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bhootnath by devkinandan khatri

भूतनाथ, क्या तू भूलकर नेक रास्ते पर चला आया था? क्या तू इस साफ और सुथरी राह को छोड़कर पुन: उस कंटीली पगडंडी पर चला चाहता है? अगर तू वास्तव में ऐसा करता है तो नि:सन्देह बदकिस्मत है। अबकी दफे तू चूकेगा तो कहीं का भी न रहेगा, दुनिया में किसी को मुँह न दिखला सकेगा और जीते-जी कब्र के अन्दर धकेल दिया जाएगा। खैर देखना चाहिए तेरी किस्मत में क्या है और तू क्या करता है!

भूतनाथ नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

भूतनाथ का वहाँ से चला जाना भैया राजा, मेघराज और उसके साथी को बहुत गढ़ाया और ये तीनों आदमी बड़े तरद्दुद में पड़ गए, तथापि मेघराज ने हिम्मत नहीं हारी और उसने अपने साथी तथा भैया राजा को भी अपने उमंग-भरी बातों से उत्साहित किया पर वे लोग अब जो कुछ करेंगे पीछे देखा जाएगा, हम इस समय भूतनाथ के साथ चलते और देखते हैं कि वह क्या करता है!

दिन लगभग तीन पहर के ढल चुका था और दारोगा साहब नागर के यहाँ बैठे हुए जैपाल के आने का इंतजार कर रहे थे। ज्यों-ज्यों जैपाल के आने में देर होती थी त्यों-त्यों उनका तरद्दुद बढ़ता जाता था।

उन्होंने नागर के आदमियों को कई दफे बाहर भेजा कि आगे बढ़कर देखें कि जैपाल आता है या नहीं मगर किसी ने भी लौटकर कोई दिल खुश करने वाला जवाब न दिया, हाँ, आखिरी मरतबे जो आदमी भेजा गया उसने लौट कर एक चिट्ठी दारोगा साहब के हाथ में जरूर दी जिसे दारोगा ने उछलते हुए कलेजे के साथ लिया और पढ़ने लगा-

“आप यहाँ चुपचाप बैठे हुए किसका इंतजार कर रहे हैं? रात को आपका दुश्मन आपके दोस्त जैपाल को आपके पास ही से गिरफ्तार करके ले गया और आपको कुछ खबर तक न हुई! सुबह को जिस जैपाल को आपने कई काम सुपुर्द करके बाहर भेजा था वह वास्तव में आपका जैपाल नहीं बल्कि दुश्मन था। बस इसी से समझ जाइए कि आपने कितना बड़ा धोखा खाया और अब आपका काम किस तरह चौपट हुआ चाहता है!

-आपका

(अगर आप मानें तो) दोस्त, गदाधरसिंह।”

इस चिट्ठी को पढ़ते ही दारोगा साहब के तो होश उड़ गए। घबराहट के मारे उनके सर में चक्कर आने लगा। उनकी ऐसी अवस्था देखकर नागर ने, जो उनके पास ही बैठी हुई थी पूछा, “कहिए क्या मामला है, यह चिट्ठी किसकी है?”

इसके जवाब में दारोगा ने हाथ बढ़ाकर वह चिट्ठी नागर को दे दी और बड़ी बेचैनी से उसका मुँह देखने लगा।

नागर : (चिट्ठी पढ़कर) बात तो ठीक मालूम होती है!

दारोगा : अब मैं सुबह के मामले पर ध्यान देता हूँ तो मुझे भी यही निश्चय होता है कि गदाधरसिंह का लिखना ठीक है। (उस आदमी की तरफ देख कर जो चिट्ठी लाया था) जिसने यह चिट्ठी तुम्हें दी वह है या गया?

