दिन तीन पहर से ज्यादा ढल चुका है और बाजारों में लोगों की आमदरफ्त बढ़ती जा रही है जो कि दोपहर के समय धीरे-धीरे घटती हुई बिलकुल कम हो गई थी। बाजार की बड़ी-बड़ी दुकानें भी धीरे-धीरे खुलती जा रही हैं जो सुबह से दोपहर तक व्यवहार करने के बाद बंद हो गई थीं और उन छोटी-छोटी दुकानों की भी रौनक बढ़ती जा रही है जिनके मालिक सुबह से खोलेकर दो घंटे रात जाते तक भी बंद करना पसन्द नहीं करते।
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जमानिया यद्यपि बहुत छोटा राज्य और मामूली शहर है मगर फिर भी यहाँ का चौक और महाजनी बाजार रौनक पर है और जरूरत की सभी चीजें मिल जाया करती हैं। महाजनों में लेन-देन हुँडी-पत्री का व्यवहार भी अच्छी तरह से होता है तथा अजाजे और बनारसी माल की दुकानें भी बहुत-सी हैं।
जिनको कभी इस बात की शिकायत करने का मौका नहीं मिलता कि ‘बिक्री कम होती है और मुनाफे के लज्जत नहीं है’ ! हाँ इस बात की शिकायत लोग जरूर करते हैं कि हमारे राजा साहब को किसी बात का शौक नहीं, अगर होता तो इस शहर की रौनक चौगुनी हो गई होती।
शहर की गलियाँ बहुत तंग और इमारतें मामूली दर्जे की हैं परन्तु चौक और महाजनी बाजार की सड़कें कुछ चौड़ी, इमारतें तथा दुकानें बड़ी-बड़ी हैं, क्योंकि इसके पास ही यहाँ के राजा साहब का महल है और बड़े-बड़े ओहदेदारों तथा कारिन्दों और फौजी अफसरों का रहना भी इस बाजार के पास ही होता है।
धीरे-धीरे चौक बाजार में भिश्तियों ने छिड़काव भी कर दिया जो कि दुकानदारों की तरफ से थे और दुकानें सब खुल गईं तथा संध्या होने तक बाजार पूरी रौनक पर हो गया और सैलानी लोग भी टहलते हुए दिखाई देने लगे। ऐसे समय हम एक ऐसे आदमी को जो रंग-ढंग से कोई देहाती जमींदार मालूम होता था सड़क पर टहलते और इधर-उधर निगाहें दौड़ाते हुए देखते हैं।
इनकी पोशाक कुछ अजीब ढंग की है। सर पर बहुत बड़ी गुलेनार रंग की पगड़ी और बदन में घेरदार जामा है जिसके दोनों बगल खूब चुन्नट पड़ी हुई है तथा पायजामे की मोहरी भी इतनी चौड़ी है कि एक-एक पैर में खासा मोटा-ताजा आदमी बखूबी घुस जाय। बसन्ती का रंग बारह या चौदह हाथ लंबा कपड़ा जिसमें चारों तरफ सुनहरा गोटा टंका हुआ है कमर में लपेटे हैं और उसमें एक खंजर भी खुँसा हुआ था।
माथे में रामानन्दी तिलक और गले में तीन-चार छोटे-बड़े दानों की तुलसी की माला है और सबसे बढ़कर यह बात है कि हाथ में मोटा-सा माथे तक का लट्ठ लिए है जिस पर हर कदम पर अपने भद्दे पैरों के साथ-ही-साथ पटकता हुआ चल रहा है।
इस आदमी के पीछे-पीछे इनका एक नौकर भी है जिसके सर पर गंदा मटमैला साफा और बदन में जगह-जगह से फटी हई मिरजई पड़ी हुई है। यद्यपि उसकी धोती का कपड़ा छोटा नहीं है मगर घुटने के ऊपर ही दिखाई देता है। कंधे पर छोटा-सा थैला जिसमें शायद लोटा, डोरी, कोयला तथा तंबाकू वगैरह होगा और हाथ में बड़ा-सा नारियल लिए कुछ पीछे-पीछे जा रह है।
इस जमींदार सूरत वाले आदमी की निगाह चौक की एक बहुत बड़ी दुकान पर पड़ी जिसके ऊपर लटकते हुए तख्ते पर बड़े हरफों में यह लिखा हुआ था-
“यहाँ पर ऐयारी का सभी सामान मिलता है,
ऐयारी सिखाई जाती है, और ऐयारों को
रोजगार भी दिलाया जाता है। आइए
दुकान की सैर कीजिए-”
इस लिखावट को पढ़कर वह आदमी अटक गया और दुकान की तरफ गौर से देखने लगा। दुकान बड़ी खूबसूरत रंगी हुई थी। खंभों पर रंग-बिरंगे कपड़ों के गिलाफ चढ़े हुए थे और आगे की तरफ एक सुन्दर सायबान बना हुआ था जिसके चबूतरे पर बैठने के लिए छोटी-बड़ी बहुत-सी कुर्सियाँ रखी हुई थीं। कमरे में तलवारें लगाए चार-पाँच सिपाही भी काम करते हुए दिखाई देते थे।
कुछ देर देखने के बाद वह आदमी दुकान के अन्दर चला गया और वहाँ की चीजों को बड़े गौर से देखने लगा। एक आदमी जो शायद सौदा बेचने के लिए मुकर्रर था उसके सामने आया और बड़ी लश्तरानी के साथ तारीफ करता हुआ तरह-तरह की चीजें दिखाने लगा जो कि शीशे की सुंदर आलमारियों में करीने से सजाई हुई थीं, दकानदार ने कहा-
“देखिए तरह-तरह की दाढ़ी और मूँछे तैयार हैं, बीस वर्ष से लेकर सौ वर्ष का आदमी बनना चाहे तो बन सकता है, जो पूरी तरह ऐयारी नहीं जानते, बनावटी दाढ़ी-मूँछे तैयार करने का जिन्हें इल्म नहीं वे इन दाढ़ी-मूँछों को बड़ी आसानी से लगाकर लोगों को धोखे में डाल सकते हैं, मगर जो काबिल ऐयार हैं और मनमानी सूरत बनाया करते हैं अथवा जो किसी की नकल उतारने में उस्ताद हैं उनके लिए तरह-तरह के खुले हुए बाल अलग रखे हुए हैं।
