होती रही। अन्त में भूतनाथ ने रामेश्वर चंद्र से कहा कि ‘अच्छा होता अगर इस समय मैं असली रामेश्वरचन्द्र और भैया राजा से मुलाकात कर लेता, संभव है कि उनकी मुलाकात से कोई काम निकल जाये, फिर क्या जाने रात को आना हो या न हो।’

नकली रामेश्वरचंद्र ने इस बात को खुशी से मंजूर करा लिया और कमरे का दरवाजा बंद करके (जिससे किसी को कुछ मालूम न हो) भूतनाथ को उस कोठरी में ले गया जिसमें तहखाने का रास्ता दीवार में बहुत ही गुप्त ढंग से बना हुआ था और जिसका हाल-न मालूम किस ढंग से नकली रामेश्वरचंद्र को मालूम हो गया था, यद्यपि उस तहखाने में भी एक रास्ता तहखाने और मकान से बाहर निकल जाने के लिए था, अगर मालूम होता तो शायद उस तहखाने में कैदियों को बंद न करता यद्यपि उन दोनों के हाथ-पैर बँधे हुए थे और वे अपनी रिहाई के लिए कुछ उद्योग नहीं कर सकते थे।

नकली रामेश्वरचंद्र भूतनाथ को साथ लिए तहखाने के अन्दर चला गया और वहाँ पहुँचकर भूतनाथ ने अपने शागिर्द रामेश्वरचंद्र और भैया राजा को हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर बैठे हुए देखा। एक मद्धिम चिराग की रोशनी तहखाने में हो रही थी और गर्मी के ससब से दोनों कैदी परेशान मालूम पड़ते थे।

भैया राजा को ऐसी अवस्था में देखकर भूतनाथ का जी बेचैन हो गया और क्रोध से उसकी आँखें लाल हो गईं। पहिले तो भैया राजा के पास जाकर भूतनाथ ने कोई ऐसा बँधा हुआ इशारा किया जिससे भैया राजा को मालूम होवे गया कि यह जैपाल नहीं बल्कि भूतनाथ है,

इसके बाद भूतनाथ ने नकली रामेश्वरचंद्र की तरफ देख के कहा, “क्यों बे नमकहराम, तुझे अपने हाथों से भैया राजा को हथकड़ी और बेड़ी पहिनाते शर्म नहीं आई? जिसके नमक से तेरा शरीर पला हुआ है उसके साथ ऐसी कार्रवाई करते कलेजा हिल नहीं गया और अब इनके सामने आते तुझे शर्म नहीं मालूम हुई!” भूतनाथ की ऐसी बातें सुनकर नकली रामेश्वर को बड़ा ही आश्चर्य हुआ। वह गौर से नकली जैपाल अर्थात् भूतनाथ की सूरत देखने लगा, इसके बाद बोला, “मालूम होता है कि तुम कोई ऐयार हो, जैपाल सिंह नहीं!”

भूतनाथ : बेशक् यही बात है, अगर अभी तक तू नहीं समझा तो अब समझ जा कि मेरा नाम गदाधरसिंह है। बस-बस, भागने का उद्योग मत कर, मैं इसी जगह तेरा मुकाबला करने को तैयार हूँ।

रामेश्वरचंद्र : खैर अब सिवाय मुकाबले के और कुछ हो भी नहीं सकता।

इतना कहकर नकली रामेश्वरचंद्र ने फुर्ती के साथ खंजर निकालकर भूतनाथ पर वार किया मगर कुछ न कर सका। भूतनाथ ने उसका वार खाली कर दिया और पीछे पहुंचकर इतनी जोर से उसकी कमर में लात जमाई कि वह सम्हल न सका ओर मुँह के बल जमीन पर गिर पड़ा। तुरन्त भूतनाथ ने उस पर कब्जा कर लिया और कमन्द के हाथ-पैर बाँधने के बाद एक किनारे रख दिया। इसके बाद वह भैया राजा के पास पहुँचा और उसके हाथ-पैर खोल देने के बाद असली रामेश्वरचंद्र को भी हथकड़ी-बेड़ी से रिहाई दी।