आदमी : मैं समझता हूँ कि वह अभी तक बाहर खड़ा होगा।

दारोगा : तो उसे बहुत जल्द मेरे पास बुलाओ।

“जो आज्ञा!” कहकर आदमी बाहर चला गया और थोड़ी ही देर के बाद गदाधरसिंह को साथ लिए हुए पुन: उस कमरे में दाखिल हुआ।

दारोगा साहब ने उठकर और आगे बढ़कर बड़ी खातिर के साथ गदाधरसिंह को लिया और अपने पास बैठाने के बाद नौकरों को बिदा करके इस तरह बातचीत करने लगे

गदाधरसिंह : कहिए मिजाज तो अच्छा है?

दारोगा : मिजाज क्या खाक अच्छा होगा! आपकी बदौलत तरह-तरह की तकलीफें उठा रहा हूँ।

गदाधरसिंह : (आश्चर्य की सूरत बनाकर) मेरी बदौलत! मैंने आपको क्या नुकसान पहुँचाया है!

दारोगा : हाँ-हाँ, बेशक् आपकी बदौलत! जितना मैं आपको मानता हूँ उसका चौथाई भी अगर आप मेरी खातिर करते तो मेरे बराबर दुनिया में कोई भी सुखी नहीं दिखाई देता और आपको भी किसी बात की कमी न होती। जब कभी आप कहते हैं, मैं आपकी मदद करता हूँ और भविष्य में भी मदद करने के लिए तैयार रहता हूँ, मगर आपको मेरा कुछ खयाल नहीं होता।

गदाधरसिंह : यह आप कैसे कहते हैं? अगर आपका मुझे खयाल न होता तो इस समय मैं यहाँ आकर आपको सचेत क्यों करता! और अगर मैं सचेत न करता तो क्या आप बेतरह मुसीबत में गिरफ्तार न हो जाते!

दारोगा : इसको मैं मानता हूँ और आपकी इस कृपा का धन्यवाद देता हूँ इसी से तो इतना कहने का मुझे हौंसला भी हुआ, नहीं तो यदि मैं आपको बिलकुल बेगाना समझता तो उलाहना ही क्यों देता? मगर फिर मुझे कहने के लिए बहुत जगह है।

अभी उस दिन की बात है कि भैया राजा के साथ आपने मुझ पर और मेरे आदमियों पर हमला किया था और मेरी दुर्दशा में शरीक हुए थे।

गदाधरसिंह : यह आपका भ्रम है, आपकी शिकायत तब ठीक होती जब आप अपनी असली सूरत में होते, मैंने दारोगा साहब समझ के पीछा नहीं किया था, बल्कि भैया राजा का दुश्मन समझकर पीछा किया था। फिर भी जब उस घाटी में आपकी सूरत दिखाई पड़ी तब मैंने आपकी जान बचाने की चेष्टा की नहीं तो भैया राजा उस समय आपको जान से ही मार डालने के लिए तैयार थे, मैंने बड़ी कोशिश से आपको बचाया।

दारोगा : अगर आपका कहना ठीक है तो अब भी मैं अपने को धन्य मानूँगा।

गदाधरसिंह : बेशक् यही बात है। हाँ, इस बात का मैं दोषी जरूर हूँ कि भैयाराज के विरुद्ध आपकी मदद न कर सका और न कर सकूँगा क्योंकि उन्हें मित्रभाव से देखने के लिए प्रतिज्ञा कर चुका हूँ।

दारोगा : (कुछ चिंता करके) यह बात तो ठीक नहीं है, मैं आपसे बहुत बड़ी उम्मीद रखता हूँ और आपके लिए सब कुछ करने को तैयार हूँ!

गदाधरसिंह : माफ कीजिएगा, मेरी तरफ से आपका दिल भी स्वच्छ नहीं है, यदि स्वच्छ होता तो आप दयाराम वाला भेद मुझसे कदापि न छिपाते।

दारोगा : छि: छि:! आपके दिल से अभी तक यह भ्रम दूर नहीं होता! न-मालूम किस कमबख्त ने आपसे कह दिया कि दयाराम अभी तक जीते हैं और मेरी कैद में हैं! इस काम के कर्ता-धर्ता तुम खद होकर फिर ऐसी बात कहते हो!