(लकड़ी के डिब्बों को खोल कर दिखाते हुए) इन सफेद और स्याह बालों से वे अपनी मनमानी सूरतें बना सकते हैं, देखिए बारीक, मोटे, सादे और घुंघराले वगैरह सभी तरह के बाल मौजूद हैं, इसके अलावा यह देखिए (दूसरी अलमारी की तरफ इशारा करके) तरह-तरह की टोपियाँ जो कि पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्खिन के मुल्कों वाले पहिरा करते हैं तैयार हैं और इस तरह हर एक मुल्क की पोशाकें इधर-उधर खूटियों पर देखिए तैयार लटक रही हैं।
साफे, पगड़ी और मुडासों की भी कमी नहीं है, बस सर पर रख लेने की देर है! आइए इधर दूसरे कमरे में देखिए ये तरह-तरह के बटुए लटक रहे हैं जिनमें रखने के लिए हर एक तरह का सामान भी इस दुकान में मौजूद रहता है। (तीसरे कमरे में जाकर) इन छोटे-बड़े हलके-भारी सभी तरह के कमन्द और हों की सैर कीजिए जिनकी प्राय: सभी ऐयारों को जरूरत पड़ती है, आप ऐयार हैं इसलिए मैं आपको यहाँ की हर एक चीज की सैर अच्छी तरह कराया चाहता हूँ।”
“आप ऐयार हैं” यह सुनकर वह जमींदार ठमक गया और दुकानदार का मुँह देखने लगा।
दुकानदार : आप आश्चर्य क्यों करते हैं। मैं अभी बहुत-सी चीजें आपको दिखलाऊँगा, क्योंकि ऐयार होने के साथ ही आप अमीर भी मालूम पड़ते हैं।
जमींदार : आपका खयाल गलत है। अपने क्यों कर जाना कि हम ऐयार हैं और अमीर भी हैं?
दुकानदार : यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। मेरा तो दिन-रात का यह काम ही ठहरा । मैं खुद ही ऐयार हूँ और हर घड़ी ऐयारों से वास्ता पड़ा ही करता है। अकसर ऐयार लोग मुझसे अपने काम में सलाह लेने आया करते हैं और मैं उन्हें अपनी फीस लेकर अच्छी सलाह दिया करता हूँ मगर किसी का भेद नहीं खोलता और एक की बात दूसरे से नहीं कहता।
यह तो हमारी हाल ही में यह नई दुकान हुई है, लेकिन हर एक बड़े शहर में हमारे मालिक की बड़ी-बड़ी दुकानें हैं जिनमें मेरे ऐसे-ऐसे सैकड़ों ऐयार काम करने के लिए नौकर हैं। ऐयारों से दिन-रात व्यवहार करके हम लोग पक्के हो गए हैं अतएव आपको पहिचान लिया तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है और इसके लिए आप किसी तरह की चिंता न करें। आइए और इस कमरे की सैर कीजिए। जिसमें तरह-तरह की दवाइयाँ तैयार हैं और होती हैं।
दुकानदार की चलती-फिरती बातें सुनकर वह जमींदार दंग हो गया और फिर कुछ भी न बोला, उसके साथ उस दूसरे कमरे की सैर करने चला गया और वहाँ देखा कि तरह-तरह के बहुत-सी शीशे की आलमारियों में सोने, चाँदी, ताँबे और पीतल के छोटे-बड़े कई प्रकार के डिब्बे और डिबियाएँ सजाई रखी हैं और कई नौकर जमीन पर बैठा सलबट्टा चला रहे हैं जिनमें हरी, पीली, सुफेद, काली तरह-तरह की दवाएँ घुट रही हैं।
दुकानदार : यह देखिए इन आलमारियों में जितने डिब्बे और डिबियाएँ आप देखते हैं सभी में तरह-तरह की दवाइयाँ मौजूद हैं जो कि ऐयारों के सुभीते के लिए बना कर रखी हुई हैं। हमारी दवाओं में इस बात की शर्त है कि पाँच बरस तक कुछ भी खराब नहीं होती और इनके इस्तेमाल में किसी का नुकसान नहीं पहुँचता।
इस दुकान में कोई भी ऐसी दवा आपको नहीं मिलेगी जिसमें किसी तरह का जहरीला असर हो या जिससे किसी को किसी तरह का नुकसान पहुँचे क्योंकि किसी ऐयार का यह धर्म नहीं है कि अपने काम से सर्वसाधारण या खास व्यक्ति को नुकसान पहुँचावे, अगर ऐसा करे तो वह ऐयार नहीं पूरा बेईमान और दगाबाज हैं।
ऐयार का यही काम है कि अपने मालिक के लिए छिपे हुए मामले का पता लगाए; दुष्टों, चोरों और खूनियों का पता लगाए; राजाओं-रईसों की लड़ाइयों को जिनमें बहुत-से आदमियों का खून होना संभव है अपनी कारीगरी से रोके और सहज ही में मामला को तै कर डाले। जो लोग इसके विपरीत करते हैं उन्हें ऐयार नहीं समझता।
वे चोर, बदमाश और डाकू हैं तथा किसी भले आदमी के पास बैठने लायक नहीं और उनका किसी रईस को भरोसा न करना चाहिए। अस्तु इस दुकान में जितनी चीजें हैं सब ईमानदार ऐयारों ही के लिए हैं, संभव है कि इन चीजों से कोई बुरा काम ले जिसमें कि हम लोगों का कोई कसूर नहीं है मगर हम लोग अगर किसी को ऐसा करते देखते और सुनते हैं तो सजा देने के लिए भी तैयार हो जाते हैं। हम लोग बहुत ठीक और कीमती दवाइयाँ रखते हैं।
हमारे यहाँ की बेहोशी की दवा अगर किसी को ज्यादा भी खिला-पिला-सा सुँघा दी जाय तो उसका कुछ नुकसान नहीं होता या अगर पाँच-पाँच, सात-सात दिन तक भी उससे किसी आदमी को बेहोश रखा जाय तो दिल और दिमाग में किसी तरह की खराबी नहीं पहुँच सकती।