इतना करके भूतनाथ ने शागिर्द की मदद से अब नकली रामेश्वरचन्द्र की जाँच की तो मालूम हुआ कि वह वास्तव में हरनामसिंह हैं । कमन्द खोलकर उसे हथकड़ी और बेड़ी पहिरा दी गईं और उसी तहखाने में उसे छोड़कर तीनों आदमी बाहर निकल आए।

ऊपर की कोठरी में पहुँचकर भूतनाथ ने भैया राजा की सूरत बदली और थोड़ी ही देर में वे तीनों आदमी दुकानदार के कमरे में खुले आम बैठ कर बातचीत करते हुए दिखाई देने लगे। उस समय भूतनाथ ने अपना सब हाल भैया राजा और रामेश्वरचंद्र से बयान किया और कह, “अब हमें बहुत जल्द कुछ काम करना चाहिए, समय बीतता चला जा रहा है।”

थोड़ी ही देर में तीनों आदमियों ने यह निश्चय कर लिया कि अब क्या करना चाहिए और इसके बाद रामेश्वरचंद्र को उसी दुकान में छोड़ अपने साथी शागिर्दों को कुछ समझाकर भूतनाथ और भैया राजा वहाँ से रवाना हुए। भूतनाथ जैपाल की सूरत में था और भैया राजा हरनामसिंह बने हुए थे।

सबके पहिले इन दोनों ने दारोगा के मकान में जाने का इरादा किया क्योंकि वहाँ से भैया राजा की स्त्री को छुड़ाना बहुत जरूरी था। केवल इतना ही नहीं भूतनाथ यद्यपि इसके पहिले दारोगा के मकान में से सूखा लौटा लाया था तथापि अभी तक उसे इस बात का निश्चय था कि दयाराम जरूर दारोगा के मकान ही में कैद हैं अतएव उसको दयाराम की भी धुन लगी हुई थी।

भतनाथ और भैया राजा, रामेश्वरचंद्र की दुकान से बाहर निकलकर थोड़ी दूर आगे गये थे कि यकायक भूतनाथ की निगाह मेघराज पर पड़ी जिसे वह आज के कई दिन पहले एक तिलिस्मी पहाड़ी में विचित्र ढंग से देख चुका था और भैया राजा के साथ ही वह भी जिसका मेहमान बन चुका था।

इस समय मेघराज अकेला नहीं था। उसके साथ सिपाहियाना ठाठ का एक आदमी और था जिसे भूतनाथ ने नहीं पहिचाना मगर उसे इस बात का विश्वास जरूर हो गया कि मेघराज की तरह यह भी अपनी सूरत बदले हुए है।

मेघराज को देखते ही भूतनाथ का कलेजा हिल गया और एक दफे रोमाँच हो जाने के बाद ही कुछ देर के लिए उसके दिल में धड़कन पैदा हो गई। ऐसा क्या हुआ सो तो हम कह नहीं सकते हाँ इतना कह देना जरूरी है कि इस समय भी मेघराज की सूरत-शक्ल तथा पोशाक वैसी ही थी जैसी कि उस दिन भूतनाथ देख चुका था।

जिस तरह भूतनाथ और भैया राजा ने मेघराज और उसके साथी को देखा उसी तरह मेघराज ने भी इन दोनों को देखा परन्तु ये दोनों जैपाल और हरनामसिंह की सूरत में थे इसलिए मेघराज ने इन दोनों की तरफ कुछ ध्यान नहीं दिया मगर मेघराज अपने को रोक न सके, उन्होंने आगे बढ़कर मेघराज का एक हाथ पकड़ लिया और धीरे-से कहा जिसे भूतनाथ ने भी सना, “मेघराज, वाह-वाह खूब पहूँचे। आज हम लोगों के साथ ही मिलकर गरजो। अपना परिचय दो तो और भी कुछ कहूँ। मैं हूँ इन्द्र भैया।”

मेघराज : पावस में ‘तड़ित’ की कमी नहीं है। आपने धोखा नहीं खाया। मेरे साथ वैद्य हैं।

भैया राजा : बस तो ठीक हैं जिस तरह मैं हरनामसिंह की सूरत में हूँ उसी तरह यह मेरा साथी भूतनाथ भी जैपाल की सूरत में है। बस अब जो कुछ कहना है वह निराले में कहूँगा। मौका अच्छा है, तुम भी मेरे साथी बन जाओ।