गदाधरसिंह : स्वयं ध्यानसिंह ने यह बात मुझसे कही है और यह भी समझा दिया है कि दयाराम के विषय में मैं बिकल ही निर्दोष हैं।

दारोगा : वह झक मारता है जो ऐसा कहता है। आपके और हमारे बीच में लड़ाई लगाकर फायदा उठाना चाहता है!

भूतनाथ : शायद ऐसा ही हो, खैर देखा जाएगा। अच्छा अब मैं अपना काम कर चुका, दुश्मनों की कार्रवाई से आपको सचेत कर दिया, अब जाता हूँ।

दारोगा : वाह वाह, अभी तो मैंने इस बारे में आपसे कुछ पूछा ही नहीं।

भूतनाथ : (मुसकुराते हुए) अच्छा पूछिए, पूछिए क्या पूछते हैं?

दारोगा : पहिले तो यह बताइए कि मेरा वह दुश्मन कौन है जिसने मेरे साथ ऐसी धूर्तता की, और जैपाल सिंह का क्या हाल है, दुश्मनों के हाथ से किस तरह उसकी जान बचेगी, और इस मामले में आप मेरी क्या मदद कर सकते हैं?

भूतनाथ : मैं आपके उस दुश्मन को अभी तक पहिचान न सका क्योंकि वह सदैव ही अपनी सूरत बदले रहता है। हाँ भैया राजा और इन्द्रदेव वगैरह उसे जरूर जानते होंगे मगर उसका असल भेद वे लोग मुझसे कुछ भी नहीं कहते। मेघराज के नाम से वे लोग उसे संबोधन करते हैं बस इतना ही मुझे मालूम है। बड़ी मुश्किल से मैंने उसके स्थान का पता लगाया है मगर उस तक पहुँचना अथवा उसको धोखा देना बड़ा ही कठिन है।

दारोगा : तो इस समय जैपाल भी उसी के कब्जे में होंगे?

भूतनाथ : जरूर! जैपाल सिंह को ले जाने के समय वह अपने कई ऐयारों को लेकर खुद यहाँ आया हुआ था बल्कि अब भी वह इसी जगह इर्द-गिर्द घूम रहा है और आपके मकान में घुसा तथा आपको फँसाना चाहता है।

दारोगा : (कुछ सोचकर) तो आपको इस मामले में जरूर मेरी मदद करनी पड़ेगी, मैं आपका बहुत कुछ भरोसा रखता हूँ।

भूतनाथ : बेशक् मैं आपकी मदद करूँगा, मगर…

दारोगा : मगर की कसर अभी तक लगी हुई है!

भूतनाथ : खैर, मैं आपसे कुछ देर के लिए एकांत में बातें किया चाहता हूँ, इसके बाद (नागर की तरफ देखकर) इनसे भी दो-चार बातें एकांत में करूँगा।

दारोगा : (मुसकुराता हुआ) इनसे तो आप सदैव ही एकांत में बातें किया करते हैं और करेंगे, इन पर आपका हक है, मगर मैं अपने लिए अभी एकांत कराए देता हूँ।

इतना कहकर दारोगा ने हँसते हुए नागर की तरफ देखा। नागर उठ खड़ी हुई और यह कहती हुई कमरे के बाहर चली गई कि ‘ऐसी मुसीबत में भी दिल्लगी से बाज नहीं आते’!

करीब आधे घंटे तक भूतनाथ और दारोगा ने इस मामले की बातचीत होती रही। दोनों ने तरह-तरह के वादे किये, दोनों ने तरह-तरह की कसमें खाईं, और अंत में दोनों ने एक-दूसरे को गले लगाकर अपनी-अपनी मुहब्बत दिखलाई, इसके बाद भूतनाथ दारोगा से बिदा होकर कमरे के बाहर निकला जहाँ नागर चहलकदमी करती हुई उसके आने का इंतजार कर रही थी। नागर ने भूतनाथ की कलाई पकड़ ली और अठखेलियों के साथ चलती हुई उसे एक दूसरे कमरे में ले गई।

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