इसी तरह चेहरे पर लगाने के लिए भी जितने तरह के रोगन हैं उनसे बदन की जिल्द में धब्बा नहीं पड़ने पाता और न चमड़े का रंग ही बदलता है। जिल्द में खुरदुरापन नहीं आता। इसके अलावा पक्का रोगन भी इस दुकान में मौजूद है जो कि एक खास किस्म के अर्क में अगर धोया न जाय तो महीनों तक अपना रंग कायम रखता है, मसा और तिल बनाने का मसाला भी इस दुकान में बहुत अच्छा तैयार है। तारीफ तो यह है कि हमारे यहाँ की किसी दवा में बदबू नहीं है, सभी खुशबूदार चीजों के पुट देकर तैयार की जाती हैं।
आप इस दुकान की कोई चीज इस्तेमाल करके देखिए । हाँ इस दुकान में खाने की चीजें भी ऐसी बनती हैं कि जिन्हें आप महीनों तक ऐयारी के बटुए में रखकर सफर में काम ले सकते हैं और बिगड़ने नहीं पातीं तथा उनमें किसी तरह की खराबी भी नहीं है अर्थात् खालिस घी, चीनी, दूध और फल से बनाई जाती हैं, आप नमूने के तौर पर कुछ खाकर भी देख सकते हैं।
जमींदार : बेशक् अपनी दुकान बड़े काम की है, मगर मैं समझता हूँ कि वह अभी थोड़े ही दिनों से कायम हुई है।
दुकानदार : यह तो मैं खुद ही कह चुका हूँ कि बड़े शहरों में हमारे मालिक की बहुत-सी दुकानें हैं, यहाँ भी थोड़े दिनों से एक शाखा खोली गई है।
इतने ही में एक आदमी की सूरत देखकर वह जमींदार चौंक पड़ा जो कि आलमारियों के शीशों को रेशमी कपड़े से पोंछ कर साफ कर रहा था।
यद्यपि जमींदार ने अपने दिल के भाव को छिपाने के लिए बड़ी कोशिश की मगर फिर भी दुकानदार समझ ही गया ओर बोला, “मगर इस शहर में हम लोगों को नौकरों को बड़ी तकलीफ हुई। हम सिर्फ सात आदमी ऐसे हैं जो कि एक साथ मालिक के भेजे हुए इस शहर में आए हुए हैं और जिनकी कि हम अपना साथी कह सकते हैं, बाकी के जितने आदमी आप देखते हैं सब इसी शहर में नौकर रखे गये हैं और इसीलिए हम लोग दवा के काम में इनसे मदद नहीं लेते।”
जमींदार : ठीक है, यह काम आपने बड़ी होशियारी का किया क्योंकि (धीरे-से कान में मुँह लगाकर) इस शहर के आदमी बड़े बेईमान होते हैं खास कर इन दिनों तो.
दुकानदार : मैं उम्मीद करता हूँ कि आपसे इस काम में मुझे मदद मिला करेंगी।
जमींदार : जरूर, मैं अकसर आया करूँगा और अपने दोस्तों को भी लाऊँगा!
दुकानदार : कोई चीज खरीदने की इच्छा है?
जमींदार : हाँ, मुझे कुछ चीजों की जरूरत भी है जो कि मैं एकांत में आपसे कहूँगा, आप किसी दूसरे कमरे में चलिए।
जमींदार को साथ लिए दुकानदार साहब जिसका नाम रामेश्वर चंद्र था, एक दूसरे कमरे में चले गये जो खास करके ग्राहकों और रइसों के बैठने व आराम करने के लिए मुकर्रर था। यह कमरा बहुत साफ और साधारण ढंग पर सजा हुआ था।
इसकी दीवार और छाती आसमानी रंग की थी और जमीन पर सुफेद फर्श बिछा हुआ था तथा बाहर कुर्सियाँ और चार-पाँच कोच भी रखे हुए थे जिनकी गद्दियों के ऊपर सुफेद चाँदनी बंद के सहारे बँधी हुई थी। छत में दस-बारह शीशे लटक रहे थे जिनमें इस समय रोशनी हो चुकी थी। रामेश्वर चंद्र ने जमींदार को ले जाकर एक कोच पर बैठा दिया तथा आप एक कुर्सी बैंच कर उनके पास ही बैठ गया और बातचीत करने लगा।
रामेश्वर चंद्र : हाँ, अब आप फरमाएँ आपको किस-किस चीज की जरूरत है?
जमींदार : एक तो मुझे ऐसी पोशाक की जरूरत है जो खास काबुल के रहने वाले अमीर मुगल लोग पहिरते हैं।
रामेश्वर चंद्र : तैयार, मौजूद हैं, और फरमाइए?
जमींदार : ऐसी दवा भी चाहिए जो आदमी को कम-से-कम सात दिन तक के लिए गूंगा बना सके।
रामेश्वर चंद्र : करीब-करीब ऐसी ही दवा मैं दे सकता हूँ जो कि किसी की जुबान पर लगा देने से वह बोलने लायक न रहेगा। जुबान की शक्त बिलकुल जाती रहेगी मगर उसे खाने-पीने में किसी तरह की तकलीफ न होगी और न कोई चीज बदजायका मालूम पड़ेगी।
जमींदार : बस इस वक्त मैं बतौर आजमाइश के सिर्फ ये दो चीज ही आपके यहाँ से खरीदूँगा, अगर आपके यहाँ की दवा ठीक निकली तो मैं दो-तीन दिन में आपसे मिलकर बहुत-सी चीजें खरीदूँगा।
दुकानदार रामेश्वर चन्द्र ने थोड़ी ही देर में दोनों चीजें लाकर जमींदार के सामने रख दी और दस अशर्फी उनकी कीमत माँगी जो कि उसी वक्त जमींदार ने अपनी कमर से निकालकर दे दी और कहा कि-‘ये चीजें मेरे नौकर के हवाले कर दी जाएँ जिसे कि मैं दुकान के बाहर छोड़ आया हूँ।’ दुकानदार ने ऐसा ही किया। चलते समय जमींदार ने दुकानदार से कहा-
जमींदार : दुकान के लिए यह मकान आपको बहुत अच्छा मिल गया है, असल में यह ऐयारों के ही रहने लायक है। मैं इसके हर एक दर्जे, कोठरियों, कमरों और तहखानों से वाकिफ हूँ।
रामेश्वरचंद्र : जी हाँ, यह मकान हमको बहुत अच्छा मिल गया है और मकान मालिक भी बहुत नेक आदमी हैं।
जमींदार : हाँ, मैं जानता हूँ। यह मकान यहाँ के एक ओहदेदार रईस दामोदर सिंह का है और उन्होंने अपने दामाद इन्द्रदेव को दहेज के साथ दे दिया है तो आपने इसे किससे किराए पर लिया है? दामोदर सिंह जी से या इन्द्रदेव से?