इतना कहकर भैया राजा आगे की तरफ बढ़े और उस तरफ चले जिधर कुछ सन्नाटा मिलने की उम्मीद थी और उनके पीछे-पीछे भूतनाथ तथा मेघराज और उसका साथी ये तीनों रवाना हुए।

भैया राजा ने इस समय मेघराज से जिस तरह की बातचीत की और अपना तथा भूतनाथ का भेद खोल दिया यह भूतनाथ को पसन्द न आया बल्कि बहुत बुरा मालूम हुआ मगर मौका मुनासिब न समझ वह कुछ न बोला और चुपचाप उनके पीछे चला गया।

थोड़ी ही देर में वे चारों आदमी एक छोटे-से बगीचे में जा पहुँचे जहाँ इन लोगों के लायक अच्छा सन्नाटा था। भैया राजा ने भूतनाथ को एक पेड़ के नीचे बैठ जाने के लिए कहा और स्वयं वहाँ से कुछ दूर पर दूसरे पेड़ के नीचे मेघराज और उसके साथी को लेकर जा बैठे ओर बातचीत करने लगे।

भैया राजा की पहली कार्रवाई से भूतनाथ को रंज हो चुका था, अब यह दूसरी कार्रवाई भूतनाथ के लिए और भी दु:खदायी हुई। भूतनाथ को अलग छोड़कर तीनों आदमियों का एकांत में बातचीत करना भूतनाथ को सहन न हुआ और उसके अन्दर क्रोधाग्नि एकदम भभक उठी, आँखों के साथ ही उसके चेहरे ने भी सुखी पकड़ ली।

कुछ देर तक तो वह टेढ़ी निगाह से उन तीनों की तरफ देखता रहा और फिर दाँत पीस कर धीरे-से बोल उठा, “क्या मैं भैया राजा के हाथ बिक गया हूँ! वे मुझसे भेद रखें और मैं उनके लिए जान दूँ! गदाधरसिंह ऐसा उल्लू नहीं है।” इतना कहकर चुप हो गया और न-मालूम क्या सोचने लगा।

भैया राजा, मेघराज और उसके साथी के बीच आधे घंटे तक बातचीत होती रही, इसके बाद वे तीनों उठ खड़े हुए और भूतनाथ के पास आकर भैया राजा ने कहा, “चलो साहब, अब उठो और अपने काम की फिक्र करो।”

भूतनाथ : (उठकर और मेघराज की तरफ बताकर) ये दोनों साहब अब किधर जाएँगे?

भैया राजा : ये दोनों भी हमारे साथ ही रहेंगे।

भूतनाथ : तो क्या हम लोगों का भेद इनसे जाहिर कर दिया गया?

भैया राजा : हाँ, इनसे हम लोगों का कोई भेद छिपा नहीं रह सकता।

भूतनाथ : मगर इनका भेद हमसे छिपा ही रहेगा?

भैया राजा : हाँ, कुछ दिनों के लिए तो ऐसा ही रहेगा।

भूतनाथ : तो ऐसी हालत में हम लोगों का मिल-जुलकर काम करना बहुत कठिन है

भैया राजा : कुछ भी कठिन नहीं है।

भूतनाथ : जरूर कठिन है बल्कि असंभव है!

भैया राजा : सो क्यों?

भूतनाथ : जबकि इनका भेद मुझसे छिपा रहेगा तो अपने भेद की बातें मैं इनसे क्यों कहूँगा? ऐसी अवस्था में ठीक काम भी न हो सकेगा।

भैया राजा : तुम इन्हें अपना दोस्त समझो और विश्वास रखो कि इनसे सिवाय नफे के नुकसान कभी न पहुँचेगा।

भूतनाथ : आप तो सब कुछ समझते हैं मगर मेरा दिल भी कुछ समझे तब तो।

भैया राजा : दिल को समझाओगे और दिलासा दोगे तो सब कुछ समझ लेगा।

भूतनाथ : मेरा दिल ऐसा कच्चा और नादान नहीं है।

भैया राजा : तब कैसे काम चलेगा?