रामेश्वरचंद्र : मेरे साथ तो दामोदर सिंह जी ने इसका बंदोबस्त किया है, इन्द्रदेव जी की सूरत मैंने अभी तक नहीं देखी मगर सुना है कि यहाँ के दारोगा साहब के वे गुरुभाई हैं और बड़े लायक आदमी हैं?
जमींदार : ठीक है, वास्तव में ऐसा ही है।
इतना कहकर जमींदार वहाँ से रवाना हुआ मगर अभी दुकान के बाहर नहीं हुआ था कि सामने से दुकान के अन्दर आते हुए गदाधरसिंह पर उसकी निगाह पड़ी जो कि इस समय अपनी असली सूरत में था। जमींदार भूतनाथ को देखकर सहम् गया लेकिन भूतनाथ ने उस पर एक मामूली निगाह डालने के अतिरिक्त और कुछ खयाल नहीं किया।
उस जमींदार के चले जाने के बाद रामेश्वर चन्द्र ने भूतनाथ को अन्दर वाले एकांत के कमरे में बड़ी खातिर से बैठाया और पूछा, “कहिए कुशल तो हैं?”
भूतनाथ : हम लोगों से कुशल-मंगल पूछना तो व्यर्थ ही है। जब तक निद्रादेवी की गोद में हैं तब तक तो कुशल है और जहाँ उससे संबंध छूटा कि दिमाग में चक्कर आने लगे। तरह-तरह के खयालात, तरह-तरह के विचार और तरह-तरह के मनसूबों से दम-भर के लिए भी फुरसत नहीं।
केवल इतना ही नहीं, शरीर का सुख भी मिलना कठिन ही होता है। न दिन को दिन गिनना पड़ता है न रात को रात, न जाड़े का खौफ न गर्मी का खयाल, न बरसात से डर न धूप से परहेज। बस केवल अपने काम की धुन लगी रहती है, जिस पर भी मेरे ऐसे कमबख्त का तो पूछना ही क्या है जिसे मालिक के काम की फिक्र तो नाममात्र को ही है परन्तु बाहरी सैकड़ों तरफ की तरद्दुदों का शिकार हो रहा है। सच तो यों है कि ऐयारी का पेशा ही बहुत बुरा होता है।
रामेश्वरचंद्र : (मुसकुराकर) भला आपकी इस बात को मैं क्यों कर मान लूँगा?
भूतनाथ : सो क्यों?
रामेश्वरचंद्र : आपको ऐयारी पेशे में तो किसी तरह की तकलीफ हुई नहीं, हाँ मानसिक विकारों के कारण आप जरूर परेशान हो रहे हैं। इसमें ऐयारी पेशे का तो कोई कसूर है नहीं, इसे तो आप मुफ्त ही बदनाम कर रहे हैं।
भूतनाथ : एक तौर पर तुम्हारा कहना भी ठीक है मगर मेरे मानसिक विकारों की उत्पत्ति तो ऐयारी ही के सबब से है।
रामेश्वरचंद्र : सो भले ही हुआ करे। सभी ऐयारों का दिल तो एक-सा नहीं होता। इन्द्रदेव क्या ऐयार नहीं? फिर आपकी तरह तरद्दुद में क्यों नहीं फँसते?
भूतनाथ : (मुसकुराकर) उनकी बात जाने दो! वे महात्मा हैं बल्कि देवता हैं, हम लोग नालायक और अभागे हैं अतएव दु:ख भी हमीं लोगों के हिस्से में पड़ा हुआ है। खैर इस बहस को जाने दो क्योंकि मुझे इस समय इतनी फुरसत नहीं है। यह बताओ कि तुमको भैया राजा की कुछ खबर है? मैं इस समय उन्हीं का पता लगाने के लिए तुम्हारे पास आया, तुम्हारी दुकान तो हम लोगों के लिए एक लाभदायक अड्डा है।
रामेश्वरचंद्र : इसी खयाल से तो यह कारखाना खोला गया है। अच्छा तो आप इस समय भैया राजा का केवल पता ही पूछना चाहते हैं या उनसे मिलना भी चाहते हैं?
भूतनाथ : वाह वाह, अगर मुलाकात हो जाय तो फिर पूछना क्या है ?
रामेश्वरचंद्र : वे आज दोपहर के समय भेष बदले हुए मेरे पास आए थे! आपके नाम की एक चिट्ठी भी दे गये हैं और कह गये हैं कि आधी रात के समय हम पुन: यहाँ आवेंगे अगर गदाधरसिंह से मुलाकात हो जाय तो उन्हें उस समय यहाँ आकर मुझसे मिलने के लिए कह देना। (एक चिट्ठी निकाल कर और भूतनाथ के हाथ में देकर) लीजिए इस चिट्ठी को पढ़िए।
भूतनाथ ने रामेश्वरचंद्र के हाथ से चिट्ठी ले ली और बड़े उत्साह से उसे पढ़ना आरंभ किया। यह लिखा हुआ था-
“मेरे प्यारे गदाधरसिंह,
क्या उस बात का पता लगा जिसकी खोज में तुम मुझसे जुदा हुए थे? क्या वास्तव में वही शैतान उसका चोर है, जिस पर तुमने शक किया था? मैं आधी रात के समय यहाँ आऊँगा, अगर संभव हो तो मुझसे जरूर मुलाकात करो, यदि न मिल सको तो इस चिट्ठी का जवाब लिखकर रामेश्वर के पास रख दो, मैं आकर ले लूँगा!
तुम्हारा वही–भैया राजा”
चिट्ठी पढ़ने के बाद भूतनाथ ने भी उसी जगह से कलम-दवात और कागज उठा कर जवाब लिखा-
“मेरा खयाल ठीक निकला, उसी शैतान ने यह काम किया है।
-भूतनाथ”
चिट्ठी लिफाफे में बंद करके भूतनाथ ने उस पर अपनी मोहर लगाई और रामेश्वर के हाथ में देकर कहा, “यह जवाब उनको दे देना और कह देना कि मैं रात को यहाँ उनसे जरूर मिलूँगा, अगर मेरे आने में देर हो जाय तो मेरा इंतजार करें।”
रामेश्वरचंद्र : (चिट्ठी लेकर) बहुत खूब, मैं उन्हें तब तक रोके रहूँगा जब तक आप न आवेंगे। (मुसकुराकर) कहिए कुछ सौदा खरीदना है?
भूतनाथ : (हँसकर) हाँ तुम्हारा सर खरीदना है! अच्छा यह तो बताओ कि यह जमींदार कौन था जो अभी-अभी यहाँ गया है?
रामेश्वरचंद्र : इसमें तो कोई शक नहीं कि कोई ऐयार है मगर बेवकूफ है। ज्यादा हाल अभी कुछ मालूम नहीं हुआ क्योंकि आज वह पहिले ही मर्तबे यहाँ आया है।
भूतनाथ : मुझे उस पर शक होता है कि वह जरूर मेरे बागी शागिर्दों में से है।
रामेश्वरचंद्र : आपके शक को हम लोग यकीन के दर्जे तक मानते हैं। अगर ऐसा भी हो तो कोई ताज्जुब की बात नहीं। देखिए दूसरी मुलाकात में कुछ-न-कुछ पता लग ही जाएगा।
भूतनाथ : अच्छा तो मैं जाता हूँ, ज्यादा देर तक नहीं ठहर सकता।
रामेश्वरचंद्र : क्या कोई जरूरी काम है? कुछ भंग-बूटी की नहीं ठहरेगी?
भूतनाथ : नहीं, इस समय मुझे भंग का कुछ खयाल नहीं है क्योंकि एक कठिन काम का बाँधनू बाँध चुका हूँ जिसे आज जरूर पूरा करना है। हाँ भैया राजा से मिलने के समय जब रात को आऊँगा तो जरूर बूटी छानूँगा और स्नान करके तुम्हारा ही सर खाऊँगा भी।
रामेश्वरचंद्र : (हँसकर) बहुत अच्छा, मैं हाजिर हूँ, बंदोबस्त कर छोडूँगा।
भूतनाथ : (कुछ सोच कर) अच्छा एक काम करो, कुछ सामान दो तो मैं इसी जगह अपनी सूरत भी बदल लूँ, नहीं तो तरद्ढुद करना पड़ेगा।
रामेश्वरचंद्र : लीजिए हर तरह का सामान तो मौजूद ही है, चलिए फिर तहखाने में।
भूतनाथ : हाँ चलो!
दोनों आदमी उठ खड़े हुए और पास का एक दरवाजा खोलकर दूसरे कमरे में चले गये।
कुछ देर के बाद भूतनाथ एक साधू की सूरत बना हुआ हाथ में एक सुन्दर तानपूरा लिए उस कमरे के बाहर निकला। साथ में रामेश्वरचंद्र भी मौजूद था जिससे कुछ बातें करने के बाद भूतनाथ दूसरे दरवाजे की राह से मकान के बाहर निकला।
भूतनाथ इस दुकान के अन्दर अकेला आया था सही परन्तु उस बाजार में वह अकेला नहीं आया था बल्कि उसके साथ सूरत बदले हुए उसके दो शागिर्द भी थे जिन्हें वह दुकान के बाहर बल्कि दुकान से कुछ दूर हट के छोड़ गया था और कहा गया था कि इसी जगह घूमते-फिरते कुछ समय बिताओ और मेरे आने का इंतजार करो। मैं रामेश्वरचंद्र की दुकान में जाता हूँ, शायद कोई काम बन जाय, अस्तु जब भूतनाथ की दुकान में जाता हूँ, शायद कोई काम बन जाय, अस्तु जब भूतनाथ दुकान से निकल कर बाहर आया तो इशारे से अपने को प्रकट करके उन दोनों को साथ लिया और उस सड़क पर चल पड़ा जो खासबाग की तरफ चली गई थी।
इसी सड़क पर कुछ दूर आगे जाकर नागर का मकान था जो एक छोटे-से बगीचे के अन्दर बना हुआ था या यों कहिए कि उस मकान के चारों तरफ कुछ थोड़ी-सी जमीन छूटी हुई थी जिसमें उसने कुछ फूल-पत्ते और चन्द मेवों के दरख्त लगा रखे थे, और एक छोटी-सी चारदीवारी कायम करके सड़क की तरफ एक फाटक बनाया था जहाँ प्राय: उसके दो-एक नौकर रहा करते थे।
नागर के मकान के सामने एक महाजन का मकान था जिसके आगे ऊँचा और पक्का चबूतरा था जिस पर दस-पन्द्रह आदमी बखूबी बैठ सकते थे। इस समय जबकि भूतनाथ वहाँ पहुँचा बिलकुल सन्नाटा था। चलता-चलता भूतनाथ वहाँ अटक गया और चबूतरे के पास खड़ा होकर नागर के मकान की तरफ देखने लगा। उस फाटक के बाहर निकलते हुए एक आदमी को भूतनाथ ने देखा और अपने एक शागिर्द से कहा कि मैं इसी जगह ठहरता हूँ तुम इसके पीछे-पीछे जाकर पता लगाओ कि यह आदमी कौन है। मुझे शक होता है कि यह दारोगा साहब का आदमी है।