भूतनाथ : काम चले या अटका रहे अथवा जहन्नम में जाय। मैं उस आदमी के साथ क्षण-भर भी रहना पसन्द नहीं करता जिसका कुछ भी हाल अपने को मालूम न हो।

पहिले दफे जब इनसे मुलाकात हुई थी तब आपने इनका परिचय मुझे नहीं दिया और आज भी वही हाल हो रहा है। केवल इतना ही नहीं, मुझे अलग छाँटकर आप इन लोगों से बात करते हैं और ऐसे काम में मुझे इनका साथी बनाते हैं जिसमें कदम-कदम पर जान जोखिम का सामान है। नहीं-नहीं, गदाधरसिंह ऐसा बेवकूफ नहीं है।

हजारों दुश्मनों से अपने को बचाये रहने वाला गदाधरसिंह ऐसी बेवकूफी करके गंदी नादानी के साथ अपने गले पर अपने हाथ से छुरी नहीं चलावेगा।

भैया राजा : फिर तुम क्या चाहते हो?

भूतनाथ : बस इनका परिचय चाहते हैं!

भैया राजा : इनका परिचय तो अभी तुम्हें नहीं मिल सकता क्योंकि ये अपना भेद अभी प्रकट नहीं किया चाहते।

भूतनाथ : फिर आपको क्या हक था कि मेरी इच्छा के विरुद्ध आप मेरा भेद इनसे प्रकट कर दें?

भैया राजा : इसलिए कि मैं इन्हें खूब जानता हूँ और मेरा इन पर विश्वास है।

भूतनाथ : आप इन पर भले ही विश्वास रखें मगर मैं इन पर भरोसा नहीं रखता, अस्तु मेरे भेद के मालिक ये कैसे हो सकते हैं? यह आपकी जबर्दस्ती है कि मेरा भेद मेरी मर्जी के बिना आप इनसे कहते हैं और इनका परिचय तक भी मुझे नहीं देते।।

मेघराज : गदाधरसिंह, मेरा भेद बहुत दिनों तक तुमसे छिपा न रहेगा और जब तुम मुझे जानोगे तो इतने दिनों तक भेद छिपाए रखने की शिकायत न करोगे।

भूतनाथ : चाहे ऐसा ही हो मगर जबकि मैं तुमको जानता ही नहीं तो तुम्हारी बातों पर क्यों कर विश्वास कर सकता हूँ।

मेघराज : (कुछ तीखेपन से) तुम्हारी इन बातों से रंज होकर मैं चला जाता और तुम्हारी साथी नहीं बनता मगर इसलिए जाना पसन्द नहीं करता कि दारोगा तथा दारोगा के मकान से जितना तुमको ओर भैया राजा को संबंध है उससे कहीं ज्यादा मुझको संबंध है, इसलिए मैं दारोगा के मकान में जरूर जाऊँगा और अपना काम करूँगा।

भूतनाथ : हाँ-हाँ, तुम भले ही दारोगा के मकान में जाओ मगर मेरे बताए हुए रास्ते से क्यों जाओगे? अपने लिए खुद अपना बनाओ! मैंने जो कुछ मेहनत की है वह तुम जैसे एक अनजान आदमी के फायदा उठाने के लिए नहीं की है।

भैया राजा : सुनो गदाधरसिंह, तुम व्यर्थ ही क्रोध करती हो और मेरी बात मान कर कुछ दिनों के लिए सब्र नहीं करते। जबकि हम इन्हें और तुम्हें अपना समझते हैं तब हमारी-तुम्हारी कार्रवाई से अगर बिना नुकसान के हो सके तो ये भी फायदा उठा सकते हैं, इसके लिए तुम्हें रंज न होना…

भूतनाथ : (बात काट कर) मैं यह सब दिलासे की बातें नहीं सुनना चाहता, बात साफ कहिए कि इनका परिचय मुझे देंगे या नहीं?

भैया राजा : इस समय नहीं क्योंकि इनकी मरजी नहीं है।

भूतनाथ : तो बस मुझे भी इनके साथ रहना मंजूर नहीं। आपने बहुत ही बुरा किया है कि मेरी आज की कार्रवाई का हाल इनसे कह दिया। इस समय बातचीत करते हुए आपने जरूर यह कह दिया होगा, यह मुझे अंदाज से मालूम हो गया।

भैया राजा : हाँ कह तो दिया है।

भूतनाथ : तब बेशक् आपने बुरा किया। अच्छा अब जो आपके जी में आवे कीजिए, मैं जाता हूँ।

भैया राजा : कहाँ जाओगे?