आज्ञानुसार भूतनाथ का शागिर्द उस आदमी के पीछे-पीछे चला गया और थोड़ी ही देरी में लौट आकर बोला, “आपका खयाल बहुत ठीक है, वह दारोगा साहब का खास कृपापात्र (नौकर) टीमल है, आगे तम्बोली की दुकान पर बैठ कर पान बनवा रहा है।”
भूतनाथ : (प्रसन्न होकर) तो बस इसमें कोई सन्देह नहीं कि दारोगा साहब वहाँ आ गये हैं। सच तो यह है कि इस समय ईश्वर ही ने मेरी सहायता की, जिस काम के लिए मैं जा रहा था वह ईश्वर चाहेगा तो उसी जगह निकल जाएगा। अगर दारोगा के साथ-साथ जैपाल भी वहाँ आया हो तब तो कहना की क्या है।
शागिर्द: जैपाल जरूर आया होगा। ऐसे-ऐसे मौके पर दारोगा उसे अपना सहायक बना कर जरूर साथ रखता है और उसकी ताकत पर भरोसा करता है।
भूतनाथ : तुम्हारा कहना बहुत ठीक है। अच्छा मैं इसी वेष में इस मकान के अन्दर जाने का उद्योग करता हूँ, जब जाऊँगा तुम दोनों को अपने साथ लेता जाऊँगा। वहाँ क्या करना होगा सो मैं अभी से इसी जगह तुम दोनों को समझाए देता हूँ।
भूतनाथ परले सिरे का गवैया था और इस फल को बहुत अच्छी तरह जानता था परन्तु सिवाय उसके अंतरंग मित्रों के और कोई विशेष इस बात को जानता न था और न हर एक के सामने वह कभी गाता ही था, यहाँ तक कि दारोगा और नागर को भी इस बात का पूरा ज्ञान न था।
भूतनाथ ने बड़ी विज्ञता के साथ बागेश्वरी की एक तान लगाई जिसकी आवाज नागर के कान तक पहुंची और एक दफे उसका कलेजा हिल गया। नागर वेश्या थी और गाने-बजाने का काम करती थी। यद्यपि औस्तादों के खयाल से वह इस फन में औस्ताद नहीं मानी जी जाती थी परन्तु वास्तव में उसकी समझ अच्छी थी और गाने-बजाने का उसे बहुत शौक था।
वह हमेशा इस फन के ओस्तादों को ढूँढ़ा करती थी। भूतनाथ भी इस सबब से कि नागर को संगीत का बहुत शौक है और वह बहुत अच्छा गाती है उसे जी-जान से प्यार करता था। दारोगा का नागर से मुहब्बत करना यद्यपि भूतनाथ को बुरा मालूम होता था मगर नागर भूतनाथ से यही प्रकट करती थी कि मैं मुहब्बत तुम ही से करती हूँ और दारोगा साहब को केवल रकम वसूल करने के लिए लगा रखा है, मगर वास्तव में क्या बात थी सो नागर ही जाने, रंडियों की माया बड़े-बड़े बुद्धिमानों को उल्लू बना डालती है।
नि:सन्देह उस समय दारोगा साहब और उनके साथ जैपाल भी नागर ही के यहाँ बैठे हुए थे और भूतनाथ की तान ने उन दोनों का दिल भी अपनी तरफ बैंच लिया था। कुछ देर तक तो वे तीनों सन्नाटे में आकर उस गीत को सुनते रहे इसके बाद नागर ने दारोगा से इजाजत लेकर अपना आदमी यह देखने के लिए भेजा कि गाने वाला कौन है।
जब उसे यह मालूम हुआ कि गाने वाला एक साधु है जो अपने दो शिष्यों के साथ सामने के चबूतरे पर बैठा गा रहा है तब उसने बड़े आग्रह के साथ साधुरूपी भूतनाथ को बुलाया, दो-चार नखरे-तिल्ले तथा हाँ-नहीं के बाद भूतनाथ नागर के पास गया जहाँ दारोगा और जैपाल मस्त बैठे हुए नागर से बातें कर रहे थे।
भूतनाथ अपने दोनों शागिर्दों को बंगले के बाहर छोड़ गया जहाँ नागर के कई नौकर-सिपाही भी थे और खुद जब नागर के सामने गया तब उसे मालूम हुआ कि इस समय ये तीनों आदमी शराब के नशे में मस्त हैं, जाकर हमारे आने के पहले यहाँ बोतल और प्याले भी मौजूद रहे होंगे
तीन आदमियों ने साधुरूपी भूतनाथ को प्रणाम किया। नागर ने बड़ी खातिर से उसे अपने पास बैठाया और उसके गाने की तारीफ करने लगी।
नागर : (साधु से) कहिए महात्मा जी, आपका मकान कहाँ है?
साधु : भला साधुओं का भी कहीं मकान होता है?
नागर : क्यों नहीं, आखिर कहीं गुरु का स्थान या मठ वगैरह होता ही है।
साधु : जो अपना मठ और स्थल रखते हैं वे साधु नहीं हैं। हम उन लोगों में नहीं हैं जिन्हें आप पीछे का खयाल रहता है। हम तो जहाँ रह गये वहीं हमारा स्थान है और जिसने हमें भोजन दे दिया वही हमारा गुरु और सर्वस्व है।
नागर : ठीक है, वास्तव में आप लोगों के लिए ऐसा ही होना चाहिए। अब यह बताइए कि इस समय आपका आना कहाँ से होता है?
साधु : हमें इस शहर में आए अभी तीन-चार घंटे से ज्यादा नहीं हुए हैं, नेपाल से आ रहे हैं, वहाँ बड़े-बड़े गवैयों का जमघट हुआ था, बस गाना सुनने के शौक में वहाँ गये थे।
नागर : आखिर इस समय डेरा कहाँ किया है?
साधु : मैं तो पहिले ही कह चुका कि जहाँ बैठ गये, वहीं डेरा है।
नागर : तो बेहतर होगा कि आप मेरे ही मकान में डेरा डालें, यहाँ अकसर गाना-बजाना भी हुआ करता है और आप भी बहुत अच्छा गाते हैं।
साधु : खैर जैसा होगा देखा जाएगा।
नागर : मुझे आपकी आवाज बहुत ही भली मालूम हुई इसीलिए आपको तकलीफ दी है, अगर कृपा कर कुछ गाइए तो…
साधु : क्या हर्ज है, मैं गाता हूँ सुनिए, मालूम होता है कि आपको भी गाने का शौक है।
इतना कहकर साधु महाशय ने तानपूरा छेड़ा और मालकौस का एक ध्रुपद गाने के बाद उसे जमीन पर रख दिया। इनका गाना सुनकर दारोगा, नागर और जैपाल सिंह तीनों ने ही बहुत प्रसन्न हुए और उनकी यही इच्छा हुई कि बाबाजी और कुछ गावें मगर जब उन्होंने बाबाजी से गाने के लिए कहा तब बाबाजी ने यह जवाब दिया कि ‘अब तो गाँजे का एक दम लगा लेंगे तब गावेंगे।’
नागर : मैं आपके लिए भी गाँजे का बंदोबस्त करती हूँ।
साधु : बंदोबस्त करने की कोई जरूरत नहीं, मेरे पास सब सामान अर्थात् गाँजा, सुर्ती, चिलम वगैरह तैयार है, आप केवल अग्नि मँगा दीजिए और कमरे के सब दरवाजे बंद करके मेरा गाना सुनिये, दरवाजा बंद किए बिना आवाज कायम नहीं होती और गूंजती भी नहीं।
नागर : जैसा आप कहते हैं वैसा ही होगा।
नागर ने एक बर्तन के कंडे की आग मँगवा दी और तब अपने हाथ से कमरे में सब दरवाजे बंद कर दिये। साधु ने अपनी कमर में से अनमोल अद्भुत गाँजा जिसमें बेहोशी पैदा करने वाली एक प्रकार की दवा मिली हुई थी निकाला और चिलम तैयार कर धुएँ का गुब्बार बाँधने लगे, यहाँ तक कि धुएँ से तमाम कमरा भर गया। यद्यपि यह बात दारोगा साहब को कुछ बुरी मालूम हुई मगर नागर की खातिर से चुप रहे। साधु ने तानपूरा उठा लिया और गाना शुरू किया।
अबकी दफे गाना सुनकर सब-के-सब मदहोश हो गये। उस गाँजे के धुएँ ने भी सबका दिमाग बिगाड़ दिया और धीरे-धीरे नागर, दारोगा और जैपाल तीनों आदमी बेहोश होकर जमीन पर लंबे हो गये।
उस समय भूतनाथ कमरे के बाहर आया और अपने दोनों शागिर्दों को ढूँढ़ने लगा। थोड़ी दूर जाकर भूतनाथ ने देखा कि उसके दोनों शागिर्द वहाँ खड़े हैं और इधर-उधर कई लौंडी, गुलाम तथा सिपाही बेहोश पड़े हैं, भूतनाथ को देखते ही उनके एक शागिर्द ने कहा, “हम लोग अपना काम कर चुके हैं, अब यहाँ कोई आदमी ऐसा नहीं है जो होश में हो।”
भूतनाथ : शाबाश, खूब काम किया! कमरे के अन्दर मैं भी अपना काम कर चुका हूँ, अब तुम दोनों आदमी मेरे पीछे-पीछे चले आओ।
दोनों शागिर्दों को साथ लिए हुए भूतनाथ पुन: कमरे के अन्दर गया। जैपाल के बदन पर से उसे तमाम कपड़े उतार कर उसने जैपाल को अपने शागिर्दों के हवाले किया और कहा, “बस इसे तुम दोनों आदमी उठा कर लामा घाटी में ले जाओ और कैद कर रखो तथा यहाँ जितनी हल्की और कीमती चीजें दिखाई देती हैं सभी उठा कर लेते जाओ।”
भूतनाथ की आज्ञानुसार उसके दोनों शागिर्द वहाँ की कीमती चीजें और जैपाल को लेकर चले गये और तब भूतनाथ कमरे का दरवाजा बंद करके दीवार के साथ लगे हुए एक आईने के सामने बैठ गया। बहुत चालाकी से उसने अपनी सूरत जैपाल की सूरत के समान बनाई और उसके तमाम कपड़े पहिर कर तथा कमरे का एक दरवाजा खोलकर उसी जगह दारोगा और नागर के पास लेट गया।
बची हुई रात और पहर-भर दिन चढ़े तक वे लोग बेहोश पड़े रहे।

भूतनाथ की आँखों में यद्यपि नींद न थी परन्तु वह मौके का इंतजार करता हुआ चुपचाप उसी जगह पर पड़ा रहा। इस बीच में भूतनाथ ने देखा कि नागर की लौंडियाँ और नौकर कई दफे कमरे के दरवाजे पर उन लोगों को देखने के लिए आए परन्तु नागर और बाबाजी वगैरह को बेहोश देख चुपचाप लौट गए, उन लोगों को जगाने या होशियार करने की किसी ने हिम्मत नहीं की।
सबसे पहिले दारोगा की बेहोशी दूर हुई और वह उठकर बड़ी घबराहट के साथ चारों तरफ देखने लगा तथा पहर-भर दिन चढ़ा हुआ जान कर बहुत ही परेशान हुआ क्योंकि वह नागर के घर में बहुत चोरी के साथ छिपकर आया करता था। अब दिन के समय यहाँ से जाना उसे बड़ा कठिन मालूम हुआ तथा इस बात की भी चिंता नहीं हुई कि न-मालूम हमारे घर पर हमारे न रहने के सबब से लोगों को क्या गुमान हुआ होगा और राजा साहब ने भी मुझे याद किया होगा या नहीं, इत्यादि।
होश-हवास दुरुस्त करके दारोगा ने नागर और जैपाल को हिला-हिलाकर जगाया और जब वे दोनों भी उठकर बैठे तो इस तरह बातचीत होने लगी-
नागर : (आश्चर्य से चारों तरफ देखकर) यह हम दोनों को क्या हो गया था? (दारोगा से) आपने हमको जगाया क्यों नहीं?
दारोगा : मैं खुद जागता तब तो तुम्हें भी जगाता।
नागर : आखिर मामला क्या है?