भूतनाथ : जहाँ मेरे जी में आवेगा।

भैया राजा : मतलब यह है कि इस समय तुम मेरा साथ छोड़ते हो?

भूतनाथ : हाँ, साथ छोड़ता हूँ।

भैया राजा : अच्छा तो एक ठिकाने बैठकर हम लोगों का इंतजार करो और देखो कि हम लोग क्या करते हैं।

भूतनाथ : मैं इस बात का वादा नहीं कर सकता।

भैया राजा : तो तुम बना-बनाया काम बिगाड़ना चाहते हो!

भूतनाथ : मेरी नीयत तो यह नहीं थी मगर आप खुद अपने हाथ से सब काम चौपट किया चाहते हैं! मैं आपसे जो कुछ प्रतिज्ञा कर चुका था उसे निबाहता रहा परन्तु आप अपनी प्रतिज्ञा भंग कर रहे हैं। जो हो, अब मैं स्वतंत्र होता और अपने मालिक के पास जाता हूँ तथा इन सब झंझटों को सदैव के लिए तिलांजलि देता हूँ।

भैया राजा : (चलते भूतनाथ को रोककर) सुनो-सुनो, जरा ठहरो तो! मैं एकांत में इन्हें समझाता हूँ,और इनका भेद प्रकट करने के लिए इनसे आज्ञा लेता हूँ तब तक कुछ देर के लिए तुम इसी जगह खड़े रहो।।

भूतनाथ को उसी जगह छोड़कर और मेघराज तथा उनके साथी को लेकर भैया राजा कुछ दूर पेड़ों की आड़ में चले गए और मेघराज से बातें करने लगे-

भैया राजा : गदाधरसिंह तो बेतरह हठ कर रहा है।

मेघराज : वह लड़कपन का हठी है, मगर आप खुद सोच सकते हैं कि इस समय मेरा भेद खोलना कहाँ तक उचित होगा।

भैया राजा : नहीं-नहीं, आपका भेद तो कभी खुलना ही नहीं चाहिए। परन्तु मालूम होता है कि भूतनाथ अब हम लोगों का साथ नहीं देगा।

मेघराज : केवल हम लोगों का साथ न देकर ही वह सब्र कर जाये तो कोई चिंता नहीं, मगर वह जरूर हम लोगों का दुश्मन बन जाएगा और दारोगा से जा मिलेगा, उससे अपने रुपये वसूल करेगा और हम लोगों का भेद खोल देगा, रामेश्वरचंद्र वाला मामला भी छिपा न रहने देगा।

भैया राजा अजी वह सब काम ही चौपट करेगा! ऐसी अवस्था में हम लोगों का दारोगा के घर में घुसना खतरे से खाली नहीं है और साथ ही इसके मेरी स्त्री को भी उसके पंजे से छुटकारा मिलना असंभव है।

मेघराज का साथी : और मेरी उम्मीदों पर भी बिलकुल ही पाला पड़ जाएगा। गदाधरसिंह बड़ा ही बेईमान है। चुप होकर बैठे रहना उससे कदापि न होगा, अस्तु बेहतर तो यह होगा कि उसे इसी जगह गिरफ्तार कर लिया जाये।

भैया राजा : (मेघराज से) आपके क्या राय है?

मेघराज : इसके सिवाय दूसरी तरकीब ही कौन है? अगर वह दारोगा के पास जाकर सब भेद कह देगा तो अनर्थ हो जाएगा।

कुछ देर तक उन तीनों में इसी तरह की बातें होती रहीं। अंत में यह निश्चय करके कि भूतनाथ को गिरफ्तार कर लिया जाय वे तीनों आदमी वहाँ पहुँचे जहाँ भूतनाथ को छोड़ गए थे, मगर अफसोस, भूतनाथ वहाँ से भाग गया था और उस जगह सिवाय पेड़-पत्तों के और कुछ भी दिखाई नहीं देता था।

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