जैपाल सिंह : क्या उस साधु ने हम लोगों को धोखा दिया?
दारोगा : बेशक् यही बात है।
नागर : (चारों तरफ देखकर) जरूर वह कोई ऐयार था! देखिए मेरी बहुत-सी कीमती चीजें भी यहाँ से गायब हैं! सोने के गुलदस्ते, इत्रदान, पानदान, रिकाबियाँ इत्यादि सभी चीजें तो गायब हैं! उस खूँटी पर मेरी मोती की माला टँगी हुई थी वह भी दिखाई नहीं पड़ती! बेशक् वही इन सब चीजों को भी उठा ले गया। कमबख्त लौंडी, गुलाम और सिपाहियों ने भी हम लोगों की कुछ खबर नहीं ली!
दारोगा : मालूम होता है कि उस साधु ने उन लोगों पर भी कोई करामात की होगी। जरूर वह कोई ऐयार था मगर हम लोगों को यहाँ छोड़ क्यों गया, यही आश्चर्य है!
जैपाल सिंह : अजी वह ऐयार नहीं था बल्कि चोर था, तभी तो यहाँ की कीमती चीजें सब उठा ले गया। ऐयार लोग चोरी करने के लिए किसी के घर में नहीं घुसते, अगर वह ऐयार होता तो जरूर हम लोगों में से किसी-न-किसी को ले गया होता।
दारोगा : तुम्हारा कहना ठीक है, वह जरूर चोर था, ऐयार नहीं।
नागर : आखिर लौंडी, गुलाम और पहरे के सिपाही लोग क्या झख मार रहे थे? उन्हें बुला कर पूँछ तो कुछ पता लगे।
इतना कहकर नागर वहाँ से उठा और बाहर जाकर उसने दरियात किया तो मालूम हुआ कि उस साधु के साथ दो शागिर्द भी थे जिन्हें वह बंगले के बाहर छोड़ गया था। उन्हीं दोनों शागिर्दों ने अपनी कारीगरी से बाहर की लौंडी, गुलाम और सिपाहियों को बेहोश कर दिया था इसलिए किसी को भी इस बात की खबर नहीं है कि वह साधु कमरे के अन्दर से क्या ले गया और कब चला गया।
अपने नौकरों की फजीहत करने के बाद नागर पुन: कमरे के अन्दर आए और दारोगा साहब से बाहर का सब हाल सुना कर बोली, “आपकी हुकूमत इस जमानिया में बहुत ही अच्छी है। ऐसे-ऐसे चोर और बदमाश यहाँ बसते हैं और जब आप ही लोगों के साथ ऐसा बर्ताव करते हैं तो बेचारे रिआया लोगों की रक्षा तो बस विधाता ही के अधीन है। मेरी जितनी चीजें यहाँ से गईं सब आप ही को देनी पड़ेंगी!”
दारोगा : (शर्मिन्दगी के साथ) बेशक् मैं दूँगा और तुम्हें दिखा दूँगा कि ऐसे बदमाशों के साथ मैं ऐसा सलूम करता हूँ। (जैपाल की तरफ देख के) अब यहाँ से घर जाना मेरे लिए बड़ा ही मुश्किल है।
जितना मैं छिपकर रात के समय आता हूँ उतना ही मेरा परदा खुला चाहता है। अब दिन के समय मैं क्यों कर यहाँ से बाहर निकलूँगा? न-मालूम मेरे घर पर कितने आदमी आकर लौट गये होंगे और लोगों के दिल में क्या-क्या बातें पैदा हो रही होंगी अथवा लोग मेरी खोज में कैसा हैरान हो रहे होंगे। राजा साहब को अगर मेरे गायब हो जाने की खबर लगी होगी तो….
जैपाल सिंह : बेशक् बड़ी मुश्किल का सामना है। मेरी तो यह राय है कि आज दिन-भर आप इसी घर में रह जाइए। मैं जाकर सब तरह की आहट ले आता हूँ और आपके आदमियों को भी शान्ति दे आता हूँ। इसके अतिरिक्त यदि और कोई जरूरी काम हो तो कहिए मैं उसे भी ठीक कर आऊँ।
दारोगा : तुम्हारा कहना ठीक है, ऐसा ही करने से काम चलेगा।
इतना कह कर दारोगा ने जैपालको एकांत में ले जाकर कुछ समझाया और अपनी कमर से तीन-चार तालियों का एक गुच्छा निकाल कर और जैपालके हाथ में देकर कहा, “हमारे घर में तुम्हें कोई रोकने वाला है नहीं क्योंकि हमारे सभी आदमी जानते हैं कि दारोगा साहब और जैपाल में कोई भेद नहीं है, अस्तु तुम घर में जाकर एक दफे कैदियों की खबर लेना और उनके लिए भोजन और पानी का बंदोबस्त अपने हाथ से कर देना।
इसके बाद तुम राजा साहब से मेरे कहे मुताबिक कार्रवाई करना और रामेश्वरचंद्र की भी खबर लेना जिसने ऐयारी की दुकान खोल रखी है। असल में वह कौन है इस बात का पता लगाना बहुत जरूरी है। मैं अपने यहाँ के दोनों ऐयार बिहारीसिंह और हरनामसिंह को भी इस काम पर मुकर्रर कर आया था, शायद उन्होंने कुछ पता लगाया हो। शायद को जब तुम यहाँ आओगे और तुम्हारी जुबानी सब हालचाल मुझे मालूम हो जाएगा तब मैं यहाँ से घर चलूँगा।”
जैपाल सिंह, जो असल में भूतनाथ था, दारोगा से विदा होकर नागर के मकान से बाहर निकला और पहिले रामेश्वरचंद्र की दुकान की तरफ चला, क्योंकि वह रामेश्वरचंद्र से वादा कर आया था कि रात को जब भैया राजा यहाँ आयें तो उन्हें रोकना। मैं उनसे मिलने के लिए जरूर आऊँगा, अस्तु वह इस बात से बेचैन था कि वादे के मुताबिक भैया राजा से मिलने के लिए रामेश्वरचंद्र की दुकान में न जा सका